-तो, अब लड़की को बुलाया जाये?
मेरे घरवाले, जिनमे मैं, मेरी बहन, मेरी माँ और मेरे पिताजी हैं, मेरे लिए दुल्हन पसंद करने आये हैं।
लड़की परंपरागत भेष-भूषा में चाय-बिस्कुट के साथ हाज़िर होती है ।
-बैठ जाओ, बेटी! - माँ ने कहा।
साड़ी संभालते हुए हलकी-सी मुस्कान के साथ बैठ जाती है।
-अच्छा हँसती हो। - मैने कहा।
-शुक्रिया। -वह हल्की मुस्कुराई।-हँसने के लिए क्या..... गालों को आपरेशन से सजाया है ?
- जी नही, बचपन से ऐसे ही हैं।
-लगते नही । छोडो कोई बात नहीं । अच्छा यह बताओ , हाथों से काम कर लेती हो न , मतलब की खाना-पीना, खाना बनाना । कहीं ये हाथ नकली तो नहीं हैं।
- नही जी, असली हैं। एकदम भगवान के घर से ही जुड़ कर आये हैं ।
-वाह ! बहुत ख़ूब ! और पैरों के बारे में क्या ख्याल है , देखने में तो ये भी भगवान के घर वाले ही लगते हैं, लेकिनआज के जमाने में किसी भी चीज़ पर भरोसा नही किया जा सकता।
-ये भी असली हैं। माँ कसम!
-ठीक है , जरा चल कर दिखाओ तो। एडियों और पाँव की ऊंगलियों को इधर-उधर घुमाओ। हाँ , असली ही लग रहीहैं।
( मैं क्या पूछ रह हूँ। किसी के चेहरे पर किसी भी तरह के भाव क्यों नही उभर रहे? )
-तो यह शादी पक्की समझी जाये । - माँ ने स्वीकृति के शब्दों में कहा।
दृश्य तेजी से बदलते हैं। शादी हो चुकी है। सुहागरात का सुखद अवसर सामने है।
आज हमारी पहली रात है- मैंने कहा।
- आज हम एक-दुसरे को अच्छी तरह से जान ले, पहचान ले। सुनो, मैं तुम्हारे हाथ- पाँव देखना चाहता हूँ। ( यहमैं क्या बोल रह हूँ ! )
- लो देखो । - यह कहकर उसने अपने हाथ- पाँव शरीर से उतारकर धर दिए।-क्या ? ....... तुम्हारे हाथ-पाँव ...... तुम अपंग !
मैं बेहोश हो जाता हूँ।
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बड़ा ही भयावह एवं अजीबो-गरीब स्वप्न था। दिल में कुतूहल पैदा हो, उससे पहले ही मैंने करवट बदल ली। मेरामस्तिष्क एक नए ख्वाब की संरचना में जुट गया।
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-दोस्तों , आज मैं सबके सामने अपने इश्क का इकरार कर रहा हूँ।
सारे मित्रों की नज़रें मुझपर हीं टिकी हैं।
-मेरा पाक प्रेम! यह 'क्लास' मेरी मोहब्बत का गवाह रहेगा, रहेगा ना?
