Wednesday, September 26, 2007

ज़िन्दा हो गया है...




काँव-काँव-काँव, कौवा झोपडी के छप्पर पर चीख सा रहा था। अब जोखन की खोली में तो कोई मुण्डेर ही नहीं थी जो मेहमान के आने का खतरा हो, और भीतर चूल्हें की राख को बुझे चार दिन से उपर हो गया था। उंह!, जोखन ने करकशता से तंग आकर करवट बदली। काँव-काँव-काँव, कान में पिघला शीशा गर्म का गर्म समा गया। हत!! जोखन ने कौवे को हकालते हुए झल्लाहट मे चीखना चाहा। आवाज़ उसके ही कानो तक शायद पहुची हो। अकड़ता सा वह उठ बैठा। खाट में चरमराहट हुई, जोखन कुछ और संभल कर बैठा।...।फिर सारे बदन को हल्का छोड, घुटनों को दोनों हाथों से दबा, लडखडाता खडा हुआ। बदन सुन्न सा लग रहा था। कौआ उड चुका था। गाँव मुर्दाघर प्रतीत होता था। घुप सन्नाटा। बेचैन हो उठा जोखन.....खोली के बाहर कडी धूप थी। बेहद उजाड सा दीखता उसका गांव और वीराना। उसे सन्नाटे से घुटन होने लगी। दीवारों के पास कान होते है जुबान तो नहीं कि.... चलो कान तो होते है। अपना दर्द उन दीवारों को सुना हल्का हो लेना चाहता है जोखन, पर उसकी ज़ुबान....पानी...पानी....। जोखन के सूखे होठों में बुदबुदाहट उठी और एक पल में उसकी निगाह सारे कमरे में घूम गई। आल्युमीनियम की एक काला सा पतीला ढ़का हुआ....जोखन ये जानता है कि एक बून्द पानी नहीं, फिर भी घूंट भर या बस जीभ भर.....नहीं, बूंद भी नहीं। काले चहरे पर जाने कौन से भाव उभरे, उसने पतीला हाथों में उठाया और खोली के बाहर आ गया।

“भूख” सिर्फ मार्क्स का चिंतन ही तो नहीं। रोटी जोखन खुद उगाता है फिर भी भूखा क्यों है? क्या हुआ उसकी फसल का, उसके रोज के पसीने की कीमत अठठाईस रुपये पैतीस पैसे तो आकी गई थी फिर? आज उसके पेट की हजारों अंतडिया आपस में गत्थम-गुत्था क्यों हों रही है? जोखन सोचना नहीं जानता। सचमुच वह सोचना नहीं जानता। जिंदगी के प्रति उसका नजरिया कुछ भी तो नहीं? हाल ही में घरवाली की पेचिस से मौत हुई थी। छोटा, दो माह हुए, चल बसा। दिन भर तो अच्छा भला खेलता रहा था। दोपहर को जानें क्या खा लिया उसने, कै...दस्त। शाम तक शरीर में पानी न बचा था। जोखन डाक्टर को ढूढ़ता घूमता रहा। डाक्टर साहब सुबह के सोये थे और जब जब जोखन गया, सोते मिले। छोटा शाम को एक ही शब्द बुदबुदा सका – पानी!!!, जोखन सिरहने ही उनींदा पड़ा था, दौडा हैंड़पम्प की ओर। हाँफते हाँफते उसने हैंड पंप की हैंडिल थामी और पतीली नीचे रख पूरी ताकत से हैंडिल ओंठनें लगा, एक दो.. तीन..दस..पंद्रह.. हफ.. हफ..पानी नहीं था। पानी तो कहीं नहीं था गांव में। ताल सूखे, कूप सूखे गंदा पानी भी...अठठारह..उन्नीस..हफ हफ..महीने भर सें हैंडपम्प सूखा था लेकिन उम्मीद कैसे सूख जाती?....थक कर चूर हो गया वह और अब उम्मीद भी थकने लगी थी। छोटा उसका बहुत लाडला था। बदहवास, भागता हुआ घर पहुँचा। छोटा एक बार फिर बुदबुदाया..पानी!! और चुप हो गया बिलकुल चुप..।

जोखन घरवाली को तो अब याद नहीं करता। कभी कभी जब छोटे की याद करता भी है तो उसकी चंद नादानियों को याद कर मुस्करा भर लेता है। फिर उदास हो जाता है, कुछ पल बाद फिर पूर्ववत। हाँ!! बडे की उसे बेहद चिंता है। वह चाहता तो है कि उसे पढाये, लिखायें। उसने सुन रखा है कि पढ लिख कर साहब बनते हैं, पर कैसे पढाये? गांव में कोई स्कूल नहीं है, हाँ एक मास्टर जी है, पर वो पढाते वढाते तो नहीं। लाखी बता रही थी कि ठेकेदार के बेटे को शाम को पढाने जाते हैं। वहाँ साहब लोगों के लड़के भी आते है। जोखन का लड़का उनके साथ कैसे पढ सकता है? आखिर वो नीच बिरादरी का ठहरा। जोखन, ऊँच और नीच का अंतर जानता है, लेकिन उसे यह नहीं पता कि वो ऊचे लोग जिन्हे उसकी छुवन से भी घिन है उसी का उगाया अन्न कैसे खाते हैं? बहुत नादान है जोखन।

जोखन आहिस्ता आहिस्ता सरपंच के घर की तरफ बढने लगा। सामने ही मैदान में सरकारी दलिया बंट रहा था। जोखन नें बडे को ढूंढने की जहमत नहीं उठाई। वह जानता था कि बडा यहीं होगा। लम्बी कतार थी भूखों की, नंगो की। जोखन भी कतार में घुस पडा। ऊँट के मुंह में जीरा, कहावत तो है किंतु ऊंट अगर भूखा हो, और मुंह में जीरा भी पडे तो कहावत निरर्थक हो जायेगी। चार दिन ,पांच दिन, सात सात दिन के भूखे प्यासे, मरियल औरतें, बूढे, बच्चे और जवान भी। दलिया क्या था, यदा कदा पीला सा कुछ दिख पडता था, पर जब सरकार कह रही कि सूखा राहत में वह दलिया बाँट रही है। जब प्रेस लिख रहा है कि दलिया बाँटा गया तो हमें मान लेनें में क्या है। दलिया नहीं भी है तो पानी तो है और लोग भूखे ही नहीं प्यासे भी है...।

ले तू भी ले सामल के बर्तन पर कलछुल से दलिया टपकाते हुए बाँट रहे आदमी ने कहा, और आगे बढ़ने को हुआ। "थोडा सा और साब गिडगिडाने लगा सामल, पर कर्मचारी के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया न थी।

“साब् मेरी माँ मर जायेगी। बीमार घर में पडी है साब्, रुआँसा सा सामल घिघिया उठा”।

“तू भी मर” सरकारी कार्यवाही का निरीक्षण करते हुए सरपंच नें चुप कराने के लिये झिड़क दिया।

“साब, थोडा...” अपने स्वाभिमान को ताक में रख सामल ने एक बार कातर हो कर सरपंच को देखा, फिर चुप हो गया।

दलिया जोखन के पात्र में भी आया, उसने गट गट, एसे निगल लिया जैसें वह...जैसे नहीं सचमुच ही वह चार दिनों का भूखा था। अचानक एक जीप वहां आकर रुकी धडधडाते हुए चार पांच आदमी वहां उतरे । कैमरे लटकाये और डायरियां पकडे ये आदमी पेड की छाँह मे जा खडे हो गये और डायरी मे कुछ लिखने लगे। जोखन दलिया खा चुका था, उसकी जान में अब कुछ जान थी। सरपंच ने शरबत उन तक भिजवाई...वे प्रेस वाले थे। जोखन ने एक बार कस कर प्यास फिर अनुभव की। कुछ फोटोग्राफ लिये गये, कुछ डायरियों मे लिखा, सरपंच से कुछ बातचीत की, फिर सब चले गये ।


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सामल नहीं रोया। उसकी मां निश्चेष्ट पड़ी थी, गहरी नींद में। सामल नें एक बार मां की लाश की ओर देखा, चेहरे पर कोई भाव नही थे। आँखो में पीडा भी नहीं, पर कुछ डर सा....आज ही गांव में एक मौत और हुई थी। क्लिक, कैमरे का फ्लेश चमका और ये तस्वीर कैमरे मे कैद हो गई। अखबार के तीसरे पृष्ठ पर छ्पी और बहुत ही साधारण तरीके से छ्पी इस तस्वीर पर अचानक गौर किया मिस्टर शर्मा नें। जबसे अपोजिशन में आये हैं, आज कल, इन्ही सब खबरों पर ज्यादा गौर करते हैं। देखते ही देखते ये खबर अखबर के पहले पृष्ठ पर आ गई। विधानसभा में प्रश्नकाल के दौरान मुख्यमंत्री को आया पसीना देख कर उनके चमचो को घबराहट हुई और रातों रात गांव की और कई जीप रवाना हुईं। शर्मां जी ने कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। आखिर सरकार की छवि पर कालिख पोतने का ये मौका हाथों से क्यों जाय? उनके चेहरे पर मगरमच्छ के आँसू कहीं से अचानक आ गये जिन्हें सहेजे सहेजे उन्होंने सारे जिले का दौरा किया। एक एक को बुलाकर आपने आसूँ दिखाये। अपने चुनाव क्षेत्र में तो वे फूट फूट कर रो पडे। अकाल पीडितों के लिये अपनी व्यक्तिगत संवेदना, पत्रकारों को प्रदर्शित करते हुए उन्होनें कहा कि वे भूखी आत्माओं की शांति के लिये दो दिन उपवास रहेंगे। शर्मा जी तो छुपे रुस्तम निकले, पर मुख्यमंत्री जी की कुर्सी पर अचानक काटें उग आये। मुख्यमंत्री जी को काटों से बेहद कष्ट का अनुभव हुआ तो उन्होने राम नाम लेकर शुभ मुहूर्त में अपनें ज्योतिषी को बुलवाया। ज्योतिषी परम ज्ञानी, महाविद्वान था। उसनें सलाह दी कि “मंत्रीवर, एक ही मार्ग शेष है। अखबार में छपवा दीजिए भूख से कोई मरा ही नही। हमारे राज्य में लोग महीनों राम के नाम पर उपवास रह लेते हैं, जब भूख लगती है तो तुलसीदास रचित रामचरितमानस का पाठ करते हैं। एक पंथ दो काज। जनता की नजरों से शर्मा जी के सितारे ओझल और...”।...।“श!!श्!!’’ मुख्यमंत्री नें ज्योतिषी के मुख पर हड़बडा कर हाथ रखा और मेज के नीचे से दक्षिणा खिसका दी।

ट्रिंग..ट्रिंग, कलेक्टर साहब के शयन कक्ष में रात के बारह बजे फोन की घंटी बजी। फिर क्या था, कलेक्टर साहब की नींद हराम। दूसरे दिन सुबह हुई। शर्मा जी नें अखबार उठाया तो दंग रह गये। पासा इस तरह पलट जायेगा उम्मीद न थी। आठ दस फोन तो नाश्ता करते करते निपटाये और भोजन के तुरंत बाद विपक्षी दलों का एक शिष्ट-मंड़ल गांव की हालत कें निरीक्षण के लिए पहुंचा। एक एक हैंडपंप शर्मा जी नें देख डाले। पानी पीने को तो क्या नहाने तक को पर्याप्त था। शर्मा जी दंग। अचानक वाटर लेवल इतना उठ गया कि....शर्मा जी के सिर मे दर्द होने लगा। तुरंत उनके डाक्टर, जो साथ ही आये थे ने गोली दी। अब हैंड़पंप का पानी जाने कैसा हो। कार से वाटर-बोटल लिये तुरंत एक चमचा दौडा आया। शर्म जी निराश लौटे, रास्ते भर कुछ सोचते रहे। अचानक उनकी आँखें चमक उठीं। भूख से मौत हुई तो है। फ्लां फ्लां अखबार में तो मृतक की तस्वीर भी है।...और एक बार फिर शर्मा जी के इस अचूक अस्त्र ने विधान सभा मे भूकंप ला दिया। जैसे छ्त की दीवारें टूट टूट कर मुख्यमंत्री के सिर पर गिरने लगीं। कलेक्टर साहब भी चुप कहाँ बैठे थे। अकाल की गहन समस्या पर अपनी पत्नी से उन्होंने विस्तार से चर्चा की। माननीया कलेक्टरानी साहिबा ने जिग्यासावश पूछा कि “जब खानें का अनाज नहीं मिलता तो लोग डवल रोटी क्यों नही खाते?”। डायलाग घिसा पिटा था, पर जब इंग्लैण्ड की महारानी ये कह सकती थीं तो आखिर माननीया भी हिन्दुस्तान के एक जिले के कलेक्टर की पत्नी थी। पानी की समस्या पर वे अत्यंत गंभीर होकर बोलीं कि इस विषय में प्रशासन को कठोर कदम उठाने चाहिये। आज घर में भी एक घंटा पानी कम आया। बाथिंगटब पूरा भरा भी नहीं।

कलेक्टर साहब शनिवार की हिन्दी टेलीफिल्म देखने के मूड में थे पर कम्बख्त दौरा निकल आया, वो भी अकाल पीडित क्षेत्र का। बाढ पीडित इलाका होता तो एक बार दौरे का मजा भी आता। हेलीकाप्टर में कभी कभी तो विजिट मिलती है। कलेक्टर साहब दौरे पर बस निकल ही रहे थे कि मुख्यमंत्री का फिर फोन आ गया। मुख्यमंत्री जी की सख्त हिदायत थी कि गाँव में कोई मरा नहीं होना चाहिये। अगर मर गया हो तो भी नहीं, ये सरकारी आदेश है।



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“हो! व्हाट आर दे डूईंग?’’ कलेक्टर साहब ने अपनी वातानुकूलित कार से अचानक बाहर का दृश्य देख कर, चौक कर कहा। किसी पेड पर बहुत से नंगे-अधनंगे बच्चे चढ़े कुछ तोड़ तोड़ कर खा रहे थे। खाने के लिये तो है फिर भी भूख-भूख का हल्ला मचाते है। फूल्स, जंगली!!। हमारी गवर्नमेंट इनके लिये क्या नही करती, एण्ड सी दीज़ पीपुल। दे डोण्ट वांट टू डू वर्क। सेक्रेटरी को आधी हिन्दी समझ में नही आई, फिर भी बेवकूफ कैसे बना रह सकता था। जोर से बोला- जी साहब।...। कलेक्टर साहब की गाडी रुकी। कार से उतरे तो धूप से आंखे चौंधियाने लगीं। जेब से उन्होनें काला चश्मा निकाल, आखों में लगा लिया। गाँव सरकारी दलिया खा चुका था। जिन्हें नहीं मिला वो कल का इंतजार करने में लगे थे। जिन्हें मिला, भूख उनकी मिटी तो थी नहीं फिर नींद कहा आती? लोग घरों से बाहर झाँक झाँक कर कलेक्टर साहब को देख रहे थे।

“इस गाँव में भूख से मौतें हुई हैं?” क्लेक्टर ने सरपंच से पूछा।

“नहीं सर, एक बुढिया मरी थी और एक डोकरा”

“डैम दीज प्रेस रिपोर्टर्स, सच्चाई तो कभी छपते ही नहीं। सूखे से निपटनें के लिये आखिर क्या नहीं किया गवर्नमेंट नें....पर छ्पेगे भूख से मौत”। कलेक्टर साहब ने ओठों में जाने क्या बुदबुदा कर कडुवा सा मुँह बनाया। पास ही भीड में कलेक्टर की बातें सुन रहा सामल भीतर-भीतर खौल रहा था

“मेरी मां मरी है साहब...” सामल धीरे से बोला।

“तुम्हारी मां मरी है, भूख से?....कैसे?” कलेक्टर् की भौहें ललाट पर जा चढीं।
“साब! घर में खाने को नहीं है तो मरेंगे नहीं?”

“खाना नहीं है?” कलेक्टर साहब सोच में पड गये। कलेक्टर को सोच में पडा देख कर उनके बुद्धिमान सेक्रेटरी नें कान में कुछ कहा। फिर क्या था। दो सिपाहियों, चमचों और सरपंच के साथ खुद कलेक्टर साहब एक खोली में जा घुसे। जोखन हडबडा कर उठ बैठा।
“देखो अच्छे से देखो, घर में खाने के लिये क्या क्या रखा है” कलेक्टर ने आदेश दिया। सिपाहियों नें अपनी मुस्तैदी दिखायी। एक एक बर्तन, टोकनी, हंडी यहाँ तक कि खाट के उपर नीचे भी झाँक कर देख लिया।

“कुछ नहीं है साब” एक सिपाही नें रिपोर्ट दी।

“तुम्हारे घर में कौन मरा है भूख से?” आश्चर्यचकित कलेक्टर नें बडी बडी आँखें मटकायीं।

जोखन अब तक चुप खडा था। फटी फटी आँखों से देख रहा था सब कुछ, और सोच रहा था। हाँ, जोखन सोच रहा था।

“मैं मरा हूँ कलेक्टर साहब!!” उसकी आँखों में अंगारे तैरने लगे थे। ये सारा गाँव मर गया है।.......।

...पर दूर खडा मैं देख रहा हूँ कि जोखन ज़िन्दा हो गया है। गाँव अब मुर्दा नहीं रहेगा।


*** राजीव रंजन प्रसाद

7.06.1993

Sunday, September 23, 2007

एक बारिश की शाम

सफर में कई बार बहुत ही रोचक व्यक्तित्व मिल जाते हैं ,आप न भी चाहें तो भी ध्यान बार बार उनकी तरफ़ जाता है ,ऐसे ही इस बार अहमदाबाद से दिल्ली आते हुए एक बुजुर्ग दम्पति , वो ठीक मेरे सामने की बर्थ पर थे , महिला होंगी ६० साल कि और उनके पति शायद ६५ के आस पास । इस उम्र में भी वह दोनों देखने में बहुत ही सुंदर लग रहे थे ।. दोनों सफर के शुरू से एक दूसरे को प्यार से निहारते और जाने कहाँ -कहाँ की बातें करते खूब मुस्करा रहे ,हंस रहे थे दोनों एक दूसरे का ख़ूब ध्यान रख रहे थे । देख के मुझे बहुत अच्छा लगा कि इस उम्र में भी एक ऐसी प्यार की कशिश है दोनों में .....थोड़ी देर बाद खाना खा के वह बुजुर्ग पुरूष तो सो गए पर वह सुंदर महिला अभी जाग रही थी ।..नारी सुलभ स्वभाव के कारण हम दोनों में सहज बात चीत शुरू हो गई .।... तब उन्होंने एक वाक्या सुनाया अब वह उनकी जिन्दगी का सच था या महज कहानी मैं नही जानती पर मैंने वह वाक्या अपनी कहानी में ढालने कि कोशिश की है

औरत का दिल ईश्वर ने ऐसा बनाया है कि हर वक़्त प्यार के खुमार में डूबा रहता है कुछ नया खोजता सा कुछ नया रचता सा। रजनीश ज़ी के लफ़्ज़ो में .. सारी तहज़ीब स्त्री के आधार पर बनी,घर ना होता तो, नगर ना होते ... नगर ना होते तो तहज़ीब ना बनती ...मर्द और औरत दोनो के सहज मन अलग -अलग होते हैं . .इस लिए प्रेम मर्द के लिए बंधन हो जाता है और औरत के लिए मुक्ति का मार्ग, पर वह बंधे रहना चाहती है सिर्फ़ अपने प्रियतम के प्यार से ..उसको खोने का डर उस पर हर वक़्त हावी रहता है ...। वो बहुत सुंदर नही थी और नाम था उसका मीता ....पर अपने आपको उसको सज़ा के रखना ख़ूब आता था बुद्धिमान थी ,.वक़्त के अनुसार चलना जानती थी ।.पैसा पास था खर्च करना उसका शौक था जो चीज पसंद आ जाती ले लेती बिना सोचे की यह कितने की है !घर सजाना और दूसरों का ध्यान सदा कैसे अपनी तरफ़ रखना है यह उसको अच्छी तरह से आता था ! शादी शुदा थी ..एक प्यारा सा बेटा था .... पति साहिल जो हर पल उसके चारों ओर घूमता रहता .....वह जो चीज़ चाहती ख़रीद लेती ....और साहिल हर पल उसको प्यार करके कहता ' तुम्हारी लाई हर चीज़ सुंदर .. ...तुम्हारी हर ख़ुशी मेरी ख़ुशी ."".बस वो सुन के इठला उठती अपने पर, और मुस्करा के उसकी बाहों में समा जाती !
एक दिन .शाम को मौसम बहुत सुहाना था सोचा चलो आज बाज़ार घूम के आते हैं साहिल के आने में अभी देर थी उसने
कार उठायी और बाज़ार की तरफ चल पड़ी ! यूँ ही घूमते-घूमते उसकी नज़र एक बहुत ख़ूबसूरत, कान के बूंदों पर पड़ गई ..सात रंगो से सजे वो बूंदे जैसे उस को अपनी तरफ बुला रहे थे वह दूकान के अन्दर गई और दाम पूछे पर उस वक्त जो कीमत दूकानदार ने बतायी उतने पैसे उसके पास नही थे थोड़े से पैसे दे कर उसने वह बूंदे अपने नाम करवा लिए और फ़िर आ के लेने की बात कह कर दूकान से बाहर आ गई ..
जब बाहर आई तो बारिश शुरू हो चुकी थी वह अपनी कार की तरफ़ गई तो एक मासूम सी सुंदर जवान लड़की उसके पास आ के खड़ी हो गयी ..और बोली की वह बहुत भूखी है.कुछ पैसे दे दे कि वो खाना खा सके !
मीता ने उसको सिर से पाँव तक देखा ....फटे कपड़ो में भी उसमें एक कशिश थी , पर्स खोल के पैसे देने ही लगी थी कि एक विचार उसके दिल में आया ..कि यह इस हालत में क्यों है ??यहाँ पूछा तो यह बताएगी नही क्यों न इसको अपने घर ले जाऊं इसकी कहानी भी पूछ लूंगी और खाना भी खिला दूंगी अगली किटी पार्टी में कुछ तो नया सुनाने को और अपनी अमीर सहेलियों पर कुछ तो रुआब पड़ेगा ,.यह सोच के उसके होंठो पर एक मुस्कुराहट आ गयी ...

