राघव ज़ीने पर पहुंच कर थोड़ा सा रुका। रेडियो पर ‘कजरारे’ बज रहा था। उसने आस-पास देखा। एक आम घर जैसा माहौल था, पर शायद थोड़ा ज्यादा स्त्रीत्व लिये हुए। आँगन के बीचों-बीच एक तुलसी का पौधा था, जिसे लगाने के लिए फर्श की चार ईंटें निकालकर उसके चारों ओर लगा दी गई थीं। उसी के पास एक अधेड़ सी औरत धूप में कुर्सी बिछाकर बैठी थी। पास में एक सात-आठ साल की लड़की, एक पतली सी किताब और पेंसिल हाथ में लेकर खड़ी थी। संभवत: औरत उस बच्ची को कुछ पढ़ा रही थी। राघव रुका तो उस औरत ने एक बार नज़र उठाकर उसे देखा और फिर धीरे-धीरे बोलकर बच्ची को पढ़ाने लगी।
वातावरण में कुछ भी ऐसा नहीं था, लेकिन राघव के हृदय में अचानक दर्द की तेज लहर दौड़ गई। वह सकपकाया सा, वहीं खड़ा जमीन को देखता रहा। मनोहर ने पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रखा और पूछा- क्या हुआ?
- कुछ नहीं...कुछ नहीं हुआ।
वह सामान्य सा होकर मनोहर की ओर मुड़ गया।
- पहली बार ऐसे ही अजीब लगता है। चल।
मनोहर आगे चला और राघव भी उसके पीछे ज़ीना चढ़ने लगा। ऊपर एक लाइन में कई कमरे बने हुए थे। कुछ के दरवाजों पर बाहर से कुंडी लगी हुई थी और कुछ वैसे ही बन्द थे। उसने आस-पास देखा तो कोई आदमी वहाँ नहीं था।
एक पलंग और एक कुर्सी वाले एक कमरे में उसे बैठने को कहकर मनोहर चला गया। जाते-जाते वह राघव का कंधा थपथपाकर मुस्कुरा दिया। राघव ने उसे नहीं देखा। वह सिर झुकाए पलंग पर बैठ गया।
जब लड़की आई तो शांत राघव उसी मुद्रा में बैठा हुआ था। लड़की ने दरवाजे की चिटकनी लगाकर राघव को देखा और कुछ क्षण किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी वहीं खड़ी रही। मौन प्रतिक्रिया के लिए वह तैयार नहीं थी। वह कुर्सी खींचकर उस पर बैठ गई।
- कौन हो तुम?
राघव ने बिना उसकी ओर देखे ही पूछा।
- ........
कोई भी ऐसे सवाल को सुनकर और ऐसा व्यवहार देखकर सोच लेता कि वह सामान्य आदमी तो नहीं है, सो लड़की को भी यही लगा। अब उसने गर्दन उठाकर अपना सवाल कुछ परिष्कृत करके दोहराया।
- तुम्हारा नाम क्या है?
- मीना।
मीना सलवार-सूट पहने हुए थी। बाल किसी स्टाइल में कटे हुए थे और होठों पर हल्की सी लिपस्टिक थी। चेहरे में हल्का सा आकर्षण भी था, जिसे राघव कुछ पल तक घूरता रहा। लड़की को संभवत: न शरमाना सिखाया गया था, वह भी उत्तर में उसे घूरती रही। यह दृष्टि उस लड़की ने गली, सड़क और बाज़ार में पहले भी कई बार अनुभव की थी, मगर अपने घर के एक बन्द कमरे में सामने बैठकर उस दृष्टि का, उसका यह पहला अनुभव था। आखिर लड़की ने नज़रें झुका लीं।
- खैर जाने दो, नाम में क्या रखा है? मीना, रीना या टीना...कुछ भी हो।
मीना चुप रही। उसने अपना ध्यान बगल की दीवार पर लगी पेंटिंग में उलझा लिया। उसकी नई ज़िन्दगी शुरु हो रही थी। उसे याद आया, दीदी कहती हैं, इस ज़िन्दगी में बहुत मज़ा है।
वाह, आराम और मज़े की ज़िन्दगी, सोचकर उसने सुकून की एक लम्बी साँस ली। अचानक राघव फिर से बोल पड़ा- मेरे नाम में भी कुछ नहीं रखा, पर मैं राघव हूं।
- जी।
वह गर्दन सहमति में हिलाकर धीरे से बोली।
- पता नहीं, तुम मेरे बारे में क्या सोच रही होगी...लेकिन मैं ऐसा नहीं हूं, जैसा शायद तुम्हें लग रहा हूं।
वह बेचैनी से बोला। मीना ने कुछ क्षण के लिए उसे देखा। उसकी आँखें बेचैनी से कमरे में इधर-उधर घूम रही थीं, बिल्कुल वैसे, जैसे जेठ की दुपहरी में कोई प्यासा पंछी पानी की तलाश में भटक रहा हो। जाने क्यों, मीना को उस अनजान युवक पर एकदम से बहुत तरस आया।
- मैं सोना चाहता हूं और सो नहीं पाता।
उसकी सब बातें टूटी-टूटी सी थीं और बेमौका भी। कभी कुछ कहने लगता था और कभी कुछ और। मीना समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो रहा है?
