हम गद्य विधा के लिए नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी-संग्रह 'डर' से कहानियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। अब तक इस शृंखला के अंतर्गत हमने इस कथा -संग्रह से 'स्वेटर', 'रंगमंच', 'सफ़र' कहानियों का प्रकाशन किया है। आज प्रस्तुत है चौथी कहानी 'मन्नन राय गजब आदमी हैं'मन्नन राय गजब आदमी हैंनाम- मन्नन राय
कद- छह फीट एक इंच
वज़न- सौ किलो के आस-पास
आयु- पचपन साल के उपर
रंग- गेंहुंआ
स्वभाव- शांत व विनोदप्रिय
ये किसी भगोड़े अपराधी का हुलिया नहीं है बल्कि एक ग़ुमशुदा की सूचना है। यह पाण्डेयपुर के मन्नन राय का परिचय है जिन पर कहानी लिखना भारी अपराध है क्योंकि ये उपन्यास के पात्र थे। फिर भी यह कहानी, यदि इसे कहानी मानें, तो लिखी जा रही है। वास्तव में यह कोई कहानी नहीं, एक समस्या का कहानीकरण है जो कि लेखक मन्नन राय का प्रशंसक होने के नाते कर रहा है। जब लेखक बहुत छोटा था तब भी यह कहानी दुनियावी भंवर में पूरी रौ में बहती जा रही थी भले लेखक उससे अनभिज्ञ था। तो इस समस्या को कहानी का जामा पहनाने के लिये लेखक ने अपने अवचेतन के साथ-साथ बड़े-बुज़ुर्गों से भी राय मशवरा किया है और भरसक तथ्य जुटाने की कोशिश की है। हो सकता है ब्यौरेवार तफ़सील से कहानी रिपोर्ताज लगने लगे या फिर संस्मरण का बाना पहने ले। पर लेखक का ध्यान और चिंता इसे लेकर नहीं है क्योंकि उसका ध्यान सिर्फ़ समस्या की गंभीरता की तरफ़ है।
पूरे बनारस को पाण्डेयपुर हिलाये रखता था और पाण्डेयपुर को मन्नन राय। ये न तो कोई बाहुबली थे न ही पुलिस के आदमी, फिर भी शोहदे उस एरिये से कई-कई दिनों तक नहीं गुज़रते थे जिधर किसी दिन वह दिखायी पड़ जाते थे। वह रेलवे के कर्मचारी थे पर उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि यदि सड़क पर झगड़ा हो रहा हो और वह उधर से गुज़र जाएं तो लोग उन्हें पकड़ कर झगड़ा सलटवाने लगते थे। पाण्डेयपुर के अलावा भी, कभी भी, कोई भी उनकी मदद लेने आ जाय, वह तुरंत उसके साथ जाकर उसकी समस्या का समाधान करते थे। किसी-किसी झगड़े में ख़ुद पड़ जाते और पीड़ित का पक्ष लेकर एक-दो पंक्तियों में ही झगड़ा निबटा देते। झगड़ा फरियाने में उनके एक-दो अतिप्रचलित संवाद सहायक होते-
’’मान जा गुरू, फलाने के परसान मत कराऽऽ।’’
’’काहे हाय-हाय मचउले हउवा राजा? खलिये मुट्ठी लेके जइबा उपर।’’
’’हमें सब सच्चाई मालूम हौऽऽ। छटका मत। समझउले से समझ जा।’’
और आश्चर्य की बात, 99.99 प्रतिशत मामले में लोग वाकई समझाने से समझ जाते।
ऐसे साहसी, दबंग और बेफ़िक्र मन्नन राय अचानक बनारस की धरती को छोड़ कर कहां चले गये जिसके बारें में उनका विचार था कि गंगा किनारे मर के कुत्ता भी तर जाता है। उनकी गुमशुदगी पूरे बनारस के लिये चिंता का विषय है। इसके विषय में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले उनके विषय में ठीक से जानना होगा। उनके जीवन के उस मोड़ पर जाना होगा जब वह तड़तड़ जवान थे।
बनारस को उस समय ज़्यादातर लोग काशी कहा करते थे। बनारस की गलियां उतनी ही पतली थीं जितनी आज हैं पर सड़कें काफी चैड़ी थीं। क़दम-क़दम पर पान की दुकानें थीं जैसी आज हैं। जगह-जगह लस्सी के ठीये थे। गली-गली में अखाड़े थे जहां बच्चे किशोरावस्था से युवावस्था में क़दम सेहत बनाते हुये रखते थे। जगह-जगह आज की ही तरह मंदिर थे और बहुत से मंदिरों में वाकई सिर्फ़ पूजा ही होती थी। विदेशी पर्यटक तब भी बहुत आया करते थे और ’अतिथि देवो भवः’ की परम्परा के अनुसार उन्हें पलकों पर बिठाया जाता। कुछ नाव वाले और गाइड उनसे पैसे ज़रूर ठगते पर पर्यटकों की सुरक्षा को लेकर वे भी अपने देश की छवि अच्छी बनाने के लिये चिंतित रहते।