उसने उस लड़की से कहा की मेरे साथ मेरे घर चलो ..मैं तुम्हे भर पेट खाना खिलाउँगी..
लड़की सहम गयी ... मना करने लगी ..कि कही आप मुझे किसी आश्रम में तो नही भेज देंगी ..
.'अरे नही "मीता बोली
बारिश बहुत तेज है ओर यहाँ तुम्हे अब खाने को भी क्या मिलेगा ..तुम मेरे साथ चलो यही पास ही मेरा घर है खा पी के फिर
अपनी राह चली जाना .....भूखे को अपनी बातों में फंसाना कौन सा मुश्किल काम था ...वो लड़की उसके साथ आ गयी ।

कार में उसको बिठा के मीता घर कि तरफ़ चल पड़ी लड़की डरी सहमी सी कार में बैठी थी यह देख के मीता ने उसको कहा कि घबराने कि जरुरत नही है ..मैं भी औरत हूँ तुम्हे मुझ से कोई नुकसान नहीं होगा मानव दिल कि थाह कौन नाप सका है जो वही मासूम लड़की नाप लेती ...उधर मीता कार चलाते हुए सोच रही थी यह गरीब लड़की भी जान ले कि अमीर लोगो के पास भी दिल होता है वो भी मदद करना जानते हैं ...क्या करेगी दो रोटी खायेगी अपनी कहानी सुना के चली जायेगी पर इस से जो मेरे पास कहानी बनेगी उसकी "'वाह वाही ''तो अनमोल है .....यह सोचते सोचते वह घर के पास आ गई ...कार बरामदे में खड़ी करके उसने लड़की को बहुत प्यार से अन्दर आने को बोला .. वो मासूम लड़की अन्दर आ के उसके घर की सजावट देख के और भी सहम गई .. और वो सहम के एक कोने में खड़ी हो गयी

अरे बाबा !!"'डरो मत ..आराम से रहो "" यह कह कर उसने अपनी नौकरानी को आवाज़ दी कि उस लड़की के लिए खाना ले के आए और उसके लिए चाय ले आए !
अरे !!!!""तुम्हारे तो सब कपड़े भीगें हैं ''..ठहरो जब तक खाना आता है तुम यह मेरा पुराना सलवार कमीज पहन लो ..लड़की बोली नही नही बस आप खाना दे दो मैं यूं ही ठीक हूँ ....अरे नही नही तुम्हे सर्दी हो जायेगी कह कर उसने उसको जबरदस्ती अपने पुराने कपड़े थमा दिए वह अपनी दयालुता दिखाने का कोई मौका नही छोड़ना चाहती थी और जब वह उसका पुराना सूट पहन के आई तो मीता उसको देख के हैरान हो गई उसका रूप तो और निखर आया था जरुर यह किसी भले घर की लड़की है शायद किन्ही बुरे हालातों मैं फंस के इस बेचारी की यह हालत हो गई है ...मीता के दिल में उस लड़की के बारे में जानने कि उत्सुकता बढती जा रही थी ...वह जल्द से जल्द उसके बारे में सब जान लेना चाहती थी

अभी वो उस से कुछ पूछना शुरू करती कि....साहिल ..:" हे जानेमन" कहता कमरे में आ गया .. एक अजनबी को देख कर हैरानी से वही खड़ा रह गया ...बोला यह कौन?.मीता एक दम से बोली यह मेरी मेरी जान पहचान की है .आज अचानक रास्ते में मिल गई !"".. ओह्ह....ठीक है अच्छा ज़रा तुम मेरे साथ दूसरे कमरे में आ सकोगी ..मुझे तुमसे कुछ कहना है .... साहिल ने मीता से कहा...

मीता उस लड़की से बोली तुम बैठो ..मैं आती हूँ पाँच मिनिट में ...कह कर वो साहिल के पीछे-पीछे आ गयी ..साहिल ने कहा ""अब बताओ यह कौन है ?"" मैंने तो इनको पहले कभी नही देखा .और बहुत मासूम सी लग रही है कुछ डरी सहमी सी भी है ,पूरी बात बताओ की यह कहाँ से आई हैं !!
मीता ने सब बात बताई ...साहिल ने हँस के कहा .."'वाह !!मेरी जान तुम पागल हो इतना तो मैं जानता था ..पर यह भी कर लोगी सिर्फ़ वाह-वाही के लिए .. यह नही जनता था""! .फ़िर शरारत से हंस के बोला वैसे तुम इसको यहीं रखने वाली हो या खाना खिला के इसकी कहानी सुन के यहाँ से रफा दफा कर दोगी वैसे किसी भले घर की लगती है और बहुत सुंदर भी है . ..साहिल ने कहा मैं तो कमरे में आ के ठगा सा खड़ा रह गया ... उसको देखता जैसे उसको ईश्वर ने फ़ुरसत में बनाया है ....सोच लो यदि तुम उस को यहाँ रखने की सोच रही हो, रात तक तो कुछ भूल ना कर बैठो कह कर वो मुस्कुराने लगा !
""अजीब इंसान हो तुम ""इतना कह कर ..मीता वापस कमरे में आ गयी .!"सुंदर ,,ठगा सा रह गया "..यह लफ्ज़ उसके कानो में गूंजने लगे . अब उसका दिमाग जैसे घड़ी की दो सुइयों की तरह साहिल की बातों पर अटक के रह गया था अब उसको उस लड़की के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नही रह गई थी !
सोचते सोचते उसका दिमाग़ भन्ना गया ... वो तेज़ी से उठी ,, कुछ पैसे उस लड़की के हाथ में थाम के जाने को बोल दिया और कपड़े बदल के ..दुबारा अच्छे से तैयार हो के साहिल के पास गयी !साहिल ने पूछा क्या हुआ इतनी जल्दी सुन ली उसकी कहानी ..जाओ तुम सुनो मैं यही हूँ अभी कह कर वह फ़िर शरारत से मुस्करा दिया .. .मीता बोली कि वो लड़की नही रुकना चाहती थी .. मैने उसको कुछ पैसे दे के भेज दिया .. अब मैं ज़बरदस्ती तो उसको नही रोक सकती थी ना . यह कहते हुए वो मुस्करा के साहिल के सीने से लग गयी ... सुन कर साहिल चुप हो गया और धीरे से हँसने लगा उसने साहिल से पूछा की आज बाज़ार में बहुत सुंदर से बूंदे देखे हैं ..कुछ पैसे दे आई हूँ और कुछ दे के लाने हैं साहिल ने मुस्करा के उसको अपने सीने से लगा लिया और बोला कि ले लेना ....तुम्हे मैंने कब किस चीज के लिए मना किया है ...खिड़की पर पड़े गुलदान में रखे गुलाब मुस्करा रहे थे बाहर का समां बारिश होने से भीगा भीगा था ...और मीता साहिल के सीने से लगी अपने सवाल के जवाब में सिर्फ़ एक बात सुनना चाहती थी ... कि ... क्या वह सच में सुंदर है .....???????उतनी ही जिसको देख के साहिल ठगा सा देखता रह गया था !

Thursday, September 20, 2007

नरपिशाच

सौ, दो सौ लाल-लाल आँखें और उनके हाथों में जीभ लपलपाती , प्यासी तलवारों का जखीरा।
- मुल्क हमारा, मिल्कियत हमारी -- तुम हीं कहते हो ना- यह मुल्क तुम्हारी माँ हैं। आज हम तुम्हारी माँ , बहनों की औकात बताने आए हैं। तुम सारे आदमजात , मर्द - हम सब तुम हिजड़ों के साथ कुछ नहीं करेंगे। साले, जियो सौ साल, मुल्क -मुल्क की रट लगाते रहो। मुल्क को माँ कहते रहो, बस तुम सब की अपनी माँ-बहनें आज के बाद नहीं रहेंगी।उनकी आबरू...................
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-दादा, एकदम सही कह रहे हैं आप , देश तो आप हीं का है । गाँधी बाबा जब गुजर रहे थे , तो उन्होंने इस देश की चाभी तो आप हीं के हाथों में दी थी ना। बस गड़बड़ यह है कि सारे ताले बदल दिये हैं हमने।
- दादा, क्यों बुढापे में अपनी जिंदगी को कोड़े मार रहे हैं। आराम से रहिए।
- अरे दादा, मंत्री जी ने आपके गाँव के लिए कुछ किया है तो कुछ लेंगे भी ना। रूपया, पैसा तो नहीं माँग रहे हैं । अब इनका पेट तो भर हीं जाता है, जो नहीं भरता, वही ले रहे हैं, तो बताईये इसमें कौन-सा हर्ज है।

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दोनों दृश्य रामेश्वर बाबू की निगाहों के सामने बारी-बारी से उपला रहे थे।अपनी हीं भावनाओं के दरिया में डूबत-उबरते , गिरते-संभलते वे एकाकी राह पर चलते रहे। बस-स्टैण्ड से उनका गाँव बस सौ फर्लांग की दूरी पर था। कुछ हीं देर में गाँव की देहरी आ गई। गाँव का शोर-गुल सुनते हीं उनका "भक" टूटा। जैसे हीं वो थोड़ा आगे बढे , एक पत्थर उनके सीने से जा लगा। फिर दो पत्थर, तीन गालियाँ , चार हाथ.....................

-मार दो बूढे को।मारो...मारो.....
- स्स्साला, खुद को मुखिया कहता है। इसने बेचकर रख दिया है हमें। हमेशा किसी-न-किसी को ले आता है हमें नोचने के लिए। माँ,बहन्न्न्न्न्न। स्स्स्साला। माँ, बहन की तो इसने बिक्री.......
फिर एक जूता, दो जूता...

"-माँ, बहन की तो इसने बिक्री......" --- रामेश्वर बाबू के दिल का घाव फूट पड़ा।

हुआ क्या है ,वे कुछ भी समझ न पा रहे थे । इन्हीं लोगों के लिए तो दशकों से वो सरकार से लड़ रहे हैं। कभी बाढ, कभी बेरोजगारी तो कभी भूखमरी की समस्याऍ लेकर हमेशा हीं वो मंत्री-संत्री के पास दौड़ा करते थे। हाँ, कुछ दिनों से वे बीमार चल रहे थे तो गाँव की हीं एक लड़की ने उनसे आग्रह किया था कि उसे जाने दिया जाए। वो लड़की पढी-लिखी भी थी।रामेश्वर बाबू ने उसे मना भी किया की मंत्री अच्छा आदमी नहीं , लेकिन.......। मंत्री की बुरी नज़र थी उस पर , यह जानने के बाद आज खुद वे मंत्री से शिकायत करने गए थे। उसे बेटी की तरह मानते थे वे , बेट्ट्ट्टी...........

- स्स्साला, मंत्री से इसकी मिली भगत है। हमें झांसे में लेकर हमारी बेटी को उसके पास भेजा था। मा...., बुढापे में हमारे गाँव पर हीं नज़र डाल दी इसने।
- मेरी बेटी , इसको अपना बाप मानती थी। इसने कहा और वो चल दी । और इस नरपिशाच ने अपनी बेटी को हीं खा लिया।
-नरपिशाच , है ये।
"नरपिशाच", "नरपिशाच"................ रामेश्वर बाबू की कानों के चदरे फटने लगे। चेहरे का खून कानों में टपक पड़ा। कान सुन्न..... "नरपिशाच" "नरपिशाच"..... हल्के-हल्के बहरापन गूंज रहा था।

- अर्रे सुनो मुनीसर, जाओ इसके घर से इसकी पोती को खींच कर लाओ। इसके नज़रों के सामने इसकी पोती का क्रिया-कर्म करते हैं , तब इसे समझ आएगा कि बेटी खोना क्या होता है।
"पोत्त्त्त्त्त्ती......... " , खून आँखों से निकल पड़ा।"नहीं, नहीं......... अब पोती नहीं........."।-रामेश्वर बाबू चीत्कार उठे।

मुनीसर उनके घर की तरफ बढ चुका था।
रामेश्वर बाबू को उनकी बेटी का रोता , बिलखता , चीखता चेहरा याद आ गया। उन्हें अपना पाप याद आ गया , जिसका शिला इन्हें आज मिल रहा है ।
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-मुखिया , हट जा हमारे सामने से।
- इन्हें छोड़ दो। ..... रामेश्वर बाबू गिरगिरा रहे थे।
पूरा गाँव शांत था। किसी में इतनी ताकत न थी, कि इन कसाईयों से कुछ कह सके। गाँव की सारी औरतों की आबरू अब इस अदने से इंसान के भरोसे हीं थी।
- मुझे मार दो। टुकड़े-टुकड़े कर दो मेरे , लेकिन इनको छोड़ दो। इन्हें तो देश से , धर्म से कोई लेना-देना भी नहीं है। गलती हमारी है। हमें सजा दो। मुझे मारो...मुझे..... हम सब मर्दों को मार दो। लेकिन हमारी माँ-बहनों को बख्श दो।
- मुखिया........ तुम सब को मार कर क्या मिलेगा। जो मिलेगा, इनसे मिलेगा..... ( एक अट्टहास गूंज पड़ा)
औरतों की चीखने-चिल्लाने की आवाज़ अट्टहास में गुम होती-सी लगी।
- चलो मुखिया, चलो तुम्हारी भी बात मान लेते हैं। .................. एक काम करो। हमें बस एक लड़की दे दो। सारे लोग उसी से गुजारा कर लेंगे। ( फिर से हँसी)
- मुखिया...... जल्दी करो।
- "म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्मेरी बेट्ट्ट्टी ले जाओ। " रामेश्वर बाबू धम्म से गिर पड़े।

-बाबूजी, बाबूजी , मैं हीं क्यों? बाबूजी................ बचा लो मुझे। बाबूजी................

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मुनीसर उनकी पोती को घसीटता हुआ बाहर ले आया।
"मैने इसी गाँव के लिए अपनी बेटी दे दी। और यही गाँव वाले मेरे घर से फिर एक बलि लेना चाह रहे हैं। अब पोती............... नहीं।"
-दादाजी........ दादाजी.......
"पोती...... नहीं।"
"दादद्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्दाजी................."

रामेश्वर बाबू की आँखें बंद हो चुकी थी। उन्हें एक के बाद अपनी बेटी और पोती का रोता-बिलखता चेहरा दिखने लगा।
"मुखिया"........ "बाबूजी"....... "पोती".......... "क्रिया-कर्म".......... "दादाजी"........."नरपिशाच"
रामेश्वर बाबू खुद में हीं डूबते चले गए। कान अब बहरे हो गए थे ....... कुछ देर में सब कुछ शांत हो गया। एक नरपिशाच ने अपनी अंतिम साँस ले ली।

-विश्व दीपक "तन्हा"
दूसरी कहानी
२०-९-२००७

Saturday, September 15, 2007

बुतरखौकी

लम्बे-लम्बे कदमों से मानो दौड़ते हुए उसने गलियारा पार किया और वहीं सीढियों पर कोने मे बैठ गई। मुठ्ठी की गर्माहट अब तक पूरे बदन पे छा चुकी थी; मन मे हँसी भी वो- क्या कहेगा कोई? देह पूरा तप रहा है। कहीं बुखार तो नहीं हो आया । थर्मामीटर लगेगा,माथे पर पट्टी डालेगी मुन्नी की मैया ,मुन्नी तो चुपचाप कोना मे जा कर रोएगी। रामधनवा तो घबरा ही जाएगा, जल्दी से जा कर उ दवाई दुकान वाले डाक्टर को रिक्शा पर बैठा कर ले आयेगा। उ क्वैक (इस शब्द पर उसने अपनी पीठ ठोकी। अब वो भी तो ये सब जान गई है!) ......... साला क्वैकवा हजार नौटंकी करेगा, नब्ज देखेगा,बीपी नापेगा, स्टेथो लगाएगा। मुन्नी की मैया तब तक रूआँसी होकर बोलेगी-
"पारा १०२ को भी पार कर गया।"
"अब तो दवा भी काम नही करेगी। अब तो इन्जेक्शन लगाना होगा।"
क्वैक की आवाज उसके कानों मे हथौड़े सी बजी और देह मे झुरझुरी सी दौड़ गई;बचपन से ही सूई लगवाने से डरती थी वो। सारे विचार इसी थपेड़े मे बिखर गए और वापस वो अपने आप मे आ गई। मुस्कुरा कर मन ही मन में उठी ,होंठों के कोर भी रोकते-रोकते थोड़े फैल ही गये। बेमतलब मे कितना सोच लेती है वो । अपने आपको संयत करते हुये उसने राहत की साँस ली। मुठ्ठी अभी भी नोटों की गरमाहट को कैद किए थी।

आने-जाने वाले की ओर पीठ करके एकदम से कोने में वो बैठ गयी और मुठ्ठी खोलकर पाँचो नोटो को दो बार गिना। बीस बीस के पुराने नोट थे ;गाजरी रंग थोड़ा फीका और स्याह सा हो उठा था।पर यही तो है गांधी बाबा की महिमा - नया पुराना सब एक सा होता है, कड़-कड़ा हो, तुड़ा -मुड़ा हो, सब एक जैसा काम करता है। पर कटे-फटे नहीं,नहीं तो गांधी बाबा गुस्सा जाएँगे! रोकते रोकते इस सोच पर हँसी भी आ गयी उसे। पर इसका भी इलाज है; रामधनवा बता रहा था कि चौक पर कटे-फटे नोट बदले जाते है,लेकिन दस रुपये सैंकड़ा काटता है। उसने हिसाब लगाया और घबरा गई-
’बाप रे हर बीस टकिया पे दू-दू रुपया । मतलब पाँच नोट पर दस रुपये; खाली नब्बे ही बचेंगे।’
सिहर सी उठी वो,पर अगले ही क्षण संभल गई। पांचो नोटो को एक एक कर खोल कर आगे पीछे देख लिया, फिर गिना- बीस..चालीस...साठ..अस्सी..सौ..पुरे-एक सौ रुपये! रामजी,किशन जी,दुर्गा माँ, काली माँ, हनुमान बाबा सबको मन ही मन गोर लगा।
’ ऐसे ही बरकत दिहो देवा।’
उसने पाँचो नोटो को जतन से मोड़ा और फिर आँचल की छोर में रखकर गांठ लगाने लगी। अचानक कुछ याद आया और दाँतों से जीभ को काट लिया-
’बाप रे! इतनी बड़ी भूल!- शंकर जी छूटिये गए। उ गुस्साहा भी हैं। सब कमाईया खत्म करवा देंगे।’
उसी मनोवेग में पास रखे कैक्ट्स वाले गमले पर सिर टिका दिया मानो शिवलिंग हो। फिर मन को दिलासा दिया-
’ अच्छा भोले बाबा तो भोला है। अगले सोमवार को तीन तीन पत्ता वाला बेलपत्तर चढा आएगी रोड के बीच वाले मन्दिर में, फिर तो उ खुश हो ही जाएँगे। सोमवार को भीड़ो रहता है हुआँ पर। रोड तो दू घन्टा पुरा जाम हो जाता है।’
भोले के भक्तों के दमकते चेहरे,ट्रैफिक जाम में फँसे लोगो के खीझते ,बड़बड़ाते चेहरे और उ टोपी वाला उजला ड्रेस वाले सिपाहिए का बेचारगी से भरा चेहरा- सब एक साथ आँखों के सामने घूम गया.....इन विचारो को झटक कर आँचल की गाँठ को कमर में खोंसा और उठ खड़ी हुई।
’ क्यूँ सोचती है वो इतना?आज इतनी उपरी कमाई हुई है और वो बेमतलब में परेशान हो रही हैं।’
नोट देते हुए कम्पाउन्डर बाबू ने भी तो मूँछों से मुस्कराते हुए मिठाई माँगी थी।
’ मरे मुंहझौसा। ऐसा काम करूँ मैं ,पाप लगे मुझको और दुश्मनवा के मुँह मे मिठाई कोंचूँ।’-
पाप काटने के लिए उसे फिर से भोला बाबा याद आ गए,जो केवल बेलपत्तर मे खुश हो जाते हैं।

