पहले मुआ पोस्ट-ऑफिस आ गया फिर यह ई-मेल की बीमारी आ गयी, पृथ्वी लोक ज्यादा एडवांस हो गया और इस दौड में देवता गण पिछड गये। लंबी मीटिंग के बाद देव-दानवों और गंधर्वों नें मृत्यु-लोक को खाली करने में ही भलाई समझी और नारद जी बेरोजगार हो गये। नारद जी को इस बात का मलाल था कि स्वर्ग लोक में भी उनकी इम्पोर्टेंस घटती जा रही है, भगवान विष्णु सेटेलाईट टीवी के माध्यम से सबसे तेज चैनल में उलझे रहते हैं। माता लक्ष्मी, माता पार्बती से चैटिंग में बिजी रहती हैं। कल तो हद हो गयी, नारद जी क्षीर सागर में तीन घंटे नारायण!! नारायण!! करते रहे और माता लक्षमी अपने लैपटॉप पर कमल ककडी बनाने की विधि सीखती रहीं। भला हो शेषनाग का कि अपनी पूँछ घुमा कर स्टूल बना दी वर्ना चाय कॉफी छोडिये कोई बैठने को भी नहीं पूछता।..। वो भी क्या दिन थे, नारायण!! नारायण!!!.....पार्बती जी की साडी का कलर, सरस्वती जी लेटेस्ट नेल पॉलिश और लक्ष्मी जी का नया हेयर स्टाईल....इधर की लगाओ, उधर की बुझाओ।
आज नारद जी बहुत विचलित थे। नीचे नजर डाली तो काले सफेद बादलों के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। उनके मन की तरह, घुमड-घुमड कर बादल गरज रहे थे, जब तेज इलेक्ट्रिक शॉक लगा तो एकदम से उछल पडे.....”यह बिजली भी पैरों के नीचे ही कडकेगी” नाराज हो कर एक लापरवाह बादल को तो निचोड ही दिया उन्होंने। “जाने क्या समझते हैं, अपने आप को!!” अपनी वीरता पर खुश हो कर नारद भुनभुना उठे। बादलों के एक झुंड नें डर कर रास्ता ही बदल लिया। नारद जी के सामने अब नीले ग्लोब का एक हिस्सा उभर आया था। एकाएक वे ठिठक गये। पुरानी यादें ताजा हो गयीं। एक समय की लंकापुरी और आज की श्रीलंका उपर से एसे दीख पडती थी जैसे किसी नें ताजा छना समोसा नीली तश्तरी में रख दिया हो। राक्षस राज रावण की नगरी कभी बाईस कैरेट खालिस सोने की हुआ करती थी, आज कल सुना है जल भुन रही है। “लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल इलम”, बहुत जोर दे कर याद किया ही था महामुनी नें कि बडा तेज धमाका सा हुआ और उन्हें अपने बहुत निकट से कोई वाणनुमा चीज गुजरती महसूस हुई। यह सब इतना जल्दबाजी में हुआ कि कब उनकी धोती नें आग पकड ली पता ही नहीं चला। यह तो बादलों की उपलब्धता थी कि वे अपनी लाज बचा सके। आकाशमार्ग से जाते हुए एक गंधर्व नें आगाह किया कि मुनिवर जिस नभ के निकट से आप गुजर रहे हैं यह आकाशमार्गियों के लिये सुरक्षित नहीं है। गाहे-बगाहे सरकारी-विमान भेदी मिसाईलें निशाना चूक कर अपसराओं के साथ कोना पकडे देवताओं के पिछवाडे सुलगाती रहीं हैं, सो सावधान। नारद जी सचेत हुए फिर एक दृष्टि स्वयं पर डाली। धोती में हुए छेद नें अनायास महामुनि का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। कोई आपातकालीन उपाय करना ही होगा। नारद जी नें सोचा और जैसा कि एक कविता में कहा गया है “राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार” वे रामेश्वरम के पास सेफ लेंडिंग कर चुके थे। नारायण की महान कृपा से उन्हें पंडित पी. आर. पी. टी. सी. आर शास्त्री ( इस नाम का विस्तार स्वयं प्रजापिता ब्रम्हा कर पाने में असमर्थ हैं) की धोती जो कि उनकी ईंट-सीमेंट की कुटिया की छत पर सूख रही थी, प्राप्त हो गयी। यद्यपि इस प्रकार किसी की धोती उठाना इथिक्स के हिसाब से सही नहीं माना जायेगा किंतु आपातकाल में सभी कुछ जायज है।
