एक भूमिका की भूमिका
´´आप बताते चलिए और मैं लिखती चलूंगी। मैं अब तक न कही गई उन यातनाओं के बारे में सिर्फ़ लिखना ही नहीं चाहती, जीना भी चाहती हूं। हां, भूमिका आप खुद लिखिए। भूमिका उस व्यक्ति से लिखवाने पर ज्यादा अंक मिलेंगे जो उस इतिहास का साक्षी है।´´
´´ ठीक है। लेकिन मेरी एक शर्त है। पहले मुझे चाय का एक प्याला पेश करो।´´
वह उठे और यूं ही टहलने लगे। दीवार पर एक पुरानी तस्वीर मुस्करा रही थी। हेमंत और सुमन खास सज संवर कर फोटो खिंचाने के लिए तैयार हुए थे। उन्हें याद आया उस दिन उनका मन फोटो खिंचाने का बिल्कुल नहीं था। बस हेमंत और सुमन की ज़िद पर बेमन से तैयार हुए थे।
´´मुस्कराइए भाई साहब।´´ स्टूडियो से आमंत्रण पर बुलाए पेशेवर फोटोग्राफर ने पेशेवराना अंदाज में कहा था।
उन्होंने भृकुटि टेढ़ी करके हेमंत की ओर देखा था और हेमंत ने बिना बोले उन्हें आंखों से डांट दिया था। वह कैमरे की ओर देख कर मुस्कराए थे। क्लिक।
वह मुस्कराने लगे। गुड़िया चाय लेकर आ गई।
´´आप अकेले में क्यों मुस्करा रहे थे ?´´ वह उनकी ओर कौतूहल से देखने लगी।
´´ मैं तुम्हारे पापा से बात कर रहा था।´´ वह भी उनकी निगाहों का अनुसरण कर तस्वीर की ओर देखने लगी।
चाय पीते हुए वह सोफ़े पर बैठ गए। गुड़िया काग़ज़ और कलम ले कर इंतज़ार कर रही थी कि वह जल्दी अपनी चाय खत्म करें।
´´यह कहानीनुमा होगा या लेख जैसा..................... या फिर किसी शोधपत्र की तरह.................?´´
´´ कैसा भी हो सकता है दादू। बस ´संवेदनात्मक लेखन´ के ज़रिए पापा को एक बार जीना चाहती हूं। आपने मुझे बचपन में ही पढ़ाई के लिए देहरादून भेज दिया। पापा के ऊपर हुए अत्याचार के विषय में मैंने सिर्फ़ मां के मुंह से ही थोड़ा बहुत सुना है। मैं सब कुछ तफ़सील से जानना चाहती हूं। उनके बारे में और उस भयावह दौर के बारे में सब कुछ......................।´´
´´ हालांकि अब जब सब कुछ बहुत पीछे छूट चुका है तो उन्हें याद करना कोई अर्थ नहीं रखता बेटी।´´ उन्होंने बचने का एक कमज़ोर सा प्रयास किया।
´´ उसके लिए भी नहीं दादू जिसने उस दौर में अपना बेटा खोया.................... या अपना पिता।´´ गुड़िया ने गहरी आवाज़ में पूछा।
वह खामोश हो गए। ´´ तो क्या हम आज फ़िल्म देखने नहीं चलेंगे ?´´ वह अतीत की काली अतल गहराइयों में जाने से बच रहे थे। अब वहां क्या रखा है।
´´ नहीं आप आज लिखवाइए वरना मेरी छुटि्टयां खत्म हो जाएंगीं।´´ वह ठुनकी। कितना बचपना है इसके अंदर अभी तक ? कभी-कभी बिल्कुल हेमंत की तरह लगती है।
´´ कब तक रुकना है ?´´
´´ एक हफ्ते और...........।´´
´´ कुछ दिन और नहीं रुक सकती ?´´
हूं∙∙.............. सोचूंगी अगर आज आपने पूरा लिखवा दिया तो।´´
´´ चलो बाबा चलो................ लिखते हैं।´´
भूमिका-ए-वक्तनामा
भूमिका लिखने से पहले वह थोड़ी देर ठिठके से साचते रहे। शब्द और विचार अनवरत गति से उनके दिमाग में घूम रहे थे। वे उन्हें कलम से संयोजित नहीं कर पा रहे थे। कहां तो दिमाग हमेशा खाली रहता है और कहां आज विचारों का इतना दबाव................। उन्होंने लिखना शुरू किया।
इसे लिखने की कोई खास वजह नहीं थी। न तो इसे लिखने का भरपूर साहस था न पर्याप्त कारण। वैसे कोई भी कारण ऐसी घटनाओं को कलमबद्ध करने जैसा आत्मघाती कदम उठाने के लिए पर्याप्त नहीं होता, इस मत में मैं निश्चित हूं। मैं कहानी लिख रहा हूं या इतिहास, यह भी मैं विश्वास से नहीं कह सकता। पर कहते हैं कि ऐसी घटनाएं सवार होकर खुद को लिखवा ही लेती हैं। इसमें कितना झूठ है और कितना सच, यह मैं नहीं कह सकता। हां एक महान उद्धरण ´´इतिहास में तिथियों को छोड़कर बाकी सब झूठ होता है और कहानी में तिथियों को छोड़कर बाकी सब सच´´ का सहारा लेकर शायद इस जीवित दस्तावेज़ को वर्गीकृत किया जा सके। अर्थात इतिहास भी एक कालजयी कहानी है और कहानी एक कालजयी इतिहास।
यदि मैं वजह की बात करूं तो कोई ठोस वजह न होने के बावजूद यह भूमिका मैं लिख रहा हूं क्योंकि मैं आत्महत्या करने की मानसिक अवस्था में पहुंच जाने के बावजूद आत्महत्या करने से अधिक जीवित रहने की ठोस वजह खोज चुका हूं। मैं जानता हूं कि यह परियोजना समाप्त होने पर मैं पहले से ज्यादा यंत्रणादायक अवस्था में हूंगा पर सबसे बड़ी और ठोस वजह है मेरी पौत्री प्रांजलि विश्नोई, जिसे मैं प्यार से गुड़िया कहता हूं। यह अनोखी परियोजना उसके विश्वविद्यालय की ´संवेदनात्मक लेखन´ प्रतियोगिता के लिए तैयार की जा रही है जिसकी भूमिका पुझसे लिखवाने के लिए मैं इसे ढेर सारा आशीर्वाद और प्यार देता हूं।
डॉ. देवेन्द्र कुमार
अवकाशप्राप्त व्याख्याता
दिल्ली विश्वविद्यालय
गुड़िया ने पढ़ा और न जाने क्या सोचकर गुमसुम सी हो गई। वह लाइनों के बीच भी पढ़ने की कोशिश कर रही थी और इस कोशिश ने उसे मायूस कर दिया था क्योंकि लाइनों के बीच थीं तो सिर्फ़ डॉ. देवेन्द्र कुमार की आंखें।
´´क्या सोचने लगी बेटा...............?´´ बदले में गुड़िया डबडबाई आंखें से उनके गले लग गयी। थोड़ा देर बाद आंखें पोंछ कर संयत हुयी।
´´ हां, शुरू करिए, मैं तैयार हूं।´´
