Monday, March 24, 2008

यहाँ वहाँ कहाँ

बूढ़े ने शीशम के पेड़ के सहारे ब्लैकबॉर्ड टिकाया और जेब में से मोटे काँच वाली ऐनक निकालकर आँखों पर चढ़ा ली।
- अ से....?
बूढ़े ने तीन का अंक बनाया, उसके बीच से एक लेटा हुआ डंडा खींचा और उसके दूसरी ओर एक खड़ा हुआ डंडा खींचा। फिर सामने टाट-पट्टी बिछाकर बैठे बच्चों की ओर देखने लगा।
- अर्जुन...
एक बच्चा बोला।
- अकबर...
दूसरा बोला।
- अरहर की दाल।
एक और बोला।
- अनार...
बूढ़े ने कहा और घबराकर मुँह फेर लिया। फिर उसने ‘आ’ लिखा।
- आ से?
- आग...
पहला बच्चा बोला।
- आग...., - आग...., - आग....
तीन और बच्चों ने भी पुष्टि की।
तभी कहीं से एक जवान लड़का आ गया।
- खाना खा लो।
बूढ़े ने बच्चों से पूछा- खाना खाओगे?
- नहीं...
- नहीं...
- नहीं...
- माँ ने मना किया है।
बूढ़ा डर गया। कुछ दिनों से वह छोटी छोटी बिना बात की बातों पर डरने लगा था। उसने घबराकर ऐनक उतार ली।
- बच्चों, आज का अंतिम प्रश्न। हमारा देश कौनसा है?
बच्चे चुप रहे।
- बूढ़े का देश कौनसा है?
एक बच्चे ने अपने पास बैठे बच्चे के कान में पूछा।
- बच्चों, कल ही मैंने बताया था। कौनसा है हमारा देश?
बच्चे चुप रहे।
- ठंडा हो जाएगा...
जवान लड़के ने कहा तो बूढ़ा निराश होकर चलने लगा। बच्चे अपनी टाट पट्टियाँ उठाकर भाग लिए।
- बूढ़े का देश कौनसा है?
तीसरे बच्चे ने अपना सामान समेटते हुए चौथे बच्चे के कान में कहा।
- कोई दूसरा है...
चौथे बच्चे ने उत्तर दिया।
- कोई दूसरा है...., - कोई दूसरा है...
सब बच्चे भागते हुए अपने-अपने कानों में फुसफुसा रहे थे।

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बुढ़िया ने लकड़ी की थाली में खाना परोसकर उसके सामने रख दिया।
- ठंडा हो गया है।
बूढ़े ने कहा। वह आई और थाली उठाकर ले गई।
- दे दो। खा लूंगा ऐसे ही।
कुछ देर बाद भूखे बूढ़े ने कहा तो वह वही थाली रख गई।
- तुम आजकल झुंझलाई हुई क्यों रहती हो?
बुढ़िया मशीन जैसी लगती थी। उसके हाथ-पैर भी यंत्र की तरह काम करते हुए लगते थे। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आता था। बूढ़े को लगता था कि उसके मन में भी कोई भाव नहीं आता।
- मुझे अच्छा नहीं लगता...
- क्या?
- यहाँ की औरतों के बाल सफेद नहीं होते। मेरे हो गए हैं।
- अच्छा क्यों नहीं लगता?
- सब पड़ोसनें मुझे अलग मानती हैं।
- इस उम्र में यहाँ के सब मर्दों की कमर झुक जाती है। मेरी नहीं झुकी....मुझे भी अच्छा नहीं लगता।
- तुम भी कमर झुका कर चला करो।
बुढ़िया ने दो रोटियाँ लकड़ी की थाली में रख दी।
- तुम भी कोयले के पानी में बाल धोया करो।
- उससे काले हो जाते हैं?
- पता नहीं। क्या पता, हो जाते हों...
फिर चुप्पी रही। बूढ़े ने इधर-उधर देखा। लड़के को घर में न पाकर उसने पूछा- यह लड़का कहाँ रहता है दिन भर?
- दरवाजे पर खड़ा रहता है...
- कल दोपहर में छत पर क्या कर रहा था?
- एक लड़की है पड़ोस में....
- उसकी माँ के बाल कैसे हैं?
- काले।
- लड़की के?
- भूरे।
बूढ़े के दिल को हल्का सा सुकून मिला। लेकिन अगले ही क्षण उसके चेहरे पर फिर घबराहट आ गई।
- उसका बाप तो झुककर चलता होगा...
वह बड़बड़ाया।
- सुनो...
फिर थाली में हाथ धोते हुए धीरे से बोला, ताकि बुढ़िया के सिवा कोई और न सुन ले।
- क्या?
- आज के बाद यह मूंग की दाल मत बनाना।
- क्यों?
- यहाँ सब अरहर की दाल ही खाते हैं।
- ठीक है।

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दोपहर हो गई थी। लड़का लड़की के साथ पेड़ की डाली पर बैठा था। लड़की कोई गीत गुनगुना रही थी।
- इसका अर्थ क्या है?
लड़के ने पूछा।
- तुम्हें नहीं पता?
- नहीं, मैंने पहली बार सुना है।
- तुम हमारे वाले गाने नहीं सुनते। तुम्हारे यहाँ दूसरी तरह के गाने बजते रहते हैं।
- दूसरी तरह के कैसे?
- मुझे समझ में नहीं आते।
- मुझे भी तुम्हारे गीत समझ में नहीं आते....
उसके बाद लड़की ने गुनगुनाना बन्द कर दिया। वह हल्की सी उदास हो गई थी। वह हाथ बढ़ाकर ऊपर की डाल की पत्तियाँ तोड़ने लगी।
कुछ देर बाद वह बोली- तुम्हारी माँ कभी-कभी कोई और भाषा बोलने लगती है।
- कौनसी?
- मुझे क्या पता...
- मुझे तो नहीं लगता।
- तुम्हें समझ में आती होगी, इसलिए पता नहीं चलता होगा कि कब दूसरी भाषा बोलने लगी है।
- यह भी हो सकता है...
लड़का धीरे से बोला और वह भी उदास होकर पत्तियाँ तोड़ने लगा।
- मैं तो तुम्हारी भाषा ही बोलता हूं।
- अपनी माँ के साथ तो दूसरी बोलते हो।
- अच्छा?
- तुम्हें नहीं पता?
- नहीं। मुझे पता नहीं चलता होगा कि कब दूसरी बोलने लगा हूं।
- मुझे अच्छी नहीं लगती...
- मेरी माँ?
- तुम्हारी भाषा...
- अब से नहीं बोलूंगा।
लड़का यह वचन देने के बाद और उदास हो गया। उसके चेहरे को देखकर लड़की भी चिंतित लगने लगी थी।
- तुम्हारा घर कहाँ है?
वह कुछ देर बाद बोली।
- सामने...तुम्हारे घर के साथ वाला ही तो है।
वह इस व्यर्थ के प्रश्न पर झुंझला गया।
- नहीं, जहाँ से तुम लोग आए हो।
- मैं तो यहीं से आया हूं। जन्म के बाद कहीं भी नहीं गया।
- पिताजी कहते हैं कि तुम कहीं और से आए हो।
लड़की धीरे से बोली। वह अपने अँगूठे से पेड़ की छाल कुरेदने लगी थी।
- बाबा आए थे बहुत साल पहले।
- तुम पिताजी कहा करो। यहाँ कोई बाबा नहीं कहता।
लड़का चुप रहा।
- क्या हुआ?
- कुछ नहीं।
- तुम्हें बुरा लगा?
- नहीं, मुझे बुरा नहीं लगता।
- देखो, अब रोने मत लगना।
- नहीं....
- हमारे यहाँ लड़के नहीं रोते।
- हमारे यहाँ भी....
- तुम्हारा यहाँ कहाँ है?
वह फिर अपने प्रश्न पर आ गई थी।
- पता नहीं...
- तुम शादी के बाद सिर पर पगड़ी रखा करोगे?
- यहाँ रखते हैं?
- हाँ...
- मैं भी रख लूंगा।
लड़की के चेहरे पर मुस्कान के रंग की एक रेखा खिंच आई।
- लेकिन तुम झुककर नहीं चलोगे?
- पता नहीं...
- तुम्हारे पिताजी तो नहीं चलते।
- मेरी माँ आज शाम को बाल रंग लेगी।
- कोयले से?
- तुम्हें कैसे पता?
- उधर एक और मास्टर रहता था। उसकी घरवाली भी कोयले से रंगती थी।
- वह कहाँ का था?
- यहाँ का नहीं था।
- यह यहाँ कहाँ तक है?
- मालूम नहीं।
दोपहर धीरे-धीरे ख़त्म हो गई। पेड़ भी बुझ गया।

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अगले दिन शाम को बूढ़ा देर से घर लौटा।
- कहाँ रह गए थे?
बुढ़िया ने उसी यंत्रवत तरीके से पूछा।
- माँ, तुम यह भाषा मत बोला करो।
लड़के ने बीच में ही टोक दिया।
- क्यों?
- यहाँ कोई नहीं बोलता।
बुढ़िया चुप रही। बूढ़ा आकर खाट पर बैठ गया। वह झुककर चल रहा था।
- क्या हुआ तुम्हें?
बुढ़िया ने ही सुबह उसे झुककर चलने की सलाह दी थी, लेकिन उसे झुककर चलते देख वह चौंककर बोली।
- उन्होंने कहा है कि झुककर चला करूं।
- किन्होंने?
- यहीं के कुछ लोग थे। चेहरे से पहचानता हूं, नाम से नहीं।
- उनके हाथ में क्या था?
लड़के ने व्यग्र होकर पूछा।
- कुछ नहीं...
- कुछ और भी कहा?
बुढ़िया अब वहीं की भाषा बोल रही थी।
- नहीं, कमर को मोड़ने में मदद की। यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं।
- हाँ, यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं।
लड़के ने भी सहमति जताई।
- तुम्हें दर्द हो रहा होगा?
बुढ़िया ने पूछा। बूढ़े को पहली बार लगा कि बुढ़िया के मन में भी भावनाएँ उपज सकती हैं। इस अनुभूति से ही वह घबरा गया और इनकार में गर्दन हिला दी।
बूढ़ा खाट पर लेट गया। लड़का उठकर बाहर को चलने लगा तो बूढ़े ने टोक दिया।
- कहाँ जा रहा है?
- पेड़ पर।
- वहाँ तो अँधेरा होगा।
- वह दिया लेकर आती है।
- उसके बाल किस रंग के हैं?
- पहले भूरे थे....अब काले होने लगे हैं।
- मुझे डर लगता है...
बुढ़िया बोली।
- वहाँ कोई नहीं आता माँ।
- यहाँ के पेड़ों पर साँप रहते हैं। हमारे यहाँ की बात कुछ और थी।
- हमारा यहाँ कहाँ है माँ?
- अपने बाबा से पूछ।
लड़के ने बूढ़े की ओर देखा। वह आँखें बन्द करके सोने का दिखावा कर रहा था। लड़का बिना पूछे ही चला गया।
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- आज हमारा त्योहार है।
लड़की कई दिए लेकर आई थी।
- पिछले साल भी तो आया था।
- हाँ, लेकिन तब हम पेड़ पर नहीं मिलते थे।
- तब यह पेड़ छोटा था।
- तुम लोगों ने पिछली बार भी नहीं मनाया था।
- क्या?
- हमारा त्योहार.....तुम घर में अँधेरा करके जल्दी सो गए थे।
- तुम्हें किसने बताया?
- अगले दिन सब कह रहे थे।
- हाँ, हम जल्दी सो जाते हैं।
- लेकिन यह त्योहार का अपमान है।
- त्योहार तो तुम्हारा है....
- हाँ....यहाँ का...
- तुम भी तो हमारे त्योहार के दिन व्रत नहीं रखती।
- यहाँ कोई नहीं रखता।
- वह भी तो अपमान है....
- नहीं है।
कहकर लड़की चुप हो गई। उसके घर में खुशी का वातावरण था। वह खुश होकर ही पेड़ पर आई थी, लेकिन वहाँ उसका मन भारी होने लगा था। वह उठकर चलने लगी।
- तुम जल्दी जा रही हो?
- आज हम सब घर के सामने देर तक नाचेंगे।
- मैं भी चलूं?
- नहीं, तुम्हें उस तरह नाचना नहीं आता।
- मैं सीख लूंगा।
- मत चलो....
लड़की उसके इस प्रस्ताव पर सकपका गई थी।
- ठीक है, मैं अपने घर जाकर सो जाता हूं।
- अँधेरा मत करना।
- हमारे घर में चाँदनी नहीं पड़ती।
- ये दिए ले जाओ। दीवार पर रख देना।
लड़की ने दियों की थाली लड़के को पकड़ा दी। वह चलने लगी।
- यहाँ के पेड़ों पर साँप रहते हैं?
- हम उनकी पूजा करते हैं।
लड़का भी चल दिया। वे साथ चलते रहे।
- कल दोपहर को मिलते हैं।
- नहीं, कल मत आना।
- क्यों?
- मुझे डर लग रहा है?
- साँपों से?
- मालूम नहीं किससे, पर लग रहा है।
- ठीक है, नहीं आऊँगा।
- आज तुम्हारे पिताजी झुककर चल रहे थे।
लड़की खुश थी।
- माँ ने कोयला भिगो दिया है। अब सुबह रंगेगी।
- तुम बहुत अच्छे हो....
- तुम भी। यहाँ के सब लोग बहुत अच्छे हैं।
लड़की मुस्कुराती हुई अपने घर में चली गई। लड़के ने अपने दरवाजे में घुसते हुए फूंक मारकर दिए बुझा दिए। बूढ़ा बुढ़िया सो चुके थे।
मोहल्ले वाले नाचते रहे। उनका घर रात भर अँधेरा रहा।

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- बूढ़े को बाहर भेजो।
बुढ़िया कोयले के पानी में बाल भिगोकर बैठी ही थी कि दरवाजे पर शोर सा हुआ। वह बाहर गई तो बाहर खड़े लोगों ने बूढ़े को भेजने के लिए कहा। बुढ़िया ने उसे भेज दिया और ख़ुद दरवाजे की झिर्रियों में से झाँककर देखने लगी।
- तूने रात भर घर में अँधेरा क्यों रखा?
- पास वालों ने दुमंजिले पर कमरा बनवा लिया है, इसलिए हमारे आँगन में चाँदनी नहीं पड़ती।
- दिए जलाने थे।
दूसरे ने कहा। इस पर बूढ़ा चुप रहा।
- बूढ़े का घर जला दो, फिर अँधेरा नहीं होगा।
उन लोगों के साथ खड़े एक बच्चे ने कहा। बूढ़ा पढ़ाता था तो वह सबसे अगली पंक्ति में बैठता था।
तभी लड़का भी बाहर आ गया। उसे देखकर बच्चे ने इशारा किया- यही है।
- तू पेड़ पर लड़की के साथ बैठता है?
- हाँ
- वह मेरी बेटी है। अब से उसे देखना भी मत...
- हम शादी करेंगे।
- बूढ़े का घर जला दो। इसने त्योहार का अपमान किया है।
बच्चा फिर से अपने पिता का हाथ खींच-खींचकर कहने लगा।
- अपने लड़के को समझा ले। यहाँ की किसी लड़की को देखा भी तो तुममें से कोई नहीं दिखेगा।
- मैं भी यहाँ का हूं। सिर पर पगड़ी भी रखूंगा।
लड़का बोला तो सब हँसने लगे। बच्चा भी हँसा।
- बूढ़े से पूछ कि तू कहाँ का है?
बच्चे के पिता ने लड़के की गर्दन पकड़कर बूढ़े की ओर घुमा दी।
- पिताजी, हम कहाँ के हैं?
लड़के ने ‘पिताजी’ शब्द पर अधिक जोर दिया। बूढ़ा चुप रहा। बुढ़िया भी दरवाजे की आड़ से निकलकर बाहर आ गई।
- बूढ़े का घर...
बच्चा फिर से कहने लगा तो बूढ़ा उसके पैरों पर गिर पड़ा।
- मुझे माफ़ कर दीजिए...
बच्चा बहुत खुश हुआ। उसने बूढ़े के सिर पर पैर धर दिया और जोर-जोर से हँसने लगा।
लड़के ने झुककर बूढ़े को उठा लिया। अब सब हँसने लगे, लेकिन इससे बच्चा नाराज़ हो गया। फिर से अपने पिता का हाथ खींच-खींचकर कहने लगा- बूढ़े का घर जला दो। इसका लड़का यहाँ की लड़की को पेड़ पर ले जाता है। ये सब त्योहार का अपमान करते हैं।
बच्चे के धाराप्रवाह बोलने पर वहाँ उपस्थित सब लोग फिर जोर से हँसे। बूढ़ा, बुढ़िया और लड़का सिर झुकाकर खड़े रहे।
बच्चा फिर बोल पड़ा- बूढ़े का घर....
अब भीड़ में से एक नवयुवक घर के अन्दर गया और आग लगा दी।
बच्चा ताली पीटने लगा।


Wednesday, March 19, 2008

वह बकबक पंडित बिहारी था...