दीदी ने तो कुछ और ही सिखाया था...यहाँ कोई ऐसी बातें भी करेगा, ऐसा तो उन्होंने कहा ही नहीं, वह फिर सोचने लगी थी।
वह कुछ समझ नहीं पा रही थी, मगर अब एकटक उस टूटी सी बातें करने वाले युवक को ही देख रही थी।
- तुम्हें नींद आ जाती है?
राघव की आँखें अब भी बेचैनी से कमरे में इधर-उधर ही डोल रही थीं।
- तुम पागल हो क्या?
मीना ने कमरे में आने के बाद पहली बार एकसाथ इतना बोला था। वह अब भी एकटक राघव को ही देख रही थी। इस प्रश्न पर उसकी भटकती हुई आँखें भी मीना के चेहरे पर आकर ठहर गईं। आँखों की बेचैनी की जगह अब बेचारगी ने ले ली थी। वह कुछ नहीं बोला।
मीना कुछ सोचकर अपनी कुर्सी से उठी और पलंग पर उसकी बगल में आकर बैठ गई। उसने राघव की हथेली पर रखने के लिए अपना हाथ उठाया। राघव के हाथ के पास पहुँचकर उसका हाथ कुछ देर हवा में रुका, फिर उसने अपना हाथ वापस खींच लिया।
दीदी ने जो सिखाया था, वह सब उसे याद था, मगर दीदी को कहाँ पता था कि उसका सामना किससे होने वाला है!
राघव ने अब आँखें बन्द कर ली थीं और उसकी पुतलियाँ बिल्कुल स्थिर थीं। मीना ने अपना हाथ उसके कन्धे पर रख दिया। उसने आँखें खोलकर मीना को देखा और उसके चेहरे पर हल्की अस्पष्ट सी मुस्कान तैर गई। कमरे की पहली मुस्कुराहट के उत्तर में मीना भी मुस्कुरा दी। उसे लगा कि शायद अब यह सामान्य होने लगा है।
उसने सोचा, शायद यह भी पहली बार आया है, तभी इतनी देर से घबराकर बेतुकी बातें किए जा रहा था।
लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान एक क्षण में ही गायब भी हो गई। मीना मुस्कान से थोड़ा हौसला पाकर उसका कन्धा सहलाने लगी थी।
उसे दीदी की बात याद आई- पहली कमाई बिल्कुल हक़ की होनी चाहिए।
राघव ने फिर आँखें बन्द कर ली थीं। दो मिनट तक वह उसके कन्धे पर नरमी से हाथ फिराती रही।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
आँखें खोले बिना ही राघव बोला। अब उसकी आवाज की तड़प पहले से कुछ कम हो गई थी। मीना कुछ कहती, इससे पहले ही वह बेचैनी से दुबारा बोल पड़ा।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
अब वह अनुरोध के अन्दाज़ में उसी को देख रहा था। मीना ने उसके कन्धे से हाथ हटाकर धीरे से अपने दोनों हाथ अपने कपड़ों की तरफ बढ़ाए, फिर इस तरह रोक लिए, जैसे उससे अनुमति ले रही हो। लेकिन इस प्रक्रिया ने उल्टा असर किया। राघव ने एकदम से क्रोध में आकर उसके दोनों हाथ झटककर उसके शरीर से दूर कर दिए। वह घबराकर उससे दूर खिसक गई और असमंजस से उसे देखती रही। राघव खड़ा होकर बेचैनी से कमरे में इधर-उधर चहलकदमी करने लगा। उसके व्यवहार से मीना सकपका सी गई थी। उसने पलंग से नीचे लटके हुए अपने दोनों पैर ऊपर ही कर लिए और कुछ सिमटकर बैठ गई।
वह चलता-चलता रुक गया। फिर कुछ क्षण उसके होठ बोलने की कोशिश करने की प्रक्रिया में हिलते रहे, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाया। फिर तेजी से आकर पलंग पर मीना के सामने बैठ गया। मीना की आँखों में अब भी घबराहट ही थी।
- वह भी बिल्कुल ऐसी ही थी। क्या सब औरतें ऐसी ही होती हैं? बस शरीर दिखता है तुम्हें...
