Monday, August 27, 2007

बम

उसे भूख लग आयी थी..और जब भूख लगी होती है, तो ज़िन्दा होता है सिर्फ पेट। रोज़ रोज़ यह देश जाने कितने ज़िन्दा पेटों वाले मुर्दे ढोता है और आहिस्ता-आहिस्ता मर रहा है खुद भी। भूखा पेट, इंकलाब नहीं होता, बहुत से भूखे पेट सैलाब होते हैं लेकिन।...।ज़िन्दा पेट गुमराह हो जाता है, फट पडता है। इसी लिये तो कभी बम्बई में धमाका होता है और कोई बाजार राख हो जाता है, या कभी कलकत्ता की कोई सडक, या मद्रास की इमारत.....।

धत्! किसमत ही साली......उसने सडक पर पडे पत्थर को भरपूर लात मारी। हवा उसे डरा रही थी और पेट भीतर ही भीतर उमेठा जा रहा था। वह खामोश था, सोच शून्य।
भूख जब उसकी आँखों में उतरने लगी, पानी से निकाली गयी मछली हो गया वह। एक दम से दौडा और सामने की दूकान से समोसे उठा कर जितनी तेज हो सकता था भागा। तेज..और तेज..और तेज। चोर! चोर!! चिल्लाते दौड पडे लोग। जब भीड के हाँथ लगा तो अधमरा हो गया।

तीन दिन से खाली था पेट। स्टेशन पर, बस अड्डे, घर-घर जा कर.....लोग तो भीख भी नहीं देते आज कल। लंगडा, लूल्हा, अंधा, कोढी हर मुद्रा आजमा आया था। धत्! किसमत ही साली......उसने सडक पर पडे पत्थर को भरपूर लात मारी। हवा उसे डरा रही थी और पेट भीतर ही भीतर उमेठा जा रहा था। वह खामोश था, सोच शून्य। निगाहें हर ओर कि कहीं कुछ मिल जाये, जूठा पत्तल ही सही। धूप तेज थी, सिर चकराने लगा। वह पेड के नीचे आ खडा हुआ। फिर दूर दीख पडते हैंडपंप से जैसे उसमे रक्त फिर चल पडा हो। वह तेजी से हेंड पंप की ओर लपका। हैंडल दबाई, उठाई...ओं..आँ...खटर..पटर...और गट गट गट....जितना पी सकता था, पी गया। थोडा सुकून मिला उसे।

”कल भी कुछ न मिला तो मर जायेगा वह” उसने सोचा। उसे कुछ न कुछ तो करना ही था। फिर अंधा, लंगडा, लूल्हा बन कर स्टेशन हो आये या फिर भीड भाड वाली सडक....उहूं, उसे बहुत जोर की भूख लगी थी और क्या पता कल भी किसमत खराब हुई तो? “चोरी???” एक दम से विचार कौंधा, फिर हाल ही में हुई पिटाई का दर्द महसूस होने लगा उसे, जिसे भूख नें जैसे भुला ही दिया था। नहीं नहीं चोरी नहीं...घबरा कर अपना विचार बदल देना चाहा उसने। लेकिन भूख!!!!....।

सामने ही कोई सरकारी कार्यालय था। शाम लगभग ढल चुकी थी इस लिये सुनसान भी। एक बूढा सा चौकीदार गेट के पास स्टूल लगाये तम्बाकू मल रहा था। उसने बहुत ही नीरस निगाह इस इमारत पर डाली। निगाहें इससे पूर्व कि सिमटतीं, इमारत पर ही ठहर गयीं, एक चमक थी अब उनमें। थोडी देर में रात हो जायेगी। चौकीदार कौन सा जाग कर रात भर ड्युटी देगा। उसने देखा घिरी हुई दीवार ज्यादा उँची न थी।.....।रात हुई। घुप्प संन्नाटे में झिंगुर चीख रहे थे। वह दीवार फाँद कर भीतर प्रविष्ठ हुआ। बहुत सधे पाँव। खिडकी से हो कर बडी ही सावधानी से लडकते हुए कुछ लाल-पीले तार नोच लिये, बल्ब निकाल लिया, होल्डर खोल लिया, और भी...काली रंग की उस पोलीथीन में जो कुछ डाल सका। रामदरस दस रुपये तो देगा ही इतने के, उसने सोचा। वह उतर ही रहा था कि.....”धप्प!!!!!”। पॉलीथीन हाँथ से छूटा और फिर जोर की आवाज़...कौन?? कौन है वहाँ?? चौकीदार के जूतों की आवाज नें सन्नाटा चीर दिया था। जब तक चौकीदार आता, दीवार फाँद चुका था वह। दीवार के उस ओर बहुत हार कर बैठा वह हाँफ रहा था...“किसमत ही साली....”।

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ऑफिस में हो हल्ला मचा हुआ था।

“अजी साहब वो तो मैंने देख लिया कहिये, वर्ना आज हम सब...” शर्मा जी गर्व से बता रहे थे।

” क्या हो गया है हमारे देश को शर्मा जी, एवरीवेयर आतंकवाद है। आपने पुलिस को फोन तो कर दिया न?” घबराये अंदाज़ में मिसेज मिश्रा बोलीं।

”मैनें बम को देखते ही कर दिया था जी, वो जी अब पुलिस तो आती ही होगी जी”। सुब्रमण्यम नें नाक का चश्मा ठीक करते हुए कहा।

“हाऊ स्वीट सुब्रमण्यम” मिस लिलि नें भरपूर मुस्कान दी और सुब्रमण्यम जी, घोडा हिनहिनाये सी हँसी हँस कर रह गये।

”क्या कहें बनवारी लगता है पतन होता जा रहा है दुनियाँ का। जहाँ देखो वही लूटमार, छीना झपटी, बम धमाके। अमां दहशत का आलम ये है कि हमने सुना था कि एक केला और दो सेव थैले में रख कर, बम और पिस्तौल बता कर हवाई जहाज का अपहरण कर लिया था किसी नें”। मिर्जा साहब नें गहरी स्वांस छोडते हुए कहा।
काले रंग की प्लास्टिक एक कोनें में देखी गयी थी, जिसमें से झाँकते कई तरह के तार उसे संदिग्घ बना रहे थे। ऑफिस में बम होनें की दहशत थी। कर्मचारी भीड बनाये सडक पर खडे थे। सारे बाज़ार में बम होने का तहलका, गर्मागर्म खबरों और अफवाहों से बाज़ार गर्म।

“आपने सुना मिर्जा साहब, क्या ज़माना आ गया है” पान लगाते हुए बनवारी बोला।

”एक हमारा ज़माना था बनवारी, हमारे बाप-दादाओं का ज़माना था, अमन और सुकून की दुनियाँ थी और आज....”

“आदमी की तो कीमत ही नहीं रही। इतना खौफ फैला है कि जान तो हवा में लटकी होती है। सुबह घर से निकले तो क्या पता शाम तक घर लौट पायें भी या नहीं।“

“अजब अंधेरगर्दी है मियां। गलती हमारी गवरन्मेंट की है कि रोजगार तो देते नहीं ये लडकों को। अब लडके बंदूख न चलायें, बम न चलायें तो क्या करें?”

”वैसे मिर्जा साहब कितने बच्चे हैं आपके” बनवारी नें चुहुल से पूछा।

“खुदा के फज़ल से नौं लडकें हैं तीन लडकियाँ।“

“मिर्जा साहब, छ: घरों की संतान अकेले अपने घर में पालोगे तो क्या करेगी गवर्नमेंट”

”अमां बनवारी तुम मज़ाक न किया करो हमसे, अच्छा लाओ, एक पान और बनाओ। वैसे पता कैसे लगा कि बम रखा है” मिर्जा साहब बिगड गये।

”वो किरानी हैं शर्मा जी। इमानदार इतने कि भले कोई काम न करें आधा घंटे पहले ऑफिस आ जाते हैं। उन्होंने ही देखा।“

”क्या कहें बनवारी लगता है पतन होता जा रहा है दुनियाँ का। जहाँ देखो वही लूटमार, छीना झपटी, बम धमाके। अमां दहशत का आलम ये है कि हमने सुना था कि एक केला और दो सेव थैले में रख कर, बम और पिस्तौल बता कर हवाई जहाज का अपहरण कर लिया था किसी नें”। मिर्जा साहब नें गहरी स्वांस छोडते हुए कहा।

सायरन की आती हुई आवाज़ ने माहौल को और गंभीर बना दिया।

”लीजिये पुलिस आ गयी लगता है” बनवारी नें पान मिर्जा साहब को थमाते हुए कहा।

पुलिस की दसियों गाडियाँ आ कर रुकीं। धडाधड पुलिस वाले उतरने लगे। बम को निष्कृय करने के लिये एक पूरा दस्ता आया हुआ था। चारों ओर मोर्चा बँधा। अंतरिक्ष यात्रियों जैसी पोशाकें पहने दो लोग धीरे धीरे बढने लगे पॉलीथीन में लिपटे उस बम की ओर।...। माहौल जिज्ञासु, शांत। चारों ओर से आँखें पुलिस कार्यवाही की ओर।...। निकलता क्या? तार के लाल पीले टुकडे, होल्डर और वही सब कुछ जो पिछली रात...।

“शर्मा जी पूरे अंधे हैं आप, बेकार में....” मिसेज मिश्रा नें नाराजगी जाहिर की।

”और आप सुब्रमण्यम जी, कौवा कान ले कर जा रहा है सुना तो कौवे के पीछे भागने लगे। देख तो लेते आपके कान सलामत हैं या नहीं” मिस लिली बोलीं।

“बनवारी ये नौबत है देश की” एक दीर्ध नि:स्वांस भरी मिर्जा जी नें और जाने लगे।..।


*** राजीव रंजन प्रसाद
25.08.1993

Thursday, August 23, 2007

भला सिपाहिया डोगरिया

यह मेरी कहानी विधा की कोशिश में पहली कहानी है। जो कुछ भी हमारे आस-पास घटता है वो कहीं दिमाग़ के किसी कोने में संचित होता रहता है। कुछ लोग, कुछ घटनाएँ हमारे दिमाग़ में बैठ जाती है और वही कहानी के रूप ले लेती हैं। कुछ नया ना लगे शायद आपको मेरी इन कहानियों में। इस में कई परिवेश आपको शायद जाने पहचाने लगे क्यूँकि मेरी कहानियाँ आस-पास के माहौल से हैं जो रोज़ाना हम देखते हैं, सुनते हैं, वही चरित्र मेरे दिलो-दिमाग़ में थे और वही एक कहानी के रूप में आपके सामने आएँगे मुझे उम्मीद हैं की आप मेरा हौंसला बढाऐंगे।

मेरी यह पहली कहानी आर्मी माहॉल से जुड़ी है। पापा आर्मी में थे, बहुत वक़्त वहाँ के माहौल में जम्मू में बीता। उस वक़्त वहाँ सुने इस डोगरी गाने की लाइन आज भी मेरे दिमाग़ में घूमती है, उसी को शीर्षक बना के मैने अपनी पहली कहानी लिखी है। .. शुक्रिया