कुछ गुण्डे भी हुआ करते थे पर वे अच्छे ख़ासे सेठों को ही लूटते थे और भरसक उन्हें जान से नहीे मारते थे। लड़कियों को पूरा मुहल्ला बहन और बेटी मानता था और कोई ऐसी-वैसी बात सबके लिये बराबर चिंता का विषय होती। लोगों की सुबह जलेबी-दूध के नाश्ते से शुरू होती और रात का खाना खाने के बाद मीठा पान खाने से। बड़े से बड़े धनिक भी रात का खाना खाने के बाद सपरिवार बाहर आकर मीठा पान खाते और टहलते। ऐसे ही माहौल में मनन राय का पटना से काशी आगमन हुआ। उन्हें बनारस इसलिये आना पड़ा क्योंकि यहां रेलवे में उनकी नौकरी लग गयी थी पर जब एक बार उन्होंने नौकरी और बनारस को पकड़ा तो दोनों ने उलटे उन्हें ऐसा पकड़ लिया कि वह वहीं के होकर रह गये। वह रांड़, सांढ़, सीढ़ी और संन्यासी से बचते हुये काशी का सेवन करने लगे और ऐसा रमे कि मित्रों ने चाचा का चच्चा, मामा का मम्मा की परम्परा के अनुसर मनन का मन्नन कर दिया। उनका रंग वहां जल्दी ही जम गया। पाण्डेयपुर का वह कमरा जिसमें वह रहते थे, एक नाटकीय घटनाक्रम में पूरे घर समेत उनके नाम लिख दिया गया।
घर एक पंडित का था जिसके परिवार में सिर्फ़ वह और उसकी पत्नी ही बचे थे। उसके सब बच्चे बचपन में ही एक-एक करके स्वर्ग सिधार गये थे और पंडित पंडिताइन काफी हद तक विरक्त हो चुके थे। इस विरक्ति पर थोड़ी आसक्ति तब हावी हुयी जब पंडित का भतीजा घर अपने नाम लिखवाने के लिये दबाव डालने लगा। पहले उसने चाचा-चाची को प्यार से समझाया। जब वह नहीं माने तो डराने धमकाने पर उतर आया। एक दिन वह अपने साथ तीन-चार मुस्टंडों को लेकर आया और घर के सामान निकाल कर फेंकने लगा। मन्नन राय बहुत दिनों से यह तमाशा देखकर तंग आ चुके थे। वह बाहर निकले और उन सभी को बुरी तरह से पीटने लगे। उनका गुस्सा और आवेग बदमाशों के लालच पर भारी पड़ा और वह मुहल्ले के हीरो बन गये। पंडित-पंडिताइन उसके बाद से उन्हें बेटा मानने लगे और और मरते समय घर उनके नाम लिख गये।
मन्नन राय ने जिस बहादुरी से चारो पांचों को लथार-लथार कर मारा, वह सबको चकित कर गया था। पूरे मुहल्ले में यही कहा सुना जा रहा था, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’ जो उम्र में उनसे छोटे थे, वे बातें कर रहे थे, ’’मन्नन भइया गजब आदमी हैं।’’ जो बड़े थे, वे बतिया रहे थे, ’’मन्नन रयवा गजब आदमी है यार।’’ इस बात पर पूरा क्षेत्र एकमत हो गया था कि मन्नन राय गजब के हिम्मती और ताक़तवर इंसान हैं। वह चलते तो लोग उनकी गरिमापूर्ण चाल को मुग्ध होकर देखते रहते। लोगों ने साफ़ देखा था कि उनके सिर पर एक आभामंडल दिखायी देता है। बहुत से लोग उनके चेले बन गये जिनमें से कुछ उनकी भक्ति भी करने लगे। वह सुबह सेर भर जलेबी और आधा लीटर दूध का सेवन करके स्टेशन जाते। शाम को मोछू हलवाई के यहां पाव भर रबड़ी खाते और फिर सभी मित्रों के साथ अखाड़े में भांग घोटने बैठ जाते।
बनारस को ज़माने की हवा बहुत धीरे-धीरे लग रही थी। ऐसे कि असर न दिखायी दे न पता चले पर परिवर्तन हो रहे थे। टीवी का प्रादुर्भाव हो रहा था और शहर चमत्कृत था। कुछ अति सम्पन्न लोगों के घरों में वह रंगीन चेहरा लिये आया था और कुछ सम्पन्नों के घर श्वेत-श्याम। जिसने श्वेत-श्याम भी टीवी ख़रीद लिया था वह अचानक उंची नज़रों से देखा जाने लगा था। जिनके घरों में टीवी नहीं थे उनके बच्चे अपने टीवी वाले पड़ोसियों के यहां छिछियाए फिरते। मन्नन राय को कियी ने समाचार सुनने के लिये टीवी ख़रीदने की सलाह दी तो वह हंस पड़े-
’’चलऽला हऽऽ चूतिया बनावे, हम देखले हई टीवी पर समाचार। एक ठे मेहरारू बोलऽऽले। हम तऽऽ ओनकर मुंहवे देखत रह गइली, समाचार कइसे सुनाई देईऽऽ ?’’