४ सितम्बर १९८७
सीकर
राजस्थान


-पिताजी! सारा सामान मैने रख दिया है।
-अच्छा! और हाँ, वो भगवान महावीर की तस्वीर भी रख लेना साथ में। रास्ते भर उनका साथ रहेगा तो सफर बढिया कटेगा।
-जी पिताजी!
सुधा पिताजी के साथ जा तो रही थी, लेकिन उसका मन अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं हुआ था।
-क्या सोच रही हो?
-कुछ नहीं।

कुछ देर बाद...

-इधर आओ। मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ।

सुधा की निगाहें खिड़की के बाहर टिकी हुई थीं। इसलिए आलोक बाबू की बातों पर उसने ध्यान नहीं दिया।

-अरे! इधर आओ तो......
-हाँ..हाँ....आती हूँ।

आलोक बाबू ने भारत पर्यटन की एक चित्र पुस्तिका हाथ में थामी हुई थी। एक चित्र की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा-
-यह देखो.....यह जल मंदिर है......। कहते हैं कि भगवान महावीर ने अपनी अंतिम साँस यहीं ली थी। उनके महापरिनिर्वाण के बाद उन्हें यहीं जलाया गया था। उनकी अस्थियों की राख पाने के लिए उनके श्रद्धालुओं ने इस जगह की मिट्टी खोद डाली। श्रद्धालुओं की संख्या इतनी ज्यादा थी कि मिट्टी निकाले जाने के बाद यहाँ तालाब बन गया। जल मंदिर उसी तालाब के बीच बनाया गया था।
-जी! अच्छी कहानी है।
- ऎसा नहीं कहते बेटा। वे तीर्थंकर थे। वे गुरू थे। हम सब के गुरू.......यह तो इतिहास है......कोई मनगढंत कहानी नहीं।
-जी!

सुधा के चेहरे पर कोई भी भाव न था।

-तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है? समझ गया..........क्लासेस मिस होंगे इसकी चिंता है। अरे....कुछ दिनों की हीं तो बात है। वैसे भी कभी-कभी अपने रोजमर्रा के काम से समय निकाल कर कुछ अच्छा करना चाहिए....कुछ पुण्य करना चाहिए और इससे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है!
-जी!
-ठीक है जाओ....कल अहले सुबह हीं निकलना है...कुछ खाना-वाना तैयार कर लो।

सुधा अपने कमरे में चली गई। उसकी निगाह फिर से खिड़की के बाहर एक दरवाजे पर अटक गई।
कुछ देर बाद आलोक बाबू सुधा के कमरे में आए।

-अच्छा बेटा! देखो , मैं भी कितना भुलक्कड़ हूँ। कल निकलना है.....और अभी तक मैने रास्ते की सही जानकारी नहीं ली है। पटना से आगे किस तरह जाना है, वो तो पता हीं नहीं।
-हूँ......
सुधा ने उपस्थिति दर्शाई।
-अब घर में तो कोई नौकर है नहीं। सब को छुट्टी दे दी है। सोचता हूँ कि मैं खुद हीं अंचल से मिल आऊँ। उसे सब पता होगा। सामने हीं उसका घर है, ज्यादा दूर तो है नहीं..............और थोड़ा व्यायाम भी हो जाएगा।

अंचल का नाम सुनते हीं सुधा के चेहरे की रंगत ने करवट बदली।

-पिताजी! आप क्यों जाएँगें। मैं हीं पूछ आती हूँ। वैसे भी उनकी बहन मेरे साथ पढती है, क्लास नोट्स के बारे में मुझे उससे बात भी करनी है।
-तुम जाओगी! अच्छा जाओ। और हाँ, अगर वो ना हुआ तो उसकी बहन से कह देना कि वो आते हीं मुझसे मिले। कह देना कि बहुत जरूरी काम है।
-जी पिताजी।

सुधा की निगाह अब खिड़की से निकलकर अंचल के दरवाजे के अंदर जा चुकी थी।

कुछ देर बाद सुधा रूआँसा-सा मुँह ले कर आलोक बाबू के पास लौट आई।
-क्या हुआ बेटा?
-वो सुबह किसी "देवराला" गाँव के लिए निकले थे , अभी तक वापस नहीं लौटे हैं।
-ठीक है। तुमने उसकी बहन से कह दिया है ना।
-जी हाँ।
-आ जाएगा वो...............पत्रकार है.......यह सब तो लगा हीं रहता है........चलो कोई बात नहीं, रात में हीं जानकारी ले लेंगे।

रात हो चली थी। सुधा की निगाहों ने चाँदनी का रूप ले लिया था। ऎसा लगता था कि चाँद सुधा के घर की खिड़की से अंचल के रौशनदान में झाँक रहा हो। पूनम की रात थी, लेकिन न जाने क्यों अंचल के कमरे में अभी भी अंधेरे ने घर किया हुआ था।

रात के दस बजे आलोक बाबू को दरवाजे पर किसी की ऊँगलियों की आहट सुनाई पड़ी।
-कौन है?
-जी मैं अंचल......।
-अच्छा....अंचल.....रूको..........मैं दरवाजा खोलता हूँ।

आलोक बाबू ने कमरे की बत्ती जला दी। आहिस्ते से दरवाजा खोला ताकि सुधा जाग न जाए।
-आ जाओ..... अंदर आ जाओ।

अंचल के चेहरे पर आक्रोश के भाव थे, लेकिन आलोक बाबू की इस पर नज़र नहीं गई।
-बैठो। कुछ पूछना था तुमसे , इसलिए बुलाया।
-जी!
-काफी रात हो गई है, खाना खाकर हीं आए होगे। कुछ चाय, पानी मँगा दूँ?
-नहीं । इच्छा नहीं है। आप कहिये, किसलिए याद किया।

अंचल चेहरे से ,जितना हो सके, सहज दिखने की कोशिश कर रहा था।
-नहीं......कुछ तो लेना हीं होगा। आप हमारे घर पहली बार आए हो।
सुधा उठकर सामने आ गई थी।
- हाँ, हाँ, बेटा, चाय-बिस्किट ले आओ।

थोड़ी देर में नास्ता लेकर सुधा आ गई।
चाय में बिस्किट डालते हुए अंचल ने पूछा-
-तो कल सुबह आप जा रहे हैं बाहर।
-हाँ, इसीलिए तो बुलाया था, कल सुबह हम दोनों बिहार जा रहे हैं। सालों से तमन्ना थी कि भगवान महावीर के मोक्षस्थल के दर्शन किए जाए। मुँह अंधेरे हीं पावापुरी के लिए निकलना है हमें। अब पटना तक का टिकट तो ले लिया है। आगे किस तरह जाना है, वही जानना था। तुम जानते हीं हो कि बिहार में जाना हीं बहुत खतरनाक है और वो भी जब रूट की जानकारी न हो , कोई पहचान न हो, तब तो अंधे कुँए में कूदने जैसा खतरा है।.......
- मैं कभी नहीं गया।....... अंचल ने बात काटते हुए कहा।
- अरे! नहीं गए लेकिन तुम्हारा अपना घर तो वहीं है ना..........वो क्या कहते हैं पुश्तैनी मकान।
-जी था कभी, किसी दौर में...........अब नहीं है। और वैसे भी मेरे पिताजी वहाँ से आए थे , मैं नहीं।

अंचल ने चाय का प्याला टेबल पर रख दिया । आलोक बाबू अभी तक चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। सुधा वहीं खड़ी अंचल को एकटक निहारे जा रही थी।

-जड़ को नकारने से पत्तियाँ अपना वजूद नहीं पा लेती ना......वजूद तो जड़ का हीं होता है। तुम्हारे पिता बिहार के थे, इस नाते तुम भी वहीं के हुए।
-इन बातों को उठाने से क्या फायदा!
-फायदा तो कुछ नहीं है। बस कुछ स्वार्थ है मेरा। ..........आलोक बाबू ने हल्की-सी मुस्कान छेड़ी।
- हमारे आस-पास के किसी भी बिहारी से हमारी कोई खासी पहचान है नहीं ।........जोड़-घटाव करके हम तुम्हें हीं जानते हैं बस। अब अगर तुमसे कुछ सहायता मिल जाती तो पुण्य कमाने में हमें आसानी होती और हमारे पुण्य का एक छोटा हिस्सा तुम्हारे नाम हो जाता।
-पुण्य!!!!
-हाँ पुण्य........
-आलोक बाबू......पड़ोसी के नाते मेरा फर्ज बनता है कि मैं आपकी सहायता करूं......लेकिन अफसोस कि मैं ऎसा नहीं कर सकता।
-क्यों?
-कौन-सा कारण बताऊँ.......वह जो मुझसे जुड़ा है या वह जो मेरे पिता जी से जुड़ा है।
-पिता जी से?...........चलो कोई भी बता दो।
-पहला कारण तो यह है कि मैं कभी पटना या पावापुरी नहीं गया , इसलिए बता नहीं सकता। और अगर कुछ पता भी है......जो कि कभी-कभार "राजस्थान पत्रिका" में दूसरे पत्रकार दोस्तों के आलेख पढने से पता चला हैं, अरे......आपको पता तो है ना कि मैं "राजस्थान पत्रिका " में एक पत्रकार हूँ.....पता हीं होगा......तो जो भी कुछ मुझे पता है , वो मैं दूसरे कारण से आपको नहीं बता सकता।

आलोक बाबू और सुधा अंचल को हीं देखे जा रहे थे। आलोक बाबू की चाय की चुस्कियाँ समाप्त हो चुकी थीं। उन्होंने चाय का कप टेबल पर रख दिया। सुधा को इशारे से ट्रे अंदर ले जाने को कहा। सुधा प्लेट और ट्रे लेकर रसोई में चली गई।

-मैं कुछ समझा नहीं। दूसरा कारण ......मतलब कि तुम्हारे पिताजी के कारण ................
- शायद हाँ......
-लेकिन तुम्हारे पिताजी से हमारे परिवार के तो अच्छे ताल्लुकात थे। हम दोनों की अच्छी-खासी जमती थी।
-छोड़िये ........पूरानी बातों को याद करने से कुछ नहीं मिलने वाला। रात ज्यादा हो गई है। मैं जाता हूँ । मान लीजिएगा कि आपके पास का एक और बिहारी आपके भरोसे का पात्र न हो सका। उसने धोखा दिया आपको।
-अरे.....कैसी बातें करते हो! बिना कारण हीं नाराज हो रहे हो।
- बिना कारण हीं...........?
- तो और क्या.......तुमसे कभी कोई बहस नहीं हुई.......तुम्हारे पिताजी मेरे अच्छे दोस्त थे......तो कारण कहाँ है?
- "बकबक पंडित" यह विशेषण तो आपको याद हीं होगा?
- हाँ..........हमारे समूह में पंडित श्रीधर को हम इसी नाम से पुकारते थे। उसे बोलने का शौक था...........अच्छा बोलता था..............कुछ वेद , पुराण रटे हुए थे......हमेशा सुनाया करता था।
- बस इतना हीं?
- और क्या!!
- पिताजी के मौत के बाद इस मोहल्ले में आपकी कुछ पंक्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुई थीं। याद है आपको?
-क्या?

-"......वह बकबक पंडित बिहारी था। उसने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे और बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा.....उसकी यह भविष्यवाणी उसी पर सच हुई। भरोसे का पात्र ना रहा वो......"

आलोक बाबू जितना हो सके,मुद्दे से बचने की कोशिश कर रहे थे।

-मैंने ऎसा नहीं कहा था कभी।
-सच!!!!!! चलो, आप बिहारी नहीं हैं ना....आप पर तो भरोसा करना हीं पड़ेगा।
- हाँ, कहा था लेकिन इतनी बातें नहीं कही थीं।
- तो क्या कहा था?
- भविष्यवाणी तुम्हारे पिता ने हीं की थी। उसी ने कहा था कि सब बर्बाद हो जाएगा......और कहो......क्या गलत कहा था उसने .......सब तो बर्बाद हो हीं गया है। और वैसे भी तुम्हें इतना बुरा लग रहा है तो इसमें तुम्हारे पिता का हीं दोष है, बिहारी होने के बावजूद उसने ऎसी बातें कहीं थीं।
-पूरी बात? मतलब कि आपने कुछ नहीं जोड़ा है इसमें.......आपका कोई दोष नहीं।
-कुछ नहीं जोड़ा.........
-और वो भरोसेमंद वाली बात......भरोसा की बात? वो आपने नहीं कही थी?
-नहीं............ हाँ , कही थी, और सच कहा था मैने।

आलोक बाबू पूरे रंग में आ चुके थे।

- तो मान लूँ कि यह सच है। मान लूँ कि मेरे पिताजी धोखेबाज थे। अपने पिता पर लगे आरोप मान लूँ?
-सच जानोगे तो मानना पड़ेगा हीं। इसलिए मैं कोशिश कर रहा था कि यह बात यहाँ तक ना पहुँचे। जितना हो सके, पुरानी बातों और यादों को भूलने का प्रयत्न किया है मैने। लेकिन तुमने वो बात छेड़ हीं दी.....। कभी-कभी अतीत का अक्स डरावना होता है , जानते हो तुम्हारे पिता की मौत कैसे हुई थी? सुन सकोगे.......उसने आत्महत्या की था। वह पूरे मोहल्ले का दोषी था, मोहल्ले के और धर्म के विधि-विधान का विरोध किया था उसने। मोहल्ले के लोगों का आक्रोश वह सह नहीं सका , इसलिए उसने शर्म से आत्महत्या कर ली। ऎसा था तुम्हारा पिता........ऎसा था तुम्हारा पिता!!!!!!!!

सुधा के आँखों में आँसू उतर चुका था। अपने दुपट्टे से वह उसे पोछने का असफल प्रयास करने लगी। माहौल में एक मुर्दानगी-सी छाई हुई थी।

-सच!!! यही सच है?
अंचल ने लाशों का जखीरा हटाते हुए कहा।

-सच जानते हैं आप?........सच मानते हैं आप?........सच कहूँ तो आप .जानते हैं, लेकिन मानते नहीं।
-क्या कहना चाहते हो तुम?
-आप १९७० से पहले जैन धर्म मानते थे?

आलोक बाबू निरूत्तर थे।

-नहीं मानते थे। आपने उसी साल के बाद अपना धर्म, अपनी मान्यताएँ बदली थीं। है ना?