घर का रास्ता तो उसे इस तरह याद हो चला था कि आँखें मूँद कर भी वो नर्सिंग होम से घर पहुँच सकती थी। सीधे चलो, पीपल के पेड़ से आगे जाकर बाएँ मुड़ना है,बाजार पार करते ही बोर्ड दिखने लगता है-इंदिरा आवास वाला। उसी के इक्कीस नंबर वाले एक कमरे को वह, रामधन, मुन्नी और मुन्नी की माँ घर कहते थे। और क्या,घर थोड़े ही ईंट-पत्थर, सीमेंट-बालू का बनता है। वो तो साथ मे रहने वाले के आपसी प्यार की निशानी है।
’सब कितना प्यार करते हैं एक दूसरे से; कितना खुशहाल घर है उसका।’
उसने फिर से जीभ काट ली।
’कहीं अपनी ही नजर ना लग जाए!अच्छा,घर जाकर दरवाजा के उपर काजल का टीका कर देगी और हनुमान बाबा के फोटो पर अगरबत्ती।’
अचानक अगरबत्ती की सुगंध उसे कहीं से आई। शनिवार का दिन था और शाम को पीपल पर कोई श्रद्धालु जल चढाकर अगरबत्ती खोंस गया था।

पेड़ से सटे-सटे एक कच्ची पगडण्डी निकली थी,जो निगाह ओझल होने तक झाड़-झँखार से छिपी हुई मालूम पड़ती थी।बड़े-बड़े पेड़ भी थे,जो रेलवे लाइन तक फैले हुए थे।रेलवे वालो की जमीन थी,सो कुछ बन नही रहा था और उस छोटे से शहर मे सब इसे जंगल पुकारा करते थे। बच्चे डरते थे; बड़े डराते थे - इसी जंगल के नाम पर, इसमे रहने वाले शेर-बाघ-चीता के नाम पर। औरतें डरती थी; औरतें डराती थी - भूत-प्रेत के नाम पर,जो दिन-भर तो जंगल मे अल-मस्त घूमते थे और रात मे पीपल के पेड़ पर रैन-बसेरा करते थे। सुखिया को हँसी आ गई-
’झूठ बोलते हैं सब। अभी तक इतने सारे दिनो से उसी कच्चे रास्ते से जंगल में गई है वो, ना कोई जानवर दिखा है ना कोई भूत प्रेत।आज भी तो गई थी वो बड़े से पोलिथीन के थैले को कुएँ मे डालने उसी रास्ते से, कहाँ कुछ हुआ था।’
वो कुआँ उस जंगल का सबसे डरावना पहलू था, जिसके बारे में कई बाते प्रचलित थी। उनमें सबसे ज्यादा मान्य दो थी- एक तो कि आजादी के बाद सुभाष चन्द्र बोस उस जंगल मे छुप कर रहते थे और कुएँ मे आजाद हिन्द फौज का खजाना छुपा रखा था। और दूसरे कि भूत-प्रेत के बच्चे और स्त्रियॉ वहाँ नहाया करती हैं। भय का वजूद लालच को ग्रसे हुए था और लोग प्रायः उस कुएँ से डरते ही थे। कुछ साहसी निठल्लों ने कोशिश भी की थी पर अपनी नाकामी छुपाने के लिए एक तीसरी - मध्यममार्गी - मान्यता जनप्रिय कर दी कि नेताजी की आत्मा खजाने की रक्षा कर रही है।कुछ बड़बोलो ने तो आत्मा को कांग्रेसी टोपी भी पहना दी।शहर मे नेताजी के सफाचट और दाढीजार चेहरे को लेकर भयानक मतभेद पैदा हुए।
’खैर उसे इन सबसे क्या।’ - गले मे पड़े हनुमान बाबा के ळॉकेट पर हाथ लगाया और श्रद्धावश आँखें मूँद ली।मन मे दुहराते हनुमान जी की जय की आवाज बस की पों-पों के आगे फीकी पड़ गई और उसने पाया कि चौराहे तक वो पहुँच चुकी थी।

बाएँ मुड़ते के साथ निर्णय ले लिया उसने कि अब कुछ फालतू नही सोचना है। इत्ती बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ चलती है रोड पर। कुछ हो गया,फिर सबका क्या होगा ? रामधनवा बेचारा कितना रिक्शा खींचेगा? मुनिया की मैया कहाँ तक साहब लोगो के यहाँ जाकर बरतन-बासन करेगी? उ भी तो जवान-जहान है और साहब लोगो की नजर - हाय दैया! कितने निर्ल्लज और पापी होते हैं सारे। सब गरीबन मरद उनका गोर चाटे और उन सबकी जोरू उनका बिस्तर गरम करें - यही सोचते हैं ना इ साहब लोग। मुँहझौंसा, कैफट्टा, दुश्मनवा, जोनजरनवा.... .......गालियों की लम्बी कतार को एक गाड़ी के हार्न ने तितर-बितर कर दिया। वो सड़क के और किनारे हो आई और विचारो की एक नई श्रँखला आकर जुड़ गई-
’नही देवा।कुछ ना करिया हमरा के।परिवार के नास हो जैतै।’
मुन्नी की पढ़ाई छूट जाएगी। पढ़ेगी नही,तो मेम कैसे बनेगी;फिर साहब से उसका बियाह कैसे होगा? साहब लोग तो शादी मे दहेज कितना माँगता है। उसी को तो वो जोड़ रही है; सारा पाप इसी के लिए तो वो कर रही है। कल ही पोस्ट-ऑफिस जाकर इ पैसा जमा कर आएगी। मेम बनी मुन्नी और उसका साहब दुल्हा - दोनो की जोड़ी को उसने अपने पैरो पर झुकते पाया और मन ही मन आशीर्वाद भी दे डाला।

"दू ठो चाकलेट दे देना।" उसने रामेसर साव की दुकान पर खुद को बोलते हुए सुना।
’हमेशा एक लेने वाली को ये क्या हो गया है आज।लगता है बुढ़िया भी एक खाएगी।’- साव जी ने मुस्कराते हुए एक रुपए की माँग पेश कर दी। आग लगे इस महँगाई को - सोचते-सोचते वो घर पहुँच गई। मुन्नी दरवाजे पर ही खड़ी थी,आकर गले मे लटक गई। गोदी मे ले चूमते हुए दोनो चाकलेट उसे दे दिए। पानी लेकर लक्ष्मी जैसे ही आई कि अपनी माँ को देखते ही मुन्नी गोद से उतर कर भाग गई।उसे डर था कि एक चाकलेट वो कहेगी बचाकर रखने को - बेला-बखत के लिए। लक्ष्मी बचा-बचाकर घर चलाती है;बस्ती मे सब लोग इसकी तारीफ करते हैं और सुखिया भी इसीलिए निश्चिंत रहती है। नही तो आजकल की बहुएँ तो, बस चले तो फैशन-पट्टी मे घर फूँक दे!

पैर-हाथ धोकर खटिया पर बैठी ही थी कि रामधन के रिक्शे की चों-चों,चाँय-क्राँय सुनाई दी। घर के आगे सड़क पर रिक्शा लगा रहा था। पड़ोस वाले मना भी करते हैं,तब भी वो वहीं लगाता है। पहले-पहल बस्ती के पार्क मे लगाता था,रोज कोई न कोई उपद्रव। कभी टायर पंक्चर, तो कभी सीट फाड़ दे कोई। उधर गाय-भैंस बँधी रहती है, उनके सींग मारकर गाड़ी पलटने का डर। चाय पीते-पीते सुखिया को उसने बताया कि चार बजे के करीब उसके नर्सिंग होम मे एक जचगी का पेशेंट लेकर गया था वो।
"तों कहाँ गेल हलहि? हम खोजबो करलिअय।"
सुखिया कुछ बोलने ही वाली थी कि मुन्नी को सामने देख एकदम से चुप लगा गई। लक्ष्मी
ने ही अपने मरद को टोका-
"इ का पुलिसिया जैसा पूछ रहे हैं। एतना बड़ा हॉस्पिटल है,गई होंगी कहीं काम से।"
हाँ, काम से ही तो गई थी वो! पर क्या बताए? कौन सा काम!....उसने हनुमान जी के फोटो की तरफ मुँह घुमा लिया।

फोटो मे छाती चीरे वानरदेव जय श्रीराम की उदघोषणा कर रहे थे।बाप रे, आम आदमी का सीना चीरो,तो बलबल खून फेंकने लगेगा। बेहोश करो,टार्टर डालो,टांका मारो,एंटीबायोटिक खिलाओ,पानी चढाओ,खून दो,विटामिन दो..... कितना नौटंकी है! यहाँ देखो, मजे मे फाड़ डाला छतिया को और राम-लखन दिखाय दिया। मजे हैं हनुमान बाबा के, बगल वाला फोटो मे कँधा पर दोनो भाई को बिठाए थे और छाती पर टांका का कोई निशान नही। ’सब प्रभु की माया है’- उसने श्रद्धावश अपने हाथ जोड़ लिए। बजरंगबली की आवाज कानों मे गूँजती सुनाई दी-
"तू मत घबरा। मै जानता हूँ, अपने परिवार के लिए ये सब कर रही है। मैं तेरे पापो को हर लूँगा।"
भक्त-प्रभु सम्वाद अभी चल ही रहा था कि मुनिया आकर देह पर लद गई-
"दादी, कहानी सुनाओ ना।"
"जा पहले खाना खा ले। अरी लक्ष्मी, हमर रनिया के खाना दे दहो।"
रानीजी ने मुँह फुला लिया। सुखिया ने उसे पेट पर बिठा लिया और पुचकारने लगी-
"रात मे सुनैबै कहानी। खूब्बे सारा। बढ़िया वाला।"
फिर कान मे धीरे से पूछा - "अलिया-झलिया करभि अभी? "
उत्तर की बिना प्रतीक्षा किए अपने घुटनो को मोड़कर मुन्नी को दोनो तलवो पर बिठा लिया और झुला झुलाने लगी।दादी के घुटनो पर सिर टिकाए मुन्नी का चेहरा खिल उठा।चारपाई की चूँ-चूँ के पार्श्व-संगीत के साथ घर मे गीत उतर आया-
"अलिया गे, नुनु झलिया गे,
गोरा बरद खेत खइलखुन गे,
कहाँ गे? डीह पर गे।
डीह के रखबर के गे?
बाबा गे। बाबा गे।"
गीत के साथ झूलती हुई मुनिया ने भी दादी के साथ सुर मे सुर मिला लिया-
"बाबा गेलखुन पूरनिया गे,
लाल-लाल........
कोल्हू पर.........
..............
सास के गोर लगलखुन गे।"
मुन्नी की आवाज तेज होती जा रही थी-
"बड़की के तेल-सिन्दूर,छोटकी के झोंप्पा,
उठ रे बुलाकवाली, देख ले तमाशा...."
झूलने का अब सबसे रोमांचक और आखिरी दौर होने वाला था। मुन्नी ने खिलखिलाना शुरू कर दिया।
"नया घर उठो,पुराना घर गिरो..
नया घर..............
नया......................................."
हर घर उठने-गिरने के साथ साथ मुन्नी भी उठती-गिरती जा रही थी और उसकी हँसी की आवाज बढ़ती जा रही थी। सुखिया भी हँस पड़ी।

पूरा घर दोनो की हँसी से भर गया था। तब तक लक्ष्मी घी लगी रोटी और आलू की तरकारी एक थाली मे मुन्नी के लिए दे गई। एक-एक छोटे कौर मे मन-मन भर के वादे भरकर सुखिया खिलाने लगी। मुन्नी गोद मे जितना ही मचलती, वो उतना ही मनुहार करते जाती। रोटी खत्म होने तक दूध की कटोरी रख गई थी लक्ष्मी। दूध पीना मुन्नी को सबसे खराब काम लगता था और उसे पिलाना दादी को सबसे बड़ा काम। कुछ ज्यादा ही वसूलना चाहा उसने आज उसी ख्वाहिश को पूरी करने के लिए बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर दिया।
"लगाव एकरा दू थप्पर" रामधन गरजा उधर से।
"दादी के दुलार मे बहस गेले हय" लक्ष्मी बड़बड़ाई।
इससे पहले के मुन्नी की लड़की जात होने, उससे जुड़े जीवन के संदर्भों जैसे ’सबसे अहम दुर्घटना - ससुराल गमन ’ और ’ सबसे बड़ी बात - घर चलाने की जुगत ’ आदि प्रासंगिक मसलों पर बात जाती, सुखिया ने मोर्चा संभाल लिया।
"बच्चा के डाँटल जाय हय ऐसे"- वो बरस पड़ी।
मुन्नी को कलेजे से लगाकर उसने फुसलाया और परी वाली कहानी सुनाने का वादा किया,जिसमे परी के पंख कोई चुरा ले जाता है और एक सजीला राजकुमार उसे ढूँढकर वापस लाता है...(बताने की जरूरत नही कि दोनो की शादी भी हो जाती है!) ये कहानी मुन्नी को बहुत पसन्द थी;काफी जुड़ाव महसूस किया करती थी वो इस कहानी से।उसने रोना बन्द कर दिया और दादी को देख मुस्कराई।
"बदमाश कही की!एक दम से अपने बाप पे गई है।"सुखिया के होठो पर भी मुस्कान खेल गई।

एतना ही बदमाश था रामधनवा भी बच्चा मे। लसराता भी ऐसे ही था वो। इकलौता जीता
बेटा था; खानदान चलाने वाला और सुखिया का तो वो पालनहार ही था। पहले पहल तीनो बेटी हुई, जीती रही,बढ़ती रही। बाद मे दो बेटे हुए तो,पर साल पूरा करने के पहले ही टॉयफॉयड की भेंट चढ़ गए। फिर एकदम से अकाल हो गया.... गाँववाली सब उससे कतराने लगी। कहीं से उड़ती-फिरती खबर भी मिली कि पीठ पीछे सब उसे ’बेटाखौकी’ कहते हैं। कितना रोई थी घर मे आकर, जब करजानवाली ने उसके घर मे घुसते ही खटिया पर पड़े अपने बेटे को उठाकर अँचरा मे छुपा लिया था। ननदे तो इसी कारण से नैहर आना छोड़ चुकी थी।इन सब यंत्रणाओं और कलेजा चीरती संज्ञाओं से तीन साल बाद मुक्ति दिलाई रामधन ने। बहुत मेहनत भी की थी सुखिया ने;नही तो भगवान ऐसे थोड़े ही पसीजता है! उमानाथ पे खस्सी, चण्डिकास्थान पर सवा रूपए का बताशा, हनुमान जी को सवा किलो लड्डू; अवधूत बाबा का भस्म तो छठे महीने से हर रोज सूरज निकलने से पहले जचगी तक चाटा था,एक भी दिन बिना नागा किए हुए। पीर साहब का गंडा-ताबीज तो पेट से होने की संभावना होते ही बाँध लिया था उसने। सब मनौती पूरी की थी रामधन के होने पर मजार पर चादर भी चढ़ा आई थी वो।दबी जुबान से सास ने खर्चे पर टोका भी-"पिछले
दो की तरह कहीं ये भी फिर....?" डर तो गई थी सुखिया इस आशंका पे और हर सुबह उठते के साथ बच्चे को काजल-टीका कर देती थी। कितना जतन से पाला था!.....नीचे चटाई पर लेटे रामधन को देखकर गर्व हो आया उसे।

बच्चा पालना भी कोई हस्सी-ठठ्ठा का कम नही है, कपार का पसीना तरवा से चूने लगता है। जो जतन से पालता है,वही जानता है। उसकी सास ने पहली बेटी को खूब मन लगाकर पाला; पर बाकी दोनो लड़कियों को तो जी भर के देखा तक नही। राणाबीघा वाली चाची बता रही थी कि सौर घर से उल्टे पाँव वापस लौट गई थी,अन्दर कदम भी नही रखा। हाँ,उसके बाद जो बेटे हुए, उसमे हुलस-हुलस के गीत गाया। ढोलक पे खुद बैठी थी। दिन भर कलेजे से चिपकाए रखती थी। केवल दूध पीने के लिए सुखिया के पास बच्चा आता। दोनो भगवान के घर चले गए....सुखिया ने उपर देखते हुए एक गहरी साँस ली। रामधन हुआ,तो सास भावी आशंका लिए अपने अरमानो को दिल मे दबाकर रह गई।सुखिया ने सारी जिम्मेवारी अपने उपर ले ली - सास के दिल की व्यथा वो समझती थी। यहाँ तक कि नेग माँगने पर सास ने जब सबके सामने अपनी बेटियों को खरी-खोटी सुनाना शुरू किया, तो उसी ने उन्हे रोका और ननदो की फरमाईश पूरी की। औरत ही औरत के दिल की बात जानती है! खैर अब तो बच्चा पालने मे वो एक्सपर्ट हो गई है।बड़ी लड़की भी तो अपनी एक साल की बेटी छोड़ गई थी नैहर, जब तुरन्त एक पीठपीछा बेटा हो गया उसे।फिर दूसरी बेटी का बेटा और छोटकी का.....।

"मुनिया के पप्पा ने खाना खा लिया।" खाने के लिए लक्ष्मी के इस बुलौहटे ने सुखिया
को इस दुनिया मे वापस खींच लिया। पतंग कटती भी है,तो तुरंत से जमीन पर नही आ जाती..... कटने पर भी लहरा लहरा कर उड़ते हुए का आभास कराते हुए जमीन पर धीरे-धीरे आती है। अभी भी दिमाग मे बच्चे ही बच्चे भरे हुए थे। बगल मे सोई मुन्नी, कुल्ला करता रामधन,थाली मे खाना परोसती लक्ष्मी - सब उसे बच्चे ही लग रहे थे। सब के चेहरे वैसे ही मासूम,निर्दोष,पवित्र और निर्द्वन्द्व! मातृत्व के असीम सुख से भर गई वो और देह मे नई जान सी आने लगी। उठते-उठते कमर पर कुछ चुभा। हाथ लगाया,वही खजाना था। एकदम से देह निढ़ाल पड़ गया –
" वो भी तो बच्चे ही होते! "
मुन्नी के चेहरे की ओर देखना चाहा उसने,पर हिम्मत नही जुटा सकी।.....इस जंजाल से
निकाला लक्ष्मी ने, जो खाना लेकर वही पहुँच गई थी-
"ईहें खा ला।तबीयत ठीक ना मालूम पड़ै हय।"
इतना प्यार पाकर सुखिया फिर से जोश मे आ गई -
"जा, तू भी अपन निकाल ला। साथे खैबै हम दोनो।"
फिर कुछ सोच के बोली-
"हमरा दूध कम्मे दिहा आज।"

खाना खाकर लक्ष्मी सारा जूठा बरतन समेट कर कोने वाले नल की ओर बढ़ गई। पचासेक परिवार वाली बस्ती का यही नल था;पर चौबीसो घण्टे पानी देता था। सुबह-सुबह तो महायुद्ध का माहौल छिड़ जाता था - नहाने वाले, बरतन-बासन करने वाले, पानी भरने वाले - सब के सब एक ही समय जुट जाते थे। वो तो विधायक ददन भैया ने साल भर पहले ये नल लगवा दिया था,नही तो मील भर दूर से पानी भर भर के लाता था रामधन। बस्ती की आधी ताकत तो इसी जल-प्रयाण को समर्पित हो जाती थी,फिर काम करेगा क्या और कमाएगा क्या? शहर वाले, अखबार वाले सब ददन को गुण्डा कहते थे, डरते भी थे।
’गुण्डा हुआ तो क्या हुआ।पानी देलवा दिया, केतना आराम हो गया।’
बरतन पर राख मलती लक्ष्मी अपने विचारो मे मग्न थी -
’फिर उकरे वोट देंगे। और इ बार बड़का वाला भेपर-लैंप भी लगवाने के लिए कहेंगे। इ अंधेरा मे साँप-बिच्छू पता नही कब काट जाय। चनरमा देवता तो घटते-बढ़ते रहते हैं, इनका कोई भरोसा नही। रोशनी हो जायेगा,फिर मुनिया को भी साल-दो साल मे बरतन बासन करने भेज सकती है- पर उसकी दादी थोड़े ही मानेगी। पता नही पढ़ा-लिखा के कौन सा लाट साहब बनाएगी?’
राख लगे सारे बरतनों को पानी की धार के नीचे रख दिया ;पानी के छीटों के साथ उसके विचार भी इधर-उधर बिखरने लगे। सारी गृहस्थी उसने गिन कर समेट ली - दू ठो बड़का थाली,एक छोटका, कड़ाही, छलनी, दो कटोरी, एक तसला और एक बड़ा सा तवा - पूरे आठ।

घर वापस पहुँची, तो सुखिया तो बाहर खटिए पर चादर बिछाते पाया। एक ही कमरे का घर- ’आखिर लाज-लिहाज भी तो कोई चीज होता है। फिर भी जाड़ा और मेघा-बूँदी मे बेटा-बहू के साथ सोना पड़ता है। करवट फेर लेती है, आँख बन्द रहता है, पर कान का क्या करे? जब तक नींद नही आ जाती, अपनी काम करते ही रहते हैं मुआ।’ बीड़ी का आखिरी बचा टुकड़ा फेंकते हुए सुखिया ने आवाज लगाई-
"मुनियाँ के हमरा पास दे जा।"
जब से मुन्नी थोड़ी होशियार हुई है,तब से अपने ही पास सुलाती है उसे।है भी लड़की बड़ी होशियार - मास्टर साहब भी तारीफ कर रहे थे,जब स्कूल मे फीस जमा करने गई थी वो।अँग्रेजी का कितना सारा गीत जुबानी याद है उसे; डॉक्टर साहब के बच्चा की तरह उसको भी इंगलिश वाला गिनती आता है। दूध को पता नही क्या कहती है - मिकिल..नही,म..म...... मिलुक...नही,मुलुक..नही ये भी नही है। अच्छा भोरे दिमाग लगा कर पूछेगी दूध का अँग्रेजी। जरूर अपनी मुनिया मेम बनेगी, गिटिर-पिटिर करेगी। अपने कमर मे खोंसे गाँठ को उसने एक बार और टटोला और दृढ़ता की एक चमक आ गई आँखो मे-
’बियाह उसका वो डाक्टर से ही करेगी। पर उ अच्छा होगा, इ पपियहवा जैसा नही। पैसा के लिए ऐसा पाप का काम नही करेगा। खैर उसे इससे क्या, उपर वाला इन्साफ करेगा उसका। है तो भागीदार वो भी, पर वो तो अपने परिवार के लिए, अपनी मुनिया के लिए कर रही ये सब कुछ।’