उन्होंने कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाया और आंखें बन्द कर लीं। कमरे में चलता पंखा अचानक धुंए के बादल फेंकने लगा था। सारी चीज़ें उसमें ढकती जा रही थीं। हर ज़िन्दा और निर्जीव शै धीरे-धीरे धुंए के उस गुबार में समा गयी।
धुंए के उस पार की कथा
जब धुंआ छटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। समय का पहिया पचीस वर्ष पीछे घूम चुका था। कमरे में न डॉक्टर साहब थे न गुड़िया। चौबीस वर्षीय हेमंत पिकनिक पर जाने के लिए तैयार हो रहा था।
वे मार्च-अप्रैल के दिन थे और हवा में दिलकश ठंडक रहती। पेड़ों से झरते पत्ते कभी बहुत खुश कर जाते और कभी उन्हें देखकर विरक्ति सी होने लगती। विश्वविद्यालय की सड़कें पत्तों से पटी होतीं और थोड़ी भी हवा चलने पर पत्ते बढ़ी रूमानी ढंग से सबके बदन को सहलाते यहां-वहां उड़ते।
´´ वह आएगी या नहीं ?´´ हेमंत ने स्कूटर स्टार्ट करते हुए पूछा।
´´ ये मैं जानूंगा या तुम ?´´ रजत ने सवाल पर सवाल दागा।
हेमंत दिल्ली विश्वविद्यालय में वाणिज्य का छात्र था और सिर्फ़ छात्रसंघ का मंत्री होने के कारण ही प्रसिद्ध नहीं था। उसकी लोकप्रियता के पीछे उसके ओजस्वी भाषणों और विचारोत्तेजक लेखों का सबसे बड़ा योगदान था। ज्योति ग्रुप की सबसे चुलबुली लड़की थी और हेमंत सबसे गंभीर। दोनों में अक्सर झगड़े भी होते रहते थे जिसे वे मतभेद कहते। पर आश्चर्य कि इन दोनों विपरीत स्वभाव वालों के बीच ( ग्रुप के अनुसार) आजकल ´कुछ-कुछ´ चल रहा था। इस कुछ को ग्रुप प्रामाणित करना चाहता था और मौका तलाश रहा था। ग्रुप यानि इन दोनों के अलावा रजत,सलमा और फ़राज। रजत थोड़ा संकोची,धार्मिक स्वभाव का लड़का था जिसकी जेब में हमेशा हनुमान चालीसा का छोटा गुटका रहता। मधुर बोलता और हर बात में ईश्वर की दुहाई दिया करता। सलमा सुंदर सी लड़की थी जिसके दांत औसत से थोड़े ज्यादा बड़े थे। नटखट से नटखट बात पर वह सिर्फ़ मुस्करा कर रह जाती। यदि हंसती भी तो इधर-उधर देखकर झट मुंह बन्द कर लेती मानो उससे कोई ग़लती हो गयी हो। फ़राज तगड़े शरीर वाला नौजवान था जो हर बात को सीधा ताक़त और शरीर से जोड़ दिया करता था। पंजे में हरा देने को दरियागंज की कचौड़ियां खिलाने वाली पार्टी उससे अब तक कोई नहीं ले पाया था।
वह पिकनिक अप्रैल के अंतिम दिनों में हुई थी जब हवा में घुलती ठंडक थोड़ी कम होने लगी थी। सब अपने हिस्से का काम कर रहा थे और खाने की तैयारी कर रहे थे। हेमंत टहलता हुआ दूर निकल गया और झरने के पास जाकर बैठ गया। ज्योति हेमंत के पीछे-पीछे झरने तक पहुंच गयी। दोस्त काफ़ी दूर दिख रहे थे। उसने हेमंत से कुछ कहा। हेमंत के पास पहुंचने से पहले शब्दों की मात्राएं झरने में गिर गयीं। वह हेमंत के थोडा़ और पास खिसक आयी।
उसने हेमंत से शिकायत की, ´´ तुम घमण्डी हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि उसे डर है कि बारिश होगी।
उसने हेमंत पर आरोप लगाया, ´´तुम दिखावापसंद हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह चाहता है कि काश पिकनिक में सिर्फ़ वे दोनों होते।
उसने हेमंत को डांटा, ´´तुम अपने अलावा सबको बेवकूफ़ समझते हो।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे पसंद करता है।
उसने हेमंत को मना किया, ´´मैं तुम्हें पसंद नहीं करती।´´
इस पर हेमंत ने कहा कि वह उसे प्यार करता है।
उसने कहा, ´´झूठे कहीं के...............।´´
उस दिन हेमंत और ज्योति दोनों एक दूसरे में खोए रहे और अनजाने में पिकनिक का बहिष्कार कर पिकनिक के आकर्षण का स्रोत बने रहे।
फिर ´प्रेम´ या जिसे ज्योति ´क़रीबी दोस्ती´ कहती थी, सतह पर आकर सबको दिखने लगा। दोनों घण्टों एक दूसरे में खोये रहते। पिकनिकों में एक अनूठा रस रहता। हेमंत ज्योति की आंखों में देखता रहता। रजत चुपचाप सलमा को देखता रहता और कल्पना करता कि उसके दांत थोड़े छोटे रहते तो वह ज्यादा सुंदर लगती या अभी लगती है। फ़राज़ पेड़ों की डालियां तोड़ने जैसा ताक़तवर और मूर्खतापूर्ण काम करके ताक़त का प्रदर्शन करता। सलमा जब नमाज़ के वक्त आंखें बन्द करती तो रजत पाता कि यह उसका बहुत पास से देखा हुआ चेहरा है। बचपन से बहुत पहले से..........................।
जब उन दिनों हेमंत आगामी चुनाव की तैयारियों में व्यस्त था, माहौल में असंतुष्टि का स्वर तेज़ होता जा रहा था। मंहगाई ने आम आदमी का कमर तोड़ दी थी, बेरोज़गारी से युवाओं के दिलों में विद्रोह की आग थी और भ्रष्टाचार ने पूरे देश की नींद उड़ा दी थी। देश की अर्थव्यवस्था चरमरा उठी थी और आज़ादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्नों के भग्नावशेष ही बच रहे थे। पूरा उत्तरी और पिश्चमी भारत एक राजनीतिक विप्लव की स्थिति में पहुंच गया था। देश चलाने वालों के पुतले रोज़ जलाए जा रहे थे। हेमंत की सभाओं और सेमिनारों की संख्या बढ़ती जा रही थी और साथ ही बढ़ता जा रहा था उसका जोश, कुव्यवस्था को दूर करने के संकल्प को पूरा करने का। और बढ़ता जा रहा था ज्योति के प्रति प्रेम, उसकी व्यस्तताओं के अनुपात में, दोनों के मिलने के बढ़ते जाते अंतराल के अनुपात में और अपने-अपने एकांत में घुलती यादों के अनुपात में।