6 दिसम्बर की शाम रेडियो पर ख़बर सुनाई जा रही थी कि कट्टर पंथियों ने बाबरी मस्जिद तोड़ दी सारे देश में दंगा फैल गया है, हज़ारों लोग मारे गये हैं, राष्ट्रीय शोक की घोषणा कर दी गयी है। सब तरफ़ दुख ओर दर्द की लहर है, सारा माहौल सहमा हुआ सुनसान हो जाता है और एक चुप सी छा जाती है।

राजेश भी उन्ही सिपाहियों में देश की रक्षा के लिए वहाँ बार्डर पर तैनात देश का सिपाही था। वो जिस बार्डर पर था वहाँ बर्फ़ और ठंड से साँस लेना तक मुश्किल था। उसने जब से यह बाबरी अयोध्या की खबर सुन थी उसका दिल कांप रहा था उसका घर संसार भी उसी जगह था जहाँ से यह सब ख़बरे आ रही थी।




दूर बार्डर पर लड़ते सैनिक सिपाहियों के शिविर में भी जहाँ हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब कंधे से कंधा मिला कर देश की रक्षा के लिए मोर्चा संभाले खड़े हैं, यहाँ कोई बाबरी, आयौध्या का झगड़ा नही सिर्फ़ अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार हैं। बस..सोच में डूबे हैं वो सब भी की हम क्यूँ और किसके लिए लड़ रहे हैं? आख़िर यहाँ हमने अपने जान को दाँव पर लगा रखा है, वहाँ हमारे परिवार वाले एक लड़ाई लड़ रहे हैं। यहाँ सर्दी गर्मी, बरसात, धूप की प्रवाह किए बिना यह युद्ध सबको दिख तो रहा है.. पर देश के अंदर यह कौन सा अघोषित युद्ध लड़ा जा रहा है जिसका कोई नियम नही है।

राजेश भी उन्ही सिपाहियों में देश की रक्षा के लिए वहाँ बार्डर पर तैनात देश का सिपाही था। वो जिस बार्डर पर था वहाँ बर्फ़ और ठंड से साँस लेना तक मुश्किल था। उसने जब से यह बाबरी अयोध्या की खबर सुन थी उसका दिल कांप रहा था उसका घर संसार भी उसी जगह था जहाँ से यह सब ख़बरे आ रही थी। वो बहुत देर से अपनी पत्नी और बच्चे से बात करना चाहता था पर फोन लग नही रहा था और कई दिन से कोई ख़त भी नही आया था। दूर बर्फ़ीली पहाड़ी पर बनी यह पोस्ट बहुत सुनसान थी, सिर्फ़ कभी -कभी अचानक होने वाली गोलो की आवाज़ बता देती थी कि यहाँ भी कोई जीवन है ,चाहे वो सिर्फ़ नाम का है। शुरू शुरू में यहाँ की प्राकतिक सुन्दरता दिल को लुभाती है पर फिर वो सुनसान जगह इंसान को पागल करने लगती है .. राजेश अपने बेस कैंप के बाहर अपनी ड्यूटी पर था पर आज उसका ध्यान बार बार अपने घर की तरफ़ जा रहा था ... कानो में डोगरी गाने के बोल गूँज रहे थे.... "भला सिपाहिया डोगरिया दुइ दिन छुट्टी आ जा की तेरे बिना बडा मंदा लगदा ...".इसका अर्थ उस को उसकी पत्नी का संदेश देता लग रहा था कि दो दिन की छुट्टी ले कर मुझसे मिलने आ जाओ तुम बिन बहुत उदास सा लगता है सब, पर दिल में उसकी तस्वीर और कोई संदेश आने के इंतज़ार के सिवा वो कर भी क्या सकता था। भावी मिलन की आस लिए वो अपने परिचय पत्र के साथ रखी अपनी पत्नी, बच्चे की फोटो को देख लेता और सोच में डूब जाता।

तभी उसके साथी ने आ कर कहा की उसके लिए फोन है, लाइन बहुत जल्दी कट हो रही है, इसलिए जल्दी से आ के सुन ले। वो भागा उसका दिल किसी अनहोनी आशंका से डरा हुआ था और फोन पर जो उसने सुना वो उसके होश उड़ा देने के लिए काफी था ।वो यहाँ देश की अपनी मातरभूमि के लिए सब कुछ भुला के ड्यूटी कर रहा था ओर उधर देश के अंदर उसका सब कुछ एक जनून की भेंट चढ़ चुका था उसकी बीबी की इज़्ज़त, जान और उसके बेटे की साँसे यह अंधे धर्म का जनून ले गया था.. आँखो में आँसू के साथ धूंधली होती बीबी की तस्वीर.. मन को मोहती बच्चे की मुस्कान और कानो में गूँजता गीत.. भला सिपाहिया डोगरीया दो दिन छुट्टी आ जा की तेरे बिना मंदा लगदा उसको जैसे दूर कही गहरी वादी से आता लग रहा था। दिल में एक सन्नाटा सा छा गया था.. गोलो की आती आवाज़ अभी भी यह बता रही थी की जीवन अभी है ओर यूँ ही चलता रहेगा....

रंजना [रंजू ]

Saturday, August 18, 2007

तुलसी की छाँव

"इ तुलसी हमार जवान बच्चे को निगल गई , हुजूर। इ कुल्टा है सरकार .......
इ डायन है। " -पंचों के सामने धनेसर बिलख रहा था।

सुबह के दस बजे थे। धूप माथे के ऊपर चढने को बेताब थी। जानलेवा गर्मी के बावजूद गाँव के चौपाल में लगभग ५०-६० लोग जुटे थे| गाँव का यह रिवाज हो चला था कि जब कभी पंचायत बैठती थी तो सारे बड़े-बुर्जुग लोग इकट्ठा होते थे। गाँव के मुखिया जी भी पंचायत में आते थे। फिर चाहे मामला फौजदारी हो या दिवानी, आखिरी निर्णय पंचायत का हीं माना जाता था। आज जो पंचायत बैठी थी उसमें धनेसर मुद्दई था।

अब कोई भले ही इसे अंधविश्वास कहे, लेकिन गाँव में 'नज़र-गुजर' का माहात्म्य बहुत बड़ा होता है। सभी गुस्सैल निगाहें बस तुलसी को घूर रही थीं। ऎसा लग रहा था मानो सहस्त्र-मुखी राक्षस एक शिकार की ओर बढ रहा हो। उस भीड़ में तुलसी एक जिंदा लाश की तरह शांत थी - असहाय और बेबस।
धनेसर की आँखे रो-रो कर सूज गई थीं। बेटे को खोने का दर्द उसकी लड़खड़ाती बोली में साफ झलक रहा था। कोई पत्थर हीं होता जिसका दिल धनेसर की आँसूओं से न पिघलता! माहौल में दर्द इस कदर पैठ गया था कि हर कोई तुलसी को सजा दिलवाना चाहता था । अब कोई भले हीं इसे अंधविश्वास कहें लेकिन गाँव में"नज़र-गुजर" का महात्म्य बहुत बड़ा होता है। सभी गुस्सैल निगाहें बस तुलसी को घुर रही थीं। ऎसा लग रहा था मानो सहस्त्र-मुखी राक्षस एक शिकार की ओर बढ रहा हो। उस भीड़ में तुलसी एक जिंदा लाश की तरह शांत थी- असहाय और बेबस ।

पंचों ने पंच होने के नाते तुलसी से उसका भी विचार पूछना जरूरी समझा ।

"तुलसी एका खिलाफ तुमका कुछ कहना है क्या"- एक पंच ने पूछा।

"का कहें, आपन लोग पढल-लिखल हैं, जो अच्छा लगे सो करिए"- तुलसी सुगबुगाई।
"देख तुलसी, तुम्हरे से बिना पूछे अगर कुछ निर्णय कर दिये तो हम पर लांछन लगेगी।"

"हम कुछ कहें या न कहें , समाज में त हमार चरित्तर डूब गया हुजूर , जियें-मरें अब सब बराबर है। "

"ना ! तुम खुलकर आपन बात रखो, हम सबन हीं सुनने को तैयार हैं। - पंच ने तुलसी को विश्वास में लेकर कहा।

"सरकार! औरत जात का कहऊँ गुजारा नहीं है। ऊपर से हम बेवा ठहरे , निपूत्तर बेवा, जिंदगी तीता हो गईल है , मानो करैला पर नीम चढ गईल हो।" तुलसी ने अपनी कहानी शुरू की।

गाँव के हीं मुंडन महतो से तीन साल पहले तुलसी का लगन हुआ था । दिल में कई सारे ख्वाब सजाये तुलसी अपने ससुराल आई। लेकिन हाय रे करम। ब्याह के एक-दो दिन के अंदर हीं तुलसी का मर्द गुजर गया । कोई लाइलाज बिमारी थी। अंधेरे में रखा गया था तुलसी को। तुलसी को मुंडन के बिमारी के बारे में कुछ भी खबर न थी । घर में कोई और न था । तुलसी के माँ-बाप ने भी उसे अपनाने से मना कर दिया । घर से बेटी की डोली उठती है और ससुराल से अर्थी । अब तुम्हारा ससुराल हीं तुम्हारा घर है। वहीं रहो । तुलसी अपने घर से भी बिसरा दी गई । अब अभागी तुलसी दर-बदर हो गई। ऊपर से ठहरी अनपढ , गंवार। जीने के लिए कुछ तो करना हीं था । तुलसी ने गाँव में हीं कुछ छोटा-मोटा काम करने का सोचा ।

वहीं उसके घर के पास हीं रहते थे धनेसर यादव, एक मध्यमवर्गीय गवंई रईस। आस-पास के गाँव के लोग उन्हें जानते थे। काफी नाम था उनका । गाँव में सबसे ज्यादा खेत उन्हीं के पास था । इतना होने के बावजूद भी उन्हें खेती पसंद नहीं थी । अपने तहसील में एक छोटी-सी नौकरी करना उन्हें ज्यादा भाता था । ज्यादा पढे लिखे थे नहीं , इसलिए चौकादारी संभालते थे।

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धनेसर यादव के दो बेटे थे- मुनीसर और बटेसर । मुनीसर बचपन से हीं अपने पिता की बातों में रहता था । पिता चाहते थे कि उसके घर में कम-से-कम कोई एक तो अपना खेत खुद देखे। इसलिए उन्होंने मुनीसर को खेती करने के लिए प्रेरित किया । जब मु्नीसर होशगर हुआ तो वह खुद-ब-खुद खेती में रूचि लेने लगा । जैसे हीं मुनीसर ने खेती संभाली , फसलों की पैदावार बढ गई। अब आमदनी का दूसरा जरिया भी मजबूत हो चला था । बूढे होते माता-पिता को एक बहू की जरूरत महसूस होने लगी । पिता ने अपना धर्म और अपना अधिकार निबाहते हुए , बड़े बेटे का ब्याह कर दिया। भाव-स्वभाव में बहू हीरा थी। भगवान की दुआ से एक साल बाद लक्ष्मी का आगमन हुआ । दादा जी ने अपनी पोती को प्यार से "ननकी" नाम दिया।