पर काफी सालों बाद टीवी का थोड़ा बहुत प्रभाव मन्नन राय पर भी पड़ा था। रविवार की सुबह जलेबी-दूध का सेवन करके वह सरबजीत सरदार के घर ज़रूर जाते और रामायण नाम का वह चमत्कार पूरे एक घंटे तक देखते और नतमस्तक होकर लौट आते। उन्हें टीवी का यही एक प्रयोग सही लगता।
मगर टीवी का यही एक प्रयोग नहीं था। उस पर फ़िल्में भी आ रही थीं। फ़िल्मी गाने भी आ रहे थे। जो गाने पति-पत्नी बच्चों के बिना हॉल में जाकर देखते सुनते थे, अब बच्चे घर में बैठे-बैठे देख सुन रहे थे। बच्चे जल्दी-जल्दी किशोर, किशोर बड़ी तेजी से युवा और युवा बड़ी तेज़ी से अवसादग्रस्त हो रहे थे। बनारस पूरे देश में हो रहे बदलावों को अपने में दिखा रहा था। पर उपर से कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। सब पहले के जैसा शान्त था। बच्चे गाना सुनते और गुनगुनाते फिरते-
’’एक आंख मारूं तो लड़की पट जाए............।’’
’’ दे दे प्यार दे..........।’’
’’सात सहेलियां खड़ी-खड़ी........।’’
’’सुन साहिबा सुन.........।’’
मां-बाप बच्चों के मुंह से ऐसे गाने सुनकर कभी गौरान्वित महसूस करते और कभी ऐसे गन्दे गाने न गाने की चेतवानी देते। जो इन्हें गंदा गाना कहते, वे ख़ुद एक-दो साल बाद इन्हें गुनगुनाते क्योंकि गंदगी की परिभाषा बड़ी तेज़ी से हर पल बदल रही थी।
दिल, प्यार, आशिक़ी आदि रोज़मर्रा की बातचीत के शब्द बन रहे थे। युवा लड़के दिल टूटने पर गीत गाने लगे थे। लड़कियां अपनी तारीफ़ गाने में सुनना पसंद करने लगी थीं पर उपर से सब शांत दिखायी पड़ता था।
वी.सी.आर. नाम के उपकरण ने वर्षों हल्ला मचाये रखा। पति-पत्नी रात को बच्चों के सो जाने के बाद प्रायः इसका उपयोग करते। बच्चे कभी-भी आधी नींद से जागते तो सोने का बहाना किए पूरा तमाशा देख जाते। उनके सामने उत्सुकताओं के कई द्वार खुल रहे थे।
मन्नन राय की उम्र शादी के बाॅर्डर को पार कर रही थी। घर से पड़ता दबाव भी उनकी उदासीनता को देखकर कम होता जा रहा था। वह हनुमान जी के परम भक्त थे और आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले चुके थे। हर शनिवार और मंगलवार को संकटमोचन जाने पर यह व्रत और दृढ़ होता जाता। पर स्त्रियों की वह बहुत इज़्ज़त करते थे और उनसे की गयी बदसलूकी अपने सामने नहीं देख सकते थे।
उधर बीच वह रात को पान खाकर अक्सर सरबजीत सरदार के चबूतरे पर देर तक बैठा करते थे। मोछू भी दुकान बंद करने के बाद वहीं आ जाते और तीनों देर तक दुनिया जहान की बातें करते रहते।
एक रात अब वह सरबजीत को राम-राम कह कर उठने ही वाले थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे उन्हें अंधेरे में कुछ परछाइयां दिखीं। वह कुछ देर वहीं से भांपते रहे फिर लपक कर उस ओर बढ़ चले।
वहां का नज़ारा उनके तन-बदन में आग लगाने के लिये काफी था। जनार्दन तिवारी का लड़का चून्नू त्रिलोकी ओझा की लड़की सविता को बांहों में भींचे खड़ा था और बार-बार उसे चूमने की कोशिश कर रहा था। लड़की शर्म के मारे चिल्ला नहीं पा रही थी पर छूटने की भरसक कोशिश कर रही थी। उन्होंने चून्नू को एक हाथ दिया और वह दूर जा गिरा। उठा तो सामने मन्नन राय को देखकर उसकी रूह फ़ना हो गयी।
’’तू घरे जोऽऽऽ।’’ मन्नन राय ने लड़की को डपट कर कहा और चून्नू पर पिल पड़े। चून्नू ने गिड़गिड़ाते हुये उनके पैर पकड़ लिये। मोछू और सरबजीत भी आ गये और पूरा मामला जानकर उन्होंने भी चून्नू का कान पकड़ कर दो करारे हाथ रखे। उसने कसम खायी कि वह मुहल्ले की सभी लड़कियों को बहन मानेगा, उसके बाद उसे छोड़ा गया। उस घटना के बाद चून्नू दो महीने तक दिखा नहीं। वह अपनी नानी के यहां छुट्टियां बिताने चला गया था, शायद शर्मिंदा होकर।