रजत ने कुछ श्रृंगार रस की कविताएं लिखी थीं जिनमें किसी बड़ी आंखों वाली खातून का ज़िक्र था जिसके सारे लक्षण और हुलिया सलमा से मिलता जुलता था। फ़राज ने ज्योति को वे कविताएं सुनाई थीं बड़ी आंखों को बड़े दांतों से स्थानापन्न करके। दोनों खूब हंसे थे और रजत कुछ नाराज़ सा हो गया था।
एक छोटी सी प्रेम कहानी और वह मुकद्दस दुपट्टा
उन्हीं दिनों ज्योति तीन-चार दिनों तक विश्वविद्यालय नहीं आयी। सारी व्यस्तताओं और सभाओं के बीच से समय निकाल कर वह उस दिन उसके घर पहुंच गया। गली के मोड़ पर जैसे ही पहुंचा, ज्योति अपने घर से बाहर निकली। वह मुस्करा कर वहीं रुक गया। अचानक उसके सामने पहंच कर उसे चौंका देना चाहता था। मगर वह तेज़ कदमों से चलकर सड़क के किनारे वाली दुकान में घुस गयी। वह ठिठक गया। दुकानदार संदर युवा था जिसके बारे में ज्याति ने बताया था कि वह उसके बचपन का सहपाठी है । ज्योति ने दुकान में घुसते ही इधर-उधर देखते हुए जल्दी से दुकानदार को अपने दुपट्टे से निकाल कर कुछ दिया। दुकानदार ने कुछ पल उससे बातें कीं और उसके हाथ में कुछ नोट थमा दिए। वह कुछ समझ नहीं सका कि दोनों क्या कर रहे हैं। उसने ज्योति के अपने घर के अंदर घुस जाने का इंतज़ार किया और फिर थके क़दमों और ढेरों सवालों के साथ वापस लौट गया।
अगले दिन ज्योति विश्वविद्यालय में मौजूद थी। वह कुछ थकी-थकी सी और बीमार लग रही थी। न जाने क्यों उसे देख कर उस दिन हेमंत के दिल में एक हूक सी उठी थी कि वह उसे जल्दी ही खो बैठेगा। ज्योति ने ग्रुप के बहुत इसरार पर बताया कि उसकी मां की तबियत तीन चार दिनों से काफी खराब है और वह शायद अगले चार पांच दिन और कॉलेज न आ सके। हेमंत ने उसे कुछ पैसे देने चाहे। वह जानता था कि उसकी आर्थिक स्थिति खराब है पर जब उसने पैसे लेने से मना कर दिया तो वह अंदर तक दहल गया। एक पड़ोसी दुकानदार से वह पैसे ले सकती हे पर उससे नहीं.................? पहली बार उसे उसपर हल्का सा शक भी हुआ। आखिर क्या बात है ? शक ने जड़ तब पकड़ा जब उसके पूछने पर ज्योति ने कहा कि वह कल दिन भर घर से बाहर नहीं निकली। जब वह वहां से बाहर निकला तो लगा उसके शरीर की सारी ताक़त सूरज की रोशनियों ने सोख ली है। वह सड़क पर निस्पंद खड़ा है और गाड़ियां उसके ऊपर से आ जा रही हैं।
अगली दोपहर उसी समय वह वहां मौजूद था। कुछ इंतज़ार के बाद ज्योति घर से दुपट्टे के नीचे कुछ दबाए निकली। उसने तेज़ कदमों से सड़क पार की और अचानक उसके सामने जा खड़ा हुआ।
वह अचानक उसे सामने देख कर सहम गयी। दो क़दम पीछे यूं हटी जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो।
´´क्या है तुम्हारे हाथ में...........?´´
बदले में दो क़दम पीछे वह यूं हटी मानो अचानक दौड़ना शुरू कर देगी और किसी ऐसी जगह चली जाएगी जहां कोई उसे पहचान नहीं पाएगा।
´´झूठ क्यों कहा कि................?´´
बदले में वह उसके आगे बढ़ते क़दमों के अनुपात में यूं पीछे गयी जैसे मानों अब दो क़दम पीछे जाने पर वह अंतर्ध्यान हो जाएगी और सभी उसे फटी आंखों से ढूंढते रह जाएंगे।
´´ कल उसने तुम्हें पैसे क्यों दिए थे ? अपने हाथ दिखाओ..............। क्या है इनमें?´´
उसके एक क़दम बढ़ने की तुलना में वह झपट कर दो क़दम आगे बढ़ा और उसके हाथ दुपट्टे के बाहर खींच लिए।
´´न....नहीं∙∙∙∙∙∙∙∙।´´
चीख..................... एक मर्मांतक चीख जो इतनी धीमी थी कि आस-पास से गुज़र रहे लोगों को बिना सुनाई दिए उसके कानों को छेदते हुए दिल तक पहुंच रही थी। धूप अचानक कम हो गयी थी और अचानक ट्रैफ़िक जाम खुल जाने से गाड़ियां सन्न-सन्न करके गुज़रने लगी थीं। एक सरकारी हेलीकॉप्टर डैनों की फड़फड़ाहट सुनाता काफी नज़दीक से गुज़रा था। दो कुत्ते एक स्कूटर के पीछे भौंकते हुए भागे थे। ज़मीन पर ढेरों लिफ़ाफ़े बिखरे पड़े थे। अख़बार के पन्नों से बनाए कई आकार व प्रकार के लिफ़ाफ़े............ जिनसे झांक रही थी ज्योति की ग़रीबी, चारपाई पर पड़ी उसकी बीमार मां, स्कूल में फ़ीस के लिए सज़ा पातीं उसकी दो छोटी बहनें, थिगलियां लगी रेंगती ज़िंदगी, सारी विषमताओं के बावजूद ज़िंदगी से हार न मानने का उसकी ज़िद और उसका स्वाभिमान। हेमंत की आंखों में आंसू थे, मन में पछतावा और होंठों पर प्रेम। सड़क बिल्कुल खाली थी। न जाने सारी गाड़ियां कहां ग़ायब हो गयी थीं। कहीं कोई हलचल नहीं थी। वे दोनों जहां खड़े थे वहां से दूर-दूर तक सिर्फ़ धुंधलका ही धुंधलका छा गया था और सारी चीज़े उसमें ढक गयी थीं। वे दोनों पता नहीं कब से एक दूसरे को गले लगाए थे और शायद रो भी रहे थे। ऊंचाई पर जाने पर धीरे-धीरे वे छोटे होते दिख रहे थे। बादलों के बीच से तो वे बिल्कुल एक बिन्दी की तरह दिखते थे।
जनता व्यवस्था का सड़ना देख रही थी। आज़ादी के बाद के लिए देखे गए स्वप्न एक क्रूर और वीभत्स मज़ाक बनते नज़र आ रहे थे। बेरोज़गारों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ रही थी, उसी अनुपात में अपराध भी अपने पांव पसार रहा था। अपेक्षाकृत साफ़-सुथरी ग़ुलामी से आज़िज़ आ चुकी जनता का बदबूदार और भ्रष्ट आज़ादी में सांस लेने में दम घुटा जा रहा था। पूरे देश में असंतोष की एक लहर दौड़ रही थी जिसका पहला वलय दिल्ली से उठता था।