अब नारद जी की साँस में साँस आयी। भारत वर्ष के अंतिम छोर पर खडे हो कर अथाह जलनिधि को उन्होनें प्रणाम किया। उनकी स्मृतियाँ चलचित्र की भाँति चल पडीं। इसी स्थान पर खडे हो कर “करुणानिधि” भगवान श्री राम नें समुद्र से रास्ता माँगा था। और यह सागर अकड गया था। तीन दिनों तक विनति करते रहे राम, कि हे सागर! मुझे वह मार्ग प्रदान करें जिससे हो कर मैं लंकापुरी पहुँच सकूं और रावण के दर्प का दमन कर सकूं। सागर नहीं माना। मानता भी कैसे? हाल ही में विवादास्पद हुए एक कवि महोदय श्री तुलसीदास अपनी कविता में कहते हैं “विनय न मानत जलधि जड, गये तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब, भय बिनु होहिं न प्रीत”
बिना भय के प्यार नहीं उपजता। वेलेंटाईन डे मनानी वाली कौम डरपोक है यह बात तो खैर गले से नीचे नहीं उतरेगी। राम नें शस्त्र संधाना। सागर सूख सकता था, हजारो जीव जंतु, मछलियाँ, सीप, घोंघे समाप्त हो सकते थे, वह एक ब्रम्हास्त्र पर्याप्त था। बिलकुल वैसा ही सत्यानाश कर सकता था जैसा कि अमेरिका नें जापान के दो शहरों का किया था। आज के युग की सरकारों के प्राण नहीं काँपे, लाखों प्राण लिये जा सके चूंकि नया दौर है। सभ्य और तकनीकी दक्ष समाज है। राम के लिये वह शस्त्र क्षमा था और “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो”?
महासागर हाँथ जोडे बाहर आ गया। भय नें राम के लिये उपाय बना दिये। उपाय अत्यंत कठिन था। राम का पुरुषार्थ सरल उपायों से सिद्ध भी नहीं होता।....। आज जिन राष्ट्रों के पास परमाणु शस्त्र हैं उनकी दादागिरि देखिये किस देश को कच्चा चबा कर खा नहीं गये? किंतु वे महान राष्ट्र हैं, वे महाशक्तियाँ हैं, दोषी तो राम थे जो क्षमताओं के बावजूद उस शर का संधान नहीं कर सके जो स्वत: सागर चीर सकता था। नारद सागर की शोर करते लहरों के पास इस सोच के जगते ही ठिठके। स्वत: से प्रश्न था कि मानो राम इतिहास न हो कर केवल एक मिथक होते तो भी क्या यह मिथक आज के उन सत्यों से अधिक आदरणीय नहीं था जिसमें बेकसूर अफगानिस्तान केवल एक आदमी की तलाश में जला दिया जाता है? केवल एक आदमी के अहं के लिये पूरे इराक का सत्यानाश कर दिया जाता है। राम-राम!!!.....नारद सोच में डूब गये। जिस सभ्यता का वर्तमान इतना घृणित है उस सभ्यता को राम की कोई आवश्यकता भी है? राम असत्य ही रहे होंगे, बाल्मीकि की गलती है। ये पुराने ऋषिमुनि भी! ढाई अक्षर क्या सीख जाते थे पोथे लिख मारते थे। उन्हें क्या पता था कि कलियुग में इतिहास लिखने वाले कुछ खास किताबों के खास पन्नों को सही और खास पन्नों को खारिज कर देते हैं, चूंकि इतिहास “गरीब की लुगाई” है इसलिये “जगत भौजाई” है। आर्यों का इतिहास लिखना हो तो ऋगवेद को आधार मान लो। मानो भाई, नारद का क्या जाता है, किसी लेखक को अपने पुनर्जन्म की स्मृति रही होगी? आज कल पुनर्जन्म भी तो बहुत हो रहे हैं, पढी लिखी पीढी है, कुछ भी हो सकता है। कल्पना चावला का पुनर्जन्म हो सकता है, गाँव का एक लडका एकाएक फर्राटेदार अशुद्ध अमरीकी अंग्रेजी बोल सकता है और सारी दुनिया का “भेजा फ्राई” हो सकता है।.....। किसी पुरानी किताब के तथ्यों को एतिहासिक मानते हो तो यह मानने वाले की श्रद्धा है, और मिथक तो यह भी उसका अधिकार। उसके अनर्थ निकाल निकाल कर वोल्गा से निकल कर आर्य गंगा तक आ गये? बडा महान कार्य कर लिया भाई...