मैं पूरे जोश और होश में विभा से अपना प्रेम स्वीकार कर रहा हूँ। क्लास में विभा भी मौज़ूद है।
(लेकिन हम दोनों तो साथ में नहीं पढते! )
विभा सर झुकाकर हामीं भरती है।
(लेकिन विभा से मेरा प्यार तो एकतरफा है। )
सारे दोस्त खड़े होकर तालियाँ बजाते हैं, सीटियाँ बजाते हैं। माहौल बड़ा हीं खुशनुमा है। तभी 'क्लास' में प्रोफेसरगांगुली का आना होता है। ( प्रोफेसर गांगुली! ये तो मुझे केमिस्ट्री पढाते हैं।)
-आज मैं जो चैप्टर पढाने जा रहा हूँ , उसका नाम है " वेन विश्व मेट विभा "।
(केमिस्ट्री के पीरियड में इंग्लिश लव स्टोरी ! उफ ! पर पता नहीं क्यों, किसी भी छात्र को इसकी कोई परवाह हींनहीं है।)
-विभा की पहचान विश्व से पहले उसकी छोटी बहन प्रीति से हुई थी। -प्रोफेसर ने कहा।
मैं संग-संग सोचता जाता हूँ।
प्रीति मुझसे विभा की ढेर सारी बातें किया करती थी।
-आज विभा ने रंगोली बनाई।
-आज, जानते हो भैया, एक लड़के ने विभा को छेड़ना चाहा तो उसने उसे थप्पर रसीद कर दिया।
-आज विभा ने अपने हाथों पर मेंहद रची थी।
-विश्व विभा की मेंहदी में "वि" ढूँढकर उसमें अपने नाम को महसूस करता था।
मैं फिर सोचने लगता हूँ।
विभा का नाम लिखकर उससे बातें कर रहा हूँ।
-विभा मैं तुमसे बेहद प्यार करता हूँ। बचपन से हीं तुम्हें चाहता हूँ। ना!ना! पिछले जन्म से या फिर हजार जन्मोंसे।
-विश्व विभा के प्यार में पागल हो गया था, जबकि उसे उसने देखा तक नहीं था।
-एक दिन वह विभा से मिलने गया।
-भैया! यही है विभा।मेरी सबसे अच्छी और खूबसूरत सहेली। -प्रीति मुझसे कहती है।
मैं कुछ भी नहीं कह पाता। बस उसे एक टक देखता रह जाता हूँ। उसके सौन्दर्य के सान्निध्य का पल मैं खोना नहींचाहता। शनै: शनै: मेरा प्रेम अपरीमित हुआ जाता है।
-विश्व विभा के प्यार में इस कदर मशगूल था कि उसे इसका भान हीं नहीं रहा कि विभा जिन दो पैरों पर खड़ी थी, वे हाड़-माँस के नहीं थे। उसके दोनों पैर कृत्रिम थे। लेकिन प्रेम........
यकायक मैं सोच से बाहर आता हूँ। मैं विभा की ओर देखता हूँ। विभा मुझे हीं देख रही होती है। मुझसे नज़र मिलतेहीं वह अपना सर नीचे कर लेती है। फिर, मैं उसके कदमों को निहारने लगता हूँ।
एक झटके से पैरों से आवाज आती है- हाँ, हम असली नहीं है।- यह कहकर दोनों पैर बाहर निकल आते हैं।
मैं कुछ भी समझ नहीं पाता। पल में हीं दोनों पैर लोहे के तार बनकर मेरी आँखों में चुभने लगते हैं। विभा ओझलहोती जाती है..........
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एक करवट, दूसरी करवट....तीसरी.... नींद खुल गई। मेरा पूरा चेहरा पसीने से तर-बतर था। दोनों हीं स्वप्न मेरीआँखों पर उपलाते-से प्रतीत हो रहे थे।
उठकर मैं माँ के पास चला गया।
-बेटा! कोई बुरा ख्वाब देखा क्या?
मैं निरूत्तर।
-मैने हजार बार मना किया कि दिन में मत सो .... मत सो । दिन के ख्वाब अच्छे नहीं होते। लेकिन मेरी माने तोना।
-कुछ नहीं माँ। बस ऎसे हीं।
मैं माँ के पास भी खुद को असहज महसूस कर रहा था। सो, बात टालकर बरामदे में आ गया।
एक हीं तरह के दो स्वप्न.....मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
- आखिर ऎसे स्वप्न मुझे आए हीं क्यों? और जो स्वप्न में हुआ , क्या ऎसा हो भी सकता है।
-कोई किसी अपंग से प्रेम कर भी सकता है क्या? जो खुद को नहीं संभाल सकती, वह दूसरों को क्या संभालगी, प्यार कैसे करेगी। और ऎसों से शादी ! ऎसी किसी लड़की से शादी की कोई सोच भी कैसे सकता है।
-किसी अपाहिज के साथ जीना क्या, एक पल गुजारना भी असंभव है।
-छि: , मैं भी कैसे-कैसे सपने देखने लग गया हूँ।
-विभा, मेरी विभा, ना...ना.... सपना हीं था। वो ऎसी नहीं हो सकती। ना....! लेकिन मैने अभी तक उससे खुलकरबात भी तो नहीं की है। उसे ठीक से देखा भी तो नहीं है। कहीं वो भी.....