वहीं दूसरी ओर धनेसर यादव का छोटा बेटा बटेसर छूटपन से हीं टेढे किस्म का था । माँ-पिता की बातों का उस पर कुछ भी असर नहीं होता । ना हीं वह खेत जाता था और ना हीं पढाई-लिखाई में तबियत जमती थी उसकी । बस आवारा लोगों की तरह इधर-उधर घुमता रहता था । समय के साथ बटेसर की उम्र बढती रही लेकिन बुद्धि से मानो उसका जन्मों का बैर था । जवान हो चले बटेसर को अब भी बस एक हीं काम था - मटरगश्ती और सिर्फ मटरगश्ती ।

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ननकी के जन्म के बाद से तीन साल बीत चुके थे।

घर अब बड़ा हो चला था । हर दिन कुछ काम अकाज रह जाता था । इसलिए धनेसर की बहू ने एक नौकरानी रखने का विचार किया ।पास में हीं तुलसी रहती थी ,गाँव के कई घरों में काम भी करती थी वह । स्वभाव भी अच्छा था । इसलिए उसने अपने सास से तुलसी के बारे में बात की। सास ने साफ इनकार कर दिया । बेवा की परछाई तक घर में नहीं पड़नी चाहिए। बहू के यह कहने पर कि घर के अंदर का काम वह खुद करेगी , तुलसी केवल आंगन और चुल्हा-चौका का काम देखेगी , सास ने तुलसी को नौकरानी रखना स्वीकार किया ।

तुलसी काम पर लगा दी गई । लेकिन तुलसी को सख्त हिदायत थी कि ननकी को नज़र उठाकर देखना तक
नहीं है। बेवा और निपूत्तर होने की दोहरी चोट मिलनी हीं थी , आखिर कब तक बचती तुलसी। तुलसी ने इसे अपने भाग्य का लेखा मानकर स्वीकार कर लिया। मालकिन ने तुलसी को चुल्हा-चौका और आँगन को धोने-पोछने के काम तक हीं सीमित रखा था। इसलिए तुलसी सुबह और शाम हीं काम पर आती थी। दिन भर वह दूसरे घरों में बर्त्तन-बासन साफ कर दिया करती थी। इसी तरह वह अपना पेट भर रही थी।

धनेसर के छोटे बेटे बटेसर की तुलसी पर निगाह थी। लेकिन तुलसी को वह फूटी आँख भी नहीं सुहाता था। बटेसर ने कई बार तुलसी के साथ "जोर-जबर" करना चाहा था, लेकिन वह बच निकलती थी। मालिक से कहती नहीं थी, नहीं तो काम छूट
जाता। बस जिंदगी के हाथों मजबूर थी , नहीं तो वह यह काम कब का छोड़ चुकी होती।

काम न छोड़ने का दूसरा कारण भी था और वह थी ननकी। वह जब भी ननकी को देखती थी , उसके सीने से ननकी के लिए प्यार उमड़ पड़ता था। अकेले में वह उसे गले लगा लिया करती थी। नन्ही जान ननकी , क्या जाने बेवा और बांझ से उसके करम का क्या रगड़ा है। वह भी प्यार-मोहब्बत के साथ बह कर तुलसी के सीने से लिपट जाती थी। सोई ममता जाग पड़ती , लेकिन दिल भारी करके फिर तुलसी उसे छोड़ देती थी। उसे भी अपने भाग्य से डर जो लगता था। कहीं उसका दुर्भाग्य
ननकी पर हावी न हो जाए। यही कर्म चलता था रोज। जिंदगी करवटें लेती रहती , लेकिन माहौल चुपचाप हीं था। किसे पता था कि तुलसी की जिंदगी में बवंडर आने वाला है।

धनेसर को पता था कि बटेसर तुलसी को चाहता है। वह बटेसर को कई बार टोक चुका था। लेकिन बटेसर पर उसके पिता की बातों का कोई असर तक न था। घर की बात घर तक हीं रहे इसलिए धनेसर ने तुलसी को कुछ न कहा था। तुलसी इन सब
बातों से अंजानी थी, या यूँ कहिए कि जान कर अनजान हीं रहती थी।

आखिर उसके मन में बटेसर के लिए नफरत के सिवा कुछ था हीं नहीं। यह नफरत कब जानलेवा हो जाती , तुलसी भी नहीं जानती थी।

दिन ऎसे हीं बीतते गए । एक शाम तुलसी हमेशा की तरह खाना बनाने के लिए धनेसर के घर आई। रसोईघर के पास में हीं बटेसर का कमरा था। तुलसी अपनी हद में हीं रहती , इसलिए उसे पता भी न था कि किसका कमरा किधर है। उस समय
मालिक-मालकिन शहर गए हुए थे, कुछ सामान लाने। ननकी को दादी के पास छोड़ गए थे। दादा जी तो ड्यूटी पर थे। इसलिए ,घर में थे केवल बटेसर और उसकी माँ । तुलसी जब खाना बना रही थी तो उसे ननकी के रोने की आवाज सुनाई दी।
पहले तो वह अपना मन मार कर रह गई। लेकिन उससे रहा न गया। वह उस आवाज के पीछे दौड़ने लगी। बटेसर के कमरे के पास आकर उसने जो देखा , वह बयाँ करने लायक न था। बटेसर ननकी के साथ "जबर" कर रहा था। नन्हीं जान ननकी चीख मारकर रो रहीं थी। लेकिन हैवान के पास दिल तक नहीं था ।

आज तुलसी ने बटेसर का सबसे नीचा रूप देखा था। तुलसी के मुँह से आह निकल गई। हैवान तुलसी की और झपटा। तुलसी किसी तरह जान बचाकर भागी।

बटेसर डर चुका था। वहीं तुलसी गुस्से से फंफक रही थी। वह बटेसर को सबक सीखाना चाहती थी। वह जानती थी कि किसी को बताएगी तो कोई मानेगा नहीं। इसलिए वह खुद हीं बटेसर से निपटना चाहती थीं , आखिर बटेसर ने तुलसी की छांव को मैला जो करना चाहा था।

"हाँ, सरकार हम कुल्टा हैं, डायन हैं। हम अपने मर्द को निगल गए, इनके बेटा को लील गए। लेकिन सरकार, आपन छांव खाली होना क्या होत है, हम हीं जानत हैं। सब सच कह दिए हम। अब जो सजा देना हो, हमका दे दीजिए।"
अगले दिन तुलसी ठीक समय पर काम पर आ गई। बटेसर यह देखकर डर गया। लेकिन आज उसके प्रति तुलसी का बर्त्ताव कुछ बदला-बदला-सा था। खाना बनाने और झाड़ू-पोंछा करने के बाद तुलसी ने उसे अपने पास बुलाया। वह खुद हीं तुलसी से
समझौता करना चाहता था। तुलसी ने अपनी चाहत का हवाला देकर बटेसर को गांव के बाहर एक खेत में आने को कहा। उसने कहा कि वह किसी को कुछ नहीं बताएगी अगर बटेसर उसके कहे समय पर बताए जगह पर आ जाए। बटेसर के पास कोई चारा भी न था । फिर उसने सोचा कि औरत-जात उसका क्या बिगाड़ लेगी । कुछ कहेगी या करेगी तो वह उसे भी नहीं छोड़ेगा । बटेसर हवस के मद में चूर हो चला था । जाने कई सारे ख्वाब देख डाले उसने । उसे लगा कि आज उसकी जरूरत पूरी हो जाएगी।

समय ने करवट ली । दोपहर में बटेसर तुलसी से मिलने गया और अगले दिन सुबह-सुबह हीं वह अपने कमरे में मरा मिला। मरने का क्या कारण था, किसी को कोई खबर न थी। हकिंम ने बताया कि "जहर पीने से मौत हुई है"। लेकिन बटेसर और जहर - आखिर क्यों, पल्लै न पड़ा ।

धनेसर ने पिछले सुबह तुलसी और बटेसर को बात करते देखा था । उसे बटेसर की तुलसी के लिए इश्कमिजाजी भी पता थी । इसलिए इसमें उसे तुलसी की बुरी नज़र का दोष मालूम करने में समय न लगा ।

"जरूरे तुलसी जादू-टोना की है एकापर , ना तो हमार बेटा काहे जहर पीने लगा। "-धनेसर ने अपने बड़े बेटे से कहा।
"बापू , कहें तो , तुलसी को अभिये उठाके ले आएँ।"
"ना! समाज के पता चले चाहीं कि तुलसी कैसी है। कल पंचन के सामने हम ओका सजा दिलाएँगे" - धनेसर का यह कहते हुए गला भर आया।

पंचों के सामने तुलसी ने सारी बात सच-सच बयां कर दी। उसने स्वीकार भी कर लिया कि बटेसर को जहर उसी ने दिया था।

"हाँ, सरकार हम कुल्टा हैं, डायन हैं। हम अपने मर्द को निगल गए, इनके बेटा को लील गए। लेकिन सरकार, आपन छांव खाली होना क्या होत है, हम हीं जानत हैं। सब सच कह दिए हम। अब जो सजा देना हो, हमका दे दीजिए।" तुलसी ने गर्व से कहा।

गाँव वालों ने तुलसी पर पत्थर फेंके, पूरे गाँव में नंगा घुमाया । अगले हीं दिन पास के कुएँ में तुलसी की लाश मिली । वह जानती थी कि उसकी बात कोई नहीं मानेगा, लेकिन खुश थी वह कि उसने अपने छाँव को मैला होने से बचाया था ।

-विश्व दीपक ''
१०-०८-२००७
पहली कहानी

Wednesday, August 15, 2007

वो आदमी

"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।...( फिर एक लम्बी साँस .... कुर्सी के हत्थों से उसके हाथ फिसल कर नीचे गिरने और आँखो मे शून्य घिर आने की एक साथ प्रक्रिया...)...मैं भी खुद को नही समझ पाया ।"- सामने बैठे शख्स के होठो की थिरकन मे लिपटी ये आखिरी आवाज मुझे मीलो दूर से आती लगी।मैने उठने का उपक्रम किया ,पर मीलो दूर से इस आदमी ने अंगुलियों की एक अजीब सी हरकत से मुझे रोक दिया और फिर शुरू हुआ वही सिलसिला .......।