लेकिन उस किताब में भी राम के राजा होने का जिक्र है। इस बात पर नजर नहीं गयी होगी लेखकों की। लिखना कोई मजाक तो है नहीं। कई बातों का खयाल रखना पडता है। अंगरेज जब कुर्सी पर थे तब उनका खयाल रखा, फिर नये कर्णधार पैदा हो गये तो उनका खयाल रखा। पंक्तियों के बीच में पढने का हुनर और पंक्तियाँ छोड छोड कर पढने का हुनर भी हर किसी के पास नहीं होता। फिर फूट डालो और शासन करो की तमाम अंतहीन सरकारों वाले इस देश में तो राम का नाम लेने पर ही “शूट एट साईट के ऑडर्स हैं”।
नारद नें यह सोचा फिर घबरा गये। इस तरह की बात वे जिस धरती पर बैठ कर सोच रहे थे वहाँ उनके साम्प्रदायिक हो जाने का खतरा है। धोती तो पहले ही गवा चुके हैं। साम्प्रदायिक नारद..यह विचार महामुनि के चेहरे पर मुक्कुराहट ले आया। बाबर अपना नामा लिख डाले तो एक एक हर्फ इतिहास है, ह्वेंसांग भारत आ कर कागज काले कर जाये तो हर अक्षर इतिहास है लेकिन महामूढ वालमीकि, यह रामायण लिखने की क्या सूझी तुझे? या सत्यकथा का ठप्पा लगवाना था तो भैया पहले कार्ल-मार्क्स को पैदा होने दे दिया होता।
नारद सागर की स्मृतियों में लौटते हैं। भारत और श्रीलंका पहले एक ही भूभाग का हिस्सा रहे थे। एक भूवैज्ञानिक काल में प्लेट-विवर्तनिकी के सिद्धांत बताते हैं कि वर्तमान ऑस्ट्रेलिया भी भारतीय प्रायद्वीप का हिस्सा रहा था जो अलग हो कर स्वतंत्र महाद्वीप बन गया। यही श्रीलंका के साथ भी हुआ। भारतीय प्रायद्वीप से टूटने की प्रक्रिया में कई छोटे छोटे टुकडे एक रस्सी या कि पुल जैसे भूभाग द्वारा दोनों स्थल भागों को जोडे रख सके। अत्यधिक भूवैज्ञानिक हलचलों के कारण यह बंधन सूत्र कई स्थलों से टूट गया। यह टूटना सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी, उतनी ही सहज जैसे कि कोरल का पानी में तैरना। कई अन्य तरह के छिद्रदार पत्थर भी पानी में तैरने की क्षमता रखते हैं। नल और नील नाम के दो पुरा-अभियंता जो कोरल चट्टानों के गुणों से पूर्णत: परिचित थे। उन्होनें दोनों स्थल भागों को अपनी इन्ही तकनीकी जानकारियों के आधार पर जोडा और कुछ हिस्सा प्राकृतिक, कुछ बंध मानव-कृत जुड कर वह सेतु बन सका जिस पर से हो कर लंका पहुचा जा सकता था।....। अंतरयामी नारद निरुत्तर थे कि वैज्ञानिक युग राम सेतु को मिथक मानता है तो निश्चय ही वालमीकि नेस्त्रादमस रहे होंगे जिन्हें कश्मीर से ले कर लंका तक के भूगोल की इतनी गहरी जानकारी थी कि जो कुछ रच गये उसका चयनित हिस्सा इतिहास और बकाया मिथक बन गया। बिलकुल वैसा ही पुल भारत और श्रीलंका के मध्य अवस्थित है जो कि वाल्मीकी की कविता में वर्णित है। उसी स्थान से दोनों स्थलाकृतियों को जोडता है जैसी कि झूठ का पुलिंदा वह वाल्मीकि की हजारों वर्ष पुरानी कविता कहती है। नारद जी की सोच में तल्खी आ गयी थी। राम की माया...नारायण!! नारायण!!!