उसने गुस्से में अपनी बात आरंभ की थी, लेकिन अपने कथन के अंत तक पहुँचते- पहुँचते फिर से नरम पड़ गया।
- पर तुम्हें तो ऐसा होना ही पड़ता है..तुम्हारी तो मजबूरी है।
अपनी गर्दन हिलाते हुए वह ‘तुम्हारी तो मजबूरी है’ को कई बार बुदबुदाता रहा।
मीना का मन किया कि वह कमरे की चिटकनी खोलकर बाहर भाग जाए, लेकिन उस असामान्य युवक के प्रति सहानुभुति...या जिज्ञासा, कुछ तो था, जिसने उसे वहाँ से भागने नहीं दिया।
- मैं तुम्हारी गोद में सिर रख लूँ?
राघव ने फिर अनुनय के स्वर में पूछा। मीना को लगा कि उसकी आँखों में हल्का सा पानी भी तैर रहा है। उसने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। राघव उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। मीना के हृदय में विचित्र सी हिलोर उठी, मगर वह स्थिर होकर बैठी रही। राघव ने फिर से आँखें बन्द कर ली थीं और उसकी दोनों आँखों से आँसू की एक-एक बूँद निकलकर गाल पर आ गई थी। मीना ने एक हाथ से उन बूँदों को पोंछ दिया।
- एक कहानी सुनोगी?
उसने आँखें खोलकर पूछा।
पहली कमाई बिल्कुल हक़ की होनी चाहिए, उसे फिर दीदी की बात याद आ रही थी, लेकिन कुछ सोचकर उसने हल्के से ‘हाँ’ बोल दिया।
- एक छ: साल का लड़का था। सब बच्चों की तरह अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। उसके लिए तो वही भगवान थी।
उसने रुककर मीना के चेहरे की ओर देखा कि वह उसे सुन भी रही थी या नहीं।
- फिर?
’हाँ’ के अलावा मीना बहुत देर बाद कुछ बोली थी।
- फिर एक दिन वो माँ अपने बच्चे को छोड़कर किसी के साथ भाग गई।
उसके चेहरे पर वेदना और क्रोध के इतने सारे भाव एकसाथ आए, जैसे बहुत सारे अपशब्द बिना कुछ कहे ही उसके चेहरे से बोल रहे हों। वह कुछ क्षण चुप रहा।
फिर बोलने लगा- कभी नहीं लौटी वो...और छ: साल का बच्चा, जो अपनी माँ को भगवान समझता था, नास्तिक हो गया। बहुत रोया वो, मगर कुछ नहीं हुआ। होना भी क्या था? कभी कोई उसे चुप करवाने नहीं आया। बाप बेचारा क्या करता, वह खुद चोट खाए हुए था...घर में लगी हुई देवियों की सब तस्वीरें उस बच्चे ने फाड़ दीं। वह बच्चा फिर कभी आराम से सो नहीं पाया।
एक साँस में इतना बोलते-बोलते वह रोने भी लगा था। मीना की समझ में नहीं आया कि उसे क्या कहना चाहिए, क्या करना चाहिए? वह कई मिनट तक रोता ही रहा। एक बार उसने कुछ बोलना भी चाहा, लेकिन उसके मुँह से रोने के अलावा कोई आवाज नहीं निकल पाई।
फिर मीना पलंग पर बिछी चादर के कोने से उसके आँसू पोंछने लगी। वह धीरे-धीरे चुप हो गया। मीना का हाथ उसके चेहरे पर था। उसने वह हाथ पकड़कर अपने माथे पर रख लिया। वह उसका हाथ पकड़े भी रहा।
- माँ के प्यार की प्यास, आसपास के लोगों के तानों के साथ उसके भीतर हर पल जलती रही। वो बहुत तड़पा, बहुत रूठा, मगर कभी कोई मनाने नहीं आया।
रोने से उसकी आवाज भर्रा गई थी। अपने माथे पर रखा मीना का हाथ उसने अब भी पकड़ रखा था।
मीना को लगा कि उसका हाथ और माथा, दोनों ही अचानक बहुत गर्म हो गए हैं।
- सबकी तरह वह बच्चा भी बड़ा हो गया।
वह भर्राए गले से फिर धीरे-धीरे बोलने लगा।
- पानी पियोगे?