सुधा आश्चर्य से कभी अंचल को तो कभी आलोक बाबू को निहार रही थी। माहौल ने कब यू-टर्न लिया , इसका अंदाजा किसी को न था।

- आपको पता है न कि १९६६-६७ में बिहार में भयंकाल अकाल पड़ा था।
- पिता जी मुजफ्फरपुर के एक छोटे से गाँव में रहते थे। गाँव का नाम याद नहीं........और नाम महत्वपूर्ण भी नहीं यहाँ। जाति से ब्राह्मण थे, सो यजमानी करते थे, पांडित्य हीं एक अकेला पेशा था । कहते हैं कि पंडित श्रीधर यानि कि मेरे पिता जी वेद, पुराण , उपनिषदों के अच्छे जानकार थे। तब भी वह साधारण जिंदगी जीते थे। भरण-पोषण के लिए इससे ज्यादा किसी भी चीज की जरूरत न थी, न माँ को और न हीं पिता जी को और न हीं हम दो भाई-बहनों को।

आलोक बाबू को गड़े मुर्द उखाड़ने की न हीं कोई इच्छा थी और न कोई मंशा.......लेकिन अब यह मजबूरी हो चली थी।

-सुन रहे हैं ना?
सुधा ने हामी भर दी। आलोक बाबू ने इशारे से उसे डाँटा। सुधा ने नजरें झुका ली।

-तो हाँ, अकाल के वक्त पूरा का पूरा गाँव खाली हो गया। पिताजी को भी घर छोड़कर भागना पड़ा। कहते हैं कि विदेशों से सहायता ली गई थी......लेकिन पेट पानी माँगता है , पैसा नहीं......।.बिहार की उस समय ऎसी हालत हो गई थी कि कोई ऎरा-गैरा भी यह भविष्यवाणी कर देता कि "एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे।" लोग जीने को तरस रहे थे , फसलें , सड़को , शहर या हथियार की किसे परवाह थी। भूखा आदमी बेकार हीं होता है। इसमें नई बात क्या थी। गलती यह हुई कि यह बात वेद , पुराण के जानकार पंडित श्रीधर ने कही थी। तब तो सारा दोष उसी पर मढा जाना था।

-मैने तो यही कहा था।
आलोक बाबू ने चुटकी ली।

-हाँ, आपने हीं कहा था। भविष्यवाणी के आगे की सारी बातें आपने हीं कही थी। "बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा....." यह पंक्ति आपके हीं दिमाग की उपज थी। पिताजी ने ऎसा कभी नहीं कहा था। एक इंसान, जो कि अपना घर छोड़कर कहीं और जीने आया है, उसे बदनाम करना बहुत हीं आसान होता है आलोक बाबू।

-हूँ!!!
आलोक बाबू ने झल्लाकर कहा।

-अच्छा यह बताईये कि वह कौन थी?
-वह कौन?
-जिसके लिए मेरे पिताजी ने मोहल्ले के और आपके पुराने धर्म के नियमों का विरोध किया था, जिसके लिए आपने जैन धर्म अपना लिया था।
-कोई नहीं थी..........
-आपकी भाभी थी ना?
-भाभी!
-हाँ, आपकी भाभी..................भूल गए क्या? अपने भैया , माँ, बहन सभी को भूल गए क्या?
-मेरा कोई बड़ा भाई नहीं था, कोई भाभी नहीं थी मेरी।

सामने की दीवार पर बेसुध लटकी घड़ी की सूईयाँ डर कर सिमट गई थीं। रात के १२ बारह बज गए थे शायद। आलोक बाबू एकटक उन्हीं सूईयों को देख रहे थे।मालूम होता था कि वह १६ साल पहले की यादों को वक्त की घड़ी से मिटाना चाह रहे थे।

-पिताजी!!!!!!
सुधा ने अपने कानों पर शंका जाहिर की ।

-यहाँ आए मेरे पिता जी को ४ साल हो चुके थे। आपके घर उनका अच्छा आना जाना था। आपके बड़े भाई फौज में थे। उसी समय पाकिस्तान से लड़ाई चल रही थी।

-सब झूठ है।
- तो एक कहानी समझ कर हीं सुनते रहिए। जो हो चुका है ,वह अब इतिहास है, दुहराया नहीं जा सकता। कुछ उसे नकारने की कोशिश करते हैं.....................सफल भी होते हैं, १६ सालों से आप भी सफल होते आ रहे हैं।
-हूँ!!!
- राजस्थान बार्डर पर थे आपके भाई। हिम्मती थे, कई बंकर नष्ट किये थे उन्होंने। पर अफसोस शहीद हो गए। अरे अफसोस क्या..........शहीद हुए थे वो, हमें गर्व हैं उन पर।

सुधा साँसें रोके सब सुन रही थी।

-असली कहानी यहीं शुरू होती है। "बकबक पंडित श्रीधर" की गलतियाँ और छल अब हीं सब के सामने आने वाले थे।
अंचल ने "गलतियों और छल" पर विशेष जोर दिया , ताकि बात का भारीपन पता चले।

-आपके भाई और भाभी की कोई संतान न थी। आपके भाई की मौत के बाद आप सब ने जो निकृष्ट काम किया, उसके सामने दुनिया का कोई भी पाप छोटा है। आप सब अपराधी थे और सारा अपराध एक निरपराध "बकबक पंडित" पर डाल दिया गया था। जानती हो सुधा..............................

सुधा ने पहली मर्त्तबा अंचल के मुँह से अपना नाम सुना , लेकिन दु:ख और आश्चर्य इस एक पल की खुशी पर हावी हो चला था। आँखे सूजी हीं रही, लब खामोश हीं रहे।

-जानती हो सुधा.........आलोक बाबू ने अपने आँखों के सामने अपने भाई की लाश के साथ अपनी भाभी की जिंदा लाश जलाई थी, सती किया था उसे।

हवा में जमे आहों के सारे बर्फ एक-एककर टूटने लगे। खामोशियाँ शोर मचाने लगी। सुधा बहरी हो चली थी। अंचल को विश्वास था कि आलोक बाबू इस बार भी उसकी बात काटेंगे, लेकिन ऎसा नहीं हुआ, वे चुपचाप जमीं को निहारते रहे।

-और वो "बकबक पंडित" उस दिन भी बकबक करता रहा। माँ कहती है कि पिता जी राजा राममोहन राय के बहुत बड़े भक्त थे। कभी-कभार तो माँ को शक होता था कि कहीं राजा राममोहन राय ने उनके पति के रूप में पुनर्जन्म तो नहीं लिया है। ब्रह्म समाज, विधवा विवाह न जाने कैसी-कैसी बातें वे किया करते थे। उस दिन भी यहाँ के प्रकांड विद्वानों के सामने "बकबक पंडित" चालू रहा। न जाने कौन-कौन-से वेद , पुराण खंगाल डाले गए।

-आलोक बाबू, याद है...... आपके बड़े भाई की चिता सजी हुई थी, आपकी भाभी अपने पति के लाश के सामने विलाप कर रही थी , सारा का सारा मोहल्ला , सारी जमात जमा थी वहाँ।
-आपकी माँ ने अपनी बहू को सांत्वना देते हुए कहा था कि " पति के मृत्यु के बाद पत्नी का कर्तव्य बनता है कि वह अपने सतीत्व की रक्षा करे, और अपने पति के साथ चिता में प्रविष्ठ हो जाए"। उन्होंने कहा कि यह पंक्ति "विष्णु स्मृति" की है। आपको अंदेशा भी था कि आपकी भाभी पर तब क्या बीती रही थी? आपको क्यों अंदेशा होने लगा,क्यों कष्ट होने लगा.............आप भी तो यही चाहते थे कि विधवा घर में ना रहे, आपके बेटी पर उसकी छाया न पड़े। सच कहा न मैने???

आलोक बाबू कुछ भी कहने की हालत में न थे। सुधा भी अब तक जिंदा लाश हो चुकी थी.....उसके कान पर जमे बर्फ पिघल चुके थे.....। वहीं आँखों पर आँसू की चादर पड़ी थी। कुछ देर पहले तक की बहरी सुधा अब गूँगी थी।

- उस विधवा को जबरन घसीट कर चिता तक ले जाया गया। उसके हाँथ-पाँव सुन्न पड़ गए थे। उसके चारों और औरतें गीत गा रही थीं , सारे मर्द अपनी मर्दानगी पर फूले न समा रहे थे। मर्द................हा हा हा हा...............वहाँ कोई मर्द था तो बस एक वह "बकबक पंडित" । शरीर से कमजोर था , इसलिए लड़ नहीं सकता था, इसलिए उसने शास्त्रार्थ शुरू कर दिए।

-यहाँ के विद्वानों ने कहा:

इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु |
अनश्रवो.अनमीवाः सुरत्ना रोहन्तु जनयोयोनिमग्ने ||

यानि की विधवा को सज कर , बिना किसी मोह के और आँसू त्याग कर आग में प्रविष्ठ होना चाहिए।

-बकबक पंडित ने ऋगवेद पढ रखा था। वह जानता था कि वेद की यह ॠचा मौलिक नहीं है। उसने मौलिक ऋचा सुनाई।

इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु |
अनश्रवो.अनमीवाः सुरत्ना रोहन्तु जनयोयोनिमग्रे ||

यानि की सभी पत्नियों को सज कर, बिना किसी मोह के और आँसू त्याग कर नए घर में प्रवेश करना चाहिए। इसमें कहीं भी विधवा और आग का संबंध नहीं बताया गया था।

उसने ॠगवेद की दूसरी ऋचा भी सुना डाली, जिसमें कहा गया था कि "उठो, जिसके बगल में तुम लेटी हो, वह मर चुका है । जाओ , तुम जीवित संसार में वापस लौट जाओ।"

उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि |
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ ||


-प्रकांड विद्वानो ने उसकी एक न मानी। "बकबक पंडित" तरह-तरह से अपना पक्ष रखता रहा, ताकि एक विधवा की जान बचाई जा सके। उसने हर एक ग्रंथ की बातें वहाँ उड़ेल डाली, लेकिन किसी पर कुछ भी असर न हुआ। कोई भी उसकी मानने को तैयार न था। वह "बकबक पंडित" हार चुका था। अंत में उस विधवा को उसके पति के साथ जला दिया गया। सारा समाज न जाने किस जश्न में डूब गया।

-सुधा? आलोक बाबू?
-सुन रहे हैं ना?
-आलोक बाबू.......इसमें मेरे पिताजी का क्या दोष था?
आलोक बाबू की आँखों पर मवादभरे घाव उभर पड़े थे। ऎसा लगता कि किसी भी क्षण वह फूट पड़ेगा।

-जश्न खत्म होने के बाद अब "बकबक पंडित" के स्वागत की बारी थी। पूरा मोहल्ला उन्हें हीन निगाहों से देख रहा था। प्रकांड विद्वानो ने "बकबक पंडित" से शास्त्रार्थ को अपने अपमान की तरह लिया । उन्होंने पूरे जमात में "बकबक पंडित" के खिलाफ नफरत की भावना फैला डाली। सबसे कहा गया कि "सती प्रथा जैसी पावन प्रथा को इस नीच ने नीचा दिखाया है। अब पूरे इलाके में सती का प्रकोप तांडव करेगा.....पूरे प्रदेश में अकाल, सूखा जैसी घटनाएँ होंगी। यह नीच जब बिहार में था तो वहाँ भी अकाल आया था.....यह किसी भी प्रदेश, किसी भी जमात के लिए शुभ नहीं है....इसका तिरस्कार करो"

-रात भर पंडित श्रीधर का अपमान किया गया। उन्हें नंगा घुमाया गया......उन्हें गौमाँस खिलाया गया, शराब पिलाई गई......

-आलोक बाबू? सुन रहे हैं?
-हूँ......
आलोक बाबू की बँधी-सी आवाज कुछ क्षण के लिए बाहर आई।

-पंडित श्रीधर मेरे पिता थे..........मेरे पिता ।
अंचल की आवाज अब बैठ चुकी थी। आँसू आस्तीन तक आ चुका था। फिर भी अंचल चुप ना हुआ........ पत्थर पर प्रहार करता रहा।

-आप हीं कहिए आलोक बाबू.....आलोक बाबू.........ऎसा होने के बाद कौन इंसान जिंदा रह सकता है। हाँ, मेरे पिताजी ने आत्महत्या कर ली थी............छप्पर पर रस्सी डाल उस पर लटक गए थे, लेकिन वो कायर नहीं थे....कायर नहीं थे वो....कायर नहीं थे वो।

अंचल चीख पड़ा। डरकर खिड़की पर बैठे पंछी उड़ भागे । नक्षत्र जल्दीबाजी में आ गए, अदला बदली करने लगे । चाँद को सुबह होने की चिंता सताने लगी। आसमान रोने लगा........बारिश होने लगी।

कोई कुछ नहीं बोला.......बस घड़ी की सूईयों और हवा के सुबकने की आवाज आती रही।

थोड़ी देर बाद अंचल ने हीं मौन तोड़ा।

-आलोक बाबू, आप तो समझदार निकले । दो जान लेने के बाद आपने अपना धर्म हीं बदल डाला। बेटी की चिंता सताने लगी। कहीं इसे भी सती न किया जाए।

आलोक बाबू सुन कर रो पड़े।

-कोई बात नहीं।............ चलिए, मैं चलता हूँ। आपकी सहायता न कर सका, इसके लिए माफी चाहता हूँ। जाइए, सो जाइए। सुबह-सुबह हीं आपको पावापुरी के लिए निकलना है ना। हाँ, अगर मेरी जरूरत पड़ी तो मुझे बुला लीजिएगा, स्टेशन जाते वक्त पटना से पावापुरी का रूट समझा दूँगा।

रात के दो बज चुके थे। अंचल आलोक बाबू के यहाँ से निकलकर अपने घर लौट आया। उसने अपनी बहन को आवाज दी । वह सो चुकी थी। दरवाजे पर दो-तीन ठोकर के बाद अंदर से आवाज आई:

-कौन है?
- मै.....भैया!
-अच्छा भैया.......रुको खोलती हूँ।

उसकी बहन ने दरवाजा खोला।

-खाना खाओगे।
-नहीं भूख नहीं है। जाओ तुम सो जाओ।
-कुछ तो खा लो.....सुबह से भूखे हो......सुधा ने कुछ खिलाया क्या?
-कितना बोलती हो! बोला ना, जाओ , सो जाओ। मुझे नहीं खाना...........नहीं खाना। जाओ!!!!

उसकी बहन रो पड़ी। रोते-रोते अपने कमरे में चली गई।
वह भी अपने कमरे में चला गया। रात भर दोनों के कमरों से रोने की आवाज आती रही।

सितम्बर १९८७


अगले दिन अंचल , आलोक बाबू और सुधा को स्टेशन छोड़ने गया। रास्ते भर केवल अंचल हीं बोलता रहा। उसने उन दोनों को पूरे बिहार की जानकारी दे दी। वे दोनों मौन होकर सुने जा रहे थे। बस वे तीनों हीं जानते थे कि अंचल "बकबक" कर रहा था या कुछ और । स्टेशन पर दोनों को अंचल ने विदा किया और लौटते समय सीधे "राजस्थान पत्रिका " के कार्यालय पहुँच गया।

उसने चपरासी को कह दिया कि किसी को भी उसके केबिन में नहीं आने दिया जाए। दिन भर वह कोई रिपोर्ट तैयार करता रहा......फिर एडीटिंग , प्रूफ रीडिग.....और भी कई प्रोसिजर चलते रहे। अंत में वह रिपोर्ट प्रीटिग के लिए भेज दी गई।


सितम्बर १९८७

राजस्थान पत्रिका की रिपोर्ट :

"गत सितम्बर को सीकर जिले के देवराला गाँव में गीत कँवर नाम की एक विधवा को सती कर दिया गया। समाज का कहना है कि वह विधवा स्वयं हीं अपने पति के साथ मृत्यु-शैय्या पर जाना चाहती थी। लेकिन सच क्या है , वह वही जान सकता है, जिसने कभी इसे महसूस किया है। एक साधारण इंसान छोटी-सी तिल्ली की जलन नहीं सह सकता तो कोई विधवा जिंदा जलाया जाना कैसे स्वीकार कर सकती है। कोई भी वेद, पुराण या उपनिषद इस प्रथा को सही नहीं ठहरा सकता और अगर कोई ठहराता है तो वह पूज्य नहीं
सच मैने अपनी आँखों से देखा है।सच.....एक भयावह सच।
एक "बकबक पंडित" फिर से शास्त्रार्थ को तैयार है। "

दिन भर यह रिपोर्ट आग की तरह पूरे राजस्थान में फैलती रही।
इतिहास स्वयं को दुहराने को आतुर था ।

देवराला के कुछ प्रकांड विद्वान अपना अपमान अनुभव करने लगे थे। हवाएँ साँप ढोने लगी थीं, सारे मर्दों को अपनी मर्दानगी का अहसास होने लगा था, स्त्रियों को अपने गीतों के सुर खोने का भान होने लगा था।

१४ सितम्बर १९८७
सीकर
राजस्थान

आलोक बाबू और सुधा पावापुरी , राजगीर और नालंदा के दर्शन कर वापस आ गए थे। हमेशा की तरह सुधा की निगाहें अंचल के दरवाजे पर टिकी थी। कुछ देर बाद अंचल की पागल हो चुकी माँ अपने कपड़े चबाते बाहर निकली। अंचल की बहन उसे घसीटते हुए अंदर ले गई। वह बस एक हीं चीज दुहरा रही थी।

- बकबक पंडित........एक और बकबक पंडित.....एक और बिहारी बकबक पंडित................मर गया ना वो भी...................एक और मौत.........भैया..................