दण्डकारण्य का गहन वन, आधुनिक युग में इस स्थान को बस्तर कहा जाता है। बाल्मीकि कहते हैं कि अपने चौदह वर्ष के वनवास का बहुत सा हिस्सा राम नें इन वनों में बिताया। लेकिन अनर्थ!! अब भी इन गहन जंगलों के कई स्थानों पर आदिम जन-जातियों द्वारा तो रावण की पूजा होती है। शायद इस लिये कि आर्य जिस प्रकार राम को सहेजे रख सके, यहाँ के आदिम अपनी महान संस्कृति को और प्रकांड पंडित रावण को हजारो-हजार साल से सहेजे हुए अपने पर्वो, त्योहारों और मंदिरों में सजीव रख कर मिटने से बचाते रहे। रावण के कई मंदिर तो हजारों वर्ष प्राचीन हैं। यही वह स्थल था जहाँ रावण के “केयर-टेकर” शाशक के तौर पर खर और दूषण नामक राक्षस राज्य किया करते थे। ये “हिस्ट्री” वाले “एंथ्रोपोलोजी” नहीं पढते, नारद मन ही मन मुस्कुराये। हाँ भाई, कोई सुषैण वैद्य का युग तो रहा नहीं कि कोई मुन्ना-भाई एम.बी.बी.एस सिर से ले कर पैर तक सारी चीजों का ईलाज कर ले। ये आयुर्वेद भी बला है, अमरीका से पेटेंट हो कर आयी नहीं अब तक, इस लिये मिथक है। दो चार “गुप्त-रोग उपचार केंद्र” और सरकारी “आयुर्वैदिक औषधालय” छोड कर अंगरेज (अंगरेजी दवाओं वाले) डाक्टरों की बेहद कमी वाले भारत वर्ष में वैद्य मिलते कहाँ हैं। फिर इस चिकित्सा पद्यति में वेद लगा है तो बुद्धिजीवी जन का फर्ज बनता ही है कि खारिज कर दें।...। नारद जी नें सिर झटका। समय बदल गया लेकिन उनकी अपने विषय से बार बार भटकने की आदत गयी नहीं। “जैक ऑफ आल ट्रेड” हैं महामुनि नारद तो भाई “मास्टर ऑफ नन” होने का विदित खतरा है ही।
नारद जी अपनी एंटीनानुमा चुटिया पर जितना जोर देते पुरानी यादों के उतने ही गहरे दलदल में धँसते जाते। “आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया” नें भारत की सर्वोच्च अदालत हलफनामा दायर किया कि राम कभी थे ही नहीं। सही कहा!! नारद भुनभुनाये। राम न ही रहे होते तो बेहतर था। इस युग को एसे मिथक की भी क्या आवश्यकता है? इन्हें राम में हजारों दोष दीख पडते हैं, पडने ही चाहिये। आज का युग तो आदर्शों का स्वर्ण युग है। पाँच-सात हजार साल पहले के आदमी के किये कु-कृत्यों पर क्या दृष्टि डालते हो, हे इस युग के एम.बी.ए/एम.सी.ए/सी-ए/बी.ई डिगरी धारकों!! अपने बाप-दादाओं के ही कृत्यों-सुकृत्यों का हिसाब रख लोगे तो शर्मे से कभी नजरें नहीं उठा सकोगे। निठारी जैसे दुष्कृत्य रावण नें तो नही किये। दो वर्ष की दुधमुही बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसकी हत्या कर देने का दुस्साहस अतीत में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, यह वर्तमान समाजवादी-महान विचारशील