मीना ने उसे टोककर पूछा तो वह चुप होकर कुछ क्षण उसके चेहरे को देखता रहा। फिर इस तरह कहने लगा, जैसे उसकी बात उसने सुनी ही न हो।
- उसके प्यासी, बग़ैर प्यार की ज़िन्दगी में एक लड़की आई...और वह बेचारा प्यार की उम्मीद कर बैठा।
मीना के मन में फिर आया- पहली कमाई..., लेकिन वह उस विचार को भुलाकर अपना हाथ नरमी से राघव के माथे पर फिराने लगी। राघव ने बच्चे की तरह उसके हाथ को अब भी कसकर पकड़ रखा था।
- फिर?
मीना के स्वर में अब महज जिज्ञासा ही नहीं रह गई थी, कुछ-कुछ अपनापन भी आने लगा था।
- मनोहर कहता है कि प्यार कुछ नहीं होता। बस एक शरीर की भूख होती है, जिसे कुछ बेवकूफ़ लोग प्यार समझ बैठते हैं। मनोहर झूठ कहता है ना?
उसने इस तरह पूछा, जैसे एक मासूम बच्चा किसी बड़े से कोई भोला सा सवाल पूछ रहा हो और उस बड़े का उत्तर वह बिना किसी संशय के स्वीकार कर लेने वाला हो।
- मुझे नहीं पता...
इस प्रश्न पर मीना फिर सकपका गई और उसने राघव के चेहरे से अपनी दृष्टि हटाकर फिर दीवार की पेंटिंग में उलझा ली। उसके माथे पर चलता हुआ उसका हाथ भी रुक गया।
- वह भी यही कहती थी कि मुझे नहीं पता...
वह हँसा तो मीना ने चौंककर उसे देखा। उसकी हँसी भी अलग ही थी, रोती हुई हँसी।
- मगर शायद उसे पता था...शायद सबको पता होता है और उस लड़के को ही पता नहीं था कि प्यार कुछ नहीं होता।
वह अब बैठ गया था। कुछ क्षण पहले की हँसी की जगह अब कड़वाहट ने ले ली थी। मीना का हाथ उसने अब छोड़ दिया था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।
- शायद टाइम हो गया है।
वह बुझे से स्वर में बोला। मीना ने बिना किसी भूमिका के आगे झुककर उसके माथे को चूम लिया। उसने दीदी की बात याद करके ऐसा किया था या अंत:प्रेरणा से, वह स्वयं नहीं समझ पाई।
- फिर क्या हुआ?
उसने बहुत आत्मीयता से पूछा। चुम्बन के बाद राघव कुछ क्षण स्तब्ध सा उसे देखता रहा, फिर बोलने लगा।
- उस लड़के की प्यास वह नहीं समझ पाई और उस लड़के को और भी तोड़कर जाने कहाँ चली गई...जाने कहाँ चली गई?
