Wednesday, October 3, 2007

सुरूचि एवं सुस्रष्टा

शून्य से उपजा कभी था, शून्य जोड़ा शून्य में,
शून्य में मिल जायेगा, 'कान्त' कुछ पग छोड़ दे.
सुस्रष्टा अपने एकाकीपन से व्यथित था. अंर्तमन की कोमलतम् भावनाओं को छेनी हथौड़े से इधर उधर उकेरता हुआ प्रकृति में विचरण करता रहता. परन्तु शान्ति कहीं न मिलती .

एक दिन उसे सुरूचि मिली. मानो अभिनव ब्रह्माण्ड के 'सारे प्रश्नों' का उत्तर सुस्रष्टा को मिल गया . भूल गया वह स्वयं को भी .

सुरूचि उसके 'प्रजापति धर्म' के लिये स्नेहिल हाथों से रससिद्ध मिट्टी तैयार करती. वह अपने कल्पनाशील मष्तिष्क से नूतन अभिनव रचनायें तैयार करता. सम्पूर्ण 'प्रकृति' सुस्रष्टा के रचनाशील हाथों का स्पर्श पाकर अनूठे सौंदर्य सागर में हिलोरें लेकर आनन्दविभोर हो उठी.

अब सुरूचि का ध्यान सुस्रष्टा की 'रचनाओं' में अधिक लीन रहने लगा. अन्यावस्थित मन से एक दिन उसने रससिद्ध मृदापिण्ड के स्थान पर नम बालुका पिण्ड सुस्रष्टा के हाथों में दे दिया. रचनाशीलता में तल्लीन वह विशाल 'कौटुम्ब वृक्ष' की रचना करता रहा. हाथों में आयी मिट्टी एवं बालुका पिण्ड में वह भेद न कर सका. आज की रचना को वह अप्रतिम बनाने में खोया हुआ, जुटा रहा सारी रात भर. बृहदाकार तना, सुडौल शाखायें, पत्ते, फूल सब कुछ , उसकी श्रेष्ठतम् कल्पना के अनुरूप.

भगवान भुवन भास्कर की पहली पहली किरण ने जैसे ही मानव रचित कला का स्पर्श किया, स्वर्णिम रश्मियाँ मानो ठहर सी गयीं. ऐसा अनूठा सौंदर्य उन्होंने कभी नहीं देखा था. कुछ ऐसी ही अवस्था में सुस्रष्टा भी पहुँच गया. सुनहली आभा में अपनी ही रचना पर मुग्ध हो रात्रि जागरण से क्लान्त, आंखे मूंदकर उसी 'कौटुम्ब वृक्ष' की छाया में लेट गया.

भोर से हुयी सुबह और फिर दोपहर की यात्रा पर निकले आदित्य ने तपना प्रारम्भ किया . किन्तु वह सोता रहा सम्पूर्ण स्थिति से अनभिज्ञ अपनी श्रेष्ठतम रचना की छॉव में.

बालुका पिण्डों में व्याप्त नमी सूरज की तीक्ष्ण उष्मा से उड़ने लगी. हवा के झकोरों से बालू इधर उधर बिखरने लगी किन्तु थकान से चूर वह‚ अवस्थातीत सोता रहा तब तक‚ जब तक हवा के एक हल्के से झकोरे मात्र से विशाल कौटुम्ब वृक्ष भरभरा कर उसके ऊपर न गिर पडा .

अब प्रकृति उजाड़ है. सुरूचि सुस्रष्टा की रचनाओं मे लीन हो उसकी आभा ढूँढ़ती रहती है. प्रकृति में सुगठित रससिद्ध मिट्टी कैसे तैयार हो बस यही सोचती रहती है. परन्तु सुस्रष्टा तो मिले ?

(परिवर्तन होना चाहिये कहानी कलश की निरंतरता में ऐसा विचार मित्र राजीव जी एवं रंजना जी का, अपनी लम्बी कथा के प्रकाशन से ठीक समय पहले मुझे मिला, उसी भावना के अनुरूप यह लघु कथा प्रस्तुत है)

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8 कहानीप्रेमियों का कहना है :

शोभा का कहना है कि -

क्षमा चाहती हूँ श्रीकान्त जी । मुझे कहानी कुछ बहुत समझ नहीं आई । विचार तो सही है । सृष्टा ही चाहिए ।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