- भगवान करे, ऎसा न हो। मैं आज हीं उससे मिलता हूँ। उससे अपने दिल की सारी बातें कहकर डालूँगा।
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मैं विभा के दरवाजे पर था। आज तक जो कह न सका, पता नहीं कैसे, आज उससे कह देने की हिम्मत आ गई थीमुझमें । शायद यह मेरी मजबूरी थी या मेरा प्यार.... कुछ भी हो, लेकिन आज अपने दिल की बात जबां पर लानीहीं थी। मैने अपनी ऊँगलियों को डोरबेल पर प्रहार करने के लिए तैयार किया.... आगे बढाया... फिर रूक गया। पहली दफा होने के कारण मैं अपने आप को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पा रहा था। सहमते हुए मैने डोरबेलबजाया।
-खोलता हूँ। (दरवाज खोलकर) कहिए, कौन हैं, किससे मिलना है?
- वि....... विश्व आया है, वि...... विभा से कह दीजिए। (शायद विभा का भाई था।)
-विश्व कौन?
-उसकी सहेली प्रीति का भाई।
वह मुझे घूरता रहा। मैं आगे कुछ न कह सका।
फिर कुर्सी की ओर ईशारा करते हुए उसने कहा- ठीक है, आप यहाँ बैठिए। मैं पूछता हूँ।
अंदर से आवाजें आ रही थीं-
-दीदी, कोई विश्व है।
-बैठाओ। मेरी .......
आगे की बातें मैं सुन नहीं पाया। कहीं खो गया था , शायद।
-दीदी आ रही है।
-अच्छा, सुनो यह बैसाखी किसकी है।- कोने में रखी एक बैसाखी की ओर ईशारा करके मैने पूछा। ( मैं अभी भीअपने स्वप्न की दुनिया में हीं था।)
- जी.... अच्छा, यह बैसाखी! दीदी की है।
-दीदी...
मेरा स्वप्न यथार्थ में बदलने लगा था। मेरी आँखों के सामने अंधेरा-सा छाने लगा।
-वो क्या है कि कभी-कभार वो कॄत्रिम पाँव लगा लेती है। हमेशा नहीं लगाती..... चुभता है ना। जैसे कि अभी लगाईहुई है।
वह बोले जा रहा था।
-सुनो, कह देना कि कुहासे छट गए हैं। मुझे रास्ता दीख गया है। मंजिल ..... मेरी मंजिल.... वो । छोड़ो, इतना हींकह देना वो समझ जाएगी। - यह कहकर मैं वहाँ से चल दिया।
वह मुझे रोकने की कोशिश करता रहा, पर मैं ना रूका।
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-विभा भी! इतनी झूठी और मक्कार होगी वो , मैने कभी सोचा भी नहीं था। मुझे पहले हीं इस बात का भान क्योंनहीं हुआ। आह....! वह हमेशा जूत क्यों पहनी होती थी, हमेशा एड़ियों तक के हीं कपड़े क्यों पहनती थी.... छुपातीथी मुझसे। झूठी.... अपंग.....। सारे अपंग लोग हीं झूठे होते हैं... मक्कार होते हैं.....चालबाज......
मैं सड़क पर निर्बाध बढा जा रहा था।
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-भैया, अब कैसे हो?
-बेटा.... होश आ गया मेरे बेटे को।
-मैं.... मैं कहाँ हूँ?......अस्पताल में...... क्यों?
-भैया.... परसो सड़क पर ....परसो आप आ रहे थे तो पीछे से ट्रक ने आपको धक्का दे दिया। लेकिन कोई बात नहीं, चोट ज्यादा गहरी नहीं थी। ( उसकी आँखों में आँसू थे। मैने उन्हें पढने की कोशिश की।)
-अच्छा.....