ये पहली बार नही था कि मै उसके सामने बैठा इस स्थिति से गुजर रहा था। और अब तो दावे के साथ कह सकता हूँ ,कि ये आखिरी बार भी नही था। जब भी मै उसके पास जाता था, बातचीत कुछ यूँ मोड़ ले लेती और अंतिम पलों मे ऐसा ही दृश्य उभर आता। वो मीलो दूर से अपने कदम बढाता ,अपने कदमो को जाँचता-परखता मेरी ओर बढता आता और मै सामने वाली कुर्सी पर निर्विकार अपनी धैर्य परीक्षण करता रहता। उसे मुझसे कोई सरोकार नही था;शायद मै ना भी रहता, तो कोई फर्क नही पड़ता।..... कदम हमेशा उसी रफ्तार से बढते,किसी मुकाम पर थमते...पर एक जगह पर वो वापस जरूर मुड़ता था... और जिन्दगी का वो हिस्सा उसने हमेशा अपनी कहानी मे दुहराया था। जिस अदा से, जिन शब्दो के सहारे उसने अपनी कहानी बताई थी, वो मुझे जुबानी याद हो आई थी। शायद उसे भी नही मालूम हो,पर मै जानता था कि फलां हर्फ पे ओठ कितने खुलते हैं ,किस बात पर माथे पे तीन लकीरे उभर आती हैं और......।

वो आदमी था और आदमी नही भी था। दूर से देखने वाले को वो आदमी ही नजर आता- सामान्य कद,इकहरा बदन और शरीर की परिभाषा पूरी करने को जो जो चाहिए था, सब के सब मुकम्मल अपनी जगह जमा थे। आँखे वहीं नाक के उपर और ललाट के नीचे थी, नाक होठो के ऊपर और होठ ठुड्डी के ऊपर- सब गर्दन पे टिके सिर मे ही स्थित थे। ये और बात थी कि आँखे बुझी-बुझी थी,नाक थोड़ी झुकी थी,ठुड्डी थोड़ी निकली और होठो के दोनो सिरे पे अदृश्य सी लक्ष्मणरेखा। उसे इस लक्ष्मणरेखा के बारे मे पता नही था। पर महीनों मैने उसके होठो का जरा भी क्षैतिज फैलाव नही देखा,फिर सीता-सुरक्षा के इस विद्या के स्वामित्व की जानकारी उसे दी। उसे तो ब्रम्हास्त्र मिल गया और अब मेरे सामने मुस्कराने की भी कोशिश नही करता था ।

पर इस आदमी सा दिखने वाले जीव के नजदीक कोई भूल से भी पहुँच जाता,फिर मालूम होता था कि ये आदमी नही था। वो तो एक खुली किताब था ,जो गुजरी जिन्दगी के हर पलो को खुले पन्ने मे बिखेरे पड़ा था। पता नही भूत का भूत उस पर इस कदर छाया था कि आज की तस्वीरों मे भी वो कल की सूरत ढूँढता फिरता। जो कोई भी अपना लगता,उसे सारी कहानी सुना डालता। विषय कोइ भी हो,मसला कैसा भी हो, साहबान सारे वाकयात अपने उपर ढाल लेंगे और जैसे ही उनके ओठो से ये लफ्ज फिसलता कि "छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।",फिर आगे की बाकी सारी घटनाएँ मेरे आगे नाच जाती - एक लम्बी साँस... फिर कुर्सी पे टिका हाथ नीचे झूल जाएगा;उसी समय आँखो मे सूनापन पसर आएगा..बहुत दूर से एक आवाज आएगी-"मैं भी खुद को नही समझ पाया।"... मै उठने की कोशिश करूँगा, वो अंगुलियाँ धीरे-धीरे मुठ्ठी बाँधने की स्टाइल मे खींचेगा(मुझे रोकने की ये उसकी खास अदा थी।).. और प्रोजेक्टर पर पहली रील चढ जाएगी फिर से। उसके करीबी लोगो की ये बदनसीबी थी कि उसके रीलो की संख्या दिन-प्रतिदिन बढती जाती थी। इस बात पर फिर अफसोस होने लगता था कि ये वर्तमान फिसल कर अगले ही पल भूत क्यूँ बन जाता है।

शुरू-शुरू मे तो अजीब सा लगता था,जब मै यूँ घंटो बैठा उसकी रोज की वही बकवास सुनता रहता था। वो हर बार कुछ इस तरह से पुरानी बातो को दुहराता रहता, मानो एक नई दास्तां उसके जीवन मे गढी गई हो। प्रतिक्रिया-स्वरूप टोकता भी था मै बीच मे-"क्या ये पुरानी जिन्दगी से चिपके हुए हो।भविष्य के सुनहरे सपने देखो;सपने ना रास आते हो, तो वर्तमान की कठोर जमीन पे चलो।"एक बार यहाँ तक पूछ डाला था-"यार,आँखे तुम्हारी जड़ी तो सामने है,पर पीछे ही क्यूँ देखती है?"सुनकर सूनी आँखों से मुझे घूरा उसने(शुक्र था,उस क्षण वो आगे को ही देख रही थी)और फिर वही से शुरू हो गया,जिस शब्द पे उसने बात रोकी थी। धीरे-धीरे मै भी अपनी इन हरकतों की निरर्थकता समझ गया अब तटस्थ भाव से उसके सामने बैठा रहता हूँ। कहानी चलती रह्ती है ;रील पे रील चढती जाती है....और मै बीच मे फुर्सत निकाल जाने-पहचाने पात्रो को कोई और जामा पहनाने की सोंचता रहता हूँ।

सब के सब तो मेरे परिचित हैं,जान पहचान वाले बन गए हैं। मैं उसके मुहल्ले के उस अवारा,बदमाश लड़के को लाखो की भीड़ मे पहचान सकता हूँ,जिसने गुल्ली-डण्डे मे इसे सैंकड़ो बार पदाया था। बाल-मनोविञान की परख से वंचित उसके मास्टर को भी मैं पहचान सकता हूँ, जिसने होम-वर्क नही कर पाने के कारण इसे दिन भर धूप मे मुर्गा बनाए रखा था। जिस बॉस ने पहली बार देर से आने पर इसे डाँटा था,उसकी डाँट और दानवी चेहरा मै कभी भी जेहन मे ला सकता हूँ। वो बात-बात पर पीटने वाला बड़ा भाई,बगल मे रहने वाला इसकी बहन का आशिक,कॉलेज मे पढ़ने वाली दो चोटी वाली लड़की,इसकी मरगिल्ली पत्नी(सॉरी,अब दिवंगत हो गई है),दिन मे दो बार घर खाली करने की धमकी देने वाला मकान-मालिक और सारे ऐसे लोग,जो गलती से इसकी जिन्दगी का शरीके-इतिहास बनने आए(इतिहास की ऐसी मिट्टी पलीद होती है,जानता होता तो कोई अतीत को शब्दों का आकार ना देता)-सबको भली-भाँति जानता हूँ मै। कभी-कभी तो लगता है,जिसका भी जिक्र चल रहा होता है,वो आकर हम दोनो के बीच बैठ गया है और मुझसे दरख्वास्त कर रहा होता है कि उसकी नजरो से मै उसे देखूँ। पर मुझे तो कहानी से मतलब है,उसकी सच्चाई या सापेक्षता से नही।

आप कहेंगे कि ये तो सबकी जिन्दगी मे होते रहता हैं;फिर इसे क्यूँ अपने पास सहेजे रखना और रोज जम आए वक्त की धूल को साफ करते रहना। समझाया तो मैने भी यही था इसे,पर कोई फायदा नही हुआ। अपना पुराना राग उसने अलाप डाला-"छोड़िए ,आप मुझे नहीं समझ पाऐंगे।(एक लम्बा अंतराल,शरीर की कुछ हरकतें)शायद मैं भी खुद को नही समझ पाया!"सच कहता था वो,सचमुच मै उसे समझ नही पाया;मैने कोशिश भी नही की। वह जब अपने अतीत की गलियों मे खो जाया करता था,तब मै पूरा ध्यान सिर्फ इसमे टिका रहता कि ये वाली मैने कितनी बार सुन रखी है। वो समझता था कि मै उसके साथ हुमसफर बना चल रहा हूँ,सो कहानी मे उसे किसी नए मसाले भरने की जरूरत नही होती थी। नीरस,बेजान सा वो लफ्ज निकालता रहता और मै जाने कहाँ-कहाँ से उन रास्तों से भागता फिरता।

उसकी जिन्दगी मे आखिर समझने को आखिर रखा भी क्या था-दफ्तर के बाबू के घर मे,जहाँ महीने के बीस तारीख के बाद जीवन के निशान बस दो वक्त बिना सब्जी वाली रोटी हो,वहाँ अपने पाँच भाई-बहनो की छाया मे इसने बचपन गुजारा था। किसी तरह पढता रहा;एक सरकारी स्कूल जाता रहा। फिर ट्यूशन की बैशाखी ने कॉलेज का मुँह दिखा दिया। सालो बेरोजगारी के साथ हमबिस्तरी के बाद किसी तरह से उससे पीछा छूटा और अपनी टूटी खटिया पे वह एक प्राइवेट ऑफिस के बाबू का तमगा लगाए अकेला सोने लगा। फिर शादी हुई,बीबी की बीमारी और इलाज के खर्च ने कभी परिवार बढाने की इजाजत नही दी।... बीबी मर गई और फिर वो अकेला हो गया है। अब ऐसी जिन्दगी मे क्या खासियत हो सकती है,जिसकी गुत्थी मै सुलझाने की कोशिश करता। जटिलताएँ तो वहाँ आती है,जहाँ लोग आम छोटी-छोटी समस्याओं से उपर उठ गए हों;सब कुछ पास मे है,फिर भी अन्जानी सी अपरिभाषित कमी महसूस हुए जा रही है। जिसकी पूरी जिन्दगी मे कमी ही कमी हो,उसके बारे मे क्या दिमाग लगाना। खाली पेट खाना न मिले,तो जाहिर है भूख लगेगी,कमजोरी का अहसास होगा..हाँ,भरपेट लजीज खाने के बाद कोई भूख जगे,तब कोई खास बात है;तह मे जाने को वो वाला कीड़ा कुलबुलाए।

पर थी एक खासियत,जो इसे औरो से जुदा करता था। भूत को इसने अपने वजूद का हिस्सा बना लिया था,जिसके बिना इसे अपना अस्तित्व ही अधूरा लगता;जिसके जिक्र के बिना जिन्दगी इसे बेमानी लगती। वह अपने बीते कल के बिना रह नही सकता था और अतीत उसे वर्तमान और भविष्य की तरफ देखने की फुरसत नही देता था। हाँ,बस इतना ही समझ पाया था उसे...वो भी,क्यूँकि सिर्फ यही खासियत उसमे मुझे दिखी थी। सच बताऊँ,वक्त का इतना अच्छा इस्तेमाल मैने किसी और को करते नही देखा। वक्त घड़ियों की सूई की टिक-टिक मे बँधा रहता था और ये दोनो हाथो से उस बीते हुए टिक को समेटता और अगले टिक के बीतने का इंतजार करता। मैने एक बार पूछा भी था उससे-"तुम्हे नही लगता,कि तुम्हारी जिन्दगी टिक-टिक की मोहताज हो गई है?"वो शायद समझ नही पाया,अलबत्ता उसने एक कहानी जरूर शुरू कर दी थी,जिसमे वो था,उसका बाप था,एक टेबुल घड़ी थी और उसके हाथो से नीचे गिर टिक-टिक के लायक नही बची थी।...कुछेक पात्र और थे-उसके बाप का थप्पर और तीन दिन तक सारे बच्चों के रात का नदारद खाना... हाँ एक नंगी सच्चाई जुड़ी थी-वे महीने के आखिरी दिन थे। अब इस बात को क्या याद रखना और बार-बार दुहराना;बच्चे तोड़-फोड़ करेंगे,तो बाप को गुस्सा आएगा ही।