वह क़यामत की रात उर्फ़ दास्तान-ए-दिल्ली
आखिरकार वह क़यामत एक रात को आ ही गयी। इस रात के समंदर में ढेर सारे वलय थे जिसमें पहला कंकड़ संगम की धरती से मारा गया था। किसी के घर कोई नहीं सोया। पल-पल की खबर रखने के प्रयास में लोग रात का खाना भूल गए थे। सभी सहमे हुए थे। औरतें खाने की थाली लगाकर पतियों का इंतज़ार कर रहीं थीं पर उनके चेहरे पर छाया तनाव देखकर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं। रेडियो सुनने में शोर मचा रहे कुछ बच्चों को बापों की इतनी कड़ी डांट सुननी पड़ी थी कि वे सन्न होकर फिर से चादर में छिप गए थे।
लोग रात भर गिरफ़्तार किए जाते रहे थे। शासन विरोधी या कहें लोकतंत्र समर्थक कई नेताओं से लेकर छोटे कार्यकर्ता तक। जेलें ठसाठस भरी जा रही थीं। अगली सुबह का सूरज डरा सहमा संगीनों के साए में निकला था। लोग एक अंजाने डर में लिपटे हुए थे। एक दूसरे की ओर सभी अविश्वास की नज़रों से देख रहे थे। सभी आने वाले वक्त की भयावहता के बारे में सोच कर हलकान हुए जा रहे थे।
वाकई............... आने वाले वक्त की भयावहता के आगे शुरूआती नृशंसताएं कुछ भी नहीं थीं। अगले कुछ समय में देश ने वीभत्सता का नग्न तांडव देखा। ऊपर से क्या आदेश आ रहे थे और नीचे उनकी शक्ल कैसी हो जा रही थी, यह कोई मुद्दा नहीं था। निरपराध लोग सड़कों पर, थानों में और घरों में घुस कर पीटे जा रहे थे, छोटे-छोटे आरोपों पर। किसी विशेष दल से संबंध रखने पर, मुंह से कोई शासन विरोधी बात निकल जाने पर या कभी कभी यूं ही।
हेमंत और उसके साथी मौके को भांप कर भूमिगत हो गए थे। पुलिस उन पर छात्रों को गुमराह करने का आरोप लगा कर उनकी तलाश में फिर रही थी, खासतौर पर हेमंत की। यह फ़राज़ का घर था जो उनकी शरणस्थली बना हुआ था। हाथ से ही कुछ प्रपत्र तैयार किए जा रहे थे जिन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में वितरित करना था। सभी कार्बन लगा कर लिखने में व्यस्त थे। कई प्रेस वाले उनके मित्र थे लेकिन अभी संपर्क नहीं हो पाया था और कोशिश करना खतरें से खाली नहीं था।
´´ कभी सोचा नहीं था ऐसा दिन भी देखना पड़ सकता है।´´ रजत ने लिखते हुए ही सिर उठाकर कहा।
बदले में फ़राज़ उसकी ओर देख कर मुस्कराया। सलमा पूर्ववत लिखती रही और हेमंत ज्योति के थोड़ा और क़रीब खिसक आया।
´´ सब ठीक हो जाएगा यार, चिन्ता मत करो।´´ फ़राज़ ने कुर्ते की बांह यूं चढ़ाई मानो इसी से सब ठीक होगा।
´´ कैसे होगा..................? मुझे तो घर की चिंता हो रही है।´´ सलमा ने परेशानी भरे स्वर में कहा तो रजत का मन चाहा कि वह उसके बगल में जाकर बैठ जाए और कहे कि उसे चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है और वह अभी उसके हिस्से की चिंता करने के लिए ज़िंदा है। लगभग पुचकारते स्वर में उसने कहा, ´´ अरे चिंता क्या करना। हम काम कर ही रहे हैं................. ऊपरवाला सब ठीक कर देगा।´´ उसने जानबूझ कर भगवान और खुदा दोनों को समेट लिया।
´´ कुछ नहीं करेगा भगवान.................. सब हमें करना है... हमें। बच्चों जैसी बातें करके खुद को बहलाओ मत।´´ हेमंत के तैश में आकर बोलने से वातावरण काफी असामान्य हो गया, गंभीर और डरावना हो गया।
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी बनाम हेमंत परिणय ज्येति
ठीक उसी समय चीकू आ गया। चीकू बाहर चाय की दुकान पर काम करने वाला लड़का था जो तहखाने और बाहरी दुनिया के बीच का पुल था। उसने फ़राज़ से धीमे से कुछ कहा और फ़राज़ ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा। तनाव भरे माहौल को ठीक करने का यह उसका पुराना तरीक़ा था जिसमें वह अक्सर ओवरएक्टिंग करने लगता था।
´´ क्या हुआ ? पागलों की तरह हंसते ही रहोगे या हमें भी कुछ बताओगे ?´´ हेमंत अब तक गुस्से में था। बदले में फ़राज़ ने घटना कह सुनाई। राजेंद्र कुमार अभिनीत फ़िल्म गंवार पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि इसके पोस्टर पर नायक को हल लिए जाते दिखाया गया था।
सभी एक दूसरे की ओर आश्चर्य से देखने लगे। कमरे में अचानक खामोशी छा गयी। चीकू भी इनके चेहरों को ध्यान से देख रहा था कि इन्हें अचानक क्या हो गया। सबके चेहरों पर मुस्कराहट की एक लकीर सी खिंच रही थी। अचानक रजत ज़ोरों से हंसने लगा। सभी हंसने लगे। सलमा ने भी पूरे आवेग में हंसना शुरू किया और फिर थोड़ा मुंह खोलकर हंसने लगी। फ़राज़ हंसते हंसते कुर्सी से नीचे गिर गया था और अब भी हंस रहा था। ज्योति भी मुस्करा रही थी।
´´ ठीक है, इसमें इतना हंसने वाली भी क्या बात है.....................? क्या हो गया ?´´ हेमंत ने चेहरा गंभीर करके पूछा, हालांकि हल्की मुस्कराहट उसके चेहरे पर भी थी।
´´ हुआ यही बड़े भाई कि विनाशकाले विपरीत बुद्धि।´´ फ़राज़ हंसता हुआ बोला।
´´ अच्छा चलो ठीक है। काम करो।´´ हेमंत ने कड़े स्वर में कहा और फिर से लिखने में व्यस्त हो गया।