व्यक्तियों के युग में ही होता है, जिनकी ढोल में बहुत पोल है। जो मुँह को पूरा खोल कर अतीत पर बकवास करने से नहीं चूकते, लेकिन अपने ही युग की कालिख को साफ करने के लिये किसी राम की प्रतीक्षा भी करते है। राम एक राजा थे, पत्नी को प्रेम करते हुए भी वे लोक मत की अवहेलना नहीं कर सके। पत्नि का उस समय की राजनीतिक स्थिति और सोच के अनुसार परित्याग कर दिया। लेकिन राम नें हजारों शादियाँ करने वाले समाज को “एक-पत्नि” का आदर्श भी दिया। राम आज की कसौटी पर निश्चित गलत थे लेकिन रोज तलाकों के हजारों केस ढोने वाला यह देश किसके आदर्श पाल कर इस गर्त में गया? दलितों के संदर्भों में राम के युग को देखा जाना भी सही नहीं है। केवट के मित्र राम और शबरी के झूठे बेर खाने वाले राम विषमता का एसा कोई उदाहरण अपने कृत्यों से पैदा नहीं करते। लेकिन राम को गाली देने के फैशन वाले इस युग में दो धर्म के अनुयायी शांति से नहीं रह पाते, दो जाति के अनुयायी एक दूसरे का छुवा नहीं खाते? किसने मना किया है? कौन रोक रहा है इस विषमता को मिटाने से तुम्हें? राम गलत थे, मान लिया पर तुम्हरी नपुंसकता क्या तुम्हें शर्मिंदा करती है, महान विद्धिजीवियों? यह पुरा-वैदिक काल की कुरीतियाँ थी जिसे ब्राहमणों की देन ही माना जाना चाहिये। यही वह समय है जब कर्म से बनी जातियाँ जन्म से बनने लगीं। एक और बात कि राम के समय रहीम नहीं थे, न ही रहीम को राम से दुश्मनी थी, जो गंदगी तुमने ही फैलाई है, मेरे प्रिय विचारक महा-मानवों उसे किसी के भी मुँह पर मढ सकते हो, आपको तो कानूनन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” नारदजी को इस शब्द में व्यंग्य दीख पडा। कलम है तो कुछ भी लिखूंगा, क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? कूची है तो कुछ भी रंग दूंगा या यह अभिव्यक्ति की स्कतंत्रता है? सरस्वति और दुर्गा जैसी पुरा-मान्यताओं के नग्न चित्र बना कर अभिव्यक्ति का ढोल एसा समाज ही पीट सकता है तो खोखला हो या कि मानसिक रोगी। आपकी अभिव्यक्ति की वहीं तक सीमा है जहाँ मेरी बाधित न होती हो? वरना इस सबाल पर कि अपनी ही सगी माँ और बहनों को ले कर आपकी कलात्मकता एसी ही अभिव्यक्ति क्यों नहीं बनती? स्वतंत्रता, नये नये मुखौटे चेहरे पर लगाने लगती हैं।