समय धीरे-धीरे बीतते हुये कठिन और गाढ़ा होता गया। परिवर्तन ऐसे मोड़ पर पहुंच गये थे कि उन्हें देखा जा सकता था। किशोर और युवा टीवी के गुलाम नहीं रह गये थे। उनके लिये इंटरनेट पर उच्छृंखलताओं का अथाह समुद्र था जिसमें वे जितनी चाहे डुबकी मार सकते थे। वी.सी.आर. जा चुका था। वी.सी.डी. प्लेयर पर पति-पत्नी रात को अपनी पसंद देखते तो बच्चे दरवाज़ा बंद कर दिन में देखते। हमारा देश अचानक दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत चेहरे पैदा कर रहा था। हर बात के लिये औसत आयु कम हो रही थी, चाहे बूढ़ों के मरने की बात हो या लड़कियों के रितुचक्र के शुरूआत की। किशोर खुलेआम सिगरेट पीने लगे थे और कुछ किशोर दशाश्वमेध पर घूमने वाले दलालों से हेरोइन लेकर भी स्वादने लगे थे। बाप न जाने क्यों ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने में लगे जा रहे थे और मांएं टीवी सीरीयलों में जीवन जीने लगी थीं। औसत लड़कियां किसी ख़ास साबुन या क्रीम की कल्पना कर ख़ुद को जीवनपर्यंत चलने वाले भ्रम में डाल रही थीं तो लड़के अनाप शनाप पाउडर खाकर सुडौल शरीर बनाने के सपने देख रहे थे। अखाड़े सभ्यता की निशानियों की तरह जीवित थे। गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट और जिम खुल गये थे। एक नई सदी शुरू हो गयी थी और यह सदी सच्चाई की नहीं, झूठ, आतंक और दिखावे की थी।
सांस्कृतिक नगरी काशी में एक और परिवर्तन हुआ था। आज़मगढ़, मऊ, गोरखपुर और आसपास के अपराधी अपनी गतिविधयों का केंद्र काशी को भी बना रहे थे। काशी बड़ी तेज़ी से सांस्कृतिक राजधानी से आपराधिक राजधानी बनती जा रही थी। इन शातिरों ने अपना ध्यान शिक्षित लोगों को अपराधी बनाने में लगाया। पढ़े-लिखे बेराज़गार नौजवान गैंग बना रहे थे। चोरी, छिनैती की घटनाओं में सिर्फ़ नौजवान ही मोर्चा संभाल रहे थे। इन पढ़े लिखे अपराधियों ने कई प्रशिक्षित अपराधियों और मंजे हुये गुण्डों का बोरिया बिस्तर बंधवा दिया था। इन्हीं शिक्षित अपराधियों ने रंगदारी यानि गुण्डा टैक्स वसूलने का नियम आम किया था। रंगदारी यानि हमें पैसा इसलिये दीजिये क्योंकि हम आपकी जान नहीं ले रहे हैं। पैसा दीजिये और हमारी गोलियों से सुरक्षित रहिये। इन्होंने बड़े-बड़े रसूख वाले व्यापारियों को निशाना बनाया। इसमें ख़तरा था जो ये उठा रहे थे और सफल भी हो रहे थे।
बनारस में बहुस्तरीय परिवर्तनों से मन्नन राय जैसे लोग बहुत परेशान थे। लस्सी और ठंडई की दुकानें कम हो गयी थीं। शराब की दुकानों के लाइसेंस दोनों हाथों से बांटे जा रहे थे। गाइड पर्यटकों को घुमाते-घुमाते उनका पर्स, कैमरा आदि पार कर देते और महिला पर्यटकों से बदसलूकी करने में उन्हें कोई डर नहीं था। कुछ गाइड महिला पर्यटकों से बलात्कार भी कर रहे थे तो कुछ ने एकाध विदेशियों का क़त्ल भी कर डाला था। सबको पुलिस का संरक्षण प्राप्त था जो पूरी तरह से हरे और सफेद रंग की ग़ुलाम बन गयी थी।
अधेड़ से वृद्ध हो चुके मन्नन राय सुबह-सुबह जलेबी दूध का नाश्ता करने के बाद मुहल्ले में टहल रहे थे। उस दिन रविवार था। उनका विचार था कि झुनझुन के यहां दाढ़ी बनवा लेते। वहां गये तो कुछ लड़के पहले से नम्बर लगाये हुये थे। वह कुछ भुनभुनाते हुये बाहर निकल आये और डाॅक्टर साहब के चबूतरे पर बैठकर अख़बार पढ़ने लगे। डाॅक्टर साहब भी आवाज़ सुनकर बाहर आये और मन्नन राय को प्रणाम कर वहीं बैठ गये।
’’ क्या भुनभुना रहे हैं बाऊ साहब ?’’