कहकर वह वहीं गिर पड़ी।

इस बार दो नहीं छह मौते हुई थीं.....
वह विधवा, अंचल, अंचल की माँ, उसकी बहन, सुधा और आलोक बाबू।

-विश्व दीपकतन्हा

यह कहानी एक वास्तविक घटना से प्रेरित है दिनांक और जगह के नाम सही रखे गए हैं, बाकी सब काल्पनिक है।
उस वास्तविक घटना का लिक यहाँ है।

Saturday, March 15, 2008

तनहाइयां परिंदे की

एक भूमिका की भूमिका


´´आप बताते चलिए और मैं लिखती चलूंगी। मैं अब तक न कही गई उन यातनाओं के बारे में सिर्फ़ लिखना ही नहीं चाहती, जीना भी चाहती हूं। हां, भूमिका आप खुद लिखिए। भूमिका उस व्यक्ति से लिखवाने पर ज्यादा अंक मिलेंगे जो उस इतिहास का साक्षी है।´´
´´ ठीक है। लेकिन मेरी एक शर्त है। पहले मुझे चाय का एक प्याला पेश करो।´´
वह उठे और यूं ही टहलने लगे। दीवार पर एक पुरानी तस्वीर मुस्करा रही थी। हेमंत और सुमन खास सज संवर कर फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुए थे। उन्हें याद आया उस दिन उनका मन फोटो खिंचाने का बिल्कुल नहीं था। बस हेमंत और सुमन की ज़िद पर बेमन से तैयार हुए थे।
´´मुस्कराइए भाई साहब।´´ स्टूडियो से आमंत्रण पर बुलाए पेशेवर फोटोग्राफर ने पेशेवराना अंदाज में कहा था।
उन्होंने भृकुटि टेढ़ी करके हेमंत की ओर देखा था और हेमंत ने बिना बोले उन्हें आंखों से डांट दिया था। वह कैमरे की ओर देख कर मुस्कराए थे। क्लिक।
वह मुस्कराने लगे। गुड़िया चाय लेकर आ गई।
´´आप अकेले में क्यों मुस्करा रहे थे ?´´ वह उनकी ओर कौतूहल से देखने लगी।
´´ मैं तुम्हारे पापा से बात कर रहा था।´´ वह भी उनकी निगाहों का अनुसरण कर तस्वीर की ओर देखने लगी।
चाय पीते हुए वह सोफ़े पर बैठ गए। गुड़िया काग़ज़ और कलम ले कर इंतज़ार कर रही थी कि वह जल्दी अपनी चाय खत्म करें।
´´यह कहानीनुमा होगा या लेख जैसा..................... या फिर किसी शोधपत्र की तरह.................?´´
´´ कैसा भी हो सकता है दादू। बस ´संवेदनात्मक लेखन´ के ज़रिए पापा को एक बार जीना चाहती हूं। आपने मुझे बचपन में ही पढ़ाई के लिए देहरादून भेज दिया। पापा के ऊपर हुए अत्याचार के विषय में मैंने सिर्फ़ मां के मुंह से ही थोड़ा बहुत सुना है। मैं सब कुछ तफ़सील से जानना चाहती हूं। उनके बारे में और उस भयावह दौर के बारे में सब कुछ......................।´´
´´ हालांकि अब जब सब कुछ बहुत पीछे छूट चुका है तो उन्हें याद करना कोई अर्थ नहीं रखता बेटी।´´ उन्होंने बचने का एक कमज़ोर सा प्रयास किया।
´´ उसके लिए भी नहीं दादू जिसने उस दौर में अपना बेटा खोया.................... या अपना पिता।´´ गुड़िया ने गहरी आवाज़ में पूछा।
वह खामोश हो गए। ´´ तो क्या हम आज फ़िल्म देखने नहीं चलेंगे ?´´ वह अतीत की काली अतल गहराइयों में जाने से बच रहे थे। अब वहां क्या रखा है।
´´ नहीं आप आज लिखवाइए वरना मेरी छुटि्टयां खत्म हो जाएंगीं।´´ वह ठुनकी। कितना बचपना है इसके अंदर अभी तक ? कभी-कभी बिल्कुल हेमंत की तरह लगती है।
´´ कब तक रुकना है ?´´
´´ एक हफ्ते और...........।´´
´´ कुछ दिन और नहीं रुक सकती ?´´
हूं∙∙.............. सोचूंगी अगर आज आपने पूरा लिखवा दिया तो।´´
´´ चलो बाबा चलो................ लिखते हैं।´´



भूमिका-ए-वक्तनामा


भूमिका लिखने से पहले वह थोड़ी देर ठिठके से साचते रहे। शब्द और विचार अनवरत गति से उनके दिमाग में घूम रहे थे। वे उन्हें कलम से संयोजित नहीं कर पा रहे थे। कहां तो दिमाग हमेशा खाली रहता है और कहां आज विचारों का इतना दबाव................। उन्होंने लिखना शुरू किया।
इसे लिखने की कोई खास वजह नहीं थी। न तो इसे लिखने का भरपूर साहस था न पर्याप्त कारण। वैसे कोई भी कारण ऐसी घटनाओं को कलमबद्ध करने जैसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए पर्याप्त नहीं होता, इस मत में मैं निश्चित हूं। मैं कहानी लिख रहा हूं या इतिहास, यह भी मैं विश्वास से नहीं कह सकता। पर कहते हैं कि ऐसी घटनाएं सवार होकर खुद को लिखवा ही लेती हैं। इसमें कितना झूठ है और कितना सच, यह मैं नहीं कह सकता। हां एक महान उद्धरण ´´इतिहास में तिथियों को छोड़कर बाकी सब झूठ होता है और कहानी में तिथियों को छोड़कर बाकी सब सच´´ का सहारा लेकर शायद इस जीवित दस्तावेज़ को वर्गीकृत किया जा सके। अर्थात इतिहास भी एक कालजयी कहानी है और कहानी एक कालजयी इतिहास।
यदि मैं वजह की बात करूं तो कोई ठोस वजह न होने के बावजूद यह भूमिका मैं लिख रहा हूं क्योंकि मैं आत्महत्या करने की मानसिक अवस्था में पहुंच जाने के बावजूद आत्महत्या करने से अधिक जीवित रहने की ठोस वजह खोज चुका हूं। मैं जानता हूं कि यह परियोजना समाप्त होने पर मैं पहले से ज्यादा यंत्रणादायक अवस्था में हूंगा पर सबसे बड़ी और ठोस वजह है मेरी पौत्री प्रांजलि विश्नोई, जिसे मैं प्यार से गुड़िया कहता हूं। यह अनोखी परियोजना उसके विश्वविद्यालय की ´संवेदनात्मक लेखन´ प्रतियोगिता के लिए तैयार की जा रही है जिसकी भूमिका पुझसे लिखवाने के लिए मैं इसे ढेर सारा आशीर्वाद और प्यार देता हूं।
डॉ. देवेन्द्र कुमार
अवकाशप्राप्त व्याख्याता
दिल्ली विश्वविद्यालय


गुड़िया ने पढ़ा और न जाने क्या सोचकर गुमसुम सी हो गई। वह लाइनों के बीच भी पढ़ने की कोशिश कर रही थी और इस कोशिश ने उसे मायूस कर दिया था क्योंकि लाइनों के बीच थीं तो सिर्फ़ डॉ. देवेन्द्र कुमार की आंखें।
´´क्या सोचने लगी बेटा...............?´´ बदले में गुड़िया डबडबाई आंखें से उनके गले लग गयी। थोड़ा देर बाद आंखें पोंछ कर संयत हुयी।
´´ हां, शुरू करिए, मैं तैयार हूं।´´
उन्होंने कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाया और आंखें बन्द कर लीं। कमरे में चलता पंखा अचानक धुंए के बादल फेंकने लगा था। सारी चीज़ें उसमें ढकती जा रही थीं। हर ज़िन्दा और निर्जीव शै धीरे-धीरे धुंए के उस गुबार में समा गयी।

धुंए के उस पार की कथा


जब धुंआ छटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। समय का पहिया पचीस वर्ष पीछे घूम चुका था। कमरे में न डॉक्टर साहब थे न गुड़िया। चौबीस वर्षीय हेमंत पिकनिक पर जाने के लिए तैयार हो रहा था।
वे मार्च-अप्रैल के दिन थे और हवा में दिलकश ठंडक रहती। पेड़ों से झरते पत्ते कभी बहुत खुश कर जाते और कभी उन्हें देखकर विरक्ति सी होने लगती। विश्वविद्यालय की सड़कें पत्तों से पटी होतीं और थोड़ी भी हवा चलने पर पत्ते बढ़ी रूमानी ढंग से सबके बदन को सहलाते यहां-वहां उड़ते।
´´ वह आएगी या नहीं ?´´ हेमंत ने स्कूटर स्टार्ट करते हुए पूछा।
´´ ये मैं जानूंगा या तुम ?´´ रजत ने सवाल पर सवाल दागा।
हेमंत दिल्ली विश्वविद्यालय में वाणिज्य का छात्र था और सिर्फ़ छात्रसंघ का मंत्री होने के कारण ही प्रसिद्ध नहीं था। उसकी लोकप्रियता के पीछे उसके ओजस्वी भाषणों और विचारोत्तेजक लेखों का सबसे बड़ा योगदान था। ज्योति ग्रुप की सबसे चुलबुली लड़की थी और हेमंत सबसे गंभीर। दोनों में अक्सर झगड़े भी होते रहते थे जिसे वे मतभेद कहते। पर आश्चर्य कि इन दोनों विपरीत स्वभाव वालों के बीच ( ग्रुप के अनुसार) आजकल ´कुछ-कुछ´ चल रहा था। इस कुछ को ग्रुप प्रामाणित करना चाहता था और मौका तलाश रहा था। ग्रुप यानि इन दोनों के अलावा रजत,सलमा और फ़राज। रजत थोड़ा संकोची,धार्मिक स्वभाव का लड़का था जिसकी जेब में हमेशा हनुमान चालीसा का छोटा गुटका रहता। मधुर बोलता और हर बात में ईश्वर की दुहाई दिया करता। सलमा सुंदर सी लड़की थी जिसके दांत औसत से थोड़े ज्यादा बड़े थे। नटखट से नटखट बात पर वह सिर्फ़ मुस्करा कर रह जाती। यदि हंसती भी तो इधर-उधर देखकर झट मुंह बन्द कर लेती मानो उससे कोई ग़लती हो गयी हो। फ़राज तगड़े शरीर वाला नौजवान था जो हर बात को सीधा ताक़त और शरीर से जोड़ दिया करता था। पंजे में हरा देने को दरियागंज की कचौड़ियां खिलाने वाली पार्टी उससे अब तक कोई नहीं ले पाया था।
वह पिकनिक अप्रैल के अंतिम दिनों में हुई थी जब हवा में घुलती ठंडक थोड़ी कम होने लगी थी। सब अपने हिस्से का काम कर रहा थे और खाने की तैयारी कर रहे थे। हेमंत टहलता हुआ दूर निकल गया और झरने के पास जाकर बैठ गया। ज्योति हेमंत के पीछे-पीछे झरने तक पहुंच गयी। दोस्त काफ़ी दूर दिख रहे थे। उसने हेमंत से कुछ कहा। हेमंत के पास पहुंचने से पहले शब्दों की मात्राएं झरने में गिर गयीं। वह हेमंत के थोडा़ और पास खिसक आयी।
उसने हेमंत से शिकायत की, ´´ तुम घमण्डी हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि उसे डर है कि बारिश होगी।
उसने हेमंत पर आरोप लगाया, ´´तुम दिखावापसंद हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह चाहता है कि काश पिकनिक में सिर्फ़ वे दोनों होते।
उसने हेमंत को डांटा, ´´तुम अपने अलावा सबको बेवकूफ़ समझते हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे पसंद करता है।
उसने हेमंत को मना किया, ´´मैं तुम्हें पसंद नहीं करती।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे प्यार करता है।
उसने कहा, ´´झूठे कहीं के...............।´´

उस दिन हेमंत और ज्योति दोनों एक दूसरे में खोए रहे और अनजाने में पिकनिक का बहिष्कार कर पिकनिक के आकर्षण का स्रोत बने रहे।
फिर ´प्रेम´ या जिसे ज्योति ´क़रीबी दोस्ती´ कहती थी, सतह पर आकर सबको दिखने लगा। दोनों घण्टों एक दूसरे में खोये रहते। पिकनिकों में एक अनूठा रस रहता। हेमंत ज्योति की आंखों में देखता रहता। रजत चुपचाप सलमा को देखता रहता और कल्पना करता कि उसके दांत थोड़े छोटे रहते तो वह ज्यादा सुंदर लगती या अभी लगती है। फ़राज़ पेड़ों की डालियां तोड़ने जैसा ताक़तवर और मूर्खतापूर्ण काम करके ताक़त का प्रदर्शन करता। सलमा जब नमाज़ के वक्त आंखें बन्द करती तो रजत पाता कि यह उसका बहुत पास से देखा हुआ चेहरा है। बचपन से बहुत पहले से..........................।
जब उन दिनों हेमंत आगामी चुनाव की तैयारियों में व्यस्त था, माहौल में असंतुष्टि का स्वर तेज़ होता जा रहा था। मंहगाई ने आम आदमी का कमर तोड़ दी थी, बेरोज़गारी से युवाओं के दिलों में विद्रोह की आग थी और भ्रष्टाचार ने पूरे देश की नींद उड़ा दी थी। देश की अर्थव्यवस्था चरमरा उठी थी और आज़ादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्नों के भग्नावशेष ही बच रहे थे। पूरा उत्तरी और पिश्चमी भारत एक राजनीतिक विप्लव की स्थिति में पहुंच गया था। देश चलाने वालों के पुतले रोज़ जलाए जा रहे थे। हेमंत की सभाओं और सेमिनारों की संख्या बढ़ती जा रही थी और साथ ही बढ़ता जा रहा था उसका जोश, कुव्यवस्था को दूर करने के संकल्प को पूरा करने का। और बढ़ता जा रहा था ज्योति के प्रति प्रेम, उसकी व्यस्तताओं के अनुपात में, दोनों के मिलने के बढ़ते जाते अंतराल के अनुपात में और अपने-अपने एकांत में घुलती यादों के अनुपात में।
रजत ने कुछ श्रृंगार रस की कविताएं लिखी थीं जिनमें किसी बड़ी आंखों वाली खातून का ज़िक्र था जिसके सारे लक्षण और हुलिया सलमा से मिलता जुलता था। फ़राज ने ज्योति को वे कविताएं सुनाई थीं बड़ी आंखों को बड़े दांतों से स्थानापन्न करके। दोनों खूब हंसे थे और रजत कुछ नाराज़ सा हो गया था।