खैर ये बातें तो दूर की कौडी हैं, चूंकि अलग अलग इतिहासकार भारत के इतिहास की अलग-अलग व्याख्यायें करते हैं, आज का असत्य कल का सत्य भी तो हो सकता है? आज सरकार का लाल चश्मा है तो ईतिहास का रंग कुछ और है, कल यह रंग केसरिया हो जायेगा तो उंट दूसरी करवट बैठ सकता है, हरा हो गया तो तीसरी और नीला हो गया तो चौथी...इस देश के अतीत की कोई कहानी सच्ची नहीं है। नारद जी नें कविता याद की जो आजकल सी.बी.एस.ई के सिलेबस में भी पढाई जाती है “जिसको न निज गौरव यथा, निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा, और मृतक समान है”। यह निज गौरव क्या है भारतवासियों?.... अंग्रेजों पर गौरव? मुगलों पर गौरव? जजिया पर गौरव या कि जौहर पर गौरव? जयचंदों पर गौरव कि नाथू पर गौरव? चौरासी के सिक्ख हत्याकांड पर गौरव कि भागलपुर, मेरठ और गुजरात के दंगों का गौरव? इन सवालों को खडा करते ही दोषी हो जाते हैं राम और रहीम। किताबें लिख मारते हैं विचारक कि धर्म है जनता कि अफीम। जरूर है, लेकिन उससे बड़े महत्वाकांक्षा के ड्रग्स वे तथाकथित विचार हैं, जो लोगों को झंडों में बाँटते हैं, भाषा से बाँटते हैं, नारों से बाँटते हैं, क्रांति के नाम पर बंदूख थमा कर नक्सलवादी होने का लेबल प्रदान करते हैं, कश्मीर के पंडित विस्थापित करते हैं, असाम के बिहारी भगाते हैं, महाराष्ट्र को केवल मराठियों का घोषित करते है....नारद जी, अपनी समसामयिक नॉलेज पर गर्व से भर उठे। सदियों से तो वे खुद भी चलता फिरता न्यूजपेपर ही रहे हैं।
राम-सेतु को तोडा जा रहा है। यह बहुत सी बातों को समेटता है, प्रगति, धरोहर और आस्था की जंग है। धरोहर नही कहा जायेगा चूंकि पुल के मानव-निर्मित होने के केवल दस्तावेज हैं, प्राचीन कवितायें हैं किंतु वैज्ञानिक आधार नहीं (कई राजाओं के इतिहास यद्यपि केवल पुरानी कविताओं पर ही लिखे गये हैं)। एक गहरी सांस ले कर महामुनि फिर सोचने लगे। आज कल तो सूचना का अधिकार है, लोगों के पास, किसी खोजी नें दस रुपये का नोट खरच कर पुरातत्व विभाग से यह तो पूछा होता कि मान्यवर आपने कितना सर्वे किया है? कितने सेंपल विवेचित किये? किस प्रक्रिया के अनुसार किये? आस-पास कोरल की क्या उपलब्धता है या जिस रफ्तार से यह उपलब्धता घट रही है पाँच हजार वर्ष पूर्व क्या रही होगी? पुल की क्या गहराई है? प्राकृतिक पुल पर बोल्डर कहाँ से आये? इनकी मूल उत्पत्ति किन चट्टानों से हुई? कितने पत्थरों की डेटिंग करायी गयी? कब कोई अध्ययन या एतिहासिक तथ्यों की जाँच के लिये खुदायी की गयी? पुल का क्रोस-सेक्शन बतायें? इतना हक तो उसकी क्षुधा की शांति के लिये बनता ही है जिसे भविष्य में गौरव तलाशने की ललक हो। कुतुब-मीनार के लिये मेट्रो-रेल का प्रस्तावित रास्ता बदला गया था तो क्या फर्क पडेगा यदि किसी दूसरी एलाईन्मेंट का प्रयोग इस मिथक की रक्षा ही कर दे? कल यदि किसी इतिहासकार का सत्य बदल गया तो? ताज महल के नीचे कच्चा-तेल मिल गया तो बगल से पाईप डालोगे या फोड दोगे उसे?