’’ अरे आजकल के लौंडे डाक्टर साहब। का बताएं ? दाढ़ी के साथ-साथ मोछ भी साफ करा देते हैं और झोंटा अइसा रखते हैं कि पते न चले कि जनाना है कि आदमी। अउर त अउर सरीर अइसा कि फूंक दो तो............।’’
मन्नन राय ने बात ख़त्म भी नहीं की थी कि दो मोटरसाइकिलों पर सवार चार हथियारबंद नौजवान तेज़ रफ्तार में गाड़ी धड़धडाते हुये उनके सामने से निकल गये और कन्हैया सुनार के घर के सामने गाड़ी लगा दी। तीन नौजवान बाहर टहलने लगे और एक अंदर चला गया। बाहर के तीनों नौजवान आगे बढ़ने वाले को तमंचा दिखकर पीछे रख रहे थे। तभी अंदर वाला नौजवान कन्हैया सुनार को लगभग घसीटते हुये बाहर लाया और चारों उनकी लात घूंसों से पिटायी करने लगे। कन्हैया हलाल होते सूअर की तरह डकर रहे थे। कन्हैया की पत्नी और बारह वर्षीय बेटा दरवाज़े पर खड़े होकर रो रहे थे और मदद की गुहार कर रहे थे। मगर चार तमंचों के आगे हिम्मत कौन करे। चारों लात-घूंसों के साथ गालियों की भी बौछार कर रहे थे।
’’ पहचान नहीं रहे थे हम लोगों को मादर.....।’
’’ दो पहले ही दे दिये होते तो ये नौबत क्यों आती हरामजादे ?’’
’’ हमारी बात न मानने का अंजाम बता दो साले को.....।’’
मन्नन राय मामला भांप चुके थे। कन्हैया सुनार बड़ा अच्छा आदमी था। उनके सामने इतना अंधेर। वह लपक कर उन सबके पास पहुंच गये और पूरे मुहल्ले की धड़कनें रुक गयीं।
’’ छोड़ दे एनके......।’’
’’ तू कौन है बे मादर.........।’’
एक चिकने दिखते लड़के का तमंचा लहराकर यह कहना ही था कि मन्नन राय का माथा घूम गया। उनके सामने पैदा हुये लौण्डों की ये हिम्मत ? उनकी एक भरपूर लात लड़के की जांघों के बीच पड़ी। दोनों हाथों से उन्होंने बाकी दोनों के सिर पकड़ कर लड़ा दिये और फ़िल्मी स्टाइल में चैथे के एक लात मारी। वह नीचे गिर पड़ा। अब चारों निहत्थे ही मन्नन राय पर टूट पड़े। पहले तो चारों भारी पड़े पर जब एक चिकने लड़के ने मन्नन राय के मुंह पर मार कर ख़ून निकाल दिया तो मन्नन राय अचानक सुन्न हो गये। क्षण भर उसके चिकने चेहरे को देखते रहे और अगले ही पल ’जय बजरंग बली’ का उद्घोष करते हुये चारों को पलक झपकते ही धराशायी कर डाला। लड़ायी को अंतिम घूंसे से फ़ाइनल टच देते हुये बोले, ’’लोहा उठावल सरीर ना हौ बेटा अखाड़े कऽऽ मट्टी हौऽऽऽ।’’ उनके सिर का आभामंडल चमक रहा था।
तभी गेट के बाहर खड़े कुछ अतिउत्साही नवयुवक अंदर घुस आये और चारों को पीटने लगे। काफी भीड़ जमा हो गयी और वे इस अफरातफरी का लाभ उठा कर फ़रार हो गये।
इस घटना के बाद पूरे मुहल्ले ने मन्नन राय को ज़बरदस्ती अपने-अपने घर बुलाकर उनका पसंदीदा खाद्य पदार्थ जैसे दही बड़ा, मालपुआ, गुलाब जामुन वगैरह खिलाया। मूल्य क्षरण के इस युग में भी खुले मन से यह स्वीकार किया गया कि, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’