मै भी क्या करूँ,उसकी वाली नजर कहाँ से लाऊँ। अब देखो ना,उसके साथ पढने वाली दो चोटी बाँधने वाली लड़की छुट्टियों के बाद बॉब-कट मे आ गई,तो जनाब ने उस दिन से उसे देखना ही छोड़ दिया। गुस्से मे रात का खाना भी नही खाया। यहाँ तक तो सोच पाया मै कि ड्रीमगर्ल कैसे नापसंद हो गयी,पर मेरी समझ के बाहर की बात थी कि उसने रात का खाना क्यूँ नही खाया। एक और तफसील(उसी की जुबानी)संग इसके जोड़ना चाहूँगा कि उस दिन शाम मे घर पहुँचने पर बाप ने उसे अवारा,बेरोजगार आदि विशेषणों से लांछित किया था और माँ टीन के खाली कनिस्तरों को पटक-पटक कर उनमे से आटा निकालने की नाकाम कोशिश रात नौ बजे तक करती रही थी।

कई सारे ऐसे वाकयात हैं,जो मुझे भी सोचने को बाध्य कर देते हैं कि उससे बोल ही डालूँ-"मै आपको नही समझ सकता।"जब इसकी पत्नी बहुत ज्यादा बीमार थी और बिस्तर पे पड़े-पड़े भगवान को याद करती थी,तो ये भी साथ मे उपरवाले से कुछ माँगा करता था। दवा या दुआ -दो विकल्प हैं;सब तो इतने खुशकिस्मत होते नही कि दोनो एक साथ मिल जाए। बात उन दिनो की थी,जब नौकरी मे छँटनी वाली लिस्ट मे इसका भी नाम था। इसने मुझे जब बताया कि वो दुआ किसलिए करता था,तो सचमुच मुझे लगा कि इसे समझने के लिए कई और बुद्धियाँ मुझे चाहिए। अपनी बीबी से जुड़े इसके पास मुकम्म्ल दो या तीन किस्से ही थे,जिनको सुनाते वक्त आँखो का सूनापन और गहरा हो जाता था और बीच-बीच मे होठ अपनी हरकत बंद कर निगाहों को आगे की दास्तां का जिम्मा दे देते थे। एक तो बता चुका मै कि उसकी बीमार पत्नी उपर जाने का इन्तजार कर रही थी और वो दुआ माँग रहा था कि इन्तजार कम से कम हो जाए;सही मे दिल से इसने कभी ठीक होने कि दुआ नही माँगी। हाँ,बाकी कुछ जो भी वो माँगती थी,ये दे देता था...पानी पिलाता रहता था,दूर कुर्सी पे सामने बैठा रहता था...उन दिनो ये भी बैठा ही था। दुनियावाले समझते थे कि बीबी का कितना ख्याल रखता है और ये जानता होता था कि लोग इसे समझ नही सकते।

बाकी दोनो दास्ताने एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। शादी हुई जब इसकी,पतित्व के सारे अरमान मचल रही थे;फूटपाथी किताबो के अफसाने और वात्सायन के फल्सफे कुलाचे मार रहे थे। पर पहली रात ही इसे पता चला कि लोग मुर्दों के साथ सोने मे डरते क्यूँ हैं। अंत मे वही इसके बेवजह पौरूष प्रदर्शन से टूट गई और शादी के पहले की दास्तां....वादे,कसमें और किसी और के हो जाने की तफसील सुना डाली। ये पत्थर का बुत हो गया और बुत जब हिला,तो कमरे मे दो बिस्तर(अलग-अलग)लग चुके थे....दोनो अभी भी हैं। वैसे बीबी जल्द ही साथ छोड़ गई;उसकी लाश के संग उसकी दो तमन्नायें भी जल के धुआँ हो गई। जब तक जीती रही,सोचती रही कि अपने पति(वैध)की गोद मे सर रख के बीमार जिस्म मे नई रूह जगवाए और उसके पावों मे सर रखके माफी माँग ले। पर जनाब ने न कभी छुआ,न छुने की छुट दी। काश इतना ही तटस्थ रहता... पर सब कुछ होते हुए व्यक्तित्व की मूरत मे झाँकते रहते थे-रिएक्शन्स, ओवर-रिएक्शन्स, रिटेलिएशन और कभी एसकेपिज़म...फिर भी दुनियावाले इसे न्यूट्रल ही समझते रहते थे। जब इसकी बहनो के किस्से आम होने लगे थे,फिर इसने वो शहर छोड़ दिया था...मैने उसके व्यक्तित्व की मूरत से झाँकते सारे चेहरो का विशेषण उस पर थोप दिया था और उसका सपाट सा जबाब था-"मै क्या हूँ,ये नही जानता।पर इतना जरूर मालूम है कि ये मेरी जिन्दगी का हिस्सा है।"अब बताइए,ऐसे मे कौन इसे समझ पाएगा।

बाप का जिक्र आते ही नफरत और हिकारत से इसका चेहरा विद्रूप हो जाता। माँ को भी कभी स्वतंत्र माना नही इसने,सो बाप के संग वो भी होम हो जाती थी। अपने जीवन के शुरू के हिस्से की कहानियों का खात्मा वो कुछ यूँ किया करता-"माई बर्थ वाज़ ऐन एक्सीडेन्टल डिफ़ाल्ट..सालो ने अपनी मस्ती के लिए..।"कभी उसने ये नही सुनाया था कि बाप ने कन्धे पे बिठा गलियो मे उसे घुमाया था या माँ ने गोद मे बिठा बड़े-बड़े कौर उसके मुँह मे ठूँसे थे। हाँ,बड़े भाईयो के दोस्तो से उसे ये जरूर पता चला था कि उसके जन्म के कुछ दिन तक उसका बाप अपने बच्चों से नजर बचाते रहता था। फिर एक गाली उसकी जुबान से फटाक से निकलती थी-"साले के पास इतनी ही शरम थी,फिर बेटियों से क्यूँ?"मैने कभी उससे पूछा भी नही कि बाप को लेकर इतना गन्दा क्यूँ सोचता है। शायद उसके जबाब से मै संतुष्ट भी नही हो पाता;उसका नजरिया मै समझ कहाँ पाता हूँ। एक सॉफ़िस्टीकेटेड आदमी की जुबान से इतनी गन्दी भाषा-ये विरोधाभास समझ पाना हर किसी के बस की बात थोड़े ही है।

हुआ यूँ था कि दफ्तर मे काम करने वाली एक संवेदनशील महिला,जिसका कोई भाई नही था,ने रक्षाबंधन पे इसे राखी बाँधने की पेशकश की। पहले ये तो ठठाकर हँसा,फिर उसने कलाई के इस धागे का महत्व पूछा। वो चकरा गई और खिसियाना सा चेहरा बनाए खिसक गई। शायद वो समझ ही नही पाई-सवाल मे जुड़े तथ्य को,या सवाल पूछने वाले आदमी को-या कुछ और तो नही समझ गई ,जैसी विडम्बना इसके साथ अक्सर होती है। बाद मे इसने मुझे बताया था कि जब से बाहर से लगे कमरे मे इसकी दोनो बड़ी बहने सोने लगी थी ,परिवार की माली हालत सुधरने लगी थी। जब इसने अपने किताबो के आदर्श को यथार्थ की जमीन पर पटकना चाहा,फिर’बहन...’ का इल्जाम लगा इसे घर से निकाल दिया गया। अर्थ और मूल्यों की इस लड़ाई से अब किसी को क्या लेना,क्यूँ कोई समझने की कोशिश करे।

उसकी जिन्दगी हर मायने मे अधूरी सी लगती रहती थी,हाँ हर जगह कमी ही कमी भरी हुई थी;अभाव का कही अभाव बिल्कुल नही था। हर खाली गैप को भरने की उसकी अदा भी निराली थी-उस गैप से जुड़े किस्से से जिन्दगी का खालीपन भर लेता था। उसकी जिन्दगी एक शीशे का मकान सा था,जिसमे वो कैद था। रोज कुछ शीशा पिघल कर उसमे समा जाता और मकान का दायरा घटता जाता। मकान सिमट रहा था,वो बढता जा रहा था। एक बार मैने सवाल का प्रारूप बदल दिया था-"क्या आपने खुद को समझने की कभी कोशिश की?"कुछ पल खामोश रहा,फिर बोल फूट पड़े-"एक मुकम्मल तस्वीर तभी बन पाती है,जब आईने के सामने एक ही चेहरा हो। आईने के सामने खड़े होते ही बहुत सारे चहरे एक साथ आ जाते हैं,सबको मिलाकर देखने की कोशिश मे एक अजीब सा चेहरा सामने आता है-थोड़ा मूर्त्त,थोड़ा अमूर्त्त-शायद लिजलिजा सा। लिजलिजेपन को छूने गया,फिर अपने लिजलिजे वजूद का अह्सास होते ही खुद पर से विश्वास ही हट गया।"उसने मेरे चेहरे पर अजीब सी असामान्यता देखी और फिर अपने किशोरवय की वो दास्तां शुरू कर दी,जब उसकी मसें भींगने लगी थी और दिन मे बीसियों बार वो अपना चेहरा देखता रहता था.... और तब तक सुनाता रहा,जब तक मेरा चेहरे पे सुनी कहानी को फिर से सुनने की जिल्लत और उससे उत्पन्न खीझ नही दिखाई देने लगी।

वो तो खुद को नही समझ पाया,पर मै क्या समझूँ उसे-पिघला हुआ शीशा,लिजलिजा अक्स....या अतीत के पर्दो मे छुपा एक कुण्ठित व्यक्तित्व... पर कुण्ठा तो मेरे ही अंदर है। ठीक ही कहता है वो-"देखिए,आप मुझे नही समझ सकते।"