अचानक फ़राज़ कुर्सी पर खड़ा हो गया और ऊंची आवाज़ में कहने लगा, ´´भाइयों और बहनों। जैसा कि आप देख रहे हैं, हमारे मित्र समस्याओं का सामना किस बद्दिमागी के साथ कर रहे हैं जबकि ये जानते हैं कि ठण्डे दिमाग से सोच कर ही कुछ किया जा सकता है। हम सब इस संकट का सामना पूरी दिलेरी से करेंगे पर उसके पहले आपके लिए इस कठिन समय में भी खुश होने का एक मौका है। अब से ठीक दो घण्टे बाद बगल वाले कमरे में एक शादी है जिसमें आप सादर आमंत्रित हैं। हेमंत परिणय ज्योति।´´
इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, फ़राज़ ने वह काग़ज़, जिस पर वह कुछ देर से पता नहीं क्या लिख रहा था, चीकू को थमा दिया। हेमंत अभी चीकू को पकड़ने दौड़ता तब तक चीकू यह जा वह जा।
हेमंत थोड़े बनावटी गुस्से के साथ फ़राज़ की ओर मुड़ा तभी ज्योति ने उसकी कलाई पकड़ ली और उसकी हथेलियों को अपनी आंखों से लगा लिया। हेमंत ने उसे बाहों में भर लिया।
कुछ मिठाइयों और मालाओं के साथ गंधर्व विवाह की औपचारिकता निभाई गयी और दो आत्माएं सदा के लिए एक हो गयीं। हेमंत प्रपत्र तैयार करने में उनके साथ बैठना चाहता था पर उसे ज्योति के साथ कमरे में धकेल कर कमरा बाहर से बंद कर दिया गया।
कमरा रजत ने बंद किया और एक शेर के साथ शादी की बधाई दी।
´´ ज़रा तो कम हुई तनहाइयां परिंदे की
अब एक खौफ़ भी इस आशियां में रहता है।´´´´ वाह-वाह तो कहो प्यारे। ज़िंदगी भर के ग़ुलाम हो गए हो...............।´´
´´ निहायत ही बेमौका शेर है यह बेवकूफ़।´´ और हेमंत ने दरवाज़ा बंद कर लिया।
उसकी नींद सुबह सलमा की खटखटाहट से खुली।
´´अरे दूल्हे मियां................. आज बाहर नहीं आएंगे क्या ?´´
वह हड़बड़ा कर उठा । कपड़े पहने और ज्योति को भी जगा दिया।
क्रांति का प्रसार और एक नया रिश्ता
प्रपत्र तैयार हो चुके थे। सभी कॉलेजों में इन्हें इस तरह बांटना था कि पुलिस को इसकी हल्की सी भी भनक न पड़े। पुलिस ऐसे विद्यार्थियों को कुत्ते की तरह सूंघती फिर रही थी। वे लोग क्रांति की एक मशाल से दूसरी मशाल जलाते रहे और सक्रिया कार्यकर्ताओं की एक फ़ौज खड़ी होती गयी।
जब सभी एक रात तहखाने में इकठ्ठा हुए तो पता चला कि पुलिस ने हेमंत का पीछा किया है और वह बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ा पाया है।
वे अभी थोड़ी देर बैठे थे कि चीकू आ गया। वह बहुत गुमसुम और उदास था। बहुत कुरेदने पर उसने पूरी बात बताई और रोने लगा। हेमंत की तलाश में उसके घर पहुंचे पुलिस वालों ने उसके पिता डॉ. देवेंद्र कुमार से ज़बरदस्ती मारपीट की और उनको बेइज्ज़त किया। वह कहते रहे कि उन्हें हेमंत के बारे में नहीं मालूम और पुलिस वाले उन्हें उठा कर पास वाले शिविर में ले गए। जब पुलिस वाले उनसे कुछ नहीं पता कर पाए तो बड़ी नृशंसता से उनकी नसबंदी कर दी गयी और शिविर के बाहर फेंक दिया गया। कुछ पड़ोसी उन्हें उठा कर घर ले गए हैं। उन्हें बराबर रक्तस्राव हो रहा है और वह हेमंत का नाम पुकार रहे हैं।
हेमंत ने तुरंत ज्योति को साथ लिया और फ़राज़ की मोटरसाइकिल से घर की ओर चल पड़ा। ख़तरा भांपते हुए भी यह समय उन्हें रोकने का नहीं था। रास्ते भर हेमंत इस कुशासन को ध्वस्त करने की तरकीबें सोचता रहा और उसके जबड़े भिंचते रहे।
डॉक्टर साहब का रक्तस्राव पड़ोस के डॉक्टर ने रोक दिया था। वह खतरे के बाहर थे। घर से कुछ दूरी पर मोटरसाइकिल रोक कर जब वह चुपके से घर पहुंचा तो आस-पास मंडरा रहे एकाध पड़ोसियों ने उसे तुरंत अंदर ले लिया।
डॉ. साहब उसे सही सलामत देखकर संतोष से भर उठे। ज्योति को बहू के रूप में देखकर उसे आशीर्वाद दिया और अचानक हुए विवाह के विषय में पूछा। हेमंत भोर होने तक वहीं रुका रहा और मुंहअंधेरे ज्योति को पिताजी की देखभाल के लिए छोड़ तहखाने की ओर चल पड़ा।
चले गए किस मोड़, हमें तुम तन्हा छोड़
लेकिन, यह तो सिर्फ़ शुरूआत थी। तहखाने से कुछ पहले रास्ते पर चीकू उसका इंतज़ार कर रहा था। उसने जो बताया उसे सुनकर वह सिर से पांव तक कांप उठा। सुबह होने में कुछ समय बाकी था। वह सन्न सा कुछ समय के लिए वहीं खड़ा रहा। अब वह बिल्कुल अकेला था।
उसके तहखाने से जाते ही पुलिस ने वहां रेड मारी थी। रजत, सलमा और फ़राज़ को ढेर सारे काग़ज़ों के साथ पकड़ लिया गया। उन्हें बंदूकों की बेंट से पीटा गया। तीनों को पकड़ कर उत्तम नगर थाने ले जाया गया है। हेमंत सीधा अपने उस दोस्त की तरफ़ भागा जो भूमिगत अखबार निकाल रहा था।
सलमा की तलाशी के लिए कोई महिला पुलिस नहीं थी। थाने में ले जाकर सलमा को अलग और रजत व फ़राज़ को एक सेल में बंद कर दिया गया।
थानाध्यक्ष के आते ही सभी सिपाही व हवलदार खड़े हो गए।
´´थानाध्यक्ष साहब खुद चेकिंग करेंगे तुम सबकी।´´ एक हवलदार ने दोनों सेलों की तरफ मुंह उठा कर कहा।
मोटी तोंद वाला थानाध्यक्ष उनकी तरफ बढ़ा। उनकी तरफ देख कर मुस्कराया और सलमा के सेले की तरफ़ देखता हुआ बोला, ´´ खोलो ताला, पहले इसकी तलाशी लेंगे।´´
रजत व फ़राज़ अंदर तक कांप गए। उनकी रूह फ़ना हो गयी जब थानाध्यक्ष ने वहीं वर्दी उतारनी शुरू कर दी। रजत सलाखें पकड़ कर चिल्ला चिल्ला कर थानाध्यक्ष को ईश्वर का वास्ता दे रहा था। फ़राज़ सलाखों से इस तरह भिड़ा हुआ था मानो तोड़ देगा। थानाध्यक्ष ने आराम से वर्दी उतार कर मेज़ पर रखी और जांघिए बनियान में सलमा के सेल की तरफ बढ़ा।