श्रीकांत जी जब मैंने यह कहानी पहली बार पढी तो कुछ अर्थ समझी जरुर इसका ..पर पूर्ण रूप से
इसको आत्मसत नही कर पायी पर जब इस के संदर्भ में आपके विचार जाने तो यह कहानी
एक बहुत ही सुंदर भावों कि सोच में मुझे डुबो गई ...इस कहानी का मूल भाव कि एक पिता कैसे अपनी
ही बनायी रचना से मूल रूप से जुडा होता है दिन रात उसको सजाने संवारने में लगा रहता है ,उसका लगाव उसके प्यार को माँ के प्यार से
कम नही आँका जा सकता .पर अनजाने में शायद पति पत्नी बच्चो को पालने में यूं डूब जाते हैं कि शायद अपने खुबसूरत रिश्ते में कही कमी कर जातें हैं पर जीवन का अटूट सच यही है आपने जिस खूबसूरती से इस बात को कहा है वह बहुत सुंदर हैं ...मुझे इस लघु कथा और इस से जुड़े भावों ने बहुत ही प्रभावित किया है !!
बहुत बहुत बधाई आपको

श्रवण सिंह का कहना है कि -

कांत जी,
गुढ़ दर्शन छिपा रखा है आपकी इस लघुकथा मे...
शायद सामान्य पाठको के लिए नही सर्जना की आपने इसकी......।
काश(स्वान्तः सुखाय ही सही)इस कोटि की रचना मै भी कर पाता!
सांख्य दर्शन का अद्भुत व अनुपम विचार को इतनी कुशलता के साथ व्यक्त करने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद......।
साभार,
श्रवण

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

कांत जी,
कमाल की रचना करी है आपने। मैंने पहली बार य ेकहानी पढ़ी, सच बोलूँ तो कुछ पल्ले नहीं पड़ी। एक दोस्त से पूछा, उसे भी शाब्दिक अर्थ ही समझ आ पाया। फिर एक बार पढ़ी, इस बार थोड़ा समझ आया। फिर रंजना जी के कमेंट पढ़े तो आँखें खुली रह गईं, कि इतना जबरदस्त और गूढ़ मतलब निकल कर आया है इस लघुकथा का। और मुझसे रहा नहीं गया, कहानी दोबारा पढ़ी।और इस बार हर वाक्य पढ़ने के बाद दिल वाह वाह कर रहा था। कमाल है।

धन्यवाद,
तपन शर्मा

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

श्रीकांत जी,

लघुकथा सुग्राह्य तो नहीं है किंतु कमजोर भी नहीं है। वक्त के जितने परदे हटा कर आप यह कथ्य ले कर आये हैं वह इन शब्दों की आड ही माँगते हैं। दर्शन का प्रस्तुतिकरण कठिन होता है। आपकी कहानी का अंत सदियों को मिलाता है और इस कहानी की आज भी समसामयिकता है इसकी पुष्टि करता है। सार्थक प्रस्तुति।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 का कहना है कि -

श्रीकान्त जी,

रचना को एक बार पढा, फ़िर दुसरी बार पढा परन्तु सुस्रष्टा, सुरूचि व प्रकृति का रहस्य समझ न आया.
कहीं आपका अभिप्राय मनुष्य का पारिवारिक झंझटों में फ़ंस कर स्वंय को भूल जाने से तो नहीं.
इस रहस्य का खुलासा अवस्य करें

विश्व दीपक का कहना है कि -

मोहिन्दर जी की तरह मैं भी आपसे आग्रह करता हूँ कि थोड़ा खुलकर समझाएँ। मैं इसे दो बार पढ चुका हूँ लेकिन कुछ भी पल्लै नहीं पड़ा। इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Unknown का कहना है कि -

मित्रो

आप सभी के स्नेह के लिये हृदय से आभारी हूं. बन्धुवर मोहिन्दर जी एवं आप सबके आदेश का
निर्वाह एक नयी कथा के माध्यम से देने की अभिलाषा से ही मौन रहा हूं. इस कथा का जन्म
वर्षों की मेरी पीड़ा भरी अनुभूतियों के उपरान्त ऐसे ही एक दिन गांव में एक खेत की मेंड़ पर बैठे
हुये हो गया. मात्र कुछ शब्दों के भीतर ही..... मैं स्वयं से ही स्तंभित एवं चकित हूं इस पल तक.

यों तो मैने समूह पोस्ट पर इस विषय में पहले भी कुछ प्रेषित किया था किन्तु अब, पुनः शीघ्र
ही सर्वहिताय उद्देश्य से सरल शब्दों में एक नये विचार से उपस्थित हूंगा। तब तक कृपया इसी
भांति स्नेह बनाये रखें

सभी मित्रों को
आदर ...
प्रणाम ..
स्नेह ...

श्रीकान्त मिश्र कान्त

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