एक छोटी सी प्रेम कहानी और वह मुकद्दस दुपट्टा


उन्हीं दिनों ज्योति तीन-चार दिनों तक विश्वविद्यालय नहीं आयी। सारी व्यस्तताओं और सभाओं के बीच से समय निकाल कर वह उस दिन उसके घर पहुंच गया। गली के मोड़ पर जैसे ही पहुंचा, ज्योति अपने घर से बाहर निकली। वह मुस्करा कर वहीं रुक गया। अचानक उसके सामने पहंच कर उसे चौंका देना चाहता था। मगर वह तेज़ कदमों से चलकर सड़क के किनारे वाली दुकान में घुस गयी। वह ठिठक गया। दुकानदार संदर युवा था जिसके बारे में ज्याति ने बताया था कि वह उसके बचपन का सहपाठी है । ज्योति ने दुकान में घुसते ही इधर-उधर देखते हुए जल्दी से दुकानदार को अपने दुपट्टे से निकाल कर कुछ दिया। दुकानदार ने कुछ पल उससे बातें कीं और उसके हाथ में कुछ नोट थमा दिए। वह कुछ समझ नहीं सका कि दोनों क्या कर रहे हैं। उसने ज्योति के अपने घर के अंदर घुस जाने का इंतज़ार किया और फिर थके क़दमों और ढेरों सवालों के साथ वापस लौट गया।
अगले दिन ज्योति विश्वविद्यालय में मौजूद थी। वह कुछ थकी-थकी सी और बीमार लग रही थी। न जाने क्यों उसे देख कर उस दिन हेमंत के दिल में एक हूक सी उठी थी कि वह उसे जल्दी ही खो बैठेगा। ज्योति ने ग्रुप के बहुत इसरार पर बताया कि उसकी मां की तबियत तीन चार दिनों से काफी खराब है और वह शायद अगले चार पांच दिन और कॉलेज न आ सके। हेमंत ने उसे कुछ पैसे देने चाहे। वह जानता था कि उसकी आर्थिक स्थिति खराब है पर जब उसने पैसे लेने से मना कर दिया तो वह अंदर तक दहल गया। एक पड़ोसी दुकानदार से वह पैसे ले सकती हे पर उससे नहीं.................? पहली बार उसे उसपर हल्का सा शक भी हुआ। आखिर क्या बात है ? शक ने जड़ तब पकड़ा जब उसके पूछने पर ज्योति ने कहा कि वह कल दिन भर घर से बाहर नहीं निकली। जब वह वहां से बाहर निकला तो लगा उसके शरीर की सारी ताक़त सूरज की रोशनियों ने सोख ली है। वह सड़क पर निस्पंद खड़ा है और गाड़ियां उसके ऊपर से आ जा रही हैं।
अगली दोपहर उसी समय वह वहां मौजूद था। कुछ इंतज़ार के बाद ज्योति घर से दुपट्टे के नीचे कुछ दबाए निकली। उसने तेज़ कदमों से सड़क पार की और अचानक उसके सामने जा खड़ा हुआ।
वह अचानक उसे सामने देख कर सहम गयी। दो क़दम पीछे यूं हटी जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो।
´´क्या है तुम्हारे हाथ में...........?´´
बदले में दो क़दम पीछे वह यूं हटी मानो अचानक दौड़ना शुरू कर देगी और किसी ऐसी जगह चली जाएगी जहां कोई उसे पहचान नहीं पाएगा।
´´झूठ क्यों कहा कि................?´´
बदले में वह उसके आगे बढ़ते क़दमों के अनुपात में यूं पीछे गयी जैसे मानों अब दो क़दम पीछे जाने पर वह अंतर्ध्यान हो जाएगी और सभी उसे फटी आंखों से ढूंढते रह जाएंगे।
´´ कल उसने तुम्हें पैसे क्यों दिए थे ? अपने हाथ दिखाओ..............। क्या है इनमें?´´
उसके एक क़दम बढ़ने की तुलना में वह झपट कर दो क़दम आगे बढ़ा और उसके हाथ दुपट्टे के बाहर खींच लिए।
´´न....नहीं∙∙∙∙∙∙∙∙।´´
चीख..................... एक मर्मांतक चीख जो इतनी धीमी थी कि आस-पास से गुज़र रहे लोगों को बिना सुनाई दिए उसके कानों को छेदते हुए दिल तक पहुंच रही थी। धूप अचानक कम हो गयी थी और अचानक ट्रैफ़िक जाम खुल जाने से गाड़ियां सन्न-सन्न करके गुज़रने लगी थीं। एक सरकारी हेलीकॉप्टर डैनों की फड़फड़ाहट सुनाता काफी नज़दीक से गुज़रा था। दो कुत्ते एक स्कूटर के पीछे भौंकते हुए भागे थे। ज़मीन पर ढेरों लिफ़ाफ़े बिखरे पड़े थे। अख़बार के पन्नों से बनाए कई आकार व प्रकार के लिफ़ाफ़े............ जिनसे झांक रही थी ज्योति की ग़रीबी, चारपाई पर पड़ी उसकी बीमार मां, स्कूल में फ़ीस के लिए सज़ा पातीं उसकी दो छोटी बहनें, थिगलियां लगी रेंगती ज़िंदगी, सारी विषमताओं के बावजूद ज़िंदगी से हार न मानने का उसकी ज़िद और उसका स्वाभिमान। हेमंत की आंखों में आंसू थे, मन में पछतावा और होंठों पर प्रेम। सड़क बिल्कुल खाली थी। न जाने सारी गाड़ियां कहां ग़ायब हो गयी थीं। कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे दोनों जहां खड़े थे वहां से दूर-दूर तक सिर्फ़ धुंधलका ही धुंधलका छा गया था और सारी चीज़े उसमें ढक गयी थीं। वे दोनों पता नहीं कब से एक दूसरे को गले लगाए थे और शायद रो भी रहे थे। ऊंचाई पर जाने पर धीरे-धीरे वे छोटे होते दिख रहे थे। बादलों के बीच से तो वे बिल्कुल एक बिन्दी की तरह दिखते थे।
जनता व्यवस्था का सड़ना देख रही थी। आज़ादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्न एक क्रूर और वीभत्स मज़ाक बनते नज़र आ रहे थे। बेरोज़गारों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ रही थी, उसी अनुपात में अपराध भी अपने पांव पसार रहा था। अपेक्षाकृत साफ़-सुथरी ग़ुलामी से आज़िज़ आ चुकी जनता का बदबूदार और भ्रष्ट आज़ादी में सांस लेने में दम घुटा जा रहा था। पूरे देश में असंतोष की एक लहर दौड़ रही थी जिसका पहला वलय दिल्ली से उठता था।

वह क़यामत की रात उर्फ़ दास्तान-ए-दिल्ली


आखिरकार वह क़यामत एक रात को आ ही गयी। इस रात के समंदर में ढेर सारे वलय थे जिसमें पहला कंकड़ संगम की धरती से मारा गया था। किसी के घर कोई नहीं सोया। पल-पल की खबर रखने के प्रयास में लोग रात का खाना भूल गए थे। सभी सहमे हुए थे। औरतें खाने की थाली लगाकर पतियों का इंतज़ार कर रहीं थीं पर उनके चेहरे पर छाया तनाव देखकर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं। रेडियो सुनने में शोर मचा रहे कुछ बच्चों को बापों की इतनी कड़ी डांट सुननी पड़ी थी कि वे सन्न होकर फिर से चादर में छिप गए थे।
लोग रात भर गिरफ़्तार किए जाते रहे थे। शासन विरोधी या कहें लोकतंत्र समर्थक कई नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक। जेलें ठसाठस भरी जा रही थीं। अगली सुबह का सूरज डरा सहमा संगीनों के साए में निकला था। लोग एक अंजाने डर में लिपटे हुए थे। एक दूसरे की ओर सभी अविश्वास की नज़रों से देख रहे थे। सभी आने वाले वक्त की भयावहता के बारे में सोच कर हलकान हुए जा रहे थे।
वाकई............... आने वाले वक्त की भयावहता के आगे शुरूआती नृशंसताएं कुछ भी नहीं थीं। अगले कुछ समय में देश ने वीभत्सता का नग्न तांडव देखा। ऊपर से क्या आदेश आ रहे थे और नीचे उनकी शक्ल कैसी हो जा रही थी, यह कोई मुद्दा नहीं था। निरपराध लोग सड़कों पर, थानों में और घरों में घुस कर पीटे जा रहे थे, छोटे-छोटे आरोपों पर। किसी विशेष दल से संबंध रखने पर, मुंह से कोई शासन विरोधी बात निकल जाने पर या कभी कभी यूं ही।
हेमंत और उसके साथी मौके को भांप कर भूमिगत हो गए थे। पुलिस उन पर छात्रों को गुमराह करने का आरोप लगा कर उनकी तलाश में फिर रही थी, खासतौर पर हेमंत की। यह फ़राज़ का घर था जो उनकी शरणस्थली बना हुआ था। हाथ से ही कुछ प्रपत्र तैयार किए जा रहे थे जिन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में वितरित करना था। सभी कार्बन लगा कर लिखने में व्यस्त थे। कई प्रेस वाले उनके मित्र थे लेकिन अभी संपर्क नहीं हो पाया था और कोशिश करना खतरें से खाली नहीं था।
´´ कभी सोचा नहीं था ऐसा दिन भी देखना पड़ सकता है।´´ रजत ने लिखते हुए ही सिर उठाकर कहा।
बदले में फ़राज़ उसकी ओर देख कर मुस्कराया। सलमा पूर्ववत लिखती रही और हेमंत ज्योति के थोड़ा और क़रीब खिसक आया।
´´ सब ठीक हो जाएगा यार, चिन्ता मत करो।´´ फ़राज़ ने कुर्ते की बांह यूं चढ़ाई मानो इसी से सब ठीक होगा।
´´ कैसे होगा..................? मुझे तो घर की चिंता हो रही है।´´ सलमा ने परेशानी भरे स्वर में कहा तो रजत का मन चाहा कि वह उसके बगल में जाकर बैठ जाए और कहे कि उसे चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है और वह अभी उसके हिस्से की चिंता करने के लिए ज़िंदा है। लगभग पुचकारते स्वर में उसने कहा, ´´ अरे चिंता क्या करना। हम काम कर ही रहे हैं................. ऊपरवाला सब ठीक कर देगा।´´ उसने जानबूझ कर भगवान और खुदा दोनों को समेट लिया।
´´ कुछ नहीं करेगा भगवान.................. सब हमें करना है... हमें। बच्चों जैसी बातें करके खुद को बहलाओ मत।´´ हेमंत के तैश में आकर बोलने से वातावरण काफी असामान्य हो गया, गंभीर और डरावना हो गया।

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी बनाम हेमंत परिणय ज्येति


ठीक उसी समय चीकू आ गया। चीकू बाहर चाय की दुकान पर काम करने वाला लड़का था जो तहखाने और बाहरी दुनिया के बीच का पुल था। उसने फ़राज़ से धीमे से कुछ कहा और फ़राज़ ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा। तनाव भरे माहौल को ठीक करने का यह उसका पुराना तरीक़ा था जिसमें वह अक्सर ओवरएक्टिंग करने लगता था।
´´ क्या हुआ ? पागलों की तरह हंसते ही रहोगे या हमें भी कुछ बताओगे ?´´ हेमंत अब तक गुस्से में था। बदले में फ़राज़ ने घटना कह सुनाई। राजेंद्र कुमार अभिनीत फ़िल्म गंवार पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसके पोस्टर पर नायक को हल लिए जाते दिखाया गया था।
सभी एक दूसरे की ओर आश्चर्य से देखने लगे। कमरे में अचानक खामोशी छा गयी। चीकू भी इनके चेहरों को ध्यान से देख रहा था कि इन्हें अचानक क्या हो गया। सबके चेहरों पर मुस्कराहट की एक लकीर सी खिंच रही थी। अचानक रजत ज़ोरों से हंसने लगा। सभी हंसने लगे। सलमा ने भी पूरे आवेग में हंसना शुरू किया और फिर थोड़ा मुंह खोलकर हंसने लगी। फ़राज़ हंसते हंसते कुर्सी से नीचे गिर गया था और अब भी हंस रहा था। ज्योति भी मुस्करा रही थी।
´´ ठीक है, इसमें इतना हंसने वाली भी क्या बात है.....................? क्या हो गया ?´´ हेमंत ने चेहरा गंभीर करके पूछा, हालांकि हल्की मुस्कराहट उसके चेहरे पर भी थी।
´´ हुआ यही बड़े भाई कि विनाशकाले विपरीत बुद्धि।´´ फ़राज़ हंसता हुआ बोला।
´´ अच्छा चलो ठीक है। काम करो।´´ हेमंत ने कड़े स्वर में कहा और फिर से लिखने में व्यस्त हो गया।
अचानक फ़राज़ कुर्सी पर खड़ा हो गया और ऊंची आवाज़ में कहने लगा, ´´भाइयों और बहनों। जैसा कि आप देख रहे हैं, हमारे मित्र समस्याओं का सामना किस बद्दिमागी के साथ कर रहे हैं जबकि ये जानते हैं कि ठण्डे दिमाग से सोच कर ही कुछ किया जा सकता है। हम सब इस संकट का सामना पूरी दिलेरी से करेंगे पर उसके पहले आपके लिए इस कठिन समय में भी खुश होने का एक मौका है। अब से ठीक दो घण्टे बाद बगल वाले कमरे में एक शादी है जिसमें आप सादर आमंत्रित हैं। हेमंत परिणय ज्योति।´´
इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, फ़राज़ ने वह काग़ज़, जिस पर वह कुछ देर से पता नहीं क्या लिख रहा था, चीकू को थमा दिया। हेमंत अभी चीकू को पकड़ने दौड़ता तब तक चीकू यह जा वह जा।
हेमंत थोड़े बनावटी गुस्से के साथ फ़राज़ की ओर मुड़ा तभी ज्योति ने उसकी कलाई पकड़ ली और उसकी हथेलियों को अपनी आंखों से लगा लिया। हेमंत ने उसे बाहों में भर लिया।
कुछ मिठाइयों और मालाओं के साथ गंधर्व विवाह की औपचारिकता निभाई गयी और दो आत्माएं सदा के लिए एक हो गयीं। हेमंत प्रपत्र तैयार करने में उनके साथ बैठना चाहता था पर उसे ज्योति के साथ कमरे में धकेल कर कमरा बाहर से बंद कर दिया गया।
कमरा रजत ने बंद किया और एक शेर के साथ शादी की बधाई दी।
´´ ज़रा तो कम हुई तनहाइयां परिंदे की
अब एक खौफ़ भी इस आशियां में रहता है।´´

´´ वाह-वाह तो कहो प्यारे। ज़िंदगी भर के ग़ुलाम हो गए हो...............।´´
´´ निहायत ही बेमौका शेर है यह बेवकूफ़।´´ और हेमंत ने दरवाज़ा बंद कर लिया।
उसकी नींद सुबह सलमा की खटखटाहट से खुली।
´´अरे दूल्हे मियां................. आज बाहर नहीं आएंगे क्या ?´´
वह हड़बड़ा कर उठा । कपड़े पहने और ज्योति को भी जगा दिया।

क्रांति का प्रसार और एक नया रिश्ता


प्रपत्र तैयार हो चुके थे। सभी कॉलेजों में इन्हें इस तरह बांटना था कि पुलिस को इसकी हल्की सी भी भनक न पड़े। पुलिस ऐसे विद्यार्थियों को कुत्ते की तरह सूंघती फिर रही थी। वे लोग क्रांति की एक मशाल से दूसरी मशाल जलाते रहे और सक्रिया कार्यकर्ताओं की एक फ़ौज खड़ी होती गयी।
जब सभी एक रात तहखाने में इकठ्ठा हुए तो पता चला कि पुलिस ने हेमंत का पीछा किया है और वह बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा पाया है।
वे अभी थोड़ी देर बैठे थे कि चीकू आ गया। वह बहुत गुमसुम और उदास था। बहुत कुरेदने पर उसने पूरी बात बताई और रोने लगा। हेमंत की तलाश में उसके घर पहुंचे पुलिस वालों ने उसके पिता डॉ. देवेंद्र कुमार से ज़बरदस्ती मारपीट की और उनको बेइज्ज़त किया। वह कहते रहे कि उन्हें हेमंत के बारे में नहीं मालूम और पुलिस वाले उन्हें उठा कर पास वाले शिविर में ले गए। जब पुलिस वाले उनसे कुछ नहीं पता कर पाए तो बड़ी नृशंसता से उनकी नसबंदी कर दी गयी और शिविर के बाहर फेंक दिया गया। कुछ पड़ोसी उन्हें उठा कर घर ले गए हैं। उन्हें बराबर रक्तस्राव हो रहा है और वह हेमंत का नाम पुकार रहे हैं।
हेमंत ने तुरंत ज्योति को साथ लिया और फ़राज़ की मोटरसाइकिल से घर की ओर चल पड़ा। ख़तरा भांपते हुए भी यह समय उन्हें रोकने का नहीं था। रास्ते भर हेमंत इस कुशासन को ध्वस्त करने की तरकीबें सोचता रहा और उसके जबड़े भिंचते रहे।
डॉक्टर साहब का रक्तस्राव पड़ोस के डॉक्टर ने रोक दिया था। वह खतरे के बाहर थे। घर से कुछ दूरी पर मोटरसाइकिल रोक कर जब वह चुपके से घर पहुंचा तो आस-पास मंडरा रहे एकाध पड़ोसियों ने उसे तुरंत अंदर ले लिया।
डॉ. साहब उसे सही सलामत देखकर संतोष से भर उठे। ज्योति को बहू के रूप में देखकर उसे आशीर्वाद दिया और अचानक हुए विवाह के विषय में पूछा। हेमंत भोर होने तक वहीं रुका रहा और मुंहअंधेरे ज्योति को पिताजी की देखभाल के लिए छोड़ तहखाने की ओर चल पड़ा।