दिन भर की थकान से निढ़ाल सुखिया कब सो गई,उसे पता भी ना चला। सुबह आँखें खुली,तो पाया कि रामधन तो रिक्शा लेकर निकल गया था और मुन्नी स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी। सास को देखते ही लक्ष्मी मुन्नी को छोड़ चाय गरम करने दौड़ गई। ’सही मे खराब आदत लग गया है उसको। बिना पिए कुछ होता ही नही’-चाय सुड़कते हुए वो मुन्नी को तैयार होते देखती रही। सफेद कमीज, बुल्लू स्कर्ट, लाल रिबन, उजला मोजा, काला जूता, स्कूल का बेल्ट - कितनी सजी-धजी लग रही है!स्कूल बैग पीठ पर लाद कर जब उसने टाऽऽऽटाऽऽऽऽ किया, कलेजा चौड़ा हो गया सुखिया का -
’जरूर बड़ी मेम बनेगी इ छौड़ी। क्या कहेगा सब कि इत्ती पढी-लिखी की दादी ’लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर ’ है। ’
अपने अनपढ होने पर पहली बार इतना खराब लगा उसे।अचानक कुछ याद आया और हड़बड़ा उठी वो। आज तो पोस्टऑफिस भी जाना है उसे।

निकल ही रही थी घर से कि लक्ष्मी उधर से शर्माई,सकुचाई आकर खड़ी हो गई।दोनो की नजरे मिली,एक नजर झुक गई।अनुभवी आँखो ने झुकी नजरों की भाषा पढ़ ली -
"कैम्मा महीना चल रहा है?"
"तीसरा चढ़ गया, दू दिन हुए। उल्टी खूब हो रहा है। लगता है इस बार बेटा का आसार है।"
सुखिया हुलस गई, सब देवी-देवता को मन ही मन पूज लिया। इतने दिन से पोते की साध थी, पूरी होने वाली थी।
’पूरी बस्ती मे मिठाई बाँटेगी, गीत-गाना होगा। पोते की छठ्ठी मे सोने का कड़ा देगी, अपना कानवाला और नाकवाला गला के। ऐसे भी तो रखे ही रहता है। रामधनवा का बापू चला गया, अब गहना किस काम का। आदमिए नही है, तो उसका निसानी रख के क्या करे। और दे भी तो उसी के पोता को ही रहे हैं।’
सुख और आनन्द के इस अतिरेक मे उसने बहू को गले लगा लिया। भारी काम ना करने और भारी सामान न उठाने के निर्देश के साथ एक स्नेह भरा आदेश भी दे डाला-
"कल तैयार रहिया।साथे नर्सिंग होम चलिहा।"

चहक-चहक के काम करती रही दिन भर। सबसे हँस के बात की; सब काम किया - न हील,न हुज्जत। शाम को डॉक्टर साहब आखिरी राउण्ड लगाकर निकलने ही वाले थे कि वो सामने जा कर खड़ी हो गई।
"क्या बात है सुखिया?सब ठीक-ठाक।" उन्हे लगा पैसा बढ़ाने को बोलेगी।
सुखिया ने दाँत निपोर दिए-
"सब आप ही दया है सरकार। हमको पोता होने वाला है। थोड़ा बहू को देख दिजिएगा।"
"हाँ,हाँ, कल लेती आना।" बोझ हल्का होते ही मुस्कराए डाक्टर साहब –
"तुम्हें कैसे मालूम कि पोता होगा।"
अकचका गई सुखिया; मुँह से बोल ही नही फूटे। ये प्रश्न एक भावी आशंका बनकर उसके दिलो-दिमाग पर छाता चला गया। सच ही तो कहते हैं! ये लक्ष्मी भी झूठ-मूठ का सोचते रहती है। उल्टी से थोड़े ही पता चलता है - उसे भी दूसरी बेटी के समय कितना उल्टी हुआ था।

पर रास्ते भर वो भी यही सोचते हुए आई। रोज की तरह चलती रही, घर पहुँच गई। सब कुछ वैसा ही था। मुन्नी गरदन मे लटकी,चॉकलेट लेकर भागी,लक्ष्मी चाय बना लाई। पर मन कही और था - दो विकल्पों के बीच झूलता हुआ। एक के बारे मे जितना सोचती थी,दूसरा उतने ही पत्थर से सामने खड़ा हो जाता। विकल्प चुनने की समस्या नही थी, उनके विद्यमान होने पर भी कोई शक नही था। हाँ,सोच का गहरापन और सारा उहापोह दोनो मे से किसी एक के हो जाने के बाद के स्तर से जुड़े थे। इसी उधेड़बुन मे वही खटिए पर पसर गई। सास को परेशान देख लक्ष्मी ने मुन्नी को पास भी फटकने नही दिया। रात मे दो चार कौर अनमने ढ़ंग से लिया,फिर हाथ धो लिया।’खाती क्या?’ - दिमाग मे तो वही झंझावात चल रहा था;पूरे परिवार का गणित बिगड़ने का डर था।

मुन्नी के लिए तो उसने सारा खाका तैयार कर लिया था। अपनी ना जी हुई जिन्दगी, अपने सपनो की जिन्दगी... मुन्नी के सहारे जीने की सोची थी। सारी दमित-शमित इच्छाएँ, दबे -कुचले अरमान, खुली या बन्द आँखो से देखे सपने.... सब के सब पूरा होने का बस एक ही जरिया था उसके पास। लक्ष्मी ने तो मना भी किया था, पर वही अपनी जिद पर मुन्नी को अँग्रेजी स्कूल मे भरती करवा आई थी।
"बाप रे! इतना चोंचला। इत्ती महंगी पढ़ाई। एतना पैसा फूँको। उ पर भी पढ़-लिख के फायदा क्या?" शुरू-शुरू मे कितना बड़बड़ाती थी लक्ष्मी। पर धीरे-धीरे उसे भी ये सब अच्छा लगने लगा था;शायद सुखिया की आँखो के कुछ सपने छिटककर उसकी तरफ भी पहुँचने लगे थे।

’ एक दिन नाम रौशन करेगी इ बच्ची ’- सोचते हुए पास सोई मुनिया को उसने अपने मे चिपटा लिया। पहले कुनमुनाई, फिर दादी संग चिपक गई। ’ इसका भाई हुआ, तो उसे भी उसी स्कूल मे पढ़ाएगी। नही, और भी अच्छा स्कूल मे - आँखो मे एक दृढ़-निश्चय की चमक कौंधी। बड़ा अफसर बनेगा, खानदान का नाम बढ़ाएगा। पैसा का क्या है, इंतजाम हो जाएगा। डॉक्टर साहब से कहकर लक्ष्मी को भी कहीं काम पर धरवा देगी। वो भी किसी साहब के घर मे बरतन-बास,झाड़ू-पोछा का काम पकड़ लेगी,बैठी ही तो रहती है सबेरे-शाम। ’
’मेम होगी मुन्नी,साहब बनेगा उसका भाई ’- सुखिया के होंठों पर मुस्कान दौड़ गई। पर आँखों का छोटा सा आसमान इतने बड़े बादल को समेट नही पाया। पल्लू से उसने गीली हो आई आँखो को पोछ लिया। इस डगर पर इतनी दूर बढ़ आई थी कि पता ही नही चला कि कब दूसरी ओर खींचने वाला बल भी उतना ही विशाल हो कर मन को डराने लगा था-
" कहीं लड़की हुई तो ? "
कुछ अनचाहे दृश्य और विचार मन पर बोझ बनकर जमने लगे। घबराकर उसने सारे बोझ को परे ढ़केला -
’ कल पता चल ही जायेगा। ’और करवट बदल कर सो गई।

पता चल ही गया,जब लक्ष्मी को दवा के लिए कम्पाउण्डर के पास बिठाकर वो डॉक्टर साहब के केबिन की ओर भागी और वहाँ घुसकर चुपचाप खड़ी हो गई।
"सब कुछ नॉर्मल है। हर महीना लाकर दिखा जाना। "
सुखिया ने कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़ लिए - "और डॉक्टर साहब ? "
प्रश्न के चोले वाले इस ’और’ का अर्थ, संदर्भ और औचित्य पता नही जो भी हो, पर इसकी
प्रासंगिकता पूछने वाले और जबाब देने वाले - दोनो को स्पष्ट थी। असली बात कुछ ही क्षणों मे खुल कर आ गई -
’लक्ष्मी पर लक्ष्मी जी सवार हुई थी। ’
थके कदमों से सुखिया बाहर चली आई। रामधन तब तक पहुँच गया था सब को घर लिवा जाने के लिए। रास्ते भर लक्ष्मी डॉक्टर साहब के गुण-गान करती रही-
" केतना बढ़िया थे। न इलाज का पैसा लिया, ना खून-पेसाब जाँच का। दवाईयो मुफ्त मे दे दिए। हर महीना आकर दिखाने को भी बोले हैं। आजकल ऐसा पुण्यात्मा-धर्मात्मा मिलता कहाँ है,जो गरीब-गुरबा के बारे मे सोचे।"
"सब माई के कारण होलै। ना त कोई ओतना दयालु ना हय हियाँ पर।"
रामधन ने दोनो पैर पायडिल पर जमाए हुए गरदन पीछे घुमाकर जमाने पर अपनी सटीक टिप्पणी दी। और वक्त होता,तो माई का छाती फूल जाता इ सब सुनकर, पर अभी विचारो का बवंडर चल रहा था। चुपचाप रिक्शे पे कोने मे सिमटी बैठी रही।

रात मे मुन्नी के सो जाने के बाद उसने रहस्य पर से परदा हटाया। लक्ष्मी
जड़ हो गई, मुण्डी जमीन की ओर गाड़ लिया। रामधन चुपचाप बैठा रहा। सपने जब टूटते हैं, तो इतनी गहरी आवाज होती है कि बाकी सारी आवाजें उसी की गहराई मे दफन हो जाती हैं.......फिर छूट जाती है एक घनी सी चुप्पी, गूँगी-बहरी खामोशी !.....कोई कुछ ना बोलना चाहता है,ना ही कुछ सुनना।
सब के सब चुप बैठे थे; एक शब्दहीन माहौल पसरा हुआ था। बड़े होने का दायित्व निभाते हुए सुखिया ने ही चुप्पी तोड़ी-
" कि करै के हय ? "
स्तब्ध, शांत आँगन मे मानो एक थाली उपर से किसी के हाथ से छूटी। छन की आवाज थाली की थरथराहट के साथ धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती चली गई,फिर थाली और छन दोनो शांत। फिर सब चुप। कुछ भारी-भारी से लम्बे होते क्षण और बीते, फिर दिल कड़ा कर उसने बात आगे बढ़ाई-
"डॉक्टर साहब बोलय हलथिन कि अगर तैयार हओ, तो सब इंतजाम हो जैतै।"
"का बोलेगा उ डगडरवा ? पापी कहीं का। हमर पेट के बच्चा को मार देगा। जालिम! जमराज! हमरा सराप लगेगा उसको। उसके बंस का नास हो जाएगा।"
लक्ष्मी गरजी अचानक से मुण्डी उठाकर और डॉक्टर के पूरे खानदान को एक सिरे से गालियाँ देनी शुरू कर दी। सुखिया का चेहरा भक्क! ऐसी प्रतिक्रिया उसने सोची भी नही थी। लक्ष्मी जैसी समझदार और परिवार चलाने वाली बहू इस कदर आपे से उखड़ जाएगी,ये बात भी कल्पना के परे थी।
"तमाशा हो जैतै। चुप रहा अभी।" रामधन ने समझाया।


पता नही रामधन का असर था,परिवार के प्रतिष्ठा का या उसके पास की सारी गालियाँ खत्म हो गई थी - लक्ष्मी की आवाज मद्धिम पड़ती गई और उसने वही बैठ के सुबकना शुरू कर दिया। सोच और आक्रोश की दिशा धीरे-धीरे सास की ओर मुड़ने लगी-
’ कैसे फटाक से बोल दिया माई जी ने। कलेजा पत्थर का मालूम पड़ता है। आधा दर्जन बच्चा खुद जना, फिर भी मोह नही। आखिर रोज काम भी तो यही करते रहती है! ’
लक्ष्मी को बहुत पहले उड़ती सी खबर मिली थी कि उस नर्सिंग होम मे क्या होता है। शायद के बुर्के मे लपेट के उस शुभचिंतक ने ये सच भी उगल दिया था सुखिया उन अजन्मी-अधूरी लाशों को लेकर जंगल वाले कुएँ मे फेंकने जाती है। अपने वजूद के एक जिन्दा हिस्से को यूँ बियावान मे कूड़े के जैसे फेंक दिए जाने का ख्याल आते ही उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा और रोने की आवाज तेज हो गई।
"चुप्प करा। रोना-गाना एकदम बन्द।" रामधन गरजा।
अपनी माँ ने अपराधग्रस्त होते चेहरे को देखकर उसे सबसे सही यही लगा। लक्ष्मी चुप तो लगा गई, पर रूलाई रोकने की जबरदस्ती कोशिश मे खाँसी का एक लम्बा दौर शुरू हो गया। पानी पिलाया सुखिया ने और फिर वही बैठकर उसे कलेजे से लगा लिया.....नवजात शिशु की तरह वो चिपकती चली गई। पहले-पहल चुप रहे, फिर दोनो बुक्का फाड़ कर रो पड़े। रामधन छत निहारता रहा। रात भर कोई नही सोया; सब अपनी-अपनी सोच मे उलझे हुए थे।

सबेरे भी माहौल भारी ही था। सब अपना अपना काम यंत्रवत कर रहे थे। मुन्नी को स्कूल पहुँचाने के बहाने सुखिया खिसक ली। इस स्थिति के लिए वो खुद को जिम्मेवार मान रही थी। घर मे अकेले बचे दोनो - अपनी-अपनी चुप्पी मे खोये हुए। शुरूआत लक्ष्मी ने ही की। रात के दबे आक्रोश को अब तक शब्द के सहारे मिल चुके थे। सुखिया भी नही थी, सो कोई मेड़ भी नही डाली; सारा पानी बहने लगा। शुरू मे तटस्थ रहा रामधन, चुपचाप उसके प्रलाप सुनता रहा। सीमाएँ जब दूर तक लँघ गई और चुप रहने से बात के और बढ़ने और बिगड़ने की आशंका दिखने लगी, फिर उसने मोर्चा सम्भाला। लक्ष्मी को पास बिठाया और समझाने के अंदाज मे बोला-
"बेचारी बूढ़ी सब कुछ करय हय केकरा लिए ? हमरा,तोरा,परिवार के लिए न। अब ओकर उमर खटै वाला हय। बोलहो ? तैयो दिन-रात,हर बखत अपना देह के भूलाके काम करे ला तैयार रहय है। तोरा त अपन बेटी से भी जादा मानै हय।"
अपनी बात का असर होते देखकर वो फिर मूल मुद्दे पे आया-
"एगो लरकी के पाले मे एत्ता खरच होवै हय। तू त देखवे करय हो। अब बताहो, दोसर छौड़ी के खरच कहाँ से ऐतै? फेर दोनो के सादी के खरचा! उहे ला उ ऐसन बात बोलले होतै। तू ना जानय हो माय के कलेजा। हमरा तोरा से जादे मुनिया के मानय हय।"
बात भी सच्ची ही बोल रहा था वो। लक्ष्मी भी इससे इन्कार नही कर सकती थी। मुन्नी के पढ़ाई का सारा खर्च, दूध, दवा-दारू, सबके कपड़े-लत्ते, साबुन, तेल, सर्फ - सब का जिम्मा तो सुखिया ने उठा रखा था। बेचारी उसी की चिंता मे दिन-रात लगी रहती थी। रामधन की कमाई से तो किसी तरह बस खाना-खुराकी चल पाता था। जितना ज्यादा वो सोचती गई,भावनाओं का आशियाना मोम बनकर पिघलता गया। घर की माली स्थिति के पैराशूट से धीरे-धीरे वो यथार्थ के जमीन की ओर उतरने लगी.....वहाँ आसमान मे सूनापन उतरने लगा था। लक्ष्मी की माया देखो - एक लक्ष्मी अपने अन्दर की अपनी लक्ष्मी से धीरे-धीरे दूर हटते जा रही थी...पहचानने को,अपना कहने तक को भी इन्कार करने के लिए तैयार होती जा रही थी।

स्कूल मे मुन्नी को छोड़कर सुखिया व्यर्थ ही सड़क पर इधर-उधर टहलती रही। ’बेकार का बवाल खड़ा कर दिया उसने घर मे। होने देती बच्चा,जब खर्चा बढ़ता,तो फिर पता चलता ? लेकिन लक्ष्मी भी क्या करती बेचारी - कोई भी रोएगा जब उसके बच्चे को मार दिया जाएगा। माँ का दर्द तो वो समझती ही थी।’ पर जब खूब धूप निकल आई, फिर घर की ओर बढ़ने लगी; नर्सिंग होम भी तो जाना था। अपराध-बोध और असंभाव्य के बीच डोलते हुए घर मे जब कदम रखा,तो लक्ष्मी को गुमसुम एक कोने मे बैठा हुआ पाया। सास को देखते ही वो उठ खड़ी हुई-
"माई जी, नस्ता कर ला। जाय के ना हय कि? "
सुखिया अकबका गई। क्या बोले,कुछ सूझा ही नही। तब तक थाली मे रोटी-सब्जी-अचार सामने आ चुका था।
"हमरा भूख ना लगल हय।"
लक्ष्मी ने सास को जबरदस्ती बिठाया और एक कौर उसके मुँह मे डाल दिया। डबडबा आई आँखों से धार फूट पड़ी। पल्लू से आँसू पोछते हुए सुखिया ने उसे गले लगा लिया और फफक पड़ी। लक्ष्मी खामोश रही, कलेजा पत्थर का कर लिया था उसने! निकलने ही वाली थी कि कानों मे एक सर्द आवाज टकराई-
" डाक्टर से बात कर लिहा। "
भागते कदमों से वो वहाँ से निकल गई;नजर मिलाने की हिम्मत कहाँ बची थी उसमे।

दो दिन रही लक्ष्मी अस्पताल मे। चेहरा पीला पड़ गया था - खून शायद ज्यादा बह निकला था। सुखिया भी पिस गई थी उन दिनो - घर और बीमार दोनो की व्यवस्था करते-करते। मुन्नी ने पूछा भी, पर दादी ने उसे बहला-फुसला लिया। उसे यही बताया कि उसकी माँ किसी काम से नैहर गई है। खैर घर लौट के आ गई लक्ष्मी और सब लोग पहले की तरह अपने-अपने काम मे जुट गए; जिन्दगी ढ़र्रे पर लौटने लगी।

पर कहाँ लौट पाई पहले जैसी जिन्दगी! सब कुछ दिख तो सामान्य ही रहा था,पर बहुत कुछ बदल गया था। सुखिया कटी-कटी सी रहती,सुबह पहले ही निकल जाती थी और शाम मे खूब अँधेरा ढ़लने पर वापस आती। लक्ष्मी पहले भी कम ही बोलती थी, अब और भी चुप्पी लगाए रहती थी। दोनो जब तक घर मे साथ-साथ रहते,एक खींचा-खींचा सा माहौल हो जाता था;चुप्पी ही मानो भावों के उठ रहे तूफानो का प्रतीक बन गया था। केवल औपचारिकताओं के अलावा शायद ही कोई बात करते दोनो। सुखिया ने दो-एक बार मुन्नी को बातचीत का जरिया भी बनाया, पर ऐसे हर प्रयास को लक्ष्मी ने अपने नपे-तुले शब्दो से शुरू होते ही विफल कर दिया।
" मुनिया,जा माय के कह दे उ भी दूध पीतय। "
" हम दूध पीके कहा जैबै ? फेर जादे दूध के पैसा कहा से ऐतै ? "
इन प्रश्नो का जबाब देने पर कितने मुद्दे जुटते चले जाते और अंत मे कौन सी बात आ जाती, सुखिया को आभास था इसका। बारूद के ढ़ेर को क्यूँ चिन्गारी दिखाना - सो चुप लगा गई।
नर्सिंग होम मे कोई नई दवा की कंपनी वाला आया था,डॉक्टर साहब को बहुत सारी विटामिन की गोली दे गया था। उन्होने सुखिया को ढ़ेर सारी पकड़ा दी घर ले जाने को।
" मुनिया, आय से सब कोय खैतै इ गोली सुबह-शाम। खून बनतय,ताकत ऐतै। "
" हमरा खून बनके कि होतय ? ताकतो कौन काम के ? कोनो बच्चा थोरिए पैदा करे के हय......"
आगे भी कुछ बोलना चाहती थी,पर मुन्नी को देख चुप लगा गई।