-अब कैसे हो? -विभा ने पूछा।
-तुम... तुम भी यहीं हो। क्यों आई हो? झूठी .... मक्कार....। यह सब... सब तुम्हारे कारण हीं तो हुआ है।
-मेरे कारण? मैने क्या किया?
-भैया, क्या बोल रहे हो?
-बेटा, ऎसा नहीं कहते।
-हाँ , सही बोल रहा हूँ। तुम्हारी सहेली अपंग है। उसके पाँव नकली हैं। और अपंग लोग छलिया होते हैं, मक्कारहोते हैं। .... अपनी सहेली के बारे में जानती थी तुम.... हाँ... नहीं ना.... पूछो अपनी सहेली से। - मैने प्रीति से कहा।
-क्या अनाप-शनाप बक रहे हो! - विभा चौंकी।
- अनाप-शनाप! वाह! छोड़ो , मुझे यहाँ नहीं रहना। तुम्हारे सामने सच भी नहीं कह सकता। ओह!
मैने उठने की कोशिश की।
- आह! नहीं...... मेरा पाँव! मेरा एक पाँव क्या हुआ?
-बेटा, एक्सीडेंट में तुम्हारा दाहिना पाँव बुरी तरह जख्मी हो गया था। जहर पूरे शरीर में फैल रहा था। इसलिए उसेहटाना पड़ा। - माँ ने रोते हुए कहा।
-किस..... किससे पूछ कर ऎसा किया?
-आपसे कैसे पूछता कोई । आप बेहोश थे। - प्रीति की आँखें सूजी जा रही थीं।
- नहीं..... मुझे मरने दिया होता। लेकिन अपंग.....अपंग.....। मैं भी!
-चले जाओ तुम सब यहाँ से। मुझे अकेला छोड़ दो।
डाक्टर ने उन सब को इशारे से बाहर जाने को कहा। मैं घंटों रोता रहा।
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चोट ने इनके स्वभाव पर ऎसा असर किया है। ऊपर से पाँव चले जाने का सदमा! इंसान ढेर सारा खून गँवा देने केबाद चिरचिरा हो हीं जाता है।
मेरे कमरे के बाहर डाक्टर किसी को समझा रहे थे।
कुछ देर बाद-
-विभा, भैया को माफ कर देना।
-माफ किया.... लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा कि वह ऎसा क्यों कह रहा था... वो अपंग वाली बातें। मुझसे तोउसकी बात भी नहीं हुई थी। एक्सीडेंट वाले दिन वो मेरे घर आया था। मेरे छोटे भाई से कुछ पूछा, फिर न जानेक्या-क्या ऊलूल-जूलूल बोल कर वहाँ से चल दिया।
-क्या बातें हुई थीं?
-अरे मेरे घर में मेरी बहन की बैसाखी पड़ी थी। उसी के बारे में कुछ पूछ रहा था।
-विभावरी दीदी की?
-हाँ! तुम्हें पता तो है हीं कि दो साल पहले उसने ऎसे हीं एक एक्सीडेंट में अपना एक पाँव गँवा दिया था।
-हाँ, पता है।
-अब इस बात से नाराजगी! मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा।
-लेकिन मैं समझ गई। दर-असल भैया ने उस बैसाखी को तुम्हारा समझा। वो तुम्हें पसंद करता है ना। तुमसेकहता नहीं अलग बात है। शायद इसी वज़ह....
-पसंद वाली बात अपनी जगह है। (उसके भाव में किसी भी तरह का बदलाव, न हीं आवाज में किसी तरह कीउतार-चढाव महसूस हुई।) लेकिन बैसाखी की बात से नाराजगी.... यह तो कोई बात नहीं हुई ना! बैसाखी मेरी दीदीकी है। वो पहले भी मेरी दीदी थी और पैर गंवाने के बाद भी मेरी दीदी हीं है। मैं उनकी अब भी उतनी हीं इज़्ज़तकरती हूँ , जितना पहले करती थी, उतना हीं प्यार भी। शरीर का एक हिस्सा कम होने या न होने से इंसान काअस्तित्व नहीं मिटता। वह यथावत रहता है। तुम्हारे भाई ने मेरा नहीं,मेरी दीदी का अपमान किया है.....