चले गए किस मोड़, हमें तुम तन्हा छोड़


लेकिन, यह तो सिर्फ़ शुरूआत थी। तहखाने से कुछ पहले रास्ते पर चीकू उसका इंतज़ार कर रहा था। उसने जो बताया उसे सुनकर वह सिर से पांव तक कांप उठा। सुबह होने में कुछ समय बाकी था। वह सन्न सा कुछ समय के लिए वहीं खड़ा रहा। अब वह बिल्कुल अकेला था।
उसके तहखाने से जाते ही पुलिस ने वहां रेड मारी थी। रजत, सलमा और फ़राज़ को ढेर सारे काग़ज़ों के साथ पकड़ लिया गया। उन्हें बंदूकों की बेंट से पीटा गया। तीनों को पकड़ कर उत्तम नगर थाने ले जाया गया है। हेमंत सीधा अपने उस दोस्त की तरफ़ भागा जो भूमिगत अखबार निकाल रहा था।
सलमा की तलाशी के लिए कोई महिला पुलिस नहीं थी। थाने में ले जाकर सलमा को अलग और रजत व फ़राज़ को एक सेल में बंद कर दिया गया।
थानाध्यक्ष के आते ही सभी सिपाही व हवलदार खड़े हो गए।
´´थानाध्यक्ष साहब खुद चेकिंग करेंगे तुम सबकी।´´ एक हवलदार ने दोनों सेलों की तरफ मुंह उठा कर कहा।
मोटी तोंद वाला थानाध्यक्ष उनकी तरफ बढ़ा। उनकी तरफ देख कर मुस्कराया और सलमा के सेले की तरफ़ देखता हुआ बोला, ´´ खोलो ताला, पहले इसकी तलाशी लेंगे।´´
रजत व फ़राज़ अंदर तक कांप गए। उनकी रूह फ़ना हो गयी जब थानाध्यक्ष ने वहीं वर्दी उतारनी शुरू कर दी। रजत सलाखें पकड़ कर चिल्ला चिल्ला कर थानाध्यक्ष को ईश्वर का वास्ता दे रहा था। फ़राज़ सलाखों से इस तरह भिड़ा हुआ था मानो तोड़ देगा। थानाध्यक्ष ने आराम से वर्दी उतार कर मेज़ पर रखी और जांघिए बनियान में सलमा के सेल की तरफ बढ़ा।
अब रजत थानाध्यक्ष को गालियां देने लगा था। कभी गंदी गंदी गालियां देता तो कभी अचानक विनती करने लगता। कभी सलाखों पर सिर पटकने लगता तो कभी सिपाहियों से सेल खोलने को कहता। फ़राज़ पूरी ताक़त से सलाखों से जूझ रहा था।
´´ इससे निपट लूं फिर इन सूअरों को देखता हूं।´´ कह कर वह मुस्कराता हुआ सलमा के सेल में घुस गया। रजत सिर पटकता चिल्लाता रहा और बगल वाली सेल से सलमा के चीखने की आवाज़ आती रही। सलमा की चीखों के साथ रजत का चिल्लाना, गालियां देना और सलाखों से सिर टकराना बढ़ता रहा।
एक समय सलमा की चीख एकदम बंद हो गयी। रजत की चीखों से पूरा इलाक़ा थर्रा उठा। अचानक फ़राज़ गरजता हुआ बाहर निकल आया। उसने दो सलाखों को अविश्वसनीय रूप से टेढ़ा कर उनके बीच में जगह बना दी थी। एक हवलदार की बंदूक उसने झपट कर छीन ली और अंधाधुंध चलाने लगा। ´´ रजत, जल्दी बाहर निकल। बंदूक उठा।´´
पर रजत पर जैसे भूत सवार हो गया था। वह फ़र्श पर सिर पटकता सर्फ़ चिल्ला रहा था और गालियां दे रहा था। थानाध्यक्ष के साथ-साथ वह भगवान को भी गालियां दे रहा था। फ़राज़ ने दो सिपाहियों को गोली तो मार दी थी पर अब पकड़ा जा चुका था। थानाध्यक्ष उसे बंदूक के कुंदे से पीट रहा था और हर वार पर चिल्ला रहा था, ´´ बोल साले, हेमंत कहां है ?´´
फ़राज़ हर वार पर गरज रहा था, ´´ जय हिंद।´´
थानाध्यक्ष का मिजाज बिगड़ गया। उसने संगीन फ़राज़ के पेट में घुसेड़ दिया, ´´ साले, हरामखोर, आज़ादी की लड़ाई चल रही है यहां...........?´´
रजत को बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया गया। अंदर ही बर्फ़ की सिल्ली मंगा ली गयी थी और उसके कपड़े उतार कर उसे उस पर लिटा दिया गया। संगीनों से काट कर नमक भरने जैसी कई प्रक्रियाएं सुबह तक चलती रही थीं पर रजत ने न हेमंत का पता बताया न किसी भूमिगत अखबार का, अलबत्ता वह गालियां खूब देता रहा था।
शाम को दिल्ली से छपने वाले एक अखबार ने, जिसने अपनी ज़बान सियासत के क़दमों में गिरवी रख दी थी, एक खबर छापी जिसमें दो डाकुओं के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर थी। एक डाकू मज़बूत शरीर वाला था जिसके बांहों की हडि्डयां टूट गयी थीं और दूसरे के माथे में गोली मारी गयी थी। शहर के अराजक माहौल का फ़ायदा उठाने आए इन डाकुओं से मुठभेड़ में दो सिपाही भी घायल हुए थे जिन्हें कुछ मुआवजे की भी घोषणा थी।

कई दफ्न सच्ची कहानियां


यह खबर उससे पहले ही हेमंत तक पहुंच चुकी थी। उसने सारा विवरण लिखकर अपने एक मित्र के भूमिगत प्रेस में पहुंचवाया। अपनी आंखों से बहते खून को उसने स्याही बना लिया था। वह स्वयं को अकेला अनुभव तो कर रहा था पर अंदर की आग में कोई कमी न आने देता। कई दिनों तक वह घने जंगलों में छिपा रहा। रात में आबादी की तरफ आता, कभी थोड़ा वक्त घर मं बिताता और फिर कई जगहों पर युवाओं के साथ भूमिगत मंत्रणा करता। उन्हें लोकनायक के विचारों से अवगत कराता। उनमें जोश भरता जा रहा था। वे अन्याय को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अपने आप को तैयार कर रहे थे। क्रांति की ज्योति मशालों सें आंखों में जलने लगी थी।
हेमंत ने आने वाली एक तारीख को एक विशाल सभा का आयोजन पास के जंगल में किया था जिसमें क़रीब सौ-सवा सौ कार्यकर्ताओं के जुटने की उम्मीद थी। यहां सरकार की नींद हराम करने के लिए किसी बड़े कदम पर चर्चा होनी थी।
मगर उससे पहले ही पह हादसा हो गया।
हेमंत रात के साढ़े बारह बजे अपने घर की खिड़की से बिना ज़रा भी आवाज़ किए कूदा और धीरे-धीरे मुख्य सड़क की ओर आ गया। वहां से थोड़ी दूर सड़क-सड़क जाकर फिर उसे कच्चे रास्ते की ओर मुड़ जाना था जो जंगल की ओर जाता था। जंगल में चार साथी उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसने कच्ची सड़क पर एक इंसानी साया देखा। उसे खुद को छिपा कर चलना था पर साए में उसे पता नहीं क्या अपनापन दिखा कि वह उसके सामने पहुच गया।
अचानक उसके हृदय के दो स्पंदनों के बीच का ठहराव थोड़ा लम्बा हो गया और सीने में शूल सा चुभा।
समने सलमा थी। फटे कपडों में अर्धनग्न, अर्धविक्षिप्त और पूर्ण बरबाद। बाल बिखरे और जगह जगह नोचने खसोटने के निशान। कुछ बुदबुदाती हुई वह सड़क पर चली जा रही थी। हेमंत ने उसके कंधे पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श होते ही वह बिजली की फुर्ती से ज़मीन पर बैठ गयी। उसने आंखें बंद कर ली थीं और टांगें सिकोड़ कर दोनों हाथ चेहरे के आगे बचाव की मुद्रा में कर लिए थे। वह कातर स्वर में चिल्ला रही थी, ´´ मत मारो............... मत मारो।´´ उसके बड़े-बड़े दांत चिल्लाने से पूरे आकार में दिख रहे थे और वह उन्हें छिपाने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी। हेमंत को लाग काश, वह अपना मुंह बंद कर लेती। उसे देखना बहुत कठिन था।
वह थोड़ा आगे बढ़ा।
´´ सलमा, मैं हूं.............।´´ उसने उसके हाथों को पकड़ने की कोशिश की। उसने आंखें खोलकर उसे एक नज़र देखा और डर कर पीछे सरक गयी। हेमंत को आगे बढ़ता देख वह मुठ्ठी बांध कर पूरी ताक़त से चिल्लाने लगी, ´´मत मारो.............. मत मारो.................... इंदिरा गांधी की जय.......... संजय गांधी की जय........... इंदिरा गांधी की जय..................... संजय गांधी की जय.................।´´ हेमंत के होंठ कंपकंपाने लगे और आंखें से आंसू लिकलने लगे।
गश्ती पुलिस की गाड़ी को देखकर हेमंत जब तक भागना शुरू करता, गाड़ी काफी पास आ चुकी थी। कच्चे रास्ते पर भागते ही उसे दोस्तों की सुरक्षा का खयाल आया और वह वापस शहर की ओर भागने लगा। एक और पुलिस की गाड़ी दूसरी सड़क से पीछे लग गयी। गाड़ी और उसके बीच की दूरी धीरे-धीरे कम होती गयी।
जब होश आया तो वह किसी थाने में था।
´´कहिए क्रांति के मसीहा, कैसे मिजाज हैं ?´´ सामने बैठा दारोगा शक्ल से ही दरिंदा नज़र आ रहा था।
उसने उठने की कोशिश की तो उसकी टांगों पर लाठी का भरपूर प्रहार हुआ और वह धड़ाम से गिर पड़ा। लाठी संभाल कर हवलदार यथास्थान यूं खड़ा हो गया जैसे चाबी भरा हुआ खिलौना हो।
´´ बताओ, ये अखबार कहां से निकाले जा रहे हैं ?´´
सामने उसके मित्रों द्वारा निकाले जा रहे कुछ अखबार पड़े थे जिनमें सिर्फ़ वही छपा था जो वाकई हो रहा था।
´´मुझे नहीं मालूम..................।´´ उसने नज़रें घुमाते हुए कहा।
´´ अभी मालूम पड़ जाएगा।´´ दारोगा ने कुछ सिपाहियों को इशारा किया। उसके दोनों हाथों को एक में और दोनों पैरों को एक में बांध कर लाठी में बांध दिया गया जैसे मुर्गे को भूनने के लिए बांधा जाता है। लाठी को दो कुर्सियों की पीठ पर टिका दिया गया। दो कुर्सियों के बीच वह मुर्गे की तरह झूल रहा था।
´´ बताओ........................।´´ पीठ पर नीचे से लाठियां मारी जा रही थीं।
´´मुझे नहीं पता..................।´´ वह चीखा।
´´ बहुत अच्छे, लाठी घुमाओ.................. नीचे आग जलाओ।´´
आनन-फानन में नीचे लोबान में आग जला दी गयी। उसमें मिर्चें झोंके जाने लगे। वह चीत्कार करने लगा। उसकी आंखें जलने लगीं और उनसे पानी बहने लगा। पूरा शरीर लाठियों की मार से टूट रहा था। कुछ न बुलवा पाने की स्थिति में उसे नीचे उतारा गया।
´´ साहब, इसके पिताजी इससे मिलने आए हैं।´´ एक सिपाही ने आकर सूचना दी।
´´भगा दो साले को...............।´´
´´साहब वो कह रहे हैं कि इससे मिलना उनका कानूनी अधिकार है।´´
´´ अच्छा................ क़ानूनी अधिकार ?´´ दारोगा हंसा। ´´ उसको जाकर बता दो कि हैबियस कॉरपस स्थगित.......। भगा दो और न भागे तो टांगे तोड़ दो मार कर।´´
यंत्रणा फिर शुरू हुई। हेमंत आधी बेहोशी में था। उसकी दोनो टांगें फैला कर उस पर लाठी रख दी गयी।
´´ बताओ...................।´´ वही पुराना ज़िद भरा सवाल।
´´मुझे नहीं मालूम..............................।´´ वही पुराना जीवट भरा जवाब।
उसके मुंह से दिशाओं को कंपा देने वाली चीख निकली। लाठी पर दो तरफ से दो सिपाही चढ़ गए थे और उसके पैरों की हडि्डयां कड़ा∙∙∙क की आवाज़ के साथ टूट गई थीं। वह फिर भी कुछ नहीं बोला।
दारोगा ने एक नाई को बुलवा रखा था। वह उसके हाथों की उंगलियों के नाखून एक-एक करक उखाड़ता जा रहा था और दारोगा अपना सवाल दोहरा रहा था।
हेमंत ने होश खोने से पहले कराहते हुए कहा, ´´ तुम जानते हो न ये स्थिति हमेशा रहेगी, न ये सरकार। समय को क्या मुंह दिखाओगे..........? अगर मैं बच गया..................।´´
´´उसका सवाल ही पैदा नहीं होता बच्चे........................... आलाकमान का हुक्म है कि विरोधियों को जड़ से मिटा दिया जाए।´´ दारोगा वीभत्स हंसी हंसा था।
जब डॉ. देवेंद्र कुमार को हेमंत की लाश सौंपी गयी तो इसे उन्होंने अपनी खुशकिस्मती माना। कितनी ही लाशें रोज़ ग़ायब कर दी जा रही थीं। उन्होंने अपने बेटे को शहीद माना और एक आंसू नहीं रोए न ही ज्योति को रोने दिया। ज्योति गर्भवती थी। डॉ साहब के ऊपर बहुत सी ज़िम्मेदारियां थीं जिन्हें उन्हें पूरा करना था।
उन्होंने हेमंत की चिता सजाते समय एक बार भी उसके उखड़े नाखूनों और जले शरीर पर नहीं सोचा। वह चिता को आग देते समय ये सोच रहे थे कि अपने बेटे की तस्वीर पर कभी हार नहीं चढ़ाएंगे। चिता की आग से निकले धुंए ने वहां खड़े हर इंसान को पूरी तरह ढक लिया था। डॉ. साहब उस धुंए मे सबसे देर तक खड़े रहे थे।

धुंए के इस पार का नर्क


जब धुंआ छंटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। वह सोफे पर निराश, थके और टूटे बैठे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी। उनके कंधे भीग चुके थे। वह शून्य में देख रहे थे। जब गुड़िया का ध्यान आया तो उन्होंने उसका सिर सहलाया। वह उनके गले लग गयी। उसकी रुलाई रोकने के लिए उन्होंने बात बदलने की कोशिश की।
´´चलो, कहीं बाहर से घूम आएं।´´
´´ ? ´´
´´ कहीं से भी, तुम जहां कहो। अच्छा ये पेपर्स दिखाना। पूरा लिख लिया क्या ? ´´
उसने काग़ज़ उन्हें थमा दिए। उन्होंने अंतिम पृष्ठ पर वही शेर दोहरा दिया।
´´ ज़रा तो कम हुई तनहाइयां परिंदे की
अब इक खौफ़ भी इस आशियां में रहता है।´´