रामधन तटस्थ था;शायद निर्विकल्प भी - क्या प्रतिक्रिया देता भला! घर मे उठ रहे इन छोटे-मोटे तूफानो को समेटे रहने मे ही भलाई थी। माँ ने तो कभी कुछ नही कहा,पर मौका पाते ही लक्ष्मी अकेले मे मन का सारा गुबार उसके सामने निकाल देती थी। उस समय चुप रहने के सिवा कोई चारा भी नही था,कुछ समझने की स्थिति मे वो थी भी नही। अपने वजूद के एक अंश खो देने का सारा मलाल सास के लिए आक्रोश बन कर निकल पड़ा था। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा - इसी सोच के साथ खुद को स्थिर रखे त्रिभुज के दोनो बिन्दुओं को दूर जाता देख रहा था। इन सब से परे थी तो मुन्नी – ’ त्रिभुज का केन्द्र ’। किसी ने उसे बिल्कुल ही आभास नही होने दिया कि कुछ हुआ है। वैसे ही उछलती रहती,स्कूल जाती,सबके सपनो को जीती,रात मे दादी से चिपट कर सो जाती। घर उसी तरह से चल रहा था,जिसका वो आदी था।

’उस दिन भी तो तीन केस हुआ था !’ - बिस्तर पे पड़े सुखिया सोच रही थी।...फी बच्ची बीस रूपैया...साठ तो उसे मिले ही थे। पानी का नया बोतल बदलाया लक्ष्मी का, तो घण्टा भर के लिए निश्चिंत होकर उस काम के लिए निकल पड़ी थी। कम्पाउण्डर ने काली पोलिथिन की एक थैली पकड़ा दी उसे और हर बार की तरह वो निकल भागी कुएँ की तरफ। पीपल के पास से मुड़ते हुए ख्याल भी आया कि खोल कर एक बार देख ले -
’ कहाँ पहचान पाएगी ? सब त मांस का लोथड़ा ही होगा। ’
निष्काम भाव से उसने थैली फेंक दी। अपनी अजन्मी पोती का अंतिम संस्कार कर के कुछ दूर बढ़ी ही थी कि लगा कोई पीछे से पुकार रहा है।
" दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ, ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ ।"
आवाज बिल्कुल मुनिया जैसी थी; वो भी पसर कर ऐसे ही तो बोलती है!
समूचा देह गनगना गया उसका, माथे पर पसीना चुहचुहा आया। हनुमान जी को याद करते हुए दौड़ पड़ी। रोड पर भी भागती रही... नर्सिंग होम पहुँची,तो जान मे जान आई। वहीं सीढ़ियों पर बैठ गई। कलेजा धौंकनी से भी तेज चल रहा था। साँसे जब थमी,फिर मुँह-हाथ धोया और लक्ष्मी के बेड की ओर बढ़ गई। वो सोई हुई थी; सुखिया ने चैन की साँस ली।

बगल मे लेटी मुन्नी कुलबुलाई,तो सुखिया के सोच की रेखा तितर-बितर हो गई। चद्दर ठीक से ओढ़ा दिया उसे और खुद भी सोने की कोशिश करने लगी। दिन-भर की थकान, घर का बोझिल माहौल, आँखें बन्द हो गई।
- बहुत भारी सा काला थैला लिए वो कुँए की तरफ जा रही है। बारह-पन्द्रह तो होंगे ही...
मन मे हिसाब भी लगा लिया......... मुनिया के एक महीने का फीस निकल आएगा। थैला
जैसे ही उसने फेंका, देखा मुनिया नीचे से उड़ते हुए आ रही है।
"तू यहाँ कैसे?"
"तू ही फेंक के गई थी दादी।"
दादी को काटो खून नही। अचानक एक और मुनिया आई,फिर एक और..फिर सैंकड़ो-हजारो मुनिया कुँए से निकलने लगे। वो भागने लगी, पर कानों मे एक साथ हजारो आवाजो का हुजूम टकराने लगा-
" दादी इ इ इ ऽऽऽऽऽ, ओ दादी इ इऽऽऽऽऽऽऽऽऽ। " -
झटके से उठ बैठी सुखिया....पूरा बदन अभी तक थरथरा रहा था। आस-पास देखा,कोई नही था; कोई आवाज भी नही। घर के बाहर खटिए पर वो मुन्नी के साथ सोई हुई थी। जान मे जान आई उसकी। पानी पीकर फिर से सोने की कोशिश की,पर अब नींद कहाँ। उठी बिस्तर से और वही घर के आगे टहलने लगी।
" दादी, ओ दादी "- रोने की आवाज कानों मे पड़ी,तो डर सी ही गई पहले। थोड़ा सम्भाला खुद को फिर - मुन्नी जग गई थी और साथ मे उसे ना पाकर रूआँसी हो गई थी। अपने से चिपकाया उसे और थपकियाँ देते हुए सुलाने लगी।

अब सही मे डर लगने लगा था उसे उस कुएँ और उससे जुड़े़ संदर्भों से। पर करती भी क्या, रोज का रास्ता भी वही था और काम भी वहीं का - उपर से थोड़ी कमाई भी हो जाती थी! एक बार तो मना भी किया, तो खुद डॉक्टर साहब ही आकर बोल गए, फिर कैसे नहीं जाती। रेट भी उन्होने बढ़ा दिया बिना बोले; फी केस पच्चीस रूपए मिलने लगे थे। डॉक्टर की भी मजबूरी थी, इस काम के लिए भरोसे वाला आदमी चाहिए था उन्हे। किसी नए पर विश्वास नही किया जा सकता था। सो बीच-बीच मे पचास-सौ अलग से पकड़ा दिया करते थे। ऐसी सब उपर वाली कमाई को सुखिया बिना नागा किए नियम से पोस्ट-ऑफिस मे जमा करवा आती थी और हर ऐसे अवसर पर उसकी आँखों मे ढेरों सपनों की एक नई चमक दिखाई देती थी,मानो उन सपनों ने नए कपड़े पहन लिए हों!

सब अपनी-अपनी जगह मजबूर थे; जीए जा रही चीज को जिन्दगी कहकर आत्म-संतुष्ट थे। अब देखो ना, एक ही घर मे रहते हुए तीनो की मजबूरी अपनी-अपनी थी, आत्म-संतुष्टि के मायने अलग थे और कह सकते हैं कि जिन्दगी भी अलग ही जी जा रही थी। अब दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की किसे फुर्सत? रामधन को मानो पृथ्वी को आर-पार किये हुए सुरंग मे फेंक दिया गया था - चिरकाल तक इधर से उधर डोलने के लिए। एक छोर पर माँ की गहराती जाती चुप्पी थी,तो दूसरी तरफ पत्नी का मुखर होता जाता आक्रोश। दोनो दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे! रामधन के डोलने की आवृति भी वैसी ही बढ़ती जा रही थी। डर भी लगता था मन मे - कहीं दोनो छोर मिल गये तो ?
’प्रलय हो जाएगा!! धरती डोल जाएगी!! - सब कुछ खत्म!!!’

धरती डोल ही गई! इतवार का दिन था। मुन्नी का स्कूल बन्द,सुखिया भी देर से ही जाती थी। सुबह-सुबह सब चाय पी रहे थे। अचानक मुन्नी उछलती-कूदती आई और दादी के गरदन मे लिपट के जोर से बोली-
"दादी बुतरखौकी है।"
सब अवाक! सुन्न! कोई हरकत नही!
मुन्नी को लगा किसी ने सुना नही। वो और जोर-जोर से बोलने लगी-
"दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ..... दादी बुतरखौकीऽऽऽऽऽ...."
रामधन ने लक्ष्मी की ओर देखा,उसने मुण्डी नीचे गाड़ ली- ये नाम तो उसी का दिया हुआ था! मुनिया को पीटने को दौड़ा,तब तक वो उछलती हुई बाहर भाग गई थी। आधी चाय वही खटिए के नीचे रख सुखिया उठी,चप्पल पाँव मे फँसाए और काँपते कदमों से बाहर निकल गई। पीछे से लात-मुक्के-गालियो की बौछार से खुद को बचाती रोने की एक आवाज उसके कानों पर पड़ी,पर वो तो बहरी हो चुकी थी।वहाँ तो बस एक ही आवाज गूँज रही थी-
" बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "

सर झुकाए वो चलती रही। कोई ताकत नही, जान नही, जिस्म को मानो घसीटते हुए बस्ती के बाहर ले गई। सब कुछ हार गई थी आज वो। एकदम से कंगाल हो गई थी। अपना घर, परिवार ,सारी आशायें, सारे सपने, यहाँ तक कि खुद को.........सब कुछ जिन्दगी की दाँव मे गवाँ बैठी थी।
’ जिनके लिए अभी तक मरती रही, जिन्हे देख कर जीती रही, उन सबने ही उसे जीते-जी मार डाला। जिसके लिए पाप किया, वही पापिन बोले - घोर अनर्थ है! सब बेकार है! सब कुछ खत्म!’
....................कुएँ मे कूदने ही वाली थी कि हजारो आवाजे एक साथ कानों से टकराई -
"बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! बुतरखौकी ! "
साथ मे एक और आवाज आ रही थी..... उसने सुनने की कोशिश की......!
" दादी इ इ इ ssss, ओ दादी इ इsssssss। "
...........सर पकड़ कर वही मुंडेर को थामे-थामे धम से गिर पड़ी।


सिनेमा चल रहा है मानो। कई सारे दृश्य एक एक करके आँखो के सामने आते जा रहे हैं -

’ बीच चौराहे पर सुखिया को नंगा खड़ा कर दिया गया है - बिल्कुल मादरजात !
सब चिल्ला रहें हैं;ढे़र सारी आवाजे आ रही हैं –
" बुतरखौकी को मार डालो। हमारा बच्चा खा जाएगी।"
भीड़ मे उसने देखा है - लक्ष्मी सबसे आगे है पत्थर हाथ मे लिए !
रामधनवा नही दिख रहा। मुनिया भी कही खेल रही होगी। नही, स्कूल गई होगी! ’

’ मुन्नी मेम बन गई है। गाँधी बाबा उसको अवार्ड दे रहे हैं। वो अँग्रेजी मे गिटपिटया कर बोलती है कि सब हमारे दादी का प्रताप है और उसे मंच पर बुलाती है। सुखिया मंच पर खड़ी है, पास मे गाँधी बाबा - नोट से निकल के एकदम साक्षात खड़े हैं, ताली बजा रहे हैं। डॉक्टर साहब भी ताली बजा रहे हैं। सुखिया लजा जाती है। ’

’ मुन्नी की शादी हो रही है। खूब गाजा-बाजा। खूब सजा हुआ है। राजकुमारी लग रही है लाल साड़ी मे, सोना का किनारी खूब फब रहा है। उसका दूल्हा भी सजीला राजकुमार है! डॉक्टर है! सब आशीर्वाद दे रहे हैं, अक्षत छींट रहे हैं। सुखिया भी नई साड़ी पहने हुए है। दोनो दुल्हा-दुल्हन पैर पे पड़े हैं। विदाई हो रहा है,दादी से लिपट कर मुनिया भोंकार पार के रो रही है। बड़की गाड़ी मे मुनिया चली जाती है ससुराल। रात भर का जगरना हुआ है, अब सुखिया चैन से सोएगी।’

’सुखिया की लहास पड़ी है। मुन्नी लिपट के रो रही है। रामधनवा माथा पकड़ के बैठा है, आँखे गीली है। लक्ष्मी बदहवास सी चिल्ला रही है-
" हमहि मार देलिअय माईजी के। हमरा माथा पर डाकिणी सवार हो गेले हलय। अपन माय के कथि ना बोललिअय। हमरा से गलती हो गेलय। माफ कर दहो अपन बचिया के। काहे छोड़ के चल गेलहो माई जीऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ"....
.......................सुखिया की लाश को जलाया जा रहा है। ’

’ मुनिया का स्कूल छूट गया है फीस ना भरने के कारण। दिन भर इधर उधर बनच्चर जैसा घूमते रहती है। लक्ष्मी दो-चार घर मे बरतन-बासन करती है। एक दिन एक साहब ने उसे पकड़ लिया है ....वो चिल्ला रही है, पर कौन आएगा ? रामधनवा त रिक्शा खींच रहा है। घर चलाने के लिए दिन-रात करके मेहनत कर रहा है। डॉक्टर उसको टी बी बताया है। लक्ष्मी कह रही है अकेले मे उसे -
"माईजी हलथिन ,त कोई दिक्कत ना हलै। उ गेलखिन, सब कुछ खतम हो गेलै। माफ कर दिहा माईजी।"
……………….आसमान मे बैठी सुखिया उसे माफ कर रही है। ’


आँखें खुली,तो सूरज देवता पश्चिम मे चले गए थे। सांझ की वेला थी, सब अपने अपने घर लौट रहे थे। उठी, साड़ी ठीक किया, अंधेरे मे किसी तरह से चप्पल ढूँढ़े। कही से कोई आवाज नही आ रही थी।
"सब बुतरूए हय। बुतरू-बानर के बात के कोय मतलब नय।"
उसने खुद से कहा और घर की ओर चल पड़ी।



परिशिष्ट
कहानी की सुखिया को तो परिवार चलाना है, अपने सपने जीने हैं, सो घर वापस चली जाती है। पर सुखिया स्वतंत्र है कुछ भी करने को। आत्महत्या करने से लेकर कन्या-भ्रूण हत्या के विरोध मे उठ खड़ी एक मुखर नेता बनने के दोनो अति के बीच मे जितने भी विकल्प आते हैं,सब के सब खुले हैं उसके पास। जरूरत है तो बस संदर्भों की, मायनों की, जो सुखिया के चरित्र को अपना एक प्रतिमान दे पाए। पर समस्या यही है कि सबके संदर्भ अलग हैं, सोच के मायने अलग हैं................सो शायद सुखिया भी अलग-अलग है!



अपनी बात
ये कहानी उन अभागे दधीचियों को समर्पित है, जिन्हे उनसे बिना पूछे यूँ ही बलि-वेदी पर चढ़ा दिया गया। पता नही कौन से असुर का वध करना था ? और अस्त्र भी कहाँ से बन पाता, कौन बना पाता; अभी तो हड्डियाँ भी ठीक से नही बन पाई थी !
मैने भी ऐसा ही एक पाप किया है।
प्रायश्चित-स्वरूप उन्हे अपनी रचनाधर्मिता की एक श्रृद्धांजलि -

" परेशान हैं सारे
अफवाह उड़ा दी है किसी ने -
कि लड़कियाँ कम हैं यहाँ पे !

पर / मालूम नही उन्हे / कि
घर हमारे भर गए हैं,
कोख भी कम पड़ गए हैं,
सो -
वे
बिना जन्मी हुई साँसे बनकर,
अधूरे तन की लाशें बनकर,
कूड़ों पे सज रही हैं
कुँओं मे मिल रही हैं। "

[ रचनाकार का उद्देश्य किसी भी दृष्टिकोण से कन्या-भ्रूण हत्या को जस्टिफाई करना नही है। यह एक सामाजिक कुरीति और कानूनन अपराध है और हमे मिल-जुल कर अपने समाज को इस से पवित्र रखना है।]

Tuesday, September 11, 2007

शर्म

- माँ जी, हम पिपली में हैं। चंडीगढ़ जा रहे थे, बस से बीच में ही उतर गए हैं।
डरी हुई बबली की आवाज को सोमवती ने पहचान लिया। फ़ोन उठाते ही वह एक साँस में यही बोल गई थी। आस-पास से वाहनों का कुछ शोरगुल भी सुनाई दे रहा था।
- संजय कहाँ है?
घबराकर सोमवती ने पूछा। उसे एकदम से अपने इकलौते बेटे की चिंता हो आई थी।
- वो मेरे साथ ही है...यहीं...
बबली ने जल्दी से फ़ोन पास खड़े संजय को पकड़ा दिया। पी.सी.ओ. वाला पास खड़ा आश्चर्य से उन्हें देख रहा था और उनका वार्तालाप सुनकर ही उनकी घबराहट और हड़बड़ाहट का कारण समझना चाह रहा था।
- माँ...
एक हफ़्ते बाद बेटे का स्वर कानों में पड़ते ही सोमवती का गला रूंध गया और आँखों से आँसू निकल पड़े। उसने कुछ कहना चाहा, मगर कह नहीं पाई।
- शायद हमें छोड़ गया माँ। हमें बचा ले माँ, हम अभी मरना नहीं चाहते।
संजय अब तक स्वयं को सामान्य बनाए हुए था, किंतु माँ से बात करता हुआ अचानक गिड़गिड़ाने लगा। उसके इतना कहते ही बबली ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया। उसके चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं।

- माँ, बबली का ताऊ था हमारी बस में...हम पुलिसवाले को कहकर उतर लिए।
संजय पसीने से भीग रहा था। हालांकि जून का महीना था, लेकिन पी.सी.ओ. के भीतर चलते पंखे के कारण अन्दर इतनी गर्मी भी नहीं थी। उन दोनों के सिवा उस छोटे से पी.सी.ओ. में तीन लोग और थे, लेकिन पसीने में केवल वही दोनों भीग रहे थे।
- पुलिस तुम्हारे साथ है ना बेटा?
सोमवती ने किसी तरह अपने आप को संभाल कर पूछा।
- नहीं माँ...एक पुलिसवाला था लेकिन यहाँ उतरने के बाद से वह भी अचानक कहीं गायब हो गया।
बात करते हुए वह इधर-उधर भी देख रहा था। वहीं से उसकी नजरें पूरे बस अड्डे में घूम रही थीं। बबली संजय की ओट में इस तरह होकर खड़ी थी कि उसे बाहर से न देखा जा सके और जैसे संजय उसे हर विपत्ति से बचा लेगा।
- कहाँ गया?
सोमवती के स्वर की बेचैनी से ऐसा लगा, जैसे वह उड़ कर उन दोनों की रक्षा के लिए वहाँ पहुंच जाना चाहती हो।
- शायद हमें छोड़ गया माँ। हमें बचा ले माँ, हम अभी मरना नहीं चाहते।
संजय अब तक स्वयं को सामान्य बनाए हुए था, किंतु माँ से बात करता हुआ अचानक गिड़गिड़ाने लगा। उसके इतना कहते ही बबली ने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया। उसके चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं। पी.सी.ओ. वाला अब तक भी कुछ नहीं समझ पा रहा था। उसने सामने बैठे दो और आदमियों की ओर देखा। वे भी उन दोनों को ही घूर रहे थे।
- डर मत बेटा...भगवान का नाम ले, सब अच्छा होगा। अब दूसरी बस से चंडीगढ़ चले जाओ।
अनहोनी की आशंका में सोमवती खुद भीतर तक काँप रही थी और बेटे को भरोसा दिलाते हुए भी यह भय उसकी आवाज में आ गया। तभी बबली ने संजय को बाहर की ओर इशारा किया। एक बस अभी आकर लगी थी।
- नहीं माँ, दिल्ली की एक बस आई है। हम अभी दिल्ली जाते हैं...वहाँ पहुंचकर फ़ोन कर देंगे।
हड़बड़ाते हुए संजय बोला। जितना जल्दी हो सके, वे इस छोटे सी जगह पिपली से निकल जाना चाहते थे। सोमवती शायद ‘हाँ’ कह रही थी। संजय ने बात पूरी सुने बिना ही फ़ोन रख दिया।
पैसे चुकाकर वे दोनों तेजी से इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते हुए बस में चढ़ गए।
बस में बहुत भीड़ थी और बहुत तेज आवाज में कोई रोमांटिक गाना बज रहा था।

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- काकी...यह संजय हमें गाने नहीं सुनने देता।
संजय हाथ में छोटा सा रेडियोसैट लेकर आगे भाग रहा था और बबली उसके पीछे थी। सोमवती उनके बीच में आ गई थी और इस पर बबली सकपका कर रुक गई थी। संजय हाथ में रेडियो लहराता हुआ विजयी भाव से मुस्कुरा रहा था। आँगन में ही सरिता खाट पर बैठी बहुत देर से उनका दौड़-भाग का खेल देख रही थी।
बबली के यह कहने पर सोमवती ने आँखें तरेरकर संजय की ओर देखा। संजय भी तुरंत अपनी मुस्कान को दबाकर गंभीर बनकर खड़ा हो गया।
- माँ, मुझे मैच सुनना है आज। ये दोनों पता नहीं सारे दिन वही गाने-वाने सुनती रहती हैं।
कहकर उसने मुस्कुराती आँखों से बबली की ओर देखा। वह इस हार के कारण उसे खा जाने वाली निगाहों से देख रही थी।
- चुपचाप इन्हें दे दे रेडियो...तू तो कहीं भी जाकर सुन सकता है।
सोमवती ने उसे डाँटते हुए कहा लेकिन वह माँ की फटकार सुनकर रुका ही नहीं, तेजी से बाहर चला गया। पीछे से सोमवती चिल्लाती रही और बबली हताश भाव से वहीं खड़ी उसे जाते हुए देखती रही। सरिता यह सब देखकर चुपचाप मुस्कुराती रही।
- कोई बात नहीं। आने दे, इसे मैं बताऊँगी आज।
सोमवती ने बबली का गाल थपथपाया और फिर से अपनी गायों की ओर बढ़ गई, जो उसकी राह देख रही थीं।
बबली भी सरिता के पास खाट पर जाकर बैठ गई।
- अब झूठ-मूठ ही दुखी होकर मत दिखा। मैं जानती हूँ कि अगर रेडियो तुझे मिल भी जाता तो तू उसे ही देती।
सरिता ने अपनी उसी मुस्कान के साथ कहा तो बबली के गाल शर्म से लाल हो गए। वह शरमाती थी तो सामने वाला उसके चेहरे का रंग देखकर साफ जान सकता था।
कुछ देर तक दोनों सहेलियाँ चुप बैठी रहीं। फिर बबली ने ही चुप्पी तोड़ी।
- तू सब जानती है तो बताती क्यों नहीं कि मैं क्या करूँ?
सरिता कुछ क्षण तक उसे देखती रही और फिर ठठाकर हँस पड़ी।
- तेरी हालत देखकर बहुत हँसी आती है मुझे...
- चल, मैं जाती हूँ फिर। तू यहाँ बैठकर मुझ पर हँसती रहना।
कहकर बबली चलने लगी तो सरिता ने उसका हाथ पकड़कर उसे फिर से बैठा लिया। अब उसने अपनी हँसी पर नियंत्रण कर लिया था।
- तो तू मेरे प्यारे से भाई को चाहने लगी है?
बबली के गाल फिर लाल होने लगे थे। वह कुछ नहीं बोली।
बबली ने उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों सहेलियों की आँखों में एक-दूसरी के प्रति विश्वास था।
लेकिन जिस पतंग की डोर हाथ से छूट चुकी हो, उसका कोई क्या कर सकता है?