उसने गहरी साँस ली और आँखें बन्द कर लीं।
- वह बहुत तड़पा, बहुत रोया, बहुत रूठा...कोई मनाने नहीं आया।
वह आँखें बन्द किए हुए ही बोलता रहा। उसकी आवाज में भी एक प्यास सी थी। मीना ने स्नेह से उसका हाथ पकड़ लिया। तभी दरवाजे पर फिर दस्तक हुई।
- मुझे जाना होगा।
उसने आँखें खोल लीं। मीना ने धीरे से उसका हाथ छोड़ दिया। राघव ने खड़े होकर दरवाजा खोल दिया। वह उसी मुद्रा में पलंग पर बैठी रही। दरवाजे पर वही अधेड़ औरत थी, जिसे राघव ने नीचे देखा था। वह कुछ नहीं बोली। राघव की लाल आँखों और चेहरे को अचरज से देखती रही। राघव ने अपने पैंट की जेब में से कुछ नोट निकाले और बिना गिने उस औरत के हाथ में थमा दिए। नोट गिनते हुए औरत ने एक बार भीतर झाँककर मीना को देखा। वह पलंग पर उसी अवस्था में बैठी थी, लेकिन उनकी तरफ नहीं देख रही थी।
नोट गिनकर औरत ने अपने मुट्ठी में भींच लिए। राघव ने मुड़कर मीना को देखा। वह दीवार पर लगी पेंटिंग को ही देख रही थी। वह कुछ पल उसी को देखता रहा, फिर तेजी से निकलकर बाहर चला गया।
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अगली शाम राघव ने उस घर में आकर बहुत हल्ला किया।
- कितने भी पैसे ले लो...पर मुझे मीना ही चाहिए।
वह आँगन में उसी औरत के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था।
- मैं तीन बार बता चुकी हूँ कि मीना यहाँ नहीं है।
- नहीं...तुमने उसे छिपा दिया है।
उसकी आवाज और भी ऊँची हो गई थी। घर के भीतर से दो लड़कियाँ निकलकर आ गईं और अधेड़ औरत की बगल में खड़ी हो गईं।
- किसी और को ले जाओ।
वह औरत अब भी संयत स्वर में ही बात कर रही थी।
राघव ने सूनी सी आँखों से उन दोनों लड़कियों की ओर देखा, फिर बिना कुछ कहे बाहर की ओर चल दिया।
वह घर के दरवाजे पर पहुंचकर रुका। बिना मुड़े ही उसने पूछा- कब आएगी वो?
- दो-चार दिन में आ जाएगी।
वह उसी गति से बाहर निकल गया।
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एक हफ़्ते तक वह रोज शाम को आता और मीना के न होने की सूचना लेकर लौट जाता। आठवें दिन उसे मीना मिल ही गई। कुछ देर बाद वह उसी कमरे में मीना की गोद में सिर रखकर लेटा था।
- तुम रोज़ बस मेरे लिए ही आते थे?
- हाँ...और मनोहर से भी लड़ाई हो गई।
- क्यों?
वह नहीं जानती थी कि मनोहर कौन है, मगर पहले दिन भी राघव ने उसका ज़िक्र किया था, इसलिए उसने पूछ लिया।
- बोलता था कि मैं पागल हूँ। बोला कि वो मुझे इसलिए यहाँ लाया था कि मैं कुछ ठीक हो जाऊँ और अब मैं और भी पागल हो गया हूँ।
- तो लड़ाई क्यों कर ली?
- तुम्हारे बारे में गलत बोल रहा था।
मीना के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।
- उस दिन तुम्हारे पास था तो लगा कि मेरी प्यास कुछ बुझने लगी है। लगा कि कोई है, जो मुझे भी समझ सकता है। इन आठ दिनों में मैं उस एक घंटे के बारे में ही सोचता रहा।
मीना को दीदी की बात याद आई, कभी किसी मर्द से दिल मत लगाना। पहली कमाई हक़ की न करने पर दीदी ने उस दिन भी उसे बहुत डाँटा था।
वह चुप रही।
- तुम्हारी जगह ये नहीं है। मैं तुम्हें कहीं दूर ले जाऊँगा।
वह जैसे कहीं दूर से बोल रहा था, खोया हुआ सा। उसके ऐसा कहते ही मीना के पूरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई। वह काँप उठी। राघव को लगा कि यह खुशी है। मीना नहीं समझ पाई कि वह क्या था?