अब रजत थानाध्यक्ष को गालियां देने लगा था। कभी गंदी गंदी गालियां देता तो कभी अचानक विनती करने लगता। कभी सलाखों पर सिर पटकने लगता तो कभी सिपाहियों से सेल खोलने को कहता। फ़राज़ पूरी ताक़त से सलाखों से जूझ रहा था।
´´ इससे निपट लूं फिर इन सूअरों को देखता हूं।´´ कह कर वह मुस्कराता हुआ सलमा के सेल में घुस गया। रजत सिर पटकता चिल्लाता रहा और बगल वाली सेल से सलमा के चीखने की आवाज़ आती रही। सलमा की चीखों के साथ रजत का चिल्लाना, गालियां देना और सलाखों से सिर टकराना बढ़ता रहा।
एक समय सलमा की चीख एकदम बंद हो गयी। रजत की चीखों से पूरा इलाक़ा थर्रा उठा। अचानक फ़राज़ गरजता हुआ बाहर निकल आया। उसने दो सलाखों को अविश्वसनीय रूप से टेढ़ा कर उनके बीच में जगह बना दी थी। एक हवलदार की बंदूक उसने झपट कर छीन ली और अंधाधुंध चलाने लगा। ´´ रजत, जल्दी बाहर निकल। बंदूक उठा।´´
पर रजत पर जैसे भूत सवार हो गया था। वह फ़र्श पर सिर पटकता सर्फ़ चिल्ला रहा था और गालियां दे रहा था। थानाध्यक्ष के साथ-साथ वह भगवान को भी गालियां दे रहा था। फ़राज़ ने दो सिपाहियों को गोली तो मार दी थी पर अब पकड़ा जा चुका था। थानाध्यक्ष उसे बंदूक के कुंदे से पीट रहा था और हर वार पर चिल्ला रहा था, ´´ बोल साले, हेमंत कहां है ?´´
फ़राज़ हर वार पर गरज रहा था, ´´ जय हिंद।´´
थानाध्यक्ष का मिजाज बिगड़ गया। उसने संगीन फ़राज़ के पेट में घुसेड़ दिया, ´´ साले, हरामखोर, आज़ादी की लड़ाई चल रही है यहां...........?´´
रजत को बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया गया। अंदर ही बर्फ़ की सिल्ली मंगा ली गयी थी और उसके कपड़े उतार कर उसे उस पर लिटा दिया गया। संगीनों से काट कर नमक भरने जैसी कई प्रक्रियाएं सुबह तक चलती रही थीं पर रजत ने न हेमंत का पता बताया न किसी भूमिगत अखबार का, अलबत्ता वह गालियां खूब देता रहा था।
शाम को दिल्ली से छपने वाले एक अखबार ने, जिसने अपनी ज़बान सियासत के क़दमों में गिरवी रख दी थी, एक खबर छापी जिसमें दो डाकुओं के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर थी। एक डाकू मज़बूत शरीर वाला था जिसके बांहों की हडि्डयां टूट गयी थीं और दूसरे के माथे में गोली मारी गयी थी। शहर के अराजक माहौल का फ़ायदा उठाने आए इन डाकुओं से मुठभेड़ में दो सिपाही भी घायल हुए थे जिन्हें कुछ मुआवजे की भी घोषणा थी।
कई दफ्न सच्ची कहानियां
यह खबर उससे पहले ही हेमंत तक पहुंच चुकी थी। उसने सारा विवरण लिखकर अपने एक मित्र के भूमिगत प्रेस में पहुंचवाया। अपनी आंखों से बहते खून को उसने स्याही बना लिया था। वह स्वयं को अकेला अनुभव तो कर रहा था पर अंदर की आग में कोई कमी न आने देता। कई दिनों तक वह घने जंगलों में छिपा रहा। रात में आबादी की तरफ आता, कभी थोड़ा वक्त घर मं बिताता और फिर कई जगहों पर युवाओं के साथ भूमिगत मंत्रणा करता। उन्हें लोकनायक के विचारों से अवगत कराता। उनमें जोश भरता जा रहा था। वे अन्याय को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अपने आप को तैयार कर रहे थे। क्रांति की ज्योति मशालों सें आंखों में जलने लगी थी।
हेमंत ने आने वाली एक तारीख को एक विशाल सभा का आयोजन पास के जंगल में किया था जिसमें क़रीब सौ-सवा सौ कार्यकर्ताओं के जुटने की उम्मीद थी। यहां सरकार की नींद हराम करने के लिए किसी बड़े कदम पर चर्चा होनी थी।
मगर उससे पहले ही पह हादसा हो गया।
हेमंत रात के साढ़े बारह बजे अपने घर की खिड़की से बिना ज़रा भी आवाज़ किए कूदा और धीरे-धीरे मुख्य सड़क की ओर आ गया। वहां से थोड़ी दूर सड़क-सड़क जाकर फिर उसे कच्चे रास्ते की ओर मुड़ जाना था जो जंगल की ओर जाता था। जंगल में चार साथी उसका इंतज़ार कर रहे थे। उसने कच्ची सड़क पर एक इंसानी साया देखा। उसे खुद को छिपा कर चलना था पर साए में उसे पता नहीं क्या अपनापन दिखा कि वह उसके सामने पहुच गया।
अचानक उसके हृदय के दो स्पंदनों के बीच का ठहराव थोड़ा लम्बा हो गया और सीने में शूल सा चुभा।
समने सलमा थी। फटे कपडों में अर्धनग्न, अर्धविक्षिप्त और पूर्ण बरबाद। बाल बिखरे और जगह जगह नोचने खसोटने के निशान। कुछ बुदबुदाती हुई वह सड़क पर चली जा रही थी। हेमंत ने उसके कंधे पर हाथ रखा। हाथ का स्पर्श होते ही वह बिजली की फुर्ती से ज़मीन पर बैठ गयी। उसने आंखें बंद कर ली थीं और टांगें सिकोड़ कर दोनों हाथ चेहरे के आगे बचाव की मुद्रा में कर लिए थे। वह कातर स्वर में चिल्ला रही थी, ´´ मत मारो............... मत मारो।´´ उसके बड़े-बड़े दांत चिल्लाने से पूरे आकार में दिख रहे थे और वह उन्हें छिपाने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी। हेमंत को लाग काश, वह अपना मुंह बंद कर लेती। उसे देखना बहुत कठिन था।
वह थोड़ा आगे बढ़ा।