-श्रवण सिंह

Saturday, August 11, 2007

प्यासा

राघव ज़ीने पर पहुंच कर थोड़ा सा रुका। रेडियो पर ‘कजरारे’ बज रहा था। उसने आस-पास देखा। एक आम घर जैसा माहौल था, पर शायद थोड़ा ज्यादा स्त्रीत्व लिये हुए। आँगन के बीचों-बीच एक तुलसी का पौधा था, जिसे लगाने के लिए फर्श की चार ईंटें निकालकर उसके चारों ओर लगा दी गई थीं। उसी के पास एक अधेड़ सी औरत धूप में कुर्सी बिछाकर बैठी थी। पास में एक सात-आठ साल की लड़की, एक पतली सी किताब और पेंसिल हाथ में लेकर खड़ी थी। संभवत: औरत उस बच्ची को कुछ पढ़ा रही थी। राघव रुका तो उस औरत ने एक बार नज़र उठाकर उसे देखा और फिर धीरे-धीरे बोलकर बच्ची को पढ़ाने लगी।
वातावरण में कुछ भी ऐसा नहीं था, लेकिन राघव के हृदय में अचानक दर्द की तेज लहर दौड़ गई। वह सकपकाया सा, वहीं खड़ा जमीन को देखता रहा। मनोहर ने पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और पूछा- क्या हुआ?
- कुछ नहीं...कुछ नहीं हुआ।
वह सामान्य सा होकर मनोहर की ओर मुड़ गया।
- पहली बार ऐसे ही अजीब लगता है। चल।
मनोहर आगे चला और राघव भी उसके पीछे ज़ीना चढ़ने लगा। ऊपर एक लाइन में कई कमरे बने हुए थे। कुछ के दरवाजों पर बाहर से कुंडी लगी हुई थी और कुछ वैसे ही बन्द थे। उसने आस-पास देखा तो कोई आदमी वहाँ नहीं था।
एक पलंग और एक कुर्सी वाले एक कमरे में उसे बैठने को कहकर मनोहर चला गया। जाते-जाते वह राघव का कंधा थपथपाकर मुस्कुरा दिया। राघव ने उसे नहीं देखा। वह सिर झुकाए पलंग पर बैठ गया।
जब लड़की आई तो शांत राघव उसी मुद्रा में बैठा हुआ था। लड़की ने दरवाजे की चिटकनी लगाकर राघव को देखा और कुछ क्षण किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी वहीं खड़ी रही। मौन प्रतिक्रिया के लिए वह तैयार नहीं थी। वह कुर्सी खींचकर उस पर बैठ गई।
- कौन हो तुम?
राघव ने बिना उसकी ओर देखे ही पूछा।
- ........
कोई भी ऐसे सवाल को सुनकर और ऐसा व्यवहार देखकर सोच लेता कि वह सामान्य आदमी तो नहीं है, सो लड़की को भी यही लगा। अब उसने गर्दन उठाकर अपना सवाल कुछ परिष्कृत करके दोहराया।
- तुम्हारा नाम क्या है?
- मीना।
मीना सलवार-सूट पहने हुए थी। बाल किसी स्टाइल में कटे हुए थे और होठों पर हल्की सी लिपस्टिक थी। चेहरे में हल्का सा आकर्षण भी था, जिसे राघव कुछ पल तक घूरता रहा। लड़की को संभवत: न शरमाना सिखाया गया था, वह भी उत्तर में उसे घूरती रही। यह दृष्टि उस लड़की ने गली, सड़क और बाज़ार में पहले भी कई बार अनुभव की थी, मगर अपने घर के एक बन्द कमरे में सामने बैठकर उस दृष्टि का, उसका यह पहला अनुभव था। आखिर लड़की ने नज़रें झुका लीं।
- खैर जाने दो, नाम में क्या रखा है? मीना, रीना या टीना...कुछ भी हो।
मीना चुप रही। उसने अपना ध्यान बगल की दीवार पर लगी पेंटिंग में उलझा लिया। उसकी नई ज़िन्दगी शुरु हो रही थी। उसे याद आया, दीदी कहती हैं, इस ज़िन्दगी में बहुत मज़ा है।
वाह, आराम और मज़े की ज़िन्दगी, सोचकर उसने सुकून की एक लम्बी साँस ली। अचानक राघव फिर से बोल पड़ा- मेरे नाम में भी कुछ नहीं रखा, पर मैं राघव हूं।
- जी।
वह गर्दन सहमति में हिलाकर धीरे से बोली।
- पता नहीं, तुम मेरे बारे में क्या सोच रही होगी...लेकिन मैं ऐसा नहीं हूं, जैसा शायद तुम्हें लग रहा हूं।
वह बेचैनी से बोला। मीना ने कुछ क्षण के लिए उसे देखा। उसकी आँखें बेचैनी से कमरे में इधर-उधर घूम रही थीं, बिल्कुल वैसे, जैसे जेठ की दुपहरी में कोई प्यासा पंछी पानी की तलाश में भटक रहा हो। जाने क्यों, मीना को उस अनजान युवक पर एकदम से बहुत तरस आया।
- मैं सोना चाहता हूं और सो नहीं पाता।
उसकी सब बातें टूटी-टूटी सी थीं और बेमौका भी। कभी कुछ कहने लगता था और कभी कुछ और। मीना समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो रहा है?
दीदी ने तो कुछ और ही सिखाया था...यहाँ कोई ऐसी बातें भी करेगा, ऐसा तो उन्होंने कहा ही नहीं, वह फिर सोचने लगी थी।
वह कुछ समझ नहीं पा रही थी, मगर अब एकटक उस टूटी सी बातें करने वाले युवक को ही देख रही थी।
- तुम्हें नींद आ जाती है?
राघव की आँखें अब भी बेचैनी से कमरे में इधर-उधर ही डोल रही थीं।
- तुम पागल हो क्या?
मीना ने कमरे में आने के बाद पहली बार एकसाथ इतना बोला था। वह अब भी एकटक राघव को ही देख रही थी। इस प्रश्न पर उसकी भटकती हुई आँखें भी मीना के चेहरे पर आकर ठहर गईं। आँखों की बेचैनी की जगह अब बेचारगी ने ले ली थी। वह कुछ नहीं बोला।
मीना कुछ सोचकर अपनी कुर्सी से उठी और पलंग पर उसकी बगल में आकर बैठ गई। उसने राघव की हथेली पर रखने के लिए अपना हाथ उठाया। राघव के हाथ के पास पहुँचकर उसका हाथ कुछ देर हवा में रुका, फिर उसने अपना हाथ वापस खींच लिया।
दीदी ने जो सिखाया था, वह सब उसे याद था, मगर दीदी को कहाँ पता था कि उसका सामना किससे होने वाला है!
राघव ने अब आँखें बन्द कर ली थीं और उसकी पुतलियाँ बिल्कुल स्थिर थीं। मीना ने अपना हाथ उसके कन्धे पर रख दिया। उसने आँखें खोलकर मीना को देखा और उसके चेहरे पर हल्की अस्पष्ट सी मुस्कान तैर गई। कमरे की पहली मुस्कुराहट के उत्तर में मीना भी मुस्कुरा दी। उसे लगा कि शायद अब यह सामान्य होने लगा है।
उसने सोचा, शायद यह भी पहली बार आया है, तभी इतनी देर से घबराकर बेतुकी बातें किए जा रहा था।
लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान एक क्षण में ही गायब भी हो गई। मीना मुस्कान से थोड़ा हौसला पाकर उसका कन्धा सहलाने लगी थी।
उसे दीदी की बात याद आई- पहली कमाई बिल्कुल हक़ की होनी चाहिए।
राघव ने फिर आँखें बन्द कर ली थीं। दो मिनट तक वह उसके कन्धे पर नरमी से हाथ फिराती रही।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
आँखें खोले बिना ही राघव बोला। अब उसकी आवाज की तड़प पहले से कुछ कम हो गई थी। मीना कुछ कहती, इससे पहले ही वह बेचैनी से दुबारा बोल पड़ा।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
अब वह अनुरोध के अन्दाज़ में उसी को देख रहा था। मीना ने उसके कन्धे से हाथ हटाकर धीरे से अपने दोनों हाथ अपने कपड़ों की तरफ बढ़ाए, फिर इस तरह रोक लिए, जैसे उससे अनुमति ले रही हो। लेकिन इस प्रक्रिया ने उल्टा असर किया। राघव ने एकदम से क्रोध में आकर उसके दोनों हाथ झटककर उसके शरीर से दूर कर दिए। वह घबराकर उससे दूर खिसक गई और असमंजस से उसे देखती रही। राघव खड़ा होकर बेचैनी से कमरे में इधर-उधर चहलकदमी करने लगा। उसके व्यवहार से मीना सकपका सी गई थी। उसने पलंग से नीचे लटके हुए अपने दोनों पैर ऊपर ही कर लिए और कुछ सिमटकर बैठ गई।
वह चलता-चलता रुक गया। फिर कुछ क्षण उसके होठ बोलने की कोशिश करने की प्रक्रिया में हिलते रहे, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाया। फिर तेजी से आकर पलंग पर मीना के सामने बैठ गया। मीना की आँखों में अब भी घबराहट ही थी।
- वह भी बिल्कुल ऐसी ही थी। क्या सब औरतें ऐसी ही होती हैं? बस शरीर दिखता है तुम्हें...
उसने गुस्से में अपनी बात आरंभ की थी, लेकिन अपने कथन के अंत तक पहुँचते- पहुँचते फिर से नरम पड़ गया।
- पर तुम्हें तो ऐसा होना ही पड़ता है..तुम्हारी तो मजबूरी है।
अपनी गर्दन हिलाते हुए वह ‘तुम्हारी तो मजबूरी है’ को कई बार बुदबुदाता रहा।
मीना का मन किया कि वह कमरे की चिटकनी खोलकर बाहर भाग जाए, लेकिन उस असामान्य युवक के प्रति सहानुभुति...या जिज्ञासा, कुछ तो था, जिसने उसे वहाँ से भागने नहीं दिया।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
राघव ने फिर अनुनय के स्वर में पूछा। मीना को लगा कि उसकी आँखों में हल्का सा पानी भी तैर रहा है। उसने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। राघव उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। मीना के हृदय में विचित्र सी हिलोर उठी, मगर वह स्थिर होकर बैठी रही। राघव ने फिर से आँखें बन्द कर ली थीं और उसकी दोनों आँखों से आँसू की एक-एक बूँद निकलकर गाल पर आ गई थी। मीना ने एक हाथ से उन बूँदों को पोंछ दिया।
- एक कहानी सुनोगी?
उसने आँखें खोलकर पूछा।
पहली कमाई बिल्कुल हक़ की होनी चाहिए, उसे फिर दीदी की बात याद आ रही थी, लेकिन कुछ सोचकर उसने हल्के से ‘हाँ’ बोल दिया।
- एक छ: साल का लड़का था। सब बच्चों की तरह अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। उसके लिए तो वही भगवान थी।
उसने रुककर मीना के चेहरे की ओर देखा कि वह उसे सुन भी रही थी या नहीं।
- फिर?
’हाँ’ के अलावा मीना बहुत देर बाद कुछ बोली थी।
- फिर एक दिन वो माँ अपने बच्चे को छोड़कर किसी के साथ भाग गई।
उसके चेहरे पर वेदना और क्रोध के इतने सारे भाव एकसाथ आए, जैसे बहुत सारे अपशब्द बिना कुछ कहे ही उसके चेहरे से बोल रहे हों। वह कुछ क्षण चुप रहा।
फिर बोलने लगा- कभी नहीं लौटी वो...और छ: साल का बच्चा, जो अपनी माँ को भगवान समझता था, नास्तिक हो गया। बहुत रोया वो, मगर कुछ नहीं हुआ। होना भी क्या था? कभी कोई उसे चुप करवाने नहीं आया। बाप बेचारा क्या करता, वह खुद चोट खाए हुए था...घर में लगी हुई देवियों की सब तस्वीरें उस बच्चे ने फाड़ दीं। वह बच्चा फिर कभी आराम से सो नहीं पाया।
एक साँस में इतना बोलते-बोलते वह रोने भी लगा था। मीना की समझ में नहीं आया कि उसे क्या कहना चाहिए, क्या करना चाहिए? वह कई मिनट तक रोता ही रहा। एक बार उसने कुछ बोलना भी चाहा, लेकिन उसके मुँह से रोने के अलावा कोई आवाज नहीं निकल पाई।
फिर मीना पलंग पर बिछी चादर के कोने से उसके आँसू पोंछने लगी। वह धीरे-धीरे चुप हो गया। मीना का हाथ उसके चेहरे पर था। उसने वह हाथ पकड़कर अपने माथे पर रख लिया। वह उसका हाथ पकड़े भी रहा।
- माँ के प्यार की प्यास, आसपास के लोगों के तानों के साथ उसके भीतर हर पल जलती रही। वो बहुत तड़पा, बहुत रूठा, मगर कभी कोई मनाने नहीं आया।
रोने से उसकी आवाज भर्रा गई थी। अपने माथे पर रखा मीना का हाथ उसने अब भी पकड़ रखा था।
मीना को लगा कि उसका हाथ और माथा, दोनों ही अचानक बहुत गर्म हो गए हैं।
- सबकी तरह वह बच्चा भी बड़ा हो गया।
वह भर्राए गले से फिर धीरे-धीरे बोलने लगा।
- पानी पियोगे?
मीना ने उसे टोककर पूछा तो वह चुप होकर कुछ क्षण उसके चेहरे को देखता रहा। फिर इस तरह कहने लगा, जैसे उसकी बात उसने सुनी ही न हो।
- उसके प्यासी, बग़ैर प्यार की ज़िन्दगी में एक लड़की आई...और वह बेचारा प्यार की उम्मीद कर बैठा।
मीना के मन में फिर आया- पहली कमाई..., लेकिन वह उस विचार को भुलाकर अपना हाथ नरमी से राघव के माथे पर फिराने लगी। राघव ने बच्चे की तरह उसके हाथ को अब भी कसकर पकड़ रखा था।
- फिर?
मीना के स्वर में अब महज जिज्ञासा ही नहीं रह गई थी, कुछ-कुछ अपनापन भी आने लगा था।
- मनोहर कहता है कि प्यार कुछ नहीं होता। बस एक शरीर की भूख होती है, जिसे कुछ बेवकूफ़ लोग प्यार समझ बैठते हैं। मनोहर झूठ कहता है ना?
उसने इस तरह पूछा, जैसे एक मासूम बच्चा किसी बड़े से कोई भोला सा सवाल पूछ रहा हो और उस बड़े का उत्तर वह बिना किसी संशय के स्वीकार कर लेने वाला हो।
- मुझे नहीं पता...
इस प्रश्न पर मीना फिर सकपका गई और उसने राघव के चेहरे से अपनी दृष्टि हटाकर फिर दीवार की पेंटिंग में उलझा ली। उसके माथे पर चलता हुआ उसका हाथ भी रुक गया।
- वह भी यही कहती थी कि मुझे नहीं पता...
वह हँसा तो मीना ने चौंककर उसे देखा। उसकी हँसी भी अलग ही थी, रोती हुई हँसी।
- मगर शायद उसे पता था...शायद सबको पता होता है और उस लड़के को ही पता नहीं था कि प्यार कुछ नहीं होता।
वह अब बैठ गया था। कुछ क्षण पहले की हँसी की जगह अब कड़वाहट ने ले ली थी। मीना का हाथ उसने अब छोड़ दिया था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।
- शायद टाइम हो गया है।
वह बुझे से स्वर में बोला। मीना ने बिना किसी भूमिका के आगे झुककर उसके माथे को चूम लिया। उसने दीदी की बात याद करके ऐसा किया था या अंत:प्रेरणा से, वह स्वयं नहीं समझ पाई।
- फिर क्या हुआ?
उसने बहुत आत्मीयता से पूछा। चुम्बन के बाद राघव कुछ क्षण स्तब्ध सा उसे देखता रहा, फिर बोलने लगा।
- उस लड़के की प्यास वह नहीं समझ पाई और उस लड़के को और भी तोड़कर जाने कहाँ चली गई...जाने कहाँ चली गई?
उसने गहरी साँस ली और आँखें बन्द कर लीं।
- वह बहुत तड़पा, बहुत रोया, बहुत रूठा...कोई मनाने नहीं आया।
वह आँखें बन्द किए हुए ही बोलता रहा। उसकी आवाज में भी एक प्यास सी थी। मीना ने स्नेह से उसका हाथ पकड़ लिया। तभी दरवाजे पर फिर दस्तक हुई।
- मुझे जाना होगा।
उसने आँखें खोल लीं। मीना ने धीरे से उसका हाथ छोड़ दिया। राघव ने खड़े होकर दरवाजा खोल दिया। वह उसी मुद्रा में पलंग पर बैठी रही। दरवाजे पर वही अधेड़ औरत थी, जिसे राघव ने नीचे देखा था। वह कुछ नहीं बोली। राघव की लाल आँखों और चेहरे को अचरज से देखती रही। राघव ने अपने पैंट की जेब में से कुछ नोट निकाले और बिना गिने उस औरत के हाथ में थमा दिए। नोट गिनते हुए औरत ने एक बार भीतर झाँककर मीना को देखा। वह पलंग पर उसी अवस्था में बैठी थी, लेकिन उनकी तरफ नहीं देख रही थी।
नोट गिनकर औरत ने अपने मुट्ठी में भींच लिए। राघव ने मुड़कर मीना को देखा। वह दीवार पर लगी पेंटिंग को ही देख रही थी। वह कुछ पल उसी को देखता रहा, फिर तेजी से निकलकर बाहर चला गया।
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अगली शाम राघव ने उस घर में आकर बहुत हल्ला किया।
- कितने भी पैसे ले लो...पर मुझे मीना ही चाहिए।
वह आँगन में उसी औरत के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था।
- मैं तीन बार बता चुकी हूँ कि मीना यहाँ नहीं है।
- नहीं...तुमने उसे छिपा दिया है।
उसकी आवाज और भी ऊँची हो गई थी। घर के भीतर से दो लड़कियाँ निकलकर आ गईं और अधेड़ औरत की बगल में खड़ी हो गईं।
- किसी और को ले जाओ।
वह औरत अब भी संयत स्वर में ही बात कर रही थी।
राघव ने सूनी सी आँखों से उन दोनों लड़कियों की ओर देखा, फिर बिना कुछ कहे बाहर की ओर चल दिया।
वह घर के दरवाजे पर पहुंचकर रुका। बिना मुड़े ही उसने पूछा- कब आएगी वो?
- दो-चार दिन में आ जाएगी।
वह उसी गति से बाहर निकल गया।