- कहूँ उससे?
बबली फिर कुछ नहीं बोली।
- अब अगर यूँ ही चुप रहेगी तो मैं कुछ नहीं करने वाली। कल को तू तो मुकर जाएगी और फँसूंगी मैं...
- तुझे सब पता तो है।
- तो तू घर जा। शाम को आ जाना, शायद तुझे कोई अच्छी खबर मिल जाए।
कुछ सोचकर सरिता ने कहा तो बबली तुरंत उठकर चल दी।
- सुन...
बबली मुड़कर लौट आई। सरिता गंभीर हो गई थी।
- मुझे पता है कि प्यार कोई अपराध नहीं है। गाँव, जाति, दुनिया चाहे कितने भी नियम बनाए और तोड़ने वालों को चाहे कितना भी बुरा बताए।
बबली ने उसकी बातों में कुछ निष्कर्ष तलाशना चाहा, लेकिन असफल रही।
- लेकिन ये भी सच है कि तेरा परिवार, हमारे परिवार से बहुत ऊँचा है। कल को कुछ होनी-अनहोनी हुई तो हमारे साथ ही होगी।
बबली प्रश्नवाचक नेत्रों से उसे देखती रही।
- हँसी-मजाक की बात और है। अगर अब भी वापस लौट सकती है तो लौट आ। मुझे डर लगता है...
बबली ने उसका हाथ पकड़ लिया। दोनों सहेलियों की आँखों में एक-दूसरी के प्रति विश्वास था।
लेकिन जिस पतंग की डोर हाथ से छूट चुकी हो, उसका कोई क्या कर सकता है?



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बस में चढ़ते समय बबली आगे थी और संजय पीछे। बबली ने आगे बढ़ने से पहले पूरी बस में नजर दौड़ाई। उसे डर था कि कोई ‘अपना’ न दिख जाए। कोई नहीं दिखा तो उसने पीछे खड़े संजय को हाथ से हल्का सा इशारा किया।
सबसे पीछे की सीट पर बैठने की थोड़ी जगह थी। वे सबसे बचते हुए से वहीं जाकर बैठ गए। अगली ही सीट पर एक आदमी बैठा था, जिसने मुँह पर एक साफा लपेट रखा था। बैठने के बाद संजय का ध्यान उसकी तरफ गया। उसने पहले से डरी हुई बबली का हाथ छुआ। बबली ने तुरंत उसकी ओर देखा तो उसने आँखों से अगली सीट की ओर इशारा कर दिया। बबली ने संदेह से उसे देखा, लेकिन उसकी केवल आँखें ही दिखाई दे रही थीं। वह उसका चेहरा नहीं देख सकती थी। डर से उसने संजय का हाथ कसकर पकड़ लिया। अब भी उन दोनों का पूरा शरीर पसीने में भीगा हुआ था। बबली ने दूसरे हाथ से अपना दुपट्टा अब सिर और चेहरे पर ढक लिया, जिससे कोई उसे भी पहचान न सके। संजय के मन में आया कि अभी इस बस से भी उतर जाना चाहिए। उसे दुनिया के सब छिपे-ढके चेहरे संदेहास्पद और डरावने लगने लगे थे। बीस मिनट पहले जिस बस में वे जा रहे थे, उसमें भी अगली सीट पर बबली का ताऊ इसी तरह मुँह लपेटकर बैठा था। बबली ने उसे फिर भी पहचान लिया था। उस समय उनके साथ एक पुलिसवाला भी था। वे उसे कहकर तभी बस में से उतर गए थे। उसका ताऊ भी उनके पीछे ही उतरकर कहीं गायब हो गया था, उसी तरह, जैसे कुछ मिनट बाद पुलिसवाला भी बिना कुछ कहे गायब हो गया था।
अब तो कोई सुरक्षा भी नहीं है, इस ख़याल के मन में आते ही संजय भीतर तक काँप गया। उसने बबली का हाथ और भी कसकर पकड़ लिया। उसने बबली के रूखे हो चुके वेदना भरे चेहरे की ओर देखा। वह अगली सीट के आदमी का चेहरा देखने की ही कोशिश कर रही थी और साथ ही यह कोशिश भी कि वह उसे न देख सके।
संजय की आँखों के सामने पन्द्रह दिन पहले की हँसती-खिलखिलाती बबली की तस्वीर घूम गई। उसने फिर से उसे देखा।
- कितनी डरी रहती है यह हर वक़्त...हर इंसान पर शक करती है। मेरी वजह से भोली-भाली बबली कैसी हो गई है? हर पल यह लगता रहता है कि कहीं से कोई आएगा और हमें मार जाएगा।
उसके दिल में बबली के लिए असीम स्नेह उमड़ आया और साथ ही दुनिया के लिए क्षोभ भी, अपने लिए विवशता भी।
दुख आता है तो आँखें रोती हैं और डर आता है तो काँपती रहती हैं। संजय की काँपती हुई दो आँखों ने रोना चाहा, लेकिन उसने स्वयं पर नियंत्रण कर लिया।
बबली के दिल में एक हूक सी उठी। उसे लगा कि जैसे संजय ने भविष्य में झाँककर देख लिया था। उसने कुछ पल के लिए चेहरे पर ढके दुपट्टे से आँखों को भी ढक लिया। संजय ने जानबूझ कर उसकी ओर से दृष्टि हटाकर बाहर की ओर कर ली। उसे लगा कि वह एक और पल भी उसे देखता रहा तो वह फूट-फूटकर रोने लगेगी।

अब अगली सीट के आदमी ने गर्मी से तंग आकर अपने चेहरे पर लपेटा हुआ साफा उतार दिया था। कोई अनजान आदमी था। बबली ने बहुत दिन बाद एक क्षण की हल्की सी खुशी पाई। वह संजय की ओर देखकर हल्के से मुस्कुराई। संजय उसके ढके हुए चेहरे के पीछे की मुस्कान को नहीं देख पाया। उत्तर में वह फटी-फटी सी आँखों से उसे देखता रहा। बबली की मुस्कुराहट वर्तमान की डरी हुई आँखों को देखकर अगले ही क्षण विलुप्त भी हो गई।
- बबली...तू अगले जन्म में भी जरूर मिलना।
वह बहुत धीरे से बोला। बस में बहुत शोर था, लेकिन बबली उसके होठों को देखकर ही उसकी बात समझ गई या शायद बिना होठों को भी देखे।
बबली के दिल में एक हूक सी उठी। उसे लगा कि जैसे संजय ने भविष्य में झाँककर देख लिया था। उसने कुछ पल के लिए चेहरे पर ढके दुपट्टे से आँखों को भी ढक लिया। संजय ने जानबूझ कर उसकी ओर से दृष्टि हटाकर बाहर की ओर कर ली। उसे लगा कि वह एक और पल भी उसे देखता रहा तो वह फूट-फूटकर रोने लगेगी। उसकी अपनी आँखें भी भर आईं थीं।
बस चल पड़ी।


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खेतों के बीच में बनी हुई संकरी सी पगडंडी पर बबली दौड़ी चली आई थी। छुटपुटा सा होने लगा था और खेतों से ज्यादातर लोग अपने घरों को जा चुके थे। एक आम के पेड़ के नीचे पहुँचकर वह रुक गई। उसने चारों तरफ देखा तो कोई नहीं दिखा। वह दो-तीन मिनट वहीं बेचैन सी होकर खड़ी रही। दौड़कर आते हुए उसके चेहरे पर जो उत्साह था, वह मन्द पड़ गया था। वह मुँह लटकाकर जैसे ही लौटने के लिए मुड़ी, किसी ने पीछे से उसकी आँखों पर हाथ रख लिए। उसके चेहरे की मुस्कुराहट एक क्षण में ही लौट आई।
- पहचान?
- मुझे नहीं पता। होगा कोई चोर डाकू।
अब तक उसका चेहरा पूरा खिल गया था। संजय ने आँखों से हाथ हटा लिए। हाथ हटाते ही वह मुड़कर उसकी बाँहों में समा गई।
- कोई देख लेगा तो?
- तू भी कभी अच्छा ना बोला कर।
बबली का चेहरा उसके सीने को छू रहा था।
- तू फिर भूल गया।
वह उसकी बाँहों के घेरे से बाहर आते हुए बोली।
- क्या?
- आज मेरा जन्मदिन है और तू मेरे लिए कुछ नहीं लाया।
- पगली, ये सब शहर वालों के चोंचले होते हैं।
वह मुस्कुराते हुए बोला तो बबली अपने चेहरे पर झूठमूठ का गुस्सा ले आई और वहीं नीचे पालथी मारकर बैठ गई। कुछ क्षण वह नहीं बोली और संजय भी मुस्कुराता हुआ उसे देखता रहा।
- बोलेगी नहीं?
उसने चेहरे का गुस्सा बनाए रखा और और दो बार इनकार में गर्दन हिला दी।
- कैसे मानेगी?
संजय उसके सामने घुटनों पर झुककर बैठ गया। बबली ने एक बार प्यार भरे गुस्से से उसे देखा और चुप रही।
- ऐसे मान जाएगी?
कहकर संजय ने उसके लाल हुए गालों को चूम लिया। उसके गाल शर्म से और भी लाल हो गए। उसने मुस्कुराते हुए धीमे से संजय की हथेली चूम ली। संजय भी पालथी मारकर बैठ गया था। जमीन पर जैसे आमों के पत्तों का बिछौना बिछा हुआ था और झींगुरों की हल्की-हल्की आवाज के बीच आमों की खुशबू एक आनंददायी सा रहस्य रच रही थी।
- मुझे पता था कि आज तेरा जन्मदिन है।
संजय ने जेब से एक अंगूठी निकालते हुए कहा। उसने बबली की उंगली में वह पहना भी दी। उस दौरान बबली की आँखें बन्द हो गईं।
- मेरे लिए इतनी महंगी चीजें मत लाया कर।
कुछ क्षण बाद आँखें खोलते हुए वह बोली। अब वह प्यार से अंगूठी को ही देख रही थी।
- सरिता ने कहा था मुझसे तो...नहीं तो मैं थोड़े ही लाने वाला था तेरे लिए।
वह उसे चिढ़ाने के लिए बोला।
कहकर संजय ने उसके लाल हुए गालों को चूम लिया। उसके गाल शर्म से और भी लाल हो गए। उसने मुस्कुराते हुए धीमे से संजय की हथेली चूम ली। संजय भी पालथी मारकर बैठ गया था। जमीन पर जैसे आमों के पत्तों का बिछौना बिछा हुआ था और झींगुरों की हल्की-हल्की आवाज के बीच आमों की खुशबू एक आनंददायी सा रहस्य रच रही थी।

- अच्छा, मैं भी तो कहूँ, तुझे याद कैसे रहा! इस सरिता की बच्ची ने बताया तुझे।
- मेरी बहन को कुछ नहीं कहेगी।
संजय भी अपने चेहरे पर दिखावे का क्रोध ले आया था।
- मैं तो अपनी सहेली को कह रही हूँ, जिसके घर जाने का बहाना बनाकर मैं यहाँ आई हूं। अब वह तेरी बहन भी है तो मैं क्या करूँ?
बबली जानबूझकर लापरवाही से बोली और फिर संजय की बनावटी मुखमुद्रा देखकर एकदम से खिलखिला पड़ी। संजय उसे हँसते हुए देखता रहा।
जब उसकी हँसी थमी तो बोला- तू हँसती हुई और भी सुन्दर लगती है।
- और...
- और क्या...तू क्या सोच रही है कि अब मैं तेरी तारीफ़ ही करता रहूँगा?
- तू प्यार करता है ना मुझसे?
वह अचानक ही गंभीर हो गई थी।
- अब जान निकाल कर दे दूँगा, तभी सच्चा मानेगी मुझे?
- मुझे पता है कि तू सच्चा है पर कभी-कभी बहुत डर लगता है।
- डर क्यों?
- आगे क्या होगा? साल-दो साल बाद घरवाले मेरा ब्याह कर देंगे और तू क्या कर पाएगा?
- इतना ही भरोसा है मुझ पर?
- बात भरोसे की नहीं है संजय। पूरे गाँव में कोई भी हमें सही नहीं बताएगा। फिर मेरी माँ और भाई तो गुस्से में पागल ही हो जाएँगे, अगर उन्हें कुछ भी पता चल गया।
वह अब धीमी आवाज में बोल रही थी और एक तिनका उठाकर उससे जमीन कुरेदने लगी थी।
- तो क्या सबके गलत बताने से हम गलत हो जाएँगे?
- दुनिया ये सब नहीं सोचती संजय...मैं तो सोचकर ही डरती हूँ कि मेरा भाई क्या करेगा?
- तू डर मत बबली। हम यहाँ से भागकर कहीं दूर चले जाएँगे।
कहकर उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और देर तक उसे समझाता रहा। लेकिन बबली के रूआब वाले परिवार और पूरे गाँव का डर उसके भीतर भी बैठता चला गया था।


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बस ने गति पकड़ ली थी। संजय भरी-भरी आँखों से बाहर के लहलहाते खेतों को ही देख रहा था। उन्हें देख उसे ऐसा लगने लगा था, जैसे सारी दुनिया बहुत खुश है और उन दोनों की दुनिया ही बंजर कर दी गई है। उसके मन में सबके प्रति पल रही वितृष्णा इससे और बढ़ गई। उसने अपना चेहरा बाहर की समृद्धि से हटाकर अन्दर की भीड़ की ओर ही कर लिया, ताकि वह स्वयं को कुछ क्षण के लिए खो सके। लेकिन बबली की उदासी में डूबी आँखें जब उसकी आँखों से फिर मिली तो सारी भीड़ जैसे फिर गुम हो गई और वह बहुत अकेला पड़ गया। उसने एक गहरी साँस ली और गर्दन झुकाकर एक हाथ से चेहरा ढाँपकर बैठ गया। दोनों ने एक दूसरे का हाथ अब भी कसकर पकड़ रखा था। दोनों के हाथ भी पसीजने लगे थे, जैसे आँसू आँखों से न बह पाए तो हाथों से बहने लगे हों।
और बबली डर से भागने के लिए अनजाने में ही बचपन की यादों में खो गई थी।
गाँव का सबसे बड़ा घर था उनका। हालाँकि पिताजी तभी गुजर गए थे, जब वह बहुत छोटी थी। लेकिन ताऊजी गाँव के सरपंच थे और संयुक्त परिवार में पिता की कमी भी उन्होंने पूरी कर दी थी। वह परिवार की इकलौती लड़की थी, इसलिए उसे लाड़-दुलार भी सबसे अधिक मिला। तीन साल बड़ा एक भाई था – राजबीर।
- कोई भी भाई अपनी छोटी बहन को जितना प्यार करता है, उतना तो उसे भी था।
यह बात उसके दिल में बहुत जोर से गूँजी।
भाई की याद आते ही उसके मन में बहुत सारे दृश्य फ़िल्म की रील की तरह क्रम से दौड़ गए – उसे गोद में उठाकर गाँव भर में घुमाता भाई, साइकिल पर उसे पीछे बिठाकर खेत में जाता हुआ भाई, उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए घर में सबसे लड़ता हुआ भाई, रात को देर से लौटने पर उसके सामने बैठकर सबसे चोरी-छिपे खाना खाता भाई......
और दस दिन पहले फ़ोन पर उसे गालियाँ सुनाता भाई!
- कोई भी भाई अपनी बहन को वह सब कैसे कह सकता है, जो उस दिन राजबीर ने कहा। वह मुझे मारना चाहता है और इसे भी, जिससे मैं प्यार करती हूँ। सब गुस्सा हैं, यह तो ठीक है मगर एक भाई अपनी छोटी बहन को मार भी सकता है?
अब वह डर नहीं रही थी। इस ख़याल से उसके दिल में बहुत तेज दर्द सा उठा और इस बार वह आँसुओं को आँखों में जकड़कर नहीं रख पाई। उस क्षण उसे लगा कि अब उसका जीवन ही निरर्थक है, जब उसका अपना भाई उसे मारना चाहता है। लेकिन ज़िन्दगी सच में बहुत बेशर्म होती है। अगले ही क्षण जान का भय उस पर फिर हावी होने लगा।
- हम बहुत दूर चले जाते हैं संजय।
उसने दूसरे हाथ भी संजय के हाथ पर रखते हुए कहा। पिछले पन्द्रह दिन में वे दोनों यह बात कम से कम सौ बार तो एक-दूसरे से या स्वयं से, कह ही चुके थे।
संजय ने सिर उठाकर उसे देखा। वह भी शायद शोरगुल में उसके सब शब्द नहीं सुन पाया था, लेकिन उसकी आँखें पढ़कर समझ गया। वह जबरदस्ती हल्का सा मुस्कुराया। बबली के मन में हल्की सी आस जगाने के लिए वह बहुत प्रयास से मुस्कान चेहरे पर ला पाया था। लेकिन बबली वैसे ही बैठी रही, कुछ भयभीत और बहुत टूटी हुई।
तभी बस एकदम से तेज आवाज के साथ झटका खाकर रुक गई। बहुत से लोगों के सिर अगली सीट से टकरा गए। कई लोग गिरते-गिरते बचे। अगली सीट पर बैठे उसी साफे वाले आदमी ने जोर से ड्राइवर को एक भद्दी गाली दी। क्या हुआ, क्या हुआ की फुसफुसाहटों के बीच कई लोग खड़े हो-होकर आगे देखने की कोशिश करने लगे। संजय ने भी खड़े होकर देखा और वह डूबता चला गया।


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उस दिन सूरज डूबने का नाम ही नहीं ले रहा था। वैसे भी जब जिस बात का इंतज़ार हो, वह मुश्किल से ही होती है। बबली को लग रहा था कि जैसे रात आएगी ही नहीं। लेकिन नियम की पक्की रात आ ही गई। उस दिन अमावस थी और वह दिन बहुत सोच-समझ कर तय किया गया था।
सबके सोने के बाद बबली चुपके से उठकर घर से बाहर निकल आई थी। उनका घर गाँव के बिल्कुल बाहर की तरफ था, जिसके बाद इक्का-दुक्का ही घर थे और फिर खेत शुरु हो जाते थे। उसी जगह झाड़ियों के बीच एक मोटर साइकिल छिपाकर रखी हुई थी और उसके पीछे संजय छिपकर बैठा था। हर तरफ घुप्प अँधेरा था। बबली झाड़ियों तक पहुँची तो संजय एकदम से बाहर निकल आया। बबली तेजी से उससे चिपट गई।
- अब जल्दी कर। तू कुछ भी नहीं लाई अपने साथ?
संजय ने उसे धीरे से खुद से अलग करते हुए फुसफुसाकर कहा।
- मैंने कुछ कपड़े रखे थे, पर सब सामान अन्दर था और उसे लेने जाती तो किसी की भी आँख खुल सकती थी।
बबली ने भी फुसफुसाकर उत्तर दिया।
संजय ने जल्दी से झाड़ियों से मोटर-साइकिल बाहर निकाल ली। मोटर-साइकिल स्टार्ट होने पर बाद बबली पीछे बैठ गई। उसने अपने घर की ओर स्नेह भरी नज़रों से देखा, लेकिन अँधेरे में कुछ देख नहीं पाई। मोटर-साइकिल तेज गति से गाँव से बाहर की तरफ निकल गई।
जैसे दीवारों के कान होते हैं, उसी तरह अँधेरे की बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं। राजबीर का एक दोस्त रात को अपने खेत में पानी लगाकर घर लौट रहा था। तेज गति से जाती मोटर-साइकिल उसे लगभग छूते हुए ही निकल गई। वह गिरता-गिरता बचा। अँधेरे में वह बबली का चेहरा तो नहीं देख पाया, लेकिन संजय को पहचान गया।
अगली सुबह जब बबली के लापता होने की खबर फैली तो उस दोस्त का शक सबसे पहले संजय पर ही गया। उसने तुरंत जाकर राजबीर को बताया कि कल रात उसने संजय के पीछे एक लड़की को बैठकर जाते देखा था। राजबीर का खून खौल उठा। गुस्से में वह संजय के घर अकेला ही पहुँच गया। वहाँ केवल सोमवती और सरिता ही थीं। वे दोनों संजय को निर्दोष बताती रहीं।
- बेटा, वह तो कल चंडीगढ़ गया है। अकेला ही गया है...किसी ने तुझे भरमा दिया है।
सोमवती अपने स्वर में अतिरिक्त स्नेह घोलते हुए बोली तो राजबीर का गुस्सा और भी बढ़ गया।
- देख बुढ़िया, अगर ये बात सच निकली ना...तो मैं तेरे पूरे परिवार को यहीं ख़त्म कर दूँगा...और ये एक जाट की कही हुई बात है, झूठी नहीं होगी।
उसकी आँखें गुस्से से लाल हो रही थीं और उसका पूरा शरीर काँप रहा था।
भय के मारे सोमवती कुछ नहीं बोली। बात जाति की थी तो जाट तो उसका बेटा भी था, लेकिन कमजोर का न कोई धर्म होता है और न ही जाति।
वह गुस्से में बहुत कुछ कहकर लौट गया। उस दिन दोनों घरों में चूल्हा नहीं जला। एक घर में बेटी ने शर्म से नाक नीची करवा दी थी और दूसरे घर में संभावित अनहोनी की आँधी ने चूल्हा बुझा दिया था। उस रात दोनों माँ बेटी सोई नहीं, बस मनौतियाँ ही माँगती रही। बबली की माँ भी अकेली पड़ी रात भर रोती रही और मनौतियाँ ही माँगती रही। तीनों स्त्रियों की सब मनौतियाँ उन दोनों प्रेमियों के लिए ही थीं।
संजय के पिता फौज में थे, जो करगिल की लड़ाई में शहीद हो गए थे। गाँव के इकलौते स्कूल का नाम उनके नाम पर ही था। लेकिन बात जाति के सम्मान की आई तो सब बलिदान और इज्जत भुलाने में सिर्फ़ एक दिन लगा।
अगले दिन पंचायत हुई। सोमवती को भी बुलाया गया।
- साली...तेरे छोरे की इतनी हिम्मत कैसे हुई?
सरपंच ने बात इसी वाक्य से शुरु की। वह कुछ नहीं बोली। पूरी सभा के दौरान उसे और उसके बेटे को बहुत बुरा-बुरा कहा गया। वह नि:सहाय औरत चुपचाप सिर झुकाए सब कुछ सुनती रही। उसका पक्ष पूछा भी नहीं गया और यदि पूछा भी जाता तो वह कुछ न बोलती।
एक घंटे बाद गुस्से से तने हुए बबली के ताऊ ने फैसला सुनाया।
अदालत से सिपाही के साथ लौटते हुए बबली के दिमाग में एक ख़याल आया।
-मुझे खतरा किससे है? अपने भाई से बचने के लिए मैं पुलिस की मदद माँग रही हूँ।
क्या आज तक की सब राखियाँ उसने इसीलिए बंधवाई थी कि वक़्त पड़ने पर मुझे मार सके?
वेदना के मारे बबली जोर से चिल्ला पड़ी थी।