´´ सलमा, मैं हूं.............।´´ उसने उसके हाथों को पकड़ने की कोशिश की। उसने आंखें खोलकर उसे एक नज़र देखा और डर कर पीछे सरक गयी। हेमंत को आगे बढ़ता देख वह मुठ्ठी बांध कर पूरी ताक़त से चिल्लाने लगी, ´´मत मारो.............. मत मारो.................... इंदिरा गांधी की जय.......... संजय गांधी की जय........... इंदिरा गांधी की जय..................... संजय गांधी की जय.................।´´ हेमंत के होंठ कंपकंपाने लगे और आंखें से आंसू लिकलने लगे।
गश्ती पुलिस की गाड़ी को देखकर हेमंत जब तक भागना शुरू करता, गाड़ी काफी पास आ चुकी थी। कच्चे रास्ते पर भागते ही उसे दोस्तों की सुरक्षा का खयाल आया और वह वापस शहर की ओर भागने लगा। एक और पुलिस की गाड़ी दूसरी सड़क से पीछे लग गयी। गाड़ी और उसके बीच की दूरी धीरे-धीरे कम होती गयी।
जब होश आया तो वह किसी थाने में था।
´´कहिए क्रांति के मसीहा, कैसे मिजाज हैं ?´´ सामने बैठा दारोगा शक्ल से ही दरिंदा नज़र आ रहा था।
उसने उठने की कोशिश की तो उसकी टांगों पर लाठी का भरपूर प्रहार हुआ और वह धड़ाम से गिर पड़ा। लाठी संभाल कर हवलदार यथास्थान यूं खड़ा हो गया जैसे चाबी भरा हुआ खिलौना हो।
´´ बताओ, ये अखबार कहां से निकाले जा रहे हैं ?´´
सामने उसके मित्रों द्वारा निकाले जा रहे कुछ अखबार पड़े थे जिनमें सिर्फ़ वही छपा था जो वाकई हो रहा था।
´´मुझे नहीं मालूम..................।´´ उसने नज़रें घुमाते हुए कहा।
´´ अभी मालूम पड़ जाएगा।´´ दारोगा ने कुछ सिपाहियों को इशारा किया। उसके दोनों हाथों को एक में और दोनों पैरों को एक में बांध कर लाठी में बांध दिया गया जैसे मुर्गे को भूनने के लिए बांधा जाता है। लाठी को दो कुर्सियों की पीठ पर टिका दिया गया। दो कुर्सियों के बीच वह मुर्गे की तरह झूल रहा था।
´´ बताओ........................।´´ पीठ पर नीचे से लाठियां मारी जा रही थीं।
´´मुझे नहीं पता..................।´´ वह चीखा।
´´ बहुत अच्छे, लाठी घुमाओ.................. नीचे आग जलाओ।´´
आनन-फानन में नीचे लोबान में आग जला दी गयी। उसमें मिर्चें झोंके जाने लगे। वह चीत्कार करने लगा। उसकी आंखें जलने लगीं और उनसे पानी बहने लगा। पूरा शरीर लाठियों की मार से टूट रहा था। कुछ न बुलवा पाने की स्थिति में उसे नीचे उतारा गया।
´´ साहब, इसके पिताजी इससे मिलने आए हैं।´´ एक सिपाही ने आकर सूचना दी।
´´भगा दो साले को...............।´´
´´साहब वो कह रहे हैं कि इससे मिलना उनका कानूनी अधिकार है।´´
´´ अच्छा................ क़ानूनी अधिकार ?´´ दारोगा हंसा। ´´ उसको जाकर बता दो कि हैबियस कॉरपस स्थगित.......। भगा दो और न भागे तो टांगे तोड़ दो मार कर।´´
यंत्रणा फिर शुरू हुई। हेमंत आधी बेहोशी में था। उसकी दोनो टांगें फैला कर उस पर लाठी रख दी गयी।
´´ बताओ...................।´´ वही पुराना ज़िद भरा सवाल।
´´मुझे नहीं मालूम..............................।´´ वही पुराना जीवट भरा जवाब।
उसके मुंह से दिशाओं को कंपा देने वाली चीख निकली। लाठी पर दो तरफ से दो सिपाही चढ़ गए थे और उसके पैरों की हडि्डयां कड़ा∙∙∙क की आवाज़ के साथ टूट गई थीं। वह फिर भी कुछ नहीं बोला।
दारोगा ने एक नाई को बुलवा रखा था। वह उसके हाथों की उंगलियों के नाखून एक-एक करक उखाड़ता जा रहा था और दारोगा अपना सवाल दोहरा रहा था।
हेमंत ने होश खोने से पहले कराहते हुए कहा, ´´ तुम जानते हो न ये स्थिति हमेशा रहेगी, न ये सरकार। समय को क्या मुंह दिखाओगे..........? अगर मैं बच गया..................।´´
´´उसका सवाल ही पैदा नहीं होता बच्चे........................... आलाकमान का हुक्म है कि विरोधियों को जड़ से मिटा दिया जाए।´´ दारोगा वीभत्स हंसी हंसा था।
जब डॉ. देवेंद्र कुमार को हेमंत की लाश सौंपी गयी तो इसे उन्होंने अपनी खुशकिस्मती माना। कितनी ही लाशें रोज़ ग़ायब कर दी जा रही थीं। उन्होंने अपने बेटे को शहीद माना और एक आंसू नहीं रोए न ही ज्योति को रोने दिया। ज्योति गर्भवती थी। डॉ साहब के ऊपर बहुत सी ज़िम्मेदारियां थीं जिन्हें उन्हें पूरा करना था।
उन्होंने हेमंत की चिता सजाते समय एक बार भी उसके उखड़े नाखूनों और जले शरीर पर नहीं सोचा। वह चिता को आग देते समय ये सोच रहे थे कि अपने बेटे की तस्वीर पर कभी हार नहीं चढ़ाएंगे। चिता की आग से निकले धुंए ने वहां खड़े हर इंसान को पूरी तरह ढक लिया था। डॉ. साहब उस धुंए मे सबसे देर तक खड़े रहे थे।
धुंए के इस पार का नर्क
जब धुंआ छंटा तो कमरे की दीवारों का रंग बदल चुका था। वह सोफे पर निराश, थके और टूटे बैठे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी। उनके कंधे भीग चुके थे। वह शून्य में देख रहे थे। जब गुड़िया का ध्यान आया तो उन्होंने उसका सिर सहलाया। वह उनके गले लग गयी। उसकी रुलाई रोकने के लिए उन्होंने बात बदलने की कोशिश की।
´´चलो, कहीं बाहर से घूम आएं।´´
´´ ? ´´
´´ कहीं से भी, तुम जहां कहो। अच्छा ये पेपर्स दिखाना। पूरा लिख लिया क्या ? ´´
उसने काग़ज़ उन्हें थमा दिए। उन्होंने अंतिम पृष्ठ पर वही शेर दोहरा दिया।
´´ ज़रा तो कम हुई तनहाइयां परिंदे की
अब इक खौफ़ भी इस आशियां में रहता है।´´ जब वह गाड़ी निकाल कर ड्राइविंग सीट पर बैठे तब तक गुड़िया खुद को संभाल चुकी थी। स्टार्ट करने से पहले अचानक वह उनसे लिपट गयी और भरे गले से बोली, ´´ दादू, आई लव यू वेरी मच।´´