मन्नन राय की गज़बनेस तब तक पूरे रौ में बरक़रार थी। वह पूरे मुहल्ले के सरपरस्त, रखवाले और अब बुज़ुर्ग थे। हर घर पर उनके कुछ न कुछ अहसान थे। किसी की ज़मीन का झगड़ा सुलझाया था, किसी के पैसों का लेन-देन निपटाया था तो किसी को धमका रहे बदमाशों से छुटकारा दिलाया था। पाण्डेयपुर से कैण्ट और मलदहिया से लंका तक लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते थे।
पहले के नौजवान जिन्होंने मन्नन राय की परम शौर्यता का दौर देखा था, उन्हें बड़ा भाई मानते थे। उनके समौरिया जो लंका जैसे दूर क्षेत्रों में रहते थे, अपने घरों में ख़ुद को उनका क़रीबी दोस्त घोषित करते थे भले ही उनकी आपस में एकाध मुलाक़ातें ही हुयी हों।
हालांकि जो वर्तमान पीढ़ी थी, वह मन्नन राय के बारे में क्या सोचती थी, ये मन्नन राय को पता नहीं था। यह वह पीढ़ी थी जो अपने बाप को इसलिये सम्मान देती थी क्योंकि वह पैसे देता था। यह पीढ़ी बड़ी तार्किक थी। इसके पास ईश्वर को न मानने के तर्क थे, पोर्नोग्राफी को वैधानिक कर देने के तर्क थे, शराब को जायज़ मानने के तर्क थे और आश्चर्य कि सभी तर्क दमदार थे।
मन्नन राय इस पीढ़ी की इस ताक़त से अनभिज्ञ थे। शायद इसलिये कि उनका वास्ता शुरू से ही इसके पहले वाली पीढ़ी और उसके पहले वाली पीढ़ी से पड़ा था। वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने सड़कों पर नंगा खेलते-भागते देखा था और वह इसी रूप में उनके दिमाग में दर्ज थी। मगर यह पीढ़ी अपना शिशु रूप पैदा होते ही छोड़ चुकी थी। यह पीढ़ी, जैसा कि होता है, अपनी सभी पिछली पीढ़ीयों से तेज़ और बहुत आगे थी।
रात का समय था। बिल्कुल वही दृश्य था जिसे बीते दो दशक से भी ज़्यादा का समय हो गया था। मन्नन राय सरबजीत सरदार के चबूतरे पर मोछू, लल्लन, बजरंगी और एकाध स्थानीय लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे अंधेरे में उन्हें कुछ परछाइयां दिखीं। उनके सामने दशकों पहले का दृश्य घूम गया और वह लपक कर उस ओर बढ़ चले। उन्हें उठता देख सरबजीत भी उठ कर पीछे लग गये और उन्हें देख उपस्थित सभी पांचों छहो उनके पीछे चल दिये। सभी को अच्छी तरह पता था कि मन्न्न राय गजब आदमी हैं, क्या पता कोई गजबनेस दिखा ही दें।
गजबनेस (मुहल्ले के मनचलों द्वारा दिया गया शब्द) दिखी भी। मन्नन राय ने देखा कि रामजीत पाण्डेय का लड़का सुनील परमेश्वर सिंह की बेटी अंशु को भींच कर खड़ा है और उसके नाज़ुक अंगों पर हाथ फेरने के साथ उसे चूम भी रहा है। लड़की के मुंह को उसने हाथ के पंजे से बंद कर रखा है और लड़की आज़ाद होने के लिये छटपटा रही है। मन्न्न राय ने एक ज़ोरदार थप्पड़ सुनील को मारा और वह छिटक कर दूर जा गिरा। लोग ख़ुश हो गये। उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गयी। मन्नन राय इस लड़के को अभी ठीक कर देंगे। ये आजकल के लौण्डे..........। मन्न्न राय गुस्से से लाल हो रहे थे। लड़की छूटते ही घर की ओर भागी।
’’ काहे बे, पढ़े लिखे वाली उमर में हरामीपना करत हउवे, वहू खुलेआम.......?’’