जब वह गाड़ी निकाल कर ड्राइविंग सीट पर बैठे तब तक गुड़िया खुद को संभाल चुकी थी। स्टार्ट करने से पहले अचानक वह उनसे लिपट गयी और भरे गले से बोली, ´´ दादू, आई लव यू वेरी मच।´´
´´ आई लव यू टू बेटा। मेरा तेरे और तेरी मम्मी के सिवा है ही कौन दुनिया में ? अच्छा बोल, कहां चलेगी ड्राइव पे ? ´´
´´ कहीं भी, किसी शान्त जगह..................।´´
उन्होंने गाड़ी हाइवे की तरफ मोड़ दी। रात के दस बज रहे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी।
´´ कितना भयानक समय था न दादू ?´´
´´ हां, हम अपने ही देश में बेगाने हो गए थे।´´
´´ मुझे सोच कर अब भी डर लग रहा है ?´´
उन्होंने उसे अपनी बांहों में भींच लिया जिसका अर्थ था अब डरने की क्या ज़रूरत ? वह हाइवे पर काफी दूर तक निकल आए थे। सामने तीन आकृतियां सड़क पर दिखीं। उन्हें गाड़ी रोक देनी पड़ी।
´´गाड़ी कनारे ले ले पाई।´´ एक आकृति ने कहा। उन्होंने रोशनी में देखा, तीनों पुलिस वाले थे। वे पीये हुए थे और किसी की वर्दी पर नेमप्लेट नहीं थी।
´´क्या बात है...........?´´ उन्होंने बाकी दोनों के अफ़सर लगते तीसरे से पूछा।
´´बात यो सै कि हम ढूंढ तो रये हैं एक बदमास नूं पर मिल गए आप..।´´
´´क्या मतलब........?´´
´´ इब मतबल बी में समजाऊं के ? चल गाडी से बाहर आ, यो छोरी नू ले के निकड़। हमने सबकी तलास्सी लेणी सै।´´
वह बाहर आए। गुड़िया को अंदर ही रहने दिया।
´´तलाशी तो ठीक है पर आप सबके नेम प्लेट्स कहां हैं ? और मेरी पोती की तलाशी आप कैसे ले सकते हैं बिना लेडी पुलिस के ?´´
अफ़सर लगातार सवालों का आदी नहीं था। वह अपने रौद्र रूप में आ गया।
´´ रै तू पागल हो रह्या सै के ? मैं तेरी पोती की तलास्सी उसके सारे कपड़े उतार के लूंगा। इब बोल के कर लेग्गा तू...........?´´
वह सहम गए। सड़क पर दूर तक अंधेरा था। कोई गाड़ी आती तो कुछ सेकेण्ड्स के लिए सड़क गुलज़ार हो जाती और फिर सारी रोशनी अचानक सूं∙∙∙∙ करके गायब हो जाती।
´´ अच्छा, आप मेरी तलाशी ले लीजिए और अपनी पोती की तलाशी मैं ले लूंगा।´´
´´ इब तो तलास्सी मैं ही लूंगा। तू मने कानून सिखा रया है ? और वेसे बी ये छोरी मनै तेरी पोती ना लाग रयी। तू जरूर कोई कराये की लौंडिया लेके ऐस करण वास्ते जा रया सै।´´
डनकी कनपटियां जलने लगीं।
´´ देखिए सर..............।´´ वह अपने बेटे की उम्र के अफ़सर के सामने गिड़गिड़ाए।
´´क्यूं पाई संतराम ? आजकल बुढ्ढों नूं जादा ज्वानी छिटक रयी सै के ?´´ उसने गुड़िया को घूरते हुए अपने एक मातहत से पूछा।
´´ के करेंगे वस्ताद जी। ऐ तो बिपास्ससा का कमाल सै।´´
तीनों हंसने लगे। अफ़सर गाड़ी की तरफ बढ़ा। वह गाड़ी के दरवाज़े पर खड़े हो गए, ´´ देखिए सर, मेरी बात सुनिए, समझने की कोशिश कीजीए............. मैं..........।´´
´´ रै ताऊ, जब मैंने तेरी बात समझनी ही ना तो सुणने का के फाइदा ?´´ वह इतने ऊंचे सुर में बोला कि वह सहम गए।
उसने गुड़िया का हाथ पकड़ कर बाहर खींच लिया। वह बिल्ली के जाल में फंस चुके कबूतर की तरह कांप रही थी। डॉ. साहब आगे बढ़े और गुड़िया का हाथ उससे छुड़ा लिया। वह उनके पीछे चिपक कर खड़ी हो गयी।
´´ देखिए, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का रिटायर्ड लेक्चरर हूं। मै। आपके पांव पड़ता हूं, मेरी पोती को छोड़ दीजीए........... मैं.......... आप जो कहेंगे, करने के लिए तैयार हूं।´´ वह रो पड़े थे। उनका हाथ अपनी जेब में रखे बटुए पर था।
´´ ठीक सै अंकल, इसमें रोणै वाली के बात सै। मैं तो यो चेक करणा चा रया था जे यो छोरी सचमुच तेरी पोती है या तू कोई माल लेके मजा लेणे जा रया से.....................।´´ वह अपने मातहतों की तरफ देख कर फिस्स से हंसा, ´´ पाई, ऐसा आजकल बहोत हो रया सै। बुढ्ढे साड़े सकूल की छोरियों पे लार टपका रए से।´´
वह हाथ जोड़ कर अपनी बेबसी पर रह रह कर आंखें मूंद ले रहे थे। पीछे भयभीत गुड़िया थर-थर कांप रही थी।
´´ जा ताऊ जा, घर जा। रात नूं ना निकणा कर। हां, जांण से पहले संतराम नूं कुछ मठाइ-शठाइ वास्ते दे दे।´´
उन्होंने पूरा बटुआ हवलदार को दे दिया।
´´ यो अंगूठी सोणे की लाग रयी सै.......।´´
उन्होंने झट अंगूठी उतार कर दे दी।

शरीफ़ पुलिवाले और एक मौजूं शेर


उन्होंने तुरंत गुड़िया को बिठाया और गाडी स्टार्ट कर दी। अफ़सर गाड़ी के आगे से खिड़की के पास आया और बोला, ´´ देखा ताऊ, यो जणता हमारे बारे में गल्त सल्त बातें फैलावे सै। हम पुलिस वाले कितणे सरीफ हैं , यो बात तो तू आज दिल से मान रया होगा।´´
बदले में उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए। अफ़सर गुड़िया को लालची नज़रों से घूर रहा था। उन्होंने गाड़ी घर की तरफ़ मोड़ दी।
घर पहुंच कर वह निढाल से सोफ़े पर गिर पड़े। वह गुड़िया से नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। गुड़िया सिर झुकाए दूसरे कमरे में चली गयी। जब कुछ खटपट की आवाज़ सुनकर बाहर आयी तो देखा कि दादू उसके कपड़े जल्दी-जल्दी उसके बैग में भर रहे हैं। उसने बिना कुछ बोले उनके हाथ से बैग ले लिया और अपने कपड़े समेटने लगी।
सामने मेज़ पर वह परियोजना रखी थी जिसे मेज़ पर सबसे ऊपर रखना था।
डॉ. साहब सोफ़े पर छितराए बैठे थे।
उनकी नज़र परियोजना के अंत में लिखे उस शेर पर थी जो पूरा अर्थ न दे पाने के बावजूद अब भी मौजूं था।

कहानीकार- विमल चन्द्र पाण्डेय

Thursday, March 13, 2008

शवयात्रा (लघुकथा)

"राम नाम सत्य है....
"ये किसकी अर्थी जा रही है भाई?", एक आदमी ने शवयात्रा जाती हुई देखी तो दूसरे से पूछा।
"अरे, तुम्हें नहीं पता? बहुत ऊँचे पद पर थीं ये बूढ़ी अम्मा। सुना है पद्मश्री मिला हुआ था", जवाब मिला।
"पर ये हैं कौन?"
"ज्यादा तो नहीं पता पर कोई मेजर हुए हैं, शायद ध्यानचंद नाम है उनका। उन्हीं की माँ थीं बेचारी"
"ध्यानचंद?? ज्यादा सुना तो नहीं हैं इस आदमी के बारे में"
"पूरे लगन से अपनी माँ का ख्याल रखता था वो। सुना है आँच तक नहीं आने दी कभी भी। फिरंगियों को भी पास नहीं भटकने दिया था"
"हम्म"
"पर आज देखो, बेचारी को कोई चार काँधे देने वाला भी नहीं मिला"
"कोई बीमारी हो गई थी क्या? कौन कौन थे इनके घर में?"
"परिवार तो अच्छा बड़ा था, पर पोते-पोतियों ने अपने बाप का नाम मिट्टी में मिला दिया। बिल्कुल भी इज़्ज़त नहीं दी अपनी दादी को। बीमारी में भी कोई सहारा न दिया। एक तरह से ये ही मौत के जिम्मेदार हैं।"
"पर पद्मश्री या पद्मविभूषण जिन्हें मिला उन अम्मा का सरकार ने तो ध्यान रखा होगा।"
" हा हा, कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो भाई, सटक गये हो क्या? सरकार ने कभी किसी का ध्यान रखा है जो इनका रखती। पता नहीं कितनी ही बार सरकार से मदद माँगी। हारी बीमारी में भी एक फूटी कौड़ी भी न मिली। आज की तारीख में देखो तो पूरी तरह से नजरअंदाज़ कर दिया था इन्हें।"
"अच्छा!"
"और नहीं तो क्या?"
"पर आस पड़ौसी, या जान पहचान वाले?"
"कोई किसी का सगा नहीं होता दोस्त। सब अपने मतलब का करते हैं। अम्मा से उन्हें क्या सारोकार होगा। कोई जमीन जायदाद तो थी नहीं। कोई पैसा नहीं। तो फिर क्यों अपना समय नष्ट करते?"
"सही कहते हो। पर मैंने इन सबके बारे में कभी सुना नहीं। टीवी तो मैं तो रोज़ाना देखता हूँ। सचिन, शाहरूख, धोनी, युवराज, अमिताभ, ऐश्वर्य इन सबके बारे में तो आता रहता है पर इन अम्मा के बारे में नहीं पता चला। कब मृत्यु हुई है इनकी?"
"यही कोई २ दिन पहले। कहीं बाहर गईं थीं। तीर्थ पर। कहते हैं वहाँ से वापस आते आते ही दिल का दौरा पड़ा और.."
"ओह। पर मैंने तो कोई खबर नहीं देखी। ब्रेकिंग न्यूज़ में इसका कोई जिक्र ही नहीं था"
"हाँ। हो सकता है।"
"पर इतनी महान होते हुए भी ऐसी दर्दनाक मौत की चिता को आग लगाने वाला भी न मिला। सचमुच अफसोस है। किसी ने कुछ करा भी नहीं।"
"किसी की कद्र उसके जाने के बाद ही होती है। अब देखना, तुम्हें यही खबर दिखाई देखी हमेशा टीवी पर।"
"पर देखना ये है कि कब तक? अरे पर तुमने अभी तक इनका नाम नहीं बताया"
"मैंने अभी अभी किसी के मुँह से सुना था। उसने इनका नाम हॉकी बतलाया है। तो यही नाम होगा।"
"हॉकी..."
राम नाम सत्य है की ध्वनि फिर से आने लगी थी।

कथाकार- तपन शर्मा

Saturday, March 8, 2008

ढीली गाँठ

फूल फूल गये थे। जंगल के जंगली फूल। बोदी के जूडे में जैसे तैसे उलझे और उसकी चाल से फुदकते थे फूल। वसंत आ गया है। बोदी भी गदरा गयी है। फूलों के बोझ से झुकी डाल सा उसका यौवन..। सुकारू सच कहता है- 'महुवा का रस है बोदी '।

“बोदी” सुकारू नें आवाज़ दी।
”काय आय?” (क्या है?)
”कहाँ जासीत?” (कहाँ जा रही हो?)
”मोहा बिनुक” (महुवा बीनने)
”मैं बले आयेंदे” (मैं भी आता हूँ)। सुकारू नें आँखों में शरारत भर कर कहा।
”तुम एउन काय करू आस?” (तुम आ कर क्या करोगे?)
”मैं बल तुचो संग गोठियाते गोठियाते मोहा बीनेंदे” (मैं भी तुम्हारे साथ बातें करते हुए महुवा बीनूंगा)
”हत बईहा नहीं तो” (हट पागल)
बोदी शरमाती, मुस्काती, इठलाती पगडंडियों के संग हो ली। बार- बार पीछे मुडती कि कहीं सुकारू देख तो नहीं रहा। उसे अपनी ओर देखता पा खुद में सिमट जाती।

ज़िंदगी यहीं तो है। हवाओं की तरह निश्चिंत, फिज़ा की तरह विस्तृत...और बोदी की तरह चंचल। असभ्यता का आँचल ओढा बस्तर अंचल कितना सभ्य है यह बताता है इस मिट्टी का आदम और उसकी अपार सादगी। प्रकृति नें इनके लिये कोई कसर नहीं छोडी। कोदो, कुटकी, कोसरा, हिरवाँ सब कुछ तो है, उसपर सुहागा यह कि इनके तीरों का जवाब न किसी परिंदे के पास है, न किसी चौपाए के पास।....। इसको बाहर की दुनियाँ से इस लिये लगाव है कि वह भीतर की परिधि में आश्चर्यजनक मनोरंजन भर सकें। उनके गाँवों के आसपास कुछ नगर उग आये हैं जो उनके पहाडों को फोड़ कर लोहा, टीन और कोरंडम निकाल रहे हैं। खैर, उन्हें क्या? रमता जोगी बहता पानी। यह बाहर की चकाचौँध है जो इन्हें अपनी ओर खींचती है। रुपयों से नया परिचय है उनका। बाजार में चमकते नये सपने उनकी आँखों में बुनने लगे हैं। खदानों नें इन्हें आकर्षित भी किया है। इतने सस्ते और मेहनती मजदूर मिलते भी कहाँ? रुपया इनके लिये सेतु बना है जुड़ने का, असभ्य-बर्बर उस सभ्यता से जो उन्ही के घर, उन्ही के जंगलों, उन्ही के पहाडों को तरक्की के झांसे में झोंक रहे हैं वह भी उनके अपने ही हाथों। हाँ, इसके एवज में उन्हे हासिल हैं कुछ रूपए। ये रूपया इन्हें क्यों चाहिये?.. बुदरू को इस लिये चाहिये कि वह रेडियो खरीदेगा, सोमारू साइकिल। सुकारू को तो बोदी के लिये जाने क्या क्या खरीदना है...भूख इनकी समस्या नहीं है।
*****

सुकारू बचेली जा रहा है। लोहे का पहाड खोदने वालों का बसाया नगर है यह। वहाँ उसे पत्थर तोडने का काम मिला है। बहुत खुश है, कि खरीदेगा रंग- रंग की चूडियाँ, झुमके और हार..कितनी खुश हो जायेगी बोदी और.....और आगे उसके अपने ही सुनहले सपने हैं। बोदी से बिहाव के सपने। पगडंडियों में धीरे- धीरे चलता वह, जाने किस दुनियाँ में था। कुहू..कुहू...कोयल चहकी और जैसे मंत्र मुग्ध सा सुकारू, चैतन्य हुआ। जंगल के बीच से पक्की सडक जाती थी। वह सडक पर चलने लगा। उसके नंगे पाँव जलने तो लगे थे, किंतु चल वह ऐसे रहा था मानों तपिश का अहसास नहीं। ठेकेदार नें दूर से उसे आते देखा। और भी मज़दूर वहाँ थे। सुकारू भी अब मज़दूर हो जायेगा।

“इधर आ बे” मुंशी का रूखा स्वर था यह।
सुकारू सिमटता पास चला आया।
“नाम क्या है तेरा”
”सुकारू”

मुंशी नें और कुछ नहीं पूछा। सुकारू अपने साथियों के पास जा कर खडा हो गया। उसने काम समझा, फिर उसके हाँथों में हथौडा आ गया। ठक...ठक...धडाक..उसके हाँथ पत्थरों पर कस कर प्रहार करने लगे। चट्टानों को पत्थर और पत्थरों को निश्चित आकार की गिट्टी करना उसका काम था। टुकडे टुकटे इन गिट्टियों को रेजाए बीनतीं, तगाड़ी में बटोर कर एक जगह ढेर करती जाती। उसमें जोश अधिक था, पत्थरों पर किये जा रहे अपने हर प्रहार में जैसे जान झोंक दी थी। सुकारू को परवाह श्रम की नहीं थी, उसे तो अपने सपनों की परवाह है। पसीने- पसीने हो गया वह, थकने भी लगा है। थक कर बैठता नहीं। वह देख रहा है कि उसके साथी जैसे अपने- अपने सपनों के लिये जुटे हैं। वह फिर चलाता है हथौडा और धडाक...पत्थर उसकी हिम्मत सा बिखर जाता है। आज उसका पहला दिन है।

“एक बज गये हैं” मुंशी नें चिल्ला कर कहा “अभी छुट्टी, सब डेढ़ बजे आना”। सुकारू की जान में जान आयी। हथौडा पत्थरों के ढेर में ही पटक, वह वहीं पसर गया। भूख उसे लग आयी थी। क्या खाता? दूसरे साथी तो कुछ न कुछ पोटली में बाँध लाये थे किंतु सुकारू...
“सुकारू...” किसी नें पीछे से आवाज़ दी। सुकारू मुडा।
”मैं मँगती” रेजा नें अपना परिचय दिया। सुकारू नें नि:शब्द प्रश्न सूचक आँखें मंगती पर डाली।
”खाना नहीं लाया?”
सुकारू का मौन जैसे उत्तर था।
”आ साथ में खायेंगे”।
प्रतिवाद करने का साहस सुकारू में न था।

डेढ़ बजने में कुछ समय रहा होगा। मुंशी की मोटर सायकल साईट पर आ कर रुकी। मजदूर आराम कर रहे थे। मुंशी वहीं से चिल्लाया “ सालों, हराम की रोटी तोडते हो..डेढ बज गये..”