´´ आई लव यू टू बेटा। मेरा तेरे और तेरी मम्मी के सिवा है ही कौन दुनिया में ? अच्छा बोल, कहां चलेगी ड्राइव पे ? ´´
´´ कहीं भी, किसी शान्त जगह..................।´´
उन्होंने गाड़ी हाइवे की तरफ मोड़ दी। रात के दस बज रहे थे। गुड़िया उनके कंधे पर सिर रखे थी।
´´ कितना भयानक समय था न दादू ?´´
´´ हां, हम अपने ही देश में बेगाने हो गए थे।´´
´´ मुझे सोच कर अब भी डर लग रहा है ?´´
उन्होंने उसे अपनी बांहों में भींच लिया जिसका अर्थ था अब डरने की क्या ज़रूरत ? वह हाइवे पर काफी दूर तक निकल आए थे। सामने तीन आकृतियां सड़क पर दिखीं। उन्हें गाड़ी रोक देनी पड़ी।
´´गाड़ी कनारे ले ले पाई।´´ एक आकृति ने कहा। उन्होंने रोशनी में देखा, तीनों पुलिस वाले थे। वे पीये हुए थे और किसी की वर्दी पर नेमप्लेट नहीं थी।
´´क्या बात है...........?´´ उन्होंने बाकी दोनों के अफ़सर लगते तीसरे से पूछा।
´´बात यो सै कि हम ढूंढ तो रये हैं एक बदमास नूं पर मिल गए आप..।´´
´´क्या मतलब........?´´
´´ इब मतबल बी में समजाऊं के ? चल गाडी से बाहर आ, यो छोरी नू ले के निकड़। हमने सबकी तलास्सी लेणी सै।´´
वह बाहर आए। गुड़िया को अंदर ही रहने दिया।
´´तलाशी तो ठीक है पर आप सबके नेम प्लेट्स कहां हैं ? और मेरी पोती की तलाशी आप कैसे ले सकते हैं बिना लेडी पुलिस के ?´´
अफ़सर लगातार सवालों का आदी नहीं था। वह अपने रौद्र रूप में आ गया।
´´ रै तू पागल हो रह्या सै के ? मैं तेरी पोती की तलास्सी उसके सारे कपड़े उतार के लूंगा। इब बोल के कर लेग्गा तू...........?´´
वह सहम गए। सड़क पर दूर तक अंधेरा था। कोई गाड़ी आती तो कुछ सेकेण्ड्स के लिए सड़क गुलज़ार हो जाती और फिर सारी रोशनी अचानक सूं∙∙∙∙ करके गायब हो जाती।
´´ अच्छा, आप मेरी तलाशी ले लीजिए और अपनी पोती की तलाशी मैं ले लूंगा।´´
´´ इब तो तलास्सी मैं ही लूंगा। तू मने कानून सिखा रया है ? और वेसे बी ये छोरी मनै तेरी पोती ना लाग रयी। तू जरूर कोई कराये की लौंडिया लेके ऐस करण वास्ते जा रया सै।´´
डनकी कनपटियां जलने लगीं।
´´ देखिए सर..............।´´ वह अपने बेटे की उम्र के अफ़सर के सामने गिड़गिड़ाए।
´´क्यूं पाई संतराम ? आजकल बुढ्ढों नूं जादा ज्वानी छिटक रयी सै के ?´´ उसने गुड़िया को घूरते हुए अपने एक मातहत से पूछा।
´´ के करेंगे वस्ताद जी। ऐ तो बिपास्ससा का कमाल सै।´´
तीनों हंसने लगे। अफ़सर गाड़ी की तरफ बढ़ा। वह गाड़ी के दरवाज़े पर खड़े हो गए, ´´ देखिए सर, मेरी बात सुनिए, समझने की कोशिश कीजीए............. मैं..........।´´
´´ रै ताऊ, जब मैंने तेरी बात समझनी ही ना तो सुणने का के फाइदा ?´´ वह इतने ऊंचे सुर में बोला कि वह सहम गए।
उसने गुड़िया का हाथ पकड़ कर बाहर खींच लिया। वह बिल्ली के जाल में फंस चुके कबूतर की तरह कांप रही थी। डॉ. साहब आगे बढ़े और गुड़िया का हाथ उससे छुड़ा लिया। वह उनके पीछे चिपक कर खड़ी हो गयी।
´´ देखिए, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का रिटायर्ड लेक्चरर हूं। मै। आपके पांव पड़ता हूं, मेरी पोती को छोड़ दीजीए........... मैं.......... आप जो कहेंगे, करने के लिए तैयार हूं।´´ वह रो पड़े थे। उनका हाथ अपनी जेब में रखे बटुए पर था।
´´ ठीक सै अंकल, इसमें रोणै वाली के बात सै। मैं तो यो चेक करणा चा रया था जे यो छोरी सचमुच तेरी पोती है या तू कोई माल लेके मजा लेणे जा रया से.....................।´´ वह अपने मातहतों की तरफ देख कर फिस्स से हंसा, ´´ पाई, ऐसा आजकल बहोत हो रया सै। बुढ्ढे साड़े सकूल की छोरियों पे लार टपका रए से।´´
वह हाथ जोड़ कर अपनी बेबसी पर रह रह कर आंखें मूंद ले रहे थे। पीछे भयभीत गुड़िया थर-थर कांप रही थी।
´´ जा ताऊ जा, घर जा। रात नूं ना निकणा कर। हां, जांण से पहले संतराम नूं कुछ मठाइ-शठाइ वास्ते दे दे।´´
उन्होंने पूरा बटुआ हवलदार को दे दिया।
´´ यो अंगूठी सोणे की लाग रयी सै.......।´´
उन्होंने झट अंगूठी उतार कर दे दी।
शरीफ़ पुलिवाले और एक मौजूं शेर
उन्होंने तुरंत गुड़िया को बिठाया और गाडी स्टार्ट कर दी। अफ़सर गाड़ी के आगे से खिड़की के पास आया और बोला, ´´ देखा ताऊ, यो जणता हमारे बारे में गल्त सल्त बातें फैलावे सै। हम पुलिस वाले कितणे सरीफ हैं , यो बात तो तू आज दिल से मान रया होगा।´´
बदले में उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिए। अफ़सर गुड़िया को लालची नज़रों से घूर रहा था। उन्होंने गाड़ी घर की तरफ़ मोड़ दी।
घर पहुंच कर वह निढाल से सोफ़े पर गिर पड़े। वह गुड़िया से नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। गुड़िया सिर झुकाए दूसरे कमरे में चली गयी। जब कुछ खटपट की आवाज़ सुनकर बाहर आयी तो देखा कि दादू उसके कपड़े जल्दी-जल्दी उसके बैग में भर रहे हैं। उसने बिना कुछ बोले उनके हाथ से बैग ले लिया और अपने कपड़े समेटने लगी।
सामने मेज़ पर वह परियोजना रखी थी जिसे मेज़ पर सबसे ऊपर रखना था।
डॉ. साहब सोफ़े पर छितराए बैठे थे।
उनकी नज़र परियोजना के अंत में लिखे उस शेर पर थी जो पूरा अर्थ न दे पाने के बावजूद अब भी मौजूं था।