- चलोगी?
उसने उसका हाथ पकड़कर उसी तरह अनुरोध के स्वर में कहा, जिस तरह उसने उस दिन गोद में सिर रखने के लिए पूछा था।
- मैं तो वही करूँगी, जो दीदी कहेंगी।
उसकी आवाज भी ऐसे आई, जैसे कहीं दूर से आ रही हो।
- मैं तुम्हारी दीदी से अभी बात करता हूँ।
ऐसा कहकर वह तेजी से उठकर दरवाजा खोलकर बाहर चला गया। भौचक्की सी मीना उसे जाते हुए देखती रही।
- मैं मीना से शादी कर रहा हूँ।
उसने नीचे जाकर उस अधेड़ औरत से यही पहली बात कही। वह कुछ क्षण तक कुछ न समझकर उसके चेहरे को देखती रही।
फिर कड़े स्वर में बोली- हमारी लड़कियों की शादी नहीं होती।
- मुझे मीना चाहिए।
उस औरत को भी लगने लगा था कि वह पागल है।
- हमारी लड़कियाँ केवल खरीदी और बेची जाती हैं।
- कितने लोगी?
वह गुस्से से बोला। वह इस तरह बोल रहा था, जैसे अपनी किसी गिरवी रखी हुई चीज को छुड़ाने की कीमत पूछ रहा हो।
कुछ क्षण रुककर वह बोली- एक लाख।
यह एक लाख कहाँ से लाएगा, अगले ही क्षण उसने अपने मन में सोचा।
- कल शाम को सारे पैसे लाकर तुम्हारे मुँह पर मार दूँगा।
- फिर परसों शाम को तुम मीना को ले जा सकते हो।
वह कहकर मुस्कुरा दी। वह विजय के भाव लिए चला गया।
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अगली शाम को वह अप्रत्याशित रूप से एक लाख रुपए लेकर पहुँच गया। एक लाख रुपए देखकर अधेड़ औरत की आँखें फैल गई थीं।
- इतने रुपए कहाँ से लाए?
उसके पास बैठी मीना ने पूछा। उसके स्वर में न उत्साह था और न ही पीड़ा।
- जितना बेच सकता था, उतना बेच आया।
आज उसके चेहरे पर न बेचैनी थी और न ही तड़प।
वह औरत आधे घंटे तक रुपए गिनती रही और सामने बैठा राघव मीना को देखकर मुस्कुराता रहा।
उस दौरान मीना उससे एक बार भी नज़रें नहीं मिला पाई। वह गर्दन झुकाकर बैठी रही और जाने क्या क्या सोचती रही। कई बार उसके मन में आया कि उसे कह दे कि अपने पैसे लेकर लौट जाए। लेकिन वह कुछ भी नहीं बोली।
- जा मीना, इन्हें अन्दर रख आ।
उस औरत ने बैग बन्द करके मीना को देते हुए कहा। मीना बैग लेकर चली गई।
- कल शाम को तुम इसे ले जा सकते हो।
अब उस औरत के स्वर में बहुत मिठास आ गई थी। वह कुछ नहीं बोला। मीना लौट आई तो वह उठकर चल दिया। पीछे से मीना उसे जाते हुए ऐसे देखती रही, जैसे वह दुनिया की सबसे बड़ी अपराधिनी हो।
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अगले दिन शाम को जब वह आया तो बन्द संकरी गली के उस आखिरी मकान पर बड़ा सा ताला लटक रहा था।
- इस घर के लोग कहाँ गए?
उसने घबराई सी आवाज में पास की चाय की दुकान वाले से पूछा। दुकान वाला उसे ऊपर से नीचे तक देखकर व्यंग्य से मुस्कुराया।
- आज सुबह खाली करके चले गए।
- कहाँ?
उसकी आँखें भर आईं थीं।
- क्या पता भाई..किराएदार थे, अब और कहीं धन्धा जमाएँगे।
चायवाला हँसकर अपनी दुकान के भीतर चला गया।
राघव रात भर उस मकान की देहरी पर बैठकर रोता रहा।
सुबह तड़के ही वह प्यासा युवक शहर के पास से गुजरती नहर में कूद गया।