सुनील उठा, एक नज़र मन्न्नन राय की ओर देखा, एक नज़र भाग कर जाती अंशु की तरफ़ और ज़मीन पर पड़ा अपना बैग उठाने लगा। उसकी आंखों में शर्म, पछतावा, संकोच जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था। उसने बैग उठाया और चलने से पहले जली आंखों से मन्नन राय को घूरा। कल के लौण्डे को अपनी ओर इस तरह घूरते देखकर मन्नन राय का पारा गरम हो गया। उन्होंने उसे हड़काते हुये थप्पड़ उठाया-
’’ अइसे का देखत हउवे। तोर तरे माइ बाप कऽ पइसा बरबाद करे वालन कऽ इलाज हम बढ़िया से जनिलाऽऽऽ...........।’’
उनकी बात बीच में अधूरी रह गयी क्योंकि सुनील ने उनका तना हुआ थप्पड़ बीच में पकड़ लिया और झटक दिया। वहां उपस्थित सबकी सांसे रुक गयीं। मन्नन राय आपे से बाहर हो गये और दूसरे हाथ से एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। वह सम्भल भी नहीं पाया था कि दूसरा थप्पड़। फिर उस सत्रह साल के लड़के ने ऐसी हरक़त की कि वहां सबको सांप सूंघ गया।
उसने तेज़ी से अपना बैग निकाला और बिजली की फ़ुर्ती से किताबों के बीच से एक तमंचा निकाल कर मन्नन राय की कनपटी पर सटा दिया। वह बुरी तरह से हांफ रहा था। गुर्राता हुआ बोला-
’’ नेता बनने की आदत छोड़ दे बुड्ढे वरना यहीं ठोक दूंगा। जब देखो दूसरों के काम में टांग अड़ाना.......। राम राम करो मादरचोद नहीं तो उपर पहुंचा दूंगा......।’’
सभी लोग अवाक् खड़े थे। मन्न्न राय की आंखें जैसे अचानक भावशून्य हो गयी थीं। लोगों ने मन्नन राय के चेहरे की ओर देखा। वहां क्रोध का नामोनिशान नहीं था। फिर भी उन्हें लग रहा था कि वह फ़ुर्ती से सुनील के हाथ से तमंचा छीन लेंगे और उसे पीटते हुये घर ले जायेंगे। जो व्यक्ति चार-चार तमंचों को काबू कर सकता हो, उसके लिये एक सत्रह साल का दुबला-पतला लड़का और तमंचा क्या मायने रखते हैं। पर मन्नन राय जैसे शून्य में कहीं खो गये थे। उनके चेहरे पर पता नहीं कैसे अनजान भाव थे जिसे मुहल्ले वाले पहचान नहीं पा रहे थे।
सुनील बैग लेकर चल पड़ा तब भी मन्नन राय वैसे ही खड़े थे। लोगों ने स्पष्ट देखा था कि सुनील ने जब उनके उपर तमंचा ताना था तो तमंचे की नली उनकी कनपटी की तरफ़ सीधी नहीं थी बल्ेिक उनके सिर के इर्द-गिर्द रहने वाला आभामंडल उसकी ज़द में था। अब वह आभामंडल बिल्कुल विलुप्त हो गया था और वह लुटे-पिटे बड़े निरीह बुड्ढे लग रहे थे। रात अचानक और काली हो गयी थी और मन्नन राय के चेहरे पर उतर आयी थी। वह भौंचक खड़े उस रास्ते को देख रहे थे जिस पर सुनील गया था। कुछ लोग उनके कंधे पर हाथ रखकर सहला रहे थे कुछ पीठ। उन्हें पकड़ कर लोग चबूतरे पर वापस ले आये। वह कुछ बोल नही रहे थे। कुछ लोगों को उम्मीद थी कि अभी वह नीम गुस्से में हैं इसलिये कुछ बोल नहीं रहे हैं। गुस्सा संभलने के बाद ज़बरदस्त बनारसी गालियां देंगे और उस बद्तमीज़ लड़के के घर जाएंगे और......।
अचानक मन्नन राय उठ खड़े हुये। उनका रुख अपने घर की ओर था। लोग समझाने लगे।
’’ आप झूठे परेसान हो रहे हैं बाऊ साहब..........।’’
’’ कल सबेरे सुनीलवा के घर सब लोग चला जायेगा। रामजीत से बात किया जायेगा.......।’’
’’ बइठिये मन्नन भईया.......।’’
’’ बइठा यार मन्नन ........।’’
मगर वह न बैठे न रुके। धीमी चाल से वह अपने घर में घुसे और दरवाज़ा बंद कर लिया। लोग उनका यह रुख देखकर दुखी हुये। सबने चर्चा की कि मन्नन राय को बहुत दुख पहुंचा है और इसका निवारण यही है कि सुनील उनसे माफ़ी मांगे।