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एक हफ़्ते तक वह रोज शाम को आता और मीना के न होने की सूचना लेकर लौट जाता। आठवें दिन उसे मीना मिल ही गई। कुछ देर बाद वह उसी कमरे में मीना की गोद में सिर रखकर लेटा था।
- तुम रोज़ बस मेरे लिए ही आते थे?
- हाँ...और मनोहर से भी लड़ाई हो गई।
- क्यों?
वह नहीं जानती थी कि मनोहर कौन है, मगर पहले दिन भी राघव ने उसका ज़िक्र किया था, इसलिए उसने पूछ लिया।
- बोलता था कि मैं पागल हूँ। बोला कि वो मुझे इसलिए यहाँ लाया था कि मैं कुछ ठीक हो जाऊँ और अब मैं और भी पागल हो गया हूँ।
- तो लड़ाई क्यों कर ली?
- तुम्हारे बारे में गलत बोल रहा था।
मीना के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।
- उस दिन तुम्हारे पास था तो लगा कि मेरी प्यास कुछ बुझने लगी है। लगा कि कोई है, जो मुझे भी समझ सकता है। इन आठ दिनों में मैं उस एक घंटे के बारे में ही सोचता रहा।
मीना को दीदी की बात याद आई, कभी किसी मर्द से दिल मत लगाना। पहली कमाई हक़ की न करने पर दीदी ने उस दिन भी उसे बहुत डाँटा था।
वह चुप रही।
- तुम्हारी जगह ये नहीं है। मैं तुम्हें कहीं दूर ले जाऊँगा।
वह जैसे कहीं दूर से बोल रहा था, खोया हुआ सा। उसके ऐसा कहते ही मीना के पूरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। वह काँप उठी। राघव को लगा कि यह खुशी है। मीना नहीं समझ पाई कि वह क्या था?
- चलोगी?
उसने उसका हाथ पकड़कर उसी तरह अनुरोध के स्वर में कहा, जिस तरह उसने उस दिन गोद में सिर रखने के लिए पूछा था।
- मैं तो वही करूँगी, जो दीदी कहेंगी।
उसकी आवाज भी ऐसे आई, जैसे कहीं दूर से आ रही हो।
- मैं तुम्हारी दीदी से अभी बात करता हूँ।
ऐसा कहकर वह तेजी से उठकर दरवाजा खोलकर बाहर चला गया। भौचक्की सी मीना उसे जाते हुए देखती रही।
- मैं मीना से शादी कर रहा हूँ।
उसने नीचे जाकर उस अधेड़ औरत से यही पहली बात कही। वह कुछ क्षण तक कुछ न समझकर उसके चेहरे को देखती रही।
फिर कड़े स्वर में बोली- हमारी लड़कियों की शादी नहीं होती।
- मुझे मीना चाहिए।
उस औरत को भी लगने लगा था कि वह पागल है।
- हमारी लड़कियाँ केवल खरीदी और बेची जाती हैं।
- कितने लोगी?
वह गुस्से से बोला। वह इस तरह बोल रहा था, जैसे अपनी किसी गिरवी रखी हुई चीज को छुड़ाने की कीमत पूछ रहा हो।
कुछ क्षण रुककर वह बोली- एक लाख।
यह एक लाख कहाँ से लाएगा, अगले ही क्षण उसने अपने मन में सोचा।
- कल शाम को सारे पैसे लाकर तुम्हारे मुँह पर मार दूँगा।
- फिर परसों शाम को तुम मीना को ले जा सकते हो।
वह कहकर मुस्कुरा दी। वह विजय के भाव लिए चला गया।