- रामपाल की विधवा सोमवती के बेटे संजय ने गाँव की और अपने ही गोत की लड़की पर बुरी नज़र डाली है और उसका अपहरण कर लिया है। पंचायत इस अपराध की फौरी सज़ा के तौर पर सोमवती के परिवार को जाति से बेदखल करती है। उसे पचास हज़ार रुपए जुर्माना भरना होगा। जो भी आदमी इस परिवार से सम्पर्क रखेगा, उसे भी यही सज़ा दी जाएगी। कोई दुकानदार इस परिवार को सामान नहीं बेचेगा, कोई डाक्टर इनका इलाज़ नहीं करेगा। यदि संजय पंचायत के सामने पेश हो जाता है तो फिर उसकी सज़ा भी पंचायत ही तय करेगी।
बबली के ताऊ के लिए यह सज़ा बहुत छोटी थी। असल सज़ा तो उन्होंने पहले दिन ही तय कर ली थी। उन दोनों की खोज जारी रही। दो दिन बाद संजय का मोबाइल नम्बर राजबीर को मिल गया। उसने फ़ोन करके अपनी बहन को चेता दिया था कि वह ज्यादा दिनों तक जीने वाली नहीं है। जाति का सम्मान, लाड़ से पाली गई छोटी बहन से अधिक आवश्यक था।
मौत की धमकी मिलने के अगले ही दिन उन्होंने अदालत के सामने सुरक्षा की गुहार लगा दी। उन दोनों को सुरक्षा के लिए एक सिपाही भी मिल गया।
अदालत से सिपाही के साथ लौटते हुए बबली के दिमाग में एक ख़याल आया।
-मुझे खतरा किससे है? अपने भाई से बचने के लिए मैं पुलिस की मदद माँग रही हूँ।
क्या आज तक की सब राखियाँ उसने इसीलिए बंधवाई थी कि वक़्त पड़ने पर मुझे मार सके?
वेदना के मारे बबली जोर से चिल्ला पड़ी थी।


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बस के ठीक आगे सड़क के बीचों बीच एक लाल रंग की स्कॉर्पियो खड़ी थी। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तीन आदमी तेजी से बस में चढ़ गए थे। एक की उम्र पचास के कुछ ऊपर थी, दूसरा उससे कोई सात-आठ साल छोटा था और तीसरा तेईस-चौबीस साल का हट्टा-कट्टा नवयुवक था। बस के कंडक्टर ने तेज आवाज में आपत्ति जताई तो सबसे आगे चल रहे उस नवयुवक ने उसके मुँह पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। एक क्षण में ही बस में शांति छा गई। सब लोग अपनी सीटों पर बैठ गए। केवल हतप्रभ सा संजय अपनी जगह पर खड़ा रहा। उसने स्वयं को छिपाने की भी कोशिश नहीं की। बबली दुपट्टे से चेहरा ढककर बैठी थी। वह वैसे ही बैठी फटी-फटी आँखों से उन्हें अपनी ओर आते देखती रही।
आगे चल रहे राजबीर ने संजय को गाली दी और उसके मुँह पर थप्पड़-घूंसों की बरसात शुरु कर दी।
- बहन**, मैं आज बताता हूं तुझे। तेरा वो हाल करूँगा कि पूरा गाँव याद रखेगा।
संजय ने बचाव में हाथ-पैर चलाए, लेकिन राजबीर उससे कहीं ज्यादा ताकतवर था। वह उसे गालियाँ देता जा रहा था और मारता जा रहा था। बबली के ताऊ ने आगे बढ़कर बबली को बालों से पकड़ लिया था। वह दर्द से चिल्लाई तो एक तमाचा उसे भी पड़ा। आस-पास के यात्री सहम कर दूर हट गए थे। बस में राजबीर की गालियाँ और बबली के रोने के अलावा कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। बीच-बीच में राजबीर के थप्पड़ों की आवाज गूंजती रही। हर थप्पड़ के बाद संजय के कराहने की आवाज भी आती थी।
- चल, बाहर ले आ।
कुछ मिनट बाद पीछे खड़े आदमी ने राजबीर की पीठ पर हल्का सा हाथ रखते हुए कहा।
राजबीर रुका और उसने एक गुस्से भरी नज़र अपनी बहन पर डाली। बबली की आँखों में आँसुओं के साथ अनुनय भी था। उसकी आँखें भाई के सामने गिड़गिड़ा रही थीं, अपने प्रेम के लिए भीख माँगती हुई। कुछ क्षण राजबीर उसे देखता रहा, लेकिन फिर गुस्से से नजरें फेर लीं।
वह संजय की शर्ट का कॉलर पकड़कर उसे बस से बाहर घसीट लाया। पीछे-पीछे बबली भी लगभग इसी तरह खींचकर बाहर लाई गई। चुप बैठे बाकी यात्री इस तमाशे को देखते रहे। दोनों को घसीट कर आगे खड़ी गाड़ी में ले जाकर डाल दिया गया। वे तीनों भी गाड़ी में बैठ गए थे। स्कॉर्पियो जिधर से आई थी, फर्राटे से उधर ही लौट गई।
खचाखच भरी हुई हरियाणा रोडवेज़ की वह बस भी दो मिनट बाद वहाँ से चल पड़ी। सड़क के किनारे धूप में खड़ा एक कुत्ता बहुत देर तक भौंकता रहा।

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दोनों प्रेमियों को, जो एक आर्यसमाज मन्दिर में शादी भी कर चुके थे, आधे घण्टे बाद खेतों के बीच एक ट्यूबवैल पर बने कमरे पर लाया गया। दोनों की रास्ते भर पिटाई की गई थी और दोनों के गालों पर असंख्य उंगलियों के निशान इसकी गवाही दे रहे थे। संजय की शर्ट के सब बटन इस मार-पीट में टूट चुके थे और एक बाजू भी फट गई थी। बबली के बाल खुलकर बिखर गए थे और लगातार रो-रोकर उसकी आँखें लाल हो चुकी थीं।
लेकिन तीनों आदमियों का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था। समाज और जाति की मर्यादा तोड़ने की सज़ा छोटी तो नहीं हो सकती थी।
उस छोटे से कमरे में ही ट्यूबवैल का कुँआ भी था। उसके पास ही उन्हें जमीन पर डालकर राजबीर और उसका ताऊ वहीं खड़े हो गए। दोनों के भीतर कई दिन का गुस्सा भरा हुआ था, जो उनकी लाल हुई आँखों में स्पष्ट नजर आ रहा था। तीसरा आदमी बाहर खड़ा था।
बबली और संजय अपने में ही सिकुड़कर बैठ गए और असहाय से होकर उनके अगले वार की प्रतीक्षा करने लगे। बबली रोती-रोती थक चुकी थी या शायद अब यह सब देखकर बेशर्म ज़िन्दगी को बचाने की चाह ख़त्म होने लगी थी, इसलिए वह चुप थी। थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप खड़े रहे। फिर उसका ताऊ ही बबली से मुख़ातिब होकर एक एक शब्द पर जोर देकर बोला- तुझे तो कुछ शरम है नहीं। गाँव का लड़का भाई होता है। राखी बाँधेगी इसे?
बबली चुप बैठी एकटक उसे देखती रही, जिसे वह अब तक राखी बाँधती आई थी।
- राखी बाँधेगी इसे?
अबके राजबीर ने चिल्लाकर पूछा और जोर से उसकी कमर में लात मारी। इस तेज वार से चोट खाकर वह कराहती हुई एक तरफ गिर पड़ी। संजय उसे उठाने के लिए झुकने लगा तो अगली लात उसके पेट पर पड़ी। वह दूसरी ओर गिर पड़ा।
- राखी बाँधेगी इसे?
वह और जोर से चिल्लाकर बोला तो कमरे के रोशनदान में बैठा एक कबूतर पंख फड़फड़ाता हुआ बाहर उड़ गया।
- नहीं। हम दोनों शादी कर चुके हैं।
वह धीमे स्वर में बोल पाई, लेकिन उसके स्वर में दृढ़ता थी।
यह सुनते ही राजबीर ने उसे दो लातें और जमा दीं। वह पड़ी-पड़ी सुबकने लगी।
छत से बंधी दो रस्सियों से संजय के पैर बाँधकर उसे उल्टा लटका दिया गया और राजबीर और उसका ताऊ लाठियों से उसे बहुत देर तक मारते रहे। बबली सिर झुकाकर बैठी रही और उसकी चीख-पुकार सुनती रही। वह एक बार भी गिड़गिड़ाई नहीं और न ही उसने एक बार भी सिर उठाकर देखा।
संजय भी उसे बहन कहने को तैयार नहीं हुआ। करीब आधे घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया।
बबली रोई नहीं, वह पत्थर बनी बैठी थी। बाहर खड़ा आदमी एक पेस्टीसाइड की थैली ले आया। दो ने बबली का मुँह खुलवाया और भाई ने बहन के हलक में एक मुट्ठी जहर उड़ेल दिया। मरते-मरते उसने आखिरी बार भाई की ओर देखा। उसकी आँखों में असंख्य अनुत्तरित प्रश्न थे।
लाशों को ट्यूबवैल के कुँए में डाल दिया गया।

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लाश मिलने के अगले दिन स्थानीय अख़बारों में जिला जाट महासभा की एक विज्ञप्ति छपी।
लिखा था- मृतक लड़के और लड़की ने ऐसा काम किया था, जिसने जाति का सिर शर्म से झुका दिया। जाति की मर्यादा भंग करके और अपने ही गोत्र में शादी करने जैसा कुकृत्य करके उन्होंने ऐसा पाप किया, जिसने उन्हें मारने वाले व्यक्तियों को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया।
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एक और बात:-

उनकी लाश मिलने के अगले दिन सोमवती अपने पुत्र की अस्थियाँ रखने के लिए मटकी ढूंढ़ती हुई गाँव भर में पागलों की तरह घूमती रही, लेकिन पंचायत के आदेश के चलते उसे किसी कुम्हार ने मटकी नहीं दी।
हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार उन दोनों की आत्मा को कभी शांति नहीं मिली।
और हाँ, बबली का पूरा चेहरा गहरा लाल था। मरने के बाद शायद इंसान होने की शर्म उसके चेहरे से बोल रही थी।




यह कहानी लिखते समय लेखक का मंतव्य कहानी कहने का नहीं, अपितु केवल सत्य कहने का ही था। यह कहानी, लेखक की ओर से नायक और नायिका को श्रद्धांजलि है। लेकिन कहानी लिखने के लिए बहुत से स्थानों पर लेखक को सत्य का अतिक्रमण कर कल्पना से सत्य का अनुमान लगाना पड़ा। ऐसे किसी भी स्थल पर यदि लेखक का कथ्य या प्रस्तुतिकरण किसी को आहत करता हो, तो लेखक उसके लिए हृदय से क्षमाप्रार्थी है।

Sunday, September 9, 2007

केवल एक घटना

मनजीत कौर के आँखों के पपोटे चट-चट चटख़ने लगे हैं। पलकों मे जैसे मुट्ठी भर सुलगती हुई राख भर गयी हैं। पुतलियों मे कीलें ठुक गयी हैं।

पिछवाड़े का अहाता, कोठा, आंगन, दुबारी, गाय के चारे की खोर, नीम का पेड़ और दरवाज़े की कुइआं--पूरे माहौल मे एक दमघोंटु सन्नाटा पसर कर बैठ गया है। यही सन्नाटा मनजीत के शरीर के हर हिस्से मे घुसकर सांय-सांय करके फनफनाता रहता है और दिल-दिमाग़ तो उसके शरीर का हिस्सा रहा ही नहीं।

बीजी अब आंगन मे मंझी डालकर अकेले बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। बैठे-बैठे आँखें कभी नीम की फुनगी पर अटक कर रह जाती हैं और कभी चौबीसों घंटे बंद रहने वाले दरवाज़ों की झिरियों मे।

हिलकी बंध जाती हैं-बेआवाज़।

हरबंस-उसकी ननद - के सत्तरह साला लुनाई भरे मखनी चेहरे पर दहशत की काली-कुट्ट स्याही घिर आई है। आंखों के नीचे स्याह घेरे ऐसे चिपकते जा रहे हैं, जैसे ठंडे हो गये चूल्हे की काली राख लपेट दी हो।

शन्नो - मनजीत की चार साल की बेटी की चुलबुलाती कंचे सी आंखों मे कड़वा-कसैला धुआं सा भर गया है। मनजीत के घुटनों मे मुंह गढाये घंटों पड़ी रहती है शन्नो।

शन्नो को तो संभालना है ही, हरबंस की जवान होती उमंगों और बीजी की सत्तर साल की झुर्रियों को अपनी कमज़ोर पड़ती बाज़ुओं मे लपेटे, मनजीत इस कुनबे पर घुमड़ आये हादसों के बादलों को टुकुर-टुकुर देखती रहती है - निष्पलक।

मनजीत को स्याह रंग के अलावा कोई रंग नज़र नहीं आता - ना आसमान मे, ना ज़िंदगी मे।

13 जून का अखबार, ज्यों का त्यों, आंगन मे पड़ा है। लगता है, कई दिन से इस घर मे हवा फड़फड़ाई ही नहीं। आज सत्तरह है - हादसे को घटे पांच दिन। ये पांच दिन पांच सदियों की तरह उसकी पुतलियों को अपने नुकीले पंजों मे जकड़कर बैठ गये हैं।

मनजीत की निगाह अखबार की बड़ी खबर मे उलझकर रह गयी- "अखनौरी मे आतंकवादियों द्वारा हत्या की केवल एक घटना"
अखनौरी मे ही रहती है मनजीत।

हरजिंदर ने मंजी भीतर खिसका ली थी। मनजीत ने थाली लगायी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। हरबंस पूरा सा खोल भी नही पायी थी कि सनसनाती हुई तीन-चार गोलियां दरवाज़े से आयीं और लम्हा भी नहीं लगा कि हरजिंदर की क़द्दावर देह मंजी पर ही ढेर हो गयी। उसके सीने से निकले गर्म ख़ून की धार से ही गर्म चूल्हे की आग सूंSSS करके ठंडी होती चली गयी।
12 जून की वह काली कलूटी रात --हाSSय, मनजीत के कलेजे मे घुटा हुई सांस का बगुला भक्क से निकल जाता है। दबे पांव आयी थी वो रात और पांव तले की ज़मीन हिला कर बीजी के आबरुदार बुढापे, हरबंस की जवान उम्मीदों, शन्नो की चुलबुलाती शैतानियों और उस की अपनी ज़िंदगी के रंगीन अरमानों को खाक़ करके चली गयी।

हये रब्बा! रातें इस तरह चैन फूंकने की लिये आनी हैं, तो ना आयें, सिकते तपते दिन क्या कम हैं जलाने के लिये? उस रात के बाद इस आँगन मे सुबह तो हुई ही नही।

12 जून की शाम हरजिंदर घर वापस आ चुका था। दो दिन - 12 और 13 की छुट्टियां थीं, कितने ही काम सोचे हुए थे उसने, चलो जी कुछ काम तो निपट गये आज।

बीजी का माता के दरबार मे मत्था टिकाने का मन था-सो उनका जम्मु के लिये रिज़र्वेशन हो गया, हरबंस के लिये कसौली कलां गया था -मुंडा तो ठीक-ठाक है, उम्मीद है शगुन की तारीख भी छेत्ती तय हो जानी है। और हां, शन्नो के स्कूल का फ़ारम भी भर गया। बस तेरह यानि कल सवेरे रेडिओ-स्टेशन जाके गीतों का कार्यक्रम दे देना है-वोही जी अमन-चैन,प्यार-मुहब्बत और धार्मिक एकता के गीत।

ओये फुद्दु! मनजीत की तो भूल ही गया, ना-ना, कल शाम इसको पिक्चर दिखानी ही दिखानी है, ज़रूर।

पिछले साल बैसाखी से पहले गदर दिखाई थी।

मरना थोड़े है हरजिंदर को मनजीत के हाथ।

चलो जी -ठीक है

हरबंस ने मंजी डाल दी वीर जी के लिये, शन्नो कंधों पर चढ बैठी।

मनजीत भी प्याज़ के दो परांठे और लस्सी का गिलास लेकर पीढी साथ ही डाल कर बैठ गयी, इस मक्खण से तय करले कि कल कौन सी पिक्चर दिखानी है इसने।

शाम ढल गयी,सर्दियों के दिनों मे दिन होते ही छटंकी बराबर हैं। कहलो शाम, रात ही घेर घोट कर बैठ जाती है शाम से।

हरजिंदर ने मंझी भीतर खिसका ली थी। मनजीत ने थाली लगायी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। हरबंस पूरा सा खोल भी नही पायी थी कि सनसनाती हुई तीन-चार गोलियां दरवाज़े से आयीं और लम्हा भी नहीं लगा कि हरजिंदर की क़द्दावर देह मंझी पर ही ढेर हो गयी। उसके सीने से निकले गर्म ख़ून की धार से ही गर्म चूल्हे की आग सूंSSS करके ठंडी होती चली गयी।

अगले दिन उसके बिलखते दरोदीवारों को केमरों मे क़ैद करके टीवी-पेपर वाले चले गये। ना घबराने के थोथे आश्वासन देकर पुलिस वाले भी चले गयेपहले पहुंचकर वोट पक्का करने की नियत से अलग-अलग पार्टी वाले आये और चले गये।

दहशत भरी आँखों से डरता-डराता आया आस-पड़ौस भी ग़मों को बांटने की नाकाम कोशिश करके चला गया। इन खिड़की- दीवारों को सिसकते पांच दिन हो गये।

आSSS ह,मनजीत की पोर-पोर टीसने लगी है।

हरजिंदर के अमन-प्यार के गीत उसके घर की चौखट और छाती मे बबूल बो गये। लेकिन वो तो प्यार बोता फिरता था। एक बार फिर मनजीत की दृष्टि अखबारी ख़बर के आख़िरी तीन शब्दों पर ठहर गयी-- केवल एक घटना। बीजी कराह रही हैं। मनजीत उनका माथा सहलाने लगती है। उनके बूढे सपनो के पूरा होने के दिन, मक्खन और मक्की की महकती रोटी से गढा उनके छह हाथ के सोणे पुत्तर को देखकर पुलकता कलेजा और बेटे के कंधों पर जाने की आख़िरी लालसा।

केवल एक घटना -- बीजी की हिलकियां बढ गयी हैं।

मनजीत की उंगलियां हरबंस के उलझे बालों मे सरसराते हुए ठिठक जाती हैं, डाक्टर बनने की तमन्ना लिये हरबंस का बल्लियों उछलता दिल। अपने प्यारे वीर की हर तमन्ना पूरी करने की उछाह, माखन की डली सी चिकनी देह अनगिन रंगीन सपनों की शहज़ादी, सरसों के बासंती फूलों सी लहलहाती उम्र।

बेटे की जवान लाश को देखकर मां के माथे पर गहराकर डबडबा आईं झुर्रियां, बहन की रेशमी राखी और परवान चढते सपनों पर भाई के सच्चे प्यार से वलवलाते ग़र्म खून के धब्बे, ज़रा सी बिटिया के झूले पर बैठकर ऊंची उड़ान लेते बचपन पर बाप की क़द्दावर शाख का टूट गिरना और जवान औरत की अगली-पिछली साधों के फलता-फूलता देखने की उछाह पर हमजोली के प्यार के गीतों का सुर्ख़ ख़ून, यह केवल एक घटना होती है क्या?
मनजीत के पहलू मे सर छिपाये सिसकने लगती है हरबंस और मनजीत सोचती रह जाती है -- केवल एक घटना।
हरबंस की सिसकियों को रोकने का अबूझा प्रयास करती है मनजीत,"चुपकर बीबे! चुपकर"। नीम की सबसे निचली टहनी पर चढकर भी निम्बोलियां खाने का मन नहीं होता शन्नो का। गाय के थनों को मुंह लगाकर दूध का घूंट नही भर पाती अब वो। निक्की के संग इक्की-दुक्की भी अच्छी नही लगती। शन्नो के बचपन को घुन लग गया है। यह केवल एक घटना है क्या?मनजीत की आँखें डबडबा उठती हैं।

छह साल पहले ही अखनौरी की कुत्ते की टेढी दुम सी गलियां पार करके कुइंयां के पास उतरी उसकी डोली, कोठे मे हरजिंदर के संग गुप-चुप छुआ-छू, उठापटक, ठी-ठी, खी- खी, बीजी का ठाठें मारकर हंसना, लोहड़ी-बैसाखी पर इस घर के ठुमकते क़दम, प्यारी सी ननद के साथ चुहल भरी चिमगोइयां, उसकी तमन्नाओं को धार देता उसके भाई का जोश, शन्नो की पैदायश का तीखा-मीठा दर्द। दिलके सच्चे-कौल के पक्के-प्यार के गीतों के रसिया, जवान रग-पट्ठों वाले मर्द का संग, सपने, उछाह-उमंग, ख्वाबों के उड़नखटोले-और--और---और चार चार ज़िंदगियों को डंसता वीरान सन्नाटा, मासूमों के नाम आतंक का खूनी तोहफ़ा, गीतों को गोलियों का शृंगार, आS ह,मनजीत के कलेजे के कुएं से दर्द का लावा फूट पड़ा है।

अखबारों के आंकड़े--एक ख़बर और--

केवल एक घटना---?