अगली सुबह जब सुनील के मां-बाप को यह घटना बतायी गयी तो वे आगबबूला हो उठे। लड़के की बेशर्मी से ज़्यादा दुख उन्हें मन्नन राय के अपमान का था। सुनील की बहुत लानत मलानत हुई और मुहल्ले के सभी बुज़ुर्ग लोग दोनों को लेकर माफ़ी मंगवाने मन्नन राय के घर पहुंचे। मुहल्ले में अफ़रा तफ़री मच गयी थी। जो सुनता, ज़माने को दोष देता।
मन्नन राय की दिनचर्या के अनुसार यह समय उनके नाश्ता कर चुकने के बाद डाक्टर साहब के यहां अख़बार पढ़ने का था पर वह अभी तक दिखायी नही दिये थे। लोगों ने दरवाज़ा खटखटाया तो वह अपने आप खुल गया। लोग एक अनजानी आशंका से भर उठे। हर कमरे की तलाशी ली गयी। मन्नन राय नहीं थे। हर सामान पहले की तरह व्यवस्थित था। मन्नन राय कहां चले गये ? किसी रिश्तेदार के यहां जाते तो कपड़े वगैरह ले कर जाते। सारे कपड़े, यहां तक कि उनका धारीदार जांघिया भी वहीं टंगा था। बिना कुछ लिये वह कहां जा सकते हैं.......खाली हाथ ? कुछ के दिमाग में आशंकाएं उभर रही थीं पर बोला कोई कुछ नहीं। सबको पता था कि बोलते ही बाकी सब कांवकांव करने लगेंगे-, ’’मन्नन राय कोई कायर कमज़ोर थोड़े ही हैं।’’
फिर वह गये कहां ? उनके जो थोड़े बहुत रिश्तेदार थे उनके यहां पता किया गया। वह वहां भी नहीं थे। उनके घर पर ताला लगा दिया गया है और पूरा मुहल्ला आंखें बिछाये इंतज़ार कर रहा है कि वह कब आते हैं। कुछ छंटइल बदमाश हैं जो ख़ाली मकान को हड़पने की फ़िराक़ में हैं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्हें डर है कि मन्नन राय आ गये तो हड्डी पसली ढूंढ़ें नहीं मिलेगी। उन्हें अभी भी याद है कि ’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’ है किसी की मज़ाल जो ’थे’ का प्रयोग कर दे।
लेखक मन्नन राय का बहुत बड़ा भक्त रहा है और उनकी बहुत सी आदतें न पसंद होने के बावजूद उनकी गुमशुदगी पर चिंतित है। आप उनकी आदतों और उनके व्यक्तित्व की चीरफाड़ में तो नहीं उलझ गये ? उनका ज़बरदस्ती हर किसी के काम में नेता बनने की आदत और दकियानूसी और पिछड़ी सोच.....? आप किसी दूसरे रास्ते तो नहीं जा रहे ? इसीलिये लेखक ने शुरू में ही कहा था कि सबसे बड़ी समस्या मन्नन राय की गुमशुदगी है, यह वक्त उनके आग्रहों पर सोचने का नहीं है। लेखक ने भले उनकी जवानी न देखी हो, उनका गर्व से भरा माथा और तनी हुयी रोबीली चाल देखी है। हालांकि उस दिन से लेखक को यह अनुभव हुआ है कि हर मन्नन राय बुढ़ापे में ज़्यादा दिनों तक तना नहीं रहने दिया जाता। लेखक सड़कों पर घूमते समय सिर झुकाये किसी हताश और निरीह बूढ़े को देखता है तो दौड़ कर पास जाकर देखता है कि कहीं यह मन्नन राय तो नहीं। पर वह मन्नन राय अब तक नहीं मिले, हालांकि दूर से ज़्यादातर बूढ़े मन्नन राय ही लगते हैं, उस रात के बाद वाले मन्नन राय। लेखक ने पहचान के लिये कहानी के साथ मन्नन राय की तस्वीर भी संलग्न की है। इसके साथ संपादक से व्यक्तिगत रूप से संपादक से निवेदन भी किया है कि यदि इस समस्या को खालिस कहानी के रूप में छापें और चित्र छापना संभव न हो, तो उनका एक रेखाचित्र ज़रूर छापें। वैसे आपकी सुविधा के लिये मैंने पूरा हुलिया दे ही दिया है और अब तक तो आप मन्नन राय को पहचान ही गये होंगे। यदि किसी को भी मन्नन राय के विषय में कोई भी सूचना मिले तो कृपया लेखक के पते पर अविलम्ब संपर्क करें। उचित पारिश्रमिक भी दिया जायेगा।
कहानीकार- विमलचंद्र पाण्डेय