सुकारू हराम की रोटी का मतलब नहीं समझता। शायद उसके वे साथी समझते थे जिन्होने मुंशी की इस बात पर ऐसा मुँह बनाया जैसे कच्ची इमली बिना नोन, खा ली हो। उसने तो औरों की तरह हथौडा उठाया और झोंक दिया खुद को। साढे पाँच बजे पसीना पोंछते हुए सुकारू नें हथौडा मुंशी के सामने पटका और वहीं खडा हो गया। मुंशी हिसाब कर रहा था। उसने नाम पुकारा “सुकारू”। सुकारू यंत्रवत पास आया। मुंशी नें जाने क्या जोडा, क्या घटाया। सुकारू के हाँथ में उसने आठ रुपये दिये और.....
अब सुकारू के हाँथ में उसके सपने थे। उसके पैरों में पंख। वह बाज़ार की ओर जैसे दौड पडा। चम -चम करता बाज़ार और उसकी मुट्टी में बंद आठ रुपयों नें उसके लहू को नदी बना दिया था। इस दुकान से उस दुकान, घंटो जैसे फुदकता रहा वह। उसने लाल लाल काँच की चूडियाँ खरीदी, आँठ आने की माला, एक कंघी और.....

**********

“ए बोदी, ए बाट देख तो” (ए बोदी, इधर देखो तो)
“काय आय” (क्या है)
”देख मैं तुचो काजे काय काय आनले से” (देख मैं तेरे लिये क्या क्या लाया हूँ)। बोदी की लाज से दोहरी हुई आँखों नें सुकारू को साहस दे दिया था। उसने बोदी का हाँथ पकड लिया। बोदी नें बहुत नाजुक सा प्रतिवाद किया, जिसमे एक गहरा समर्पण ही परिलक्षित होता था। सुकारू नें बोदी के हाँथों में चूडियाँ डाल दीं। बोदी लजा कर पीछे मुड गयी। सुकारू नें बोदी का कंधा थाम अपनी ओर खींचना चाहा। बोदी खुद में सिमटती हुई बोली “मोचो काजे जे सब काय काजे आनलीसीत तेबे?” ( मेरे लिये यह सब तुम किस लिये लाये हो?)। सुकारू कुछ क्षण तो मौन रहा, फिर घबराहट और लज्जा के भाव चेहरे पर लिये उसने हिम्मत की “तुमी मोचो संग बिहाव करसे?” ( तुम मेरे साथ शादी करोगी?”)। एकाएक जैसे बहुत से रस भरे महुवे टप-टप बरस पडे। हवा खिलखिला उठी और फूल नाचने लगे। बोदी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। तिरछी आँखों से उसने जाने क्या कहा...और सुकारू, उसे तो जैसे सारी खुशियाँ मिल गयीं। भावावेश में उसने बोदी को अपनी ओर खींचा और नौरंगी माला उसके गले में डाल दी। बोदी किसी तरह खुद को छुडा कर हिरणी हो गयी। सुकारू के सपनों को धरातल मिल गया था। उसके चेहरे पर संतोष, आँखों में चमक और दिल में अनजानी गुदगुदी हो रही थी। सुकारू का प्रफुल्लित हृदय झूमती हवा के साथ गा उठा “ तुचो माया चो मोहरी बजायेंदे कसन, तुचो पिरीत चो रागीन गायेंदे कसन”
पैसा सुकारू के लिये अब महत्वपूर्ण हो गया है। पैसा जिसने उसकी भावना को अभिव्यक्ति दी। अपने काम को ले कर वह दुगुना उत्साहित हो गया। उसका श्रम उसे पैसा देगा। पैसा खुशियों को पैदा करेगा। वह घर बनायेगा। घर में वह और वो...फिर..वह बोदी को नयी साडी खरीद कर देगा। सपने हसीनतर होते जा रहे थे और इसी उधेडबुन में सुकारू के कदम नाले से लगे तेंदु के पेड की ओर अनायास बढ गये। वह जानता था कि बोदी वहाँ होगी। बोदी वहाँ थी भी। आँचल में तेंदू बीनती जाने क्या गुनगुना रही थी, सुकारू की आहट से चुप हो गयी। चुराती हुई निगाहों से उसने सुकारू की ओर देखा, सुकारू मुस्कुरा दिया। बोदी नें मुस्कुराहट छुपा लेने की चेष्टा की किंतु उसके लाल हो चुके गालो में उसके मनोभावनाओं की अनेको तितलियों को उडते देखा जा सकता था।
”सुकारू, तेंदू खासे?” (सुकारू तेंदु खायेगा?) बोदी नें निमंत्रण दिया।
”तुय तुचो हाँथ में खवासे तो खायेंदे” (तू अपने हाँथों से खिलायेगी तो खाउंगा) सुकारू मुस्कुराया।
प्रेम जीवन की एक आवश्यक भावना है जिसकी नियति आकर्षण है और अंत समर्पण। सुकारु अब पूंजीपति है। वह बोदी के रंग बिरंगे सपनों को सच कर सकता है किंतु क्या बोदी को कुछ नही करना चाहिये। बोदी के मन में भी तो वैसी ही भावनायें थीं जो सुकारू एक हृदय में पोषित होती हैं। बोदी सुकारू को लाल रंग का सुन्दर गमछा देना चाहती है। सुकारू की बनियान में कितने छेद हो गये हैं और रंग भी भूरा.. वह झक्क सफेद बनियान खरीद कर देगी। लेकिन कैसे? बोदी नें इन्ही भावनाओं में बह कर सुकारू से कहा “सुकारू, मैं बल तुचो संग काम करुक आयेंदे” (मैं भी तुम्हारे साथ काम करने आउंगी)। सुनते ही जैसे सुकारू के मन की उडती चिडिया पास की ही डाल पर बैठ गयी।
”रेजा काम तुय करुक नी सकसे बही, हुता बडे बडे पखना मन के उठाउक पडेसे” (रेजा का काम तुम नहीं कर सकोगी। वहाँ बड़े बड़े पत्थरों को उठाना पडता है) सुकारू नें टालना चाहा। उसनें यह तो नहीं चाहा था।
”तुय बल तो पखना फोडसीत काय?” (तुम भी तो पत्थर तोडते हो?)
बोदी के स्वर में ज़िद थी।
”मोचो गोठ अलग आय” (मेरी बात अलग है)
”ये सुकारू, हम दुनों झने संगे कमाउक जावा” (ए सुकारू, हम दोनो लोग साथ में कमाने जायेंगे) बोदी नें मक्खन लगाना चाहा। सुकारू किंकर्तव्यविमूढ हो गया था। वह जानता था कि किस परिश्रम से उसने सपनों को जीवन दिया है। वह बोदी के हाँथों मे छाले नहीं देखना चाहता था। लेकिन बोदी के चेहरे के भावों में एक पक्कापन था। सुकारू जानता था कि बोदी नें इरादा कर लिया है।
“ठीक आय! तुय बलसीत उसन जाले काले संगे जावाँ। मैं तुके ठेकेदार जागा धरुन नयंदे” (ठीक है कल तुम भी वहाँ मेरे साथ ही चलना, मैं ठेकेदार से मिलवा दूंगा), सुकारू विवश हो गया। वह आग में ठंडा पानी भला कैसे डालता। बोदी खुश हो गयी और आपने हाँथों से उसे तेंदू खिलाने लगी।

**********

”तेरा नाम क्या है?” मुंशी नें बेहद मीठे स्वर में प्रश्न किया।
”बोदी” संक्षिप्त उत्तर।
मुंशी नें रजिस्टर में क्या लिखा यह बोदी नहीं जानती, हाँ मुंशी के व्यवहार से वह खुश थी। सुकारू को मुंशी का यह मीठा स्वर खटक गया। मन में हुई इस चुभन का कारण वह नहीं जानता किंतु उसका चेहरा जैसे उतर गया था। सुकारू इस तरह पलट कर अपने काम में जुट गया कि कोई उसके मन की पढ न ले। मुंशी नें बोदी के साथ बेहद सहृदयता दर्शायी थी, हल्का-फुल्का काम दिया और...और रह रह कर उसे देख अपने पीले दाँतों की प्रदर्शनी लगाता रहा था। और सुकारू गुस्से को पीने की कोशिश करता हथौडा हर बार पत्थर पर पूरी तकत से मारता और.. धडाक।
बोदी। उसपर मुंशी की मेहरबानियाँ बढती गयी। मुंशी अब दिन भर साईट पर बैठा रहता और बोदी को अटपटे इशारे किया करता। ये इशारे सुकारू को समझ में तो न आते किंतु बोदी के मनोभाव वह जरूर पढ सकता था। शोषण शब्द से उसका परिचय तो नहीं था किंतु उसकी भावनाओं के इस शोषण नें उसके मन-वदन में आग लगा दी थी। सुकारू की विवशता यह थी कि अपना गुस्सा वह केवल उन बेजान पत्थरों पर ही निकाल पाता, टूट जाना ही जिनकी नियति है। टूटने लगा था सुकारू भी। क्या कहता वह बोदी को? कैसे समझाता। उसके प्रति बोदी का व्यवहार नहीं बदला था। अब भी बोदी तेंदू बीनती तो सुकारू के साथ ही बाँटती। जूडे में फूल सुकारू से ही लगवाती। कल सुकारू के लिये लाल चींटे की चटनी बनांने की जिद में वह सारी शाम जुटी रही और जाने क्या सोचती काम करती रही थी कि चींटियों नें पिसने से पहले बोदी के हाँथों को जगह जगह लाल कर दिया था। सुकारू के लिये उसने जो बनियान खरीदा था वह सुकारू नें खजाने की तरह सहेज रखा था कि केवल तिहार में ही पहनेगा और....उसे पहना-पहना कर देखने की जिद में दोनों का घंटो अनबोला रहता। सब कुछ तो ठीक है दोनों के बीच फिर सुकारू को एसा क्यों लगता है? सुकारू खुद नहीं जानता। उसे शक है....बोदी पर नहीं।
एक बज गया था, बोदी नें तुम्बे से पेज, दो दोनों में निकाला, एक सुकारू के हाँथ में दिया और दूसरा दोना खुद उठा कर गट गट पी गयी। अब तक सुकारू भी पी चुका था। बोदी नें दोनो दोनों को फिर भरा...तभी मोटरसायकल की आवाज़ सुन कर बोदी पलटी। यह मुंशी था। बोदी मुस्कुरा दी। सुकारू के अंदर एक गहरी टीस उठी, किंतु वह खामोश रहा। मुंशी नें इशारे से बोदी को बुलाया और वह इतराती पास चली आयी। मुंशी के लिये आँखों में नफरत भर कर सुकारू सिर्फ इतना ही देख सका कि बोदी मुंशी के साथ...क्रोध में भर कर सुकारू नें तूम्बे को उठा कर पटक दिया। लाल आँखों को, जाती मोटरसायकल की धूल तिलमिलाने लगी थी।...। शाम को बोदी बहुत खुश थी। मोटरसायकल की सैर उसके लिये अनूठा अनुभव था। वह रह रह कर सुकारू को मोटरसायकल, उसकी आवाज़, उसकी रफ्तार...और भी जाने क्या क्या बताती रही। सुकारू अनमना ही बना रहा। सुकारू के साथ चलते हुए भी बोदी सुकारू के साथ नहीं थी। सुकारू जानता था कि वह मोटरसायकल तो कभी नहीं खरीद सकता लेकिन सायकल तो खरीद ही सकता है? सुकारू नें यह नया सपना अपनी फेरहिस्त में जोड लिया। ठीक भी तो है, सायकल की डंडी पर बोदी को बिठा कर जब वह घुमायेगा....उसके चेदरे में चमक उभरी तो थी किंतु फिर बोदी को देख उदासी की नयी परत नें उसे सहारा दिया। बोदी अब भी मोटरसायकिल की उसी कहानी में थी जिसका एक शब्द भी सुकारू नें नहीं सुना था। उसकी आँखों में एक नयी चमक देख कर सुकारू नें पूछना चाहा तो था कि क्या बोदी अब उसे प्यार नहीं करती। कैसे पूछता? सुकारू चुप ही रहा।
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मुंशी आज सुबह से गायब था..और बोदी भी। शाम हो गयी थी, फिर शाम लम्बी होने लगी। अब साईट पर भी कोई नहीं था। सुकारू बोदी को चीख चीख कर आवाज़ देने लगा। आवाज़ उन्हीं पत्थरों में टकरा कर लौट आती, जिन पत्थरों के वह टुकटे टुकडे करता रहा है। वह हाँफने लगा था।..बोदी चली तो नहीं गयी? वह निश्चिंत हो जाना चाहता था, किंतु एक अज्ञात आशंका से उसका दिल धडक रहा था। एकाएक मंगती दौडती हुई आयी और जो कुछ उसने कहा वह उसके कलेजे पर पत्थर के गिरने जैसा ही था। दौड पडा वह मंगती के साथ ही। मंगती नें ग्रेनाईट के बडे से सफेद पहाड के एक ओर इशारा किया और सुकारू की आँखें उस विंदु पर स्थिर हो गयीं। बोदी.......। बदहवास वह उस तक पहुँचा। बिखरे हुए बाल..फटे हुए वस्त्र...देख कर ही समझा जा सकता था कि कई भेडियों नें मिल कर नोचा है।..बोदी..बोदी..सुकारू नें उसे पकड कर जोर से हिलाया। बोदी की आँखें खुली ही रहीं...।
सुकारू की आँखें दहकने लगी थीं उसने झुक कर एक पत्थर उठाया और दौड पडा किसी दिशा में...एक आँधी उसके जीवन में, एक आँधी उसके मन में और एक आँधी उसके कदमों को खींचे जाती थी। ठोकर लगी और वह गिर पडा। पहाड का सीना चाह कर भी मोम न हो सका। सुकारू चीखा नहीं लेकिन एक छटपटाती हुई विवशता उसकी डूबती आँखों से झाँक रही थीं। सिर फट गया था..बुझती हुई चेतना में उसके हाँथ का वह पत्थर छूट गया जिसे अब तक कस कर पकडे हुए था सुकारू। अब शाम नें परछाईया बनानी भी बंद कर दी थी। धूल के साथ उस हवा नें सुकारू के बेतरतीब हो गये गमछे की ढीली गाँठ सुलझा दी थी। एक मुडा-तुडा नोट था जो उडा नहीं....

*** राजीव रंजन प्रसाद
7.06.1992