ओहSSS--

बेटे की जवान ल्हाश को देखकर मां के माथे पर गहराकर डबडबा आईं झुर्रियां, बहन की रेशमी राखी और परवान चढते सपनों पर भाई के सच्चे प्यार से वलवलाते ग़र्म खून के धब्बे, ज़रा सी बिटिया के झूले पर बैठकरऊंची उड़ान लेते बचपन पर बाप की क़द्दावर शाख का टूट गिरना और जवान औरत की अगली-पिछली साधों के फलता-फूलता देखने की उछाह परहमजोली के प्यार के गीतों का सुर्ख़ ख़ून, यह केवल एक घटना होती है क्या?

मनजीत कौर के आँखों के पपोटे चट-चट चटख़ने लगे हैं। पलकों मे जैसे मुट्ठी भर सुलगती हुई राख भर गयी हैं। पुतलियों मे कीलें ठुक गयी हैं।

- प्रवीण पंडित

Friday, September 7, 2007

शर्त

अखिल ने दरवाजा खोला तो सौमित्र को सामने खडा पाया। सौमित्र की आँखों में अजीब सी चमक देखकर अखिल ताड गया कि साहब कोई बडी़ खुराफात कर के आए हैं।

"क्यों सौमित्र, आजकल आते नहीं हो बेटे?", अखबार पढते पढते अखिल के पिताजी ने पूछा.
"नमस्ते अंकल, क्या अंकल... आता तो हूँ, आता ही रहता हूँ।"
इतना कहते कहते ही सौमित्र ने अखिल को ले कर छत पर जाने की तैयारी करली थी और आँखों से ही उसे छत की तरफ चलने का इशारा भी कर रहा था।
"अखिल, ये कोई ऐसी वैसी हमेशा की तरह वाली बात नहीं है, अरे क्या बनाया है उसको ऊपरवाले ने, क्या बताऊँ अखिल", अब तक सौमित्र का हाथ उसके दिल पर पहुँच चुका था। दिल थाम के उसने बात आगे बढाई, " और उसकी आँखों के क्या कहने, एक बार जो देखे, घायल हो जाए, मेरी नज़रों के सामने से उसकी आँखे हटती ही नहीं दोस्त!"

इस छत ने इन दो यारों के कितने ही राज बडे ईमान के साथ दिल में पालें हैं। आज फिर से वही छत एक नई कहानी सुनने को मानो बेताब हो रही थी।

"अखिल, मेरे यार! आज खल्लास हो गए बोस!", सौमित्र अखिल को पकडकर बोला।
"तुझे एक साँवली लडकी दिखी", अखिल ने ज़रा भी उत्साहित ना होकर कहा। उसकी आँखों में कोई अचरज नजर नही आ रहा था।
"क्या ज्योतिषी हो भाई", सौमित्र ने अखिल कि तरफ हैरानी से देखकर कहा।
"सौमित्र, तुम्हे दिखाई देने वाली हर साँवली लडकी तुम पर ऐसा ही प्रभाव डाल कर जाती है, इस बात कि मुझे आदत हो गई है", अखिल ने गंभीर लहजे में कहा।
"अखिल, ये कोई ऐसी वैसी हमेशा की तरह वाली बात नहीं है, अरे क्या बनाया है उसको ऊपरवाले ने, क्या बताऊँ अखिल", अब तक सौमित्र का हाथ उसके दिल पर पहुँच चुका था। दिल थाम के उसने बात आगे बढाई, " और उसकी आँखों के क्या कहने, एक बार जो देखे, घायल हो जाए, मेरी नज़रों के सामने से उसकी आँखे हटती ही नहीं दोस्त!"

"सच्ची अखिल," कहकर सौमित्र एक हाथ हवा में उठाकर और आसमान कि तरफ देखकर अपने ही से कुछ कह रहा हो यों शुरू हो गया.

वो गई
उसकी नज़रें
रह गई

सुध बुध मेरी
उसकी धुन में
बह गई

वो गई
मुझ को मुझसे
ले गई

मीठा मीठा
दिल का दर्द
दे गई

"अब खुद जागोगे, या पानी लाना पडेगा", अखिल सौमित्र को हिला रहा था, मानो नींद से जगा रहा हो।
"जाओ, यार! तुम सब लोग बेदर्द हो! दिल का दर्द क्या समझोगे भला", अब सौमित्र गुस्सा होकर दिखा रहा था।
"अब हमने क्या किया है", अखिल पेरापेट की तरफ जाता हुआ बोला, "जाग गए होगे तो क्या हुआ, कैसे हुआ? कुछ बकोगे, तो पता चले"
सौमित्र फिर से अखिल के पास पहुँचा, पेरापेट से टेंक कर बताने लगा, "अलका स्टोर में दिखी"
"कैसी थी नहीं पूछूंगा, अकेली थी?", सौमित्र
"कैसी थी याने, हाय क्या आँखें थी यार..."
"ओए हेलो, कैसी थी पूछा ही नहीं है, वो मुझे पता चल चुका है, अकेली थी?"
"हाँ यार अकेली थी, उसने एक बार मेरी तरफ देखा भी था", सौमित्र ने आँखे बंद की मानो फिर उसका चेहरा याद कर रहा हो और फिर आसमान कि ओर देखने लगा।
"तो गई ना वो?"
"हाँ मगर माधव नगर में ही तो रहती है, अपने कालेज के रास्ते में ही तो पडता है घर उसका"

अब अखिल की चौंकने कि बारी थी, "तुझे कैसे पता के वो माधव नगर में रहती है?", उसने चिल्लाकर पुछा।
सौमित्र कहीं और देख रहा था, जैसे उसे कुछ सुनाई ही ना दिया हो।
"कम आन सौमित्र! तुमने लडकी का पीछा किया?"
"..."
"व्हाट! सौमित्र क्या हो गया है तुझे? तुमने एक लडकी का पीछा किया, आज तो हद हो गई"
"मेरी कोई गलती नहीं है", सौमित्र रोनी सी सूरत लेकर कहने लगा, "मै कोई गुंडे कि तरह उसका पीछा थोडे ना कर रहा था, उसके साथ स्टोर से बाहर निकला तो गाडी अपने आप ही उसके पीछे हो ली"
"अपने आप?", अखिल की आवाज़ अभी भी पैनी ही थी।
"हाँ यार, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मुझे कुछ हो गया था। कुछ कर दिया था उसने।

सौमित्र को विदा करते समय अखिल यही सोच रहा था के कुछ ही दिनों में ये भी भूत उतर जाएगा, और गाडी फिर सीधे रास्ते पर आ जाएगी। मगर इस बार उसे सौमित्र बहुत बदला बदला सा लगा था। एक लडकी आदमी की जिन्दगी में इतना उथल पुथल मचा सकती है? अखिल इस बात को कभी मानने के लिये राजी नही होता। मगर अखिल को जो लग रहा था वैसा कुछ हुआ नहीं, क्योंके एक हफ्ते में ही सौमित्र उसे फिर छत पर ले आया।

आज सौमित्र बहुत खुश था। इतना खुश सौमित्र को अखिल ने कभी नही देखा था। बहोत अच्छा लग रहा था। हर सुख दुख में साथ रहने वाले मित्र को खुश देखने जैसा आनंद नहीं होता।
"क्या भाई, क्या चल रहा है?"
"उसने हाँ कह दिया", अखिल को यूँ लगा जैसे सौमित्र ये कहते हुए शरमा रहा था।
"हो ही नहीं सकता। अबे ऐसा भी कभी होता है। पूरी बात बताओ? अभी तो तूने देखा था, बात कब हुई? हाँ कैसे हुई?"
"अरे, अरे, सब बताता हूँ। वही बताने तो आया हूँ", उसे भी तो सब कुछ बताने की जल्दी थी।

"फिर कालेज जाते समय मैं उसके घर के पास से गुजरने लगा, उसका घर कालेज के रास्ते पर ही आता है ना"
"एक मिनट", अखिल बात बीच मे काट कर बोला, "मै भी नागपुर में ही रहता हूँ, माधव नगर कबसे तुम्हारे कालेज के रास्ते में आने लगा? ये तो बताओ ज़रा?"
"क्या यार, तुम्हे कैसे समझाऊँ। आजकल कही भी जाना हो तो उसका घर रास्ते में ही पडता है"
"ठीक है ठीक है, आगे...?"
"हाँ, फिर एक दो बार अलका स्टोर में भी उससे टकराना हुआ"
"अच्छा, अपने आप ही हुआ होगा, है ना?", अखिल खिल्ली वाले अंदाज में बोला।
"हाँ, हम सब समझते है, कान काट रहे हो", अब ज़रा बडी आवाज़ में सौमित्र ने बात पुरी की, "हाँ अपने आप ही हुआ ऐसा, अब आगे सुनना है या भविष्य वाणी ही करते रहोगे?"
"अच्छा भाई, आगे?"
"कल मैने अपनी सारी हिम्मत जुटाकर अलका स्टोर में उसे अपना कार्ड थमाया"
"तुम्हारा कैसा कार्ड?"
"अरे हमने वो शौकिया तौर पर नहीं छपवाये थें, वो.., उसी में से एक दे दिया"

"बढिया, प्रभू आपके चरण कहाँ है", कहकर अखिल सौमित्र के पाँव छूने या खींचने के लिये नीचे झुकता, इतने मे सौमित्र ने उसके दोनो कांधे अपने हाथों से पकड लिये और आगे कहने लगा, "मैने उसे कह दिया तुम मुझे अच्छी लगती हो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिये, सोचना और अगर हाँ में जवाब देना हो तो कल अलका स्टोर में मत आना, मैं समझ जाऊँगा तुम्हारी हाँ है, और अगर ना कहना हो तो अलका स्टोर में किसी भी बहाने चली आना"

"......", सन्नाटा.
दो मिनट कोई कुछ ना बोला. अखिल टकटकी लगाकर सिर्फ सौमित्र कि तरफ देखता रहा। सौमित्र चेहरे पर प्रश्नचिन्ह लिये अखिल को देखता रहा। और फिर अखिल से रहा नहीं गया और वो ठहाके लगा कर हँसने लगा।
"हो..हो..हो.. फिर बताओ फिर बताओ, तुमने क्या शर्त रखी?"
"मैने कहा, सोचो और तुम्हे अगर हाँ कहना हो तो अलका स्टोर में मत आना"
"एक मिनट, क्या? हाँ कहना हो तो अलका स्टोर में मत आना", अखिल की हँसी रूक ही नहीं रही थी, वो सौमित्र की शर्त दुहराने लगा, "हाँ कहना हो तो अलका स्टोर मे मत आना"
"हाँ के लिये मत आना", अखिल जैसे वही बात फिर से कहकर तसल्ली कर रहा हो के उसने वही सुना है।
"हाँ, और ना कहना हो तो कोई भी बहाना करके अलका स्टोर में कल आ जाना", सौमित्र ने शर्त पूरी कह के दिखाई।
सौमित्र दार्शनिक अंदाज़ में कहने लगा, हाथ ऊपर उठाकर गालों पर उंगली रखकर बोला, "मैने बहुत सोच समझ कर ये शर्त रखी थी। बहुत सोचा था मैने। रात रात सोचा था। सोते जागते सोचा था। मैने उसका हाँ कहना आसान कर दिया। अगर उसे ना कहना होता तो वो आज जरूर अलका स्टोर में कोई भी बहाना करके आती, वो नहीं आयी, उसने हाँ कह दी", उसका डाँस फिर चालू हो गया।

अखिल जब हँस हँस के थक गया तो रूक गया।
सौमित्र की तरफ देख कर बोला, " मेरे भोले बालम, आपने ऐसी उल्टी शर्त क्यों रखी?"

मगर...
सौमित्र अपनी ही धुन में सँवार था। अपनी ही बात कहता गया, " सुनो तो, आज जैसा तय था, उसे नहीं आना था और वो नहीं आई, क्या बताऊँ यार वो आई ही नही", अब सौमित्र के हाथ बल्ले बल्ले के एक्शन में लग गये थे।
"अखिल! मेरे दोस्त मेरे भाई। उसने मुझे हा कह दिया रे", सौमित्र अभी भी सपने में खोया हुआ लग रहा था।

"सौमित्र, मेरी तरफ देखो, तुमने ऐसी शर्त क्यों रखी, तुमने ऐसी उलटी शर्त क्यो रखी भाई मेरे?"
सौमित्र दार्शनिक अंदाज़ में कहने लगा, हाथ ऊपर उठाकर गालों पर उंगली रखकर बोला, "मैने बहुत सोच समझ कर ये शर्त रखी थी। बहुत सोचा था मैने। रात रात सोचा था। सोते जागते सोचा था। मैने उसका हाँ कहना आसान कर दिया। अगर उसे ना कहना होता तो वो आज जरूर अलका स्टोर में कोई भी बहाना करके आती, वो नहीं आयी, उसने हाँ कह दी", उसका डाँस फिर चालू हो गया।
अखिल को समझ में नहीं आ रहा था कि इस बीमार का इलाज कैसे किया जाए। एक तो हँस हँस के उसका दम निकल गया था। उसने कहा, "रुको, पहले मैं नीचे से गरम गरम काफी ले आता हूँ। फिर बात करेंगे।" और वो काफी बनाने के लिये निकल गया।

सौमित्र दिल थाम कर आसमान की तरफ देखता हुआ खडा रहा।

कॉफी के साथ अखिल एक दरी ले आया। सौमित्र के साथ नीचे दरी पर बैठ कर काफी सौमित्र को थमाकर अखिल ने कहना शुरू किया।
"देखो दोस्त, अब ज़रा ठंडे दिमाग से सुनो। देखो जिस लडकी का तुम से कोई रिश्ता नहीं वो तुम्हे ना कहने के लिये भी, तुम्हारे लिये सोच कर अलका स्टोर क्यों आयेगी? कोई क्यों तुम्हारे बारे में इतना सोचेगा जिसको ऐसा करने की कोई वजह ही नहीं है?"
"याने? ऐसा क्यों कह रहे हो?" सौमित्र समझने को तैयार ही नही था।
लग रहा था यूँ सौमित्र अपने हवा महल से निकलने को तैयार ही नहीं है। अब अखिल से रहा नहीं गया।
"सौमित्र, स्टाप ईट, स्टाप धिस स्टूपीडीटी एण्ड थिंक रेशनली, अबे कौन कहाँ की लडकी, जिससे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं तुम्हारे बारे में क्यों सोचेगी", अखिल जोर से उबल पडा।
"तुम किसकी तरफ हो? मेरे या लडकी के?", सौमित्र ने मजा़क उडाना चाहा।
अखिल ने आँखे जितनी बडी हो सकती थी, करके दिखाई।
"दिस इज नाट फेयर, उसे ना कहना होता तो वो आज अलका स्टोर आई होती", सौमित्र बच्चे की तरह मुँह बनाकर धीरे धीरे कह गया।
"सुनो मै हूँ वो लडकी," अखिल ने एक और तरीका अपनाना चाहा, "मुझे हाँ नही कहना, और मुझे नहीं आना अलका स्टोर में ना कहने के लिये. तुम कौन हो मेरे, जो मै इस बात का खयाल रखूँ के ना कहने के लिये मुझे कहीं जाना पडेगा। ना कहना है मुझे, ना कहना है, और आना भी नहीं है अलका स्टोर किसी आशिक की उलटी शर्त रखने के लिये, क्या कर लोगे?", अखिल जैसे सच में ही वो लडकी बन गया हो, उखड के दिखा रहा था।

अब सौमित्र भी चिढ़ गया। "आय डॊंन्ट एग्री विद यू।"
सौमित्र की आवाज सख़्त हो गई है। सौमित्र गुस्सा हो रहा है ये अखिल कि समझ में आ रहा था। उसे अच्छा भी लग रहा था। इससे ये पता चल रहा था कि सौमित्र को भी अखिल की बात अब जरा जरा समझ में आ रही है। फिर धीरे-धीरे सौमित्र ठंडा होता गया। मुरझा गया। उसकी बत्ती अब पूरी जल चुकी थी। अपनी शर्त की कमजोरी उसे समझ में आ गई थी। 'फिर मिलेंगे' कह कर बेचारा चला गया।

अखिल अकेला सोचता रहा। अब असे लग रहा था के उसने खामखा ही इतना उखड कर दिखाया। सोचने लगा "नहीं तो क्या, कुछ भी"
"कुछ भी शर्त रखना, और हा हो गई बोलके नाचने लगना, ये कोई बात थी"
मगर बहुत उदास होकर गया पठ्ठा। अखिल से भी रहा नही गया। उसने स्कूटर निकाला, माँ से कहा माँ जरा सौमित्र के घर हो आता हूँ और किक लगाई।

"नमस्ते आंटीजी, सौमित्र कहाँ है?" अखिल ने सौमित्र कि माताजी से पुछा।
"स्टडी में होगा बेटे", सौमित्र कि माँ ने रसोई से ही जवाब दिया।
साहब चुहे सा मुह बनाकर कोहनियाँ टेबल पर और सर उंगलियों में पकडकर बैठे थे।
"मुझसे बहुत गुस्सा हो, सारी यार", अखिल ने बात शुरू की।
"नही यार। मै ही पगला गया था।" अब सौमित्र पुरी तरह जमीन पे आ चुका था। " मै ही कुछ भी सोच बैठा।"
उसका चेहरा उदास, आँखे गीलीं हो गई थीं।
"जाने दो यार, भूल जाओ, चल फिल्म देखने चलेगा, सब भूल जायेंगे, मजे करेंगे", अखिल ने जुगत लगाई।
"हाँ, देखो तो अखबार में जरा, स्मृती में कौन सा लगा है आज?", सौमित्र सम्भलकर थोडा सा हसके बोला।

तभी फोन बज उठा।
अखिल पास मॆं था उसने उठाया।

"हेलो, कौन सौमित्र बात कर रहें हैं?", एक लडकी की आवाज़।
"नहीं उसका दोस्त अखिल, एक मिनट उसे अभी देता हूँ" ये कहते ही उसने फोन सौमित्र को दे दिया।
अखिल बार बार इशारे करके पुछ रहा था कौन है कौन है, सौमित्र ने धिरे से स्पीकर आन कर दिया, अब लडकी की आवाज सबको सुनाई देने लगी।
"...हाँ आपकी बहन की मै सहेली, बहुत सुना है आपके बारे में। और क्यों जनाब? आज अलका स्टोर में मै जैसे तय था नहीं आई, लेकिन आगे क्या ये तो आपने बताया ही नहीं?"

"..हेलो, हेलो" उधर फोने से आवाज आ ही रही थी, मगर इधर सौमित्र ने अखिल को बाहो में भर लिया था और वे दोनों उसी अवस्था में नाच रहे थे।

"हेलो हेलो सौमित्र जी आप हैं ना?"
इधर बिना संदल भांगडा चल रहा था।

तुषार जोशी, नागपुर