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अगली शाम को वह अप्रत्याशित रूप से एक लाख रुपए लेकर पहुँच गया। एक लाख रुपए देखकर अधेड़ औरत की आँखें फैल गई थीं।
- इतने रुपए कहाँ से लाए?
उसके पास बैठी मीना ने पूछा। उसके स्वर में न उत्साह था और न ही पीड़ा।
- जितना बेच सकता था, उतना बेच आया।
आज उसके चेहरे पर न बेचैनी थी और न ही तड़प।
वह औरत आधे घंटे तक रुपए गिनती रही और सामने बैठा राघव मीना को देखकर मुस्कुराता रहा।
उस दौरान मीना उससे एक बार भी नज़रें नहीं मिला पाई। वह गर्दन झुकाकर बैठी रही और जाने क्या क्या सोचती रही। कई बार उसके मन में आया कि उसे कह दे कि अपने पैसे लेकर लौट जाए। लेकिन वह कुछ भी नहीं बोली।
- जा मीना, इन्हें अन्दर रख आ।
उस औरत ने बैग बन्द करके मीना को देते हुए कहा। मीना बैग लेकर चली गई।
- कल शाम को तुम इसे ले जा सकते हो।
अब उस औरत के स्वर में बहुत मिठास आ गई थी। वह कुछ नहीं बोला। मीना लौट आई तो वह उठकर चल दिया। पीछे से मीना उसे जाते हुए ऐसे देखती रही, जैसे वह दुनिया की सबसे बड़ी अपराधिनी हो।



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अगले दिन शाम को जब वह आया तो बन्द संकरी गली के उस आखिरी मकान पर बड़ा सा ताला लटक रहा था।
- इस घर के लोग कहाँ गए?
उसने घबराई सी आवाज में पास की चाय की दुकान वाले से पूछा। दुकान वाला उसे ऊपर से नीचे तक देखकर व्यंग्य से मुस्कुराया।
- आज सुबह खाली करके चले गए।
- कहाँ?
उसकी आँखें भर आईं थीं।
- क्या पता भाई..किराएदार थे, अब और कहीं धन्धा जमाएँगे।
चायवाला हँसकर अपनी दुकान के भीतर चला गया।
राघव रात भर उस मकान की देहरी पर बैठकर रोता रहा।
सुबह तड़के ही वह प्यासा युवक शहर के पास से गुजरती नहर में कूद गया।

Monday, August 6, 2007

कीचड़


हँस हँस के उसका हाल बुरा हो रहा था। कीचड़ में पडे अरविंद को देख वो होना स्वाभाविक भी था। मगर असली मज़ा उठा रहे थे देखने वाले। लोगों को नजर आ रहे थे कीचड़ से सने दो बुत। निशा से हँसी रोकी नही जा रही थी। यूँ तो, वो भी कुछ कम कीचड़ में सनी नहीं थी।

कॉलेज के पहले दिन से, जबसे अरविंद ने निशा को देखा था, तभी से वो मर मिटा था। फिर उसने निशा से बात करने का कोई मौका जाने ना दिया। निशा से अब उसकी काफी अच्छी जमती थी। केमेस्ट्री प्रेक्टिकल्स, छोटे मोटे ट्रेक्स, कभी कभी कोई छोटा सा होटल ऐसे उनके दिन बढिया कट रहे थे। निशा सभी से सादगी से बात करती। मगर अरविंद के दिल का हाल अब तक उसे पता ना था।

अनिकेत को जब पता चला तो वो धम से उछल पड़ा। बोला "अरविंद! क्या कहते हो? सच?"
"नहीं मै एक नई फिल्म बना रहा हूँ और तुझे उसका प्लाट सुना रहा हूँ!", अरविंद का गुस्से से जवाब.
"अरे! गुस्सा क्यों हो रहे हो बाप!", अनिकेत बोल पडा, " तुझे क्या लगता है बिल्ली आँखे बंद कर के दूध पिये तो दुनिया को पता नहीं चलता? भाईसाब उसे देखते ही आपका मुँह यूँ खुल जाता है के उसके जाने तक बंद नही होता, पता है?"
"ओये, मुँह खुलता है ज़रा ज्यादा ही कह रहे हो", अब अरविंद, अनिकेत को पिटने के हिसाब से आगे बढने लगा, और उतने मे अनिकेत भाग खडा हुआ.
कहने लगा, "एक भी हाथ पडा ना बिंदू, तो केंटीन में जाकर सबके सामने दहाड लगाउँगा के सुनो सुनो बिंदू बाबू को प्रेम रोग हो गया है रे भैया!"
ये कहते कहते उसकी नज़र अरविंद के मुरझाए चेहरे पर पडी, और अरविंद को दोनो हाथ जोडे शरण आये भक्त की तरह सामने खडा देख वो चुप हो गया।
"ओये, अब क्या रो देगा पगले!", मैने सुना था प्यार में लोग बावलें हो जाते है मगर तुम्हारा हाल देख नहीं पा रहा हूँ रे।
"फिर क्या, यहाँ मेरी जान पर बनी है, उसे किस तरह बताऊँ समझ में नही आ रहा, और तुम्हे मज़ाक सुझ रहा है!", अरविंद बच्चो सा रुआँसा होकर फूट पडा।
"एक मिनट, तुझे राजेश पता है?", अनिकेत उछल पडा जैसे कुछ याद आ रहा हो।
"वो, सलोनी को पटाने वाला?", अरविंद को याद करना मुश्किल नही था क्योकि सलोनी कालेज की हिराईन थी।
"हाँ हाँ वही तो, मेरी एक दो बार बात हुई है उससे। लडकीयोँ के मामले में बाप है उस्ताद! शायरी तो ऐसे धडाधड फेंकता है, के क्या कहने। क्यों ना एक बार उससे सलाह मशवरा कर लें। कहो तो आज शाम ही मिल लेते हैं।", इस एक वाक्य के साथ अनिकेत ने मन ही मन में मुलाकात पक्की भी कर दी थी। अरविंद सर हिला कर हाँ कहता गया, दिल का दर्द जो जिने नहीं दे रहा था।

आज कालेज में जाते वक्त अरविंद का चेहरा खिला खिला था। आज राजेश से जो मिलना था, शाम को। हमेशा की तरह अरविंद, निशा, अनिकेत, पायल, सुधा सब के सब स्कूटर स्टेंड पर मिलकर इकठ्ठा जा रहे थे। हसी मज़ाक हमेशा की तरह चल रहा था। मगर आज अनिकेत की आँखों में नटखट भाव थे। वो बार बार अरविंद को देख देख गालों में हस रहा था। अरविंद सब समझ रहा था, मगर आँखे बडी करके वो अनिकेत को बस डाँट सकता था रोक नही सकता था। और उतने में किसी पत्थर से बेलेंस खोकर निशा धडाम से सामने वाले कीचड़ में सर से पाँव तक गिर पडी।

दो मिनट किसी को क्या हुआ पता ही ना चला। आस पास के लोगों में से आती हुई हँसी की किलकारियाँ अब नज़ारा समझा रही थीं। निशा को हाथ देकर उठाने के चक्कर में असली घोटाला हुआ अरविंद का और वो भी सर से पाँव तक कीचड़ में समा गया। ये लो, ये हो गया देखने वालों के लिये डबल मज़ा।

कीचड़ में सनकर रुँआसी सी हो गई निशा भी वो अरविंद का सहायता प्रकल्प देख हँसने लगी। अब उनका गुट और तमाम दर्शक देख रहे थें एक दूसरे की तरफ देखकर ठहाके लगाते हुए कीचड़ में सने दो बुत।

"क्या कमाल करते हो बिंदू",निशा हसते ह्सते कहने लगी, " ये कैसी सहायता लेकर आये जी?", अब वो किचड में सेटल हो चली थी।
"सहायता काहे की निशा?", अरविंद अचानक गंभीर हो गया, " तुम अचानक गिर गई और सब लोग तुम्हे देख हँसने लगे, मुझे नही पसंद आया। फिर क्या करता, तुम्हे निकालता भी तो कीचड़ से सना सत्य तो नहीं टाल सकता था। फिर एक ही उपाय बचा था निशा।"

अब अचंभित होने की निशा की बारी थी। " तो क्या तुम, ... तुम जान बुझ कर..." ऐसा कुछ बडबडाते हुए एक कीचड़ का गोला बना कर उसने अरविंद को दे मारा। शरमाई सी हँसते हँसते वो कालेज की तरफ भाग चली, बीच में पलटकर छोटे बच्चों की तरह अरविंद को उसने जीभ दिखाई और फिर मुडकर कालेज केंटीन की तरफ भाग चली।

वो कीचड़ का गोला सीधे अरविंद के दिल पर जा लगा। उसे एक हाथ से थाम कर वो अनिकेत को देख रहा था। अनिकेत ने हुश्श किया और कहने लगा चलो कीचड़ दिन मनाते है।

तुषार जोशी, नागपूर

Saturday, August 4, 2007

आरंभ


दोस्तों,

हिन्द-युग्म को आपने अब तक जो स्नेह और अपनापन दिया, उसके लिए पूरी हिन्द-युग्म टीम हृदय से आभारी है। पाठकों का प्रेम और प्रोत्साहन ही वह सम्बल बना, जिसने हमें साहित्य की अन्य विधाओं में भी उतरने की भी प्रेरणा दी। उसी का परिणाम है, हमारा यह नया ब्लॉग:- कहानी-कलश

हिन्दी कहानी, जिसकी शुरुआत उन्नीसवीं सदी के आरंभ में मानी जाती है, के पास बहुत समृद्ध विरासत है। लेकिन हिन्दी कहानी का वास्तविक विकास द्विवेदी युग में ही शुरु हुआ। उस काल में लिखी गई किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती कहानी को कुछ विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। बाबू गोपाल राम गहमरी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने भी बीसवीं सदी के आरंभ में इस गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाया।
लेकिन उनके बाद कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद ने क्रांति ही कर डाली। उनकी तीन सौ से अधिक कहानियां मानसरोवर के आठ भागों में तथा गुप्तधन के दो भागों में संग्रहित हैं। प्रेमचन्द को तो हिन्दी साहित्य का कथा सम्राट कहा जाता है। उनके समय के और कथाकारों में विश्वंभर शर्मा कौशिक, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, उपेन्द्रनाथ अश्क, जयशंकर प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

आधुनिक कहानीकारों में मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त, निर्मल वर्मा जाने-माने नाम हैं।

हिन्दी साहित्य की इसी गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाते हुए हम आज से कहानी-कलश आरंभ कर रहे हैं। हिन्द-युग्म के इस नए प्रयास के माध्यम से हमारा उद्देश्य वर्तमान में लिखी जा रही कहानियों और कहानीकारों को आपके सामने लाना है। आशा है, आपका प्रेम हमें पूर्ववत मिलता रहेगा।
जो कहानीकार हिन्द-युग्म के सदस्य बनना चाहते हैं, वे हमसे kahani.hindyugm@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं। पाठकों के भी अमूल्य सुझाव एवं विचार इसी पते पर सादर आमंत्रित हैं।
भावनाओं के इस समुद्र में गोता लगाने के लिए हम आपका स्वागत करते हैं।