- मानती हूँ।लेकिन.....
- लेकिन क्या? तुम मानती हो ना कि तुम्हारे भैया ने गलती की है।
-हाँ!
-अगर तुम्हारा भैया भी यह मानता तो......
मैं सब सुन रहा था और अंदर हीं अंदर घुटा जा रहा था। आगे की बातें सुन सकूँ, मुझमें इतनी हिम्मत न थी। मैंखुद में डूबता चला गया।
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-विभा , जानता हूँ कि मुझे तुमसे कुछ भी कहने का कोई हक नहीं है, फिर भी तुमसे एक आग्रह करना चाहता हूँ।
-अगर कहने को कुछ बचा है तो नि:संकोच कहो। - उसके इस जवाब में पहले वाली चंचलता न थी, बल्कि एकअकाट्य शिथिलता थी।
-मैने तुम्हारा दिल दुखाया है। अनजाने में तुम्हारी बहन का अपमान किया है, तो देखो... इसकी सज़ा मुझे मिलगई है। अब मैं जान गया हूँ कि इंसान अपने शरीर के बाहरी हिस्सों से नहीं , बल्कि अंदरूनी हिस्से-अपनी रूह- सेबनता है।
-काश , पहले जान लेते। अच्छा छोड़ो, गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा। यह बताओ कि अब कैसे हो? तबियतकैसी है?
- तबियत नासाज़ है, इसलिए तो तुम्हारे दर पर हूँ। मुझे जो भी कहना है कह लेने दो, रोको नहीं।
-ठीक है । कहो!
- मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में मुझ-जैसे कई लोग हैं, जो एक अपंग को सहारे का मुहताज समझते हैं। इसलिएउनसे प्रेम, दोस्ती ,शादी से कतराते हैं।मैने यह गलती की थी। अब मैं इसका प्रायश्चित करना चाहता हूँ। तुम मेरासाथ दोगी? बोलो!
- मैं .... मैं क्या कर सकती हूँ?
-तुम हीं सब कुछ कर सकती हो। मैं तुम्हारी बहन विभावरी से शादी करना चाहता हूँ।
-विश्व!
-हाँ विभा! दूसरे के भरोसे जीने से अच्छा है खुद का भरोसा बनोना।
-लेकिन तुम दोनों हीं तो....
- अब तुम तो ना कहो। तुम्हारी हीं बातों से खुद को जान पाया हूँ। वैसे भी जिंदगी को चलने के लिए दो हीं पाँवचाहिए। हम दोनों का एक-एक पाँव जिंदगी को अपंग नहीं बनने देगा, अपाहिज नहीं होने देगा।
- विश्व , तुम क्या थे, क्या हो गये?
- अच्छा हीं हुआ हूँ। हाँ सुनो, उससे भी तो पूछ लो। बस मेरे कहने से शादी थोड़े हीं हो जाएगी।
- पूछती हूँ।
-दीदी....दीदी.....
-दीदी की हाँ है जीजाजी। -उसका लहजा मजाकिया हो चला था।
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उस रात फिर से वही स्वप्न...
सुहागरात के लिए सेज सजी हुई है। विभावर घूँघट में बैठी है। मैं कमरे में प्रवेश करता हूँ।
-यह हमारी पहली रात है। आज हम एक-दूसरे को जान लें, पहचान लें।
-सुनो, मैं तुम्हारे हाथ-पाँव देखना चाहता हूँ।
उसने अपना पाँव उतारकर रख दिया।
-यह लो मेरा भी। - मैने हँसते हुए कहा।
हमदोनों आसमान की ओर देख रहे हैं। जिंदगी हमारे पैरों से चलकर हमारी ओर आ रही है।
सुबह उठा तो माँ ने कहा कि मैं रात भर नींद में मंद-मंद मुस्कुरा रहा था।
-विश्व दीपक 'तन्हा'