सरकारों को ही निर्णय लेना है और वे ही बेहतर जानती हैं कि अगले चुनाव में जीतने के लिये कौन सा ड्रामा बेहतर है प्रगति का या आस्था का। लेकिन विरोध करने वाले जुलूसों मे पिसते आम आदमी, बीच सडक पर ही बच्चा जनती वह औरत जो भीड के कारण अस्पताल नहीं पहुचायी जा सकी, शर्मिंदा इस युग को ही करती है। राम हँसते हैं। राम को हक है कि हँसे चूंकि राम तुम्हारा आज नहीं हैं तुमने उन्हे अतीत होने ही नहीं दिया और राम सच हैं या मिथक इससे क्या फर्क पड जाता है? राम कुदाल नहीं बने चूंकि तुमने कुदाल से बचने के लिये राम के नाम को आगे किया। राम रोटी नहीं बने चूंकि गेहूँ पसीना माँगता है और तुम्हें तो माँग कर खाने की आदत है, कभी अमेरिका से तो कभी रूस से, फिर खाली समय में झाल बजा बजा कर राम का नाम हराम करने की। राम ने नहीं कहा था कि हिन्दुस्तान के दो टुकडे कर दो, राम नें नहीं कहा कि मेरे लिये तोडो कोई मस्जिद या दरगाह। यह तो तुमही हो असभ्य और बरबर। अपना चेहरा राम की आड में ढक कर नाम के आगे पी. एच. डी लिखे फिरते हो..शर्म!! शर्म!!! नारद लगभग कोस रहे थे।
नारद नें अथाह जल राशि को पुन: नमन किया और आकाश मार्ग से बढ चले किसी दिशा में।...। मैं आँखे मलता उठ बैठा। विचित्र स्वप्न था। आधा तो मैंने जागती आँखों ही से देखा था।
*** राजीव रंजन प्रसाद
14.10.2007
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18 कहानीप्रेमियों का कहना है :
मित्र राजीव जी
जिस लेखनी से आपके द्वारा यह रचना लिखी गयी है वह सुरक्षित रख लें. यह लेखनी नहीं इतिहास की जन्मदात्री है. यह जो आपके हस्तगत हुआ है रचना नहीं मां सरस्वती का वरदान है. मित्र मैं प्रशंसा करने के लिये बहुत ही लघु हूं. स्तंभित होकर सन्न बैठा हुआ हूं. सारा जीवन का अब तक किया हुआ बेमानी लगने लगा है. हृदय में बर्षों से जो क्षोभ भरता जा रहा था, आप उसकी वाणी बन बिलकुल सही समय पर आये हैं.
रचना शिल्प की दृष्टि से एक एक शब्द बिंब हास्य कौतूहल व्यंग्य गाम्भीर्य से लेकर ऐसा कौन सा रस है जो नहीं है इस रचना में और सबसे बड़ी बात पाठक को झकझोर कर राष्ट्रीय संदर्भ का प्रत्येक प्रश्न सीधे उसी से पूछती हुयी. उसकी भागीदारी पर व्यंग्य की कठोर तलवार से आज के युग के प्रत्येक मुखौटे को नोंचकर, नंगा चेहरा सामने लाती हुयी. आज के युवा वर्ग के चैतन्य को, संवेदनशीलता को यह जाग्रत कर सके यही कामना है. आने वाले समय में यह रचना अमर इतिहास होगी ऐसा मेरा विस्वास है.
आपको और इस अमर लेखनी को प्रणाम
राजीव जी,
कांत जी से पूर्णरूपेण सहमत हूँ
नमन के अतिरिक्त कुछ भी लिखने के लिये असहाय महसूस कर रहा हूँ
-बहुत गर्व की बात है मेरे लिये जो आपके साथ हूँ
अतुलनीय! असाधारण! ऎतिहासिक!
और क्या कहूँ राजीव जी। इससे ज्यादा कहने में मैं खुद को असमर्थ मानता हूँ।हर एक रस विद्यमान है इसमें और सबसे बढकर राष्ट्रीयता की बात है इसमें। किसी विशेष पंक्ति को उद्धृत नहीं कर सकता। हर पंक्ति झकझोर कर रख देती है।
इस अनुपम रचना के लिए मैं आपको शुक्रिया अदा करता हूँऔर बधाई देता हूँ
-विश्व दीपक 'तन्हा'
राजीव जी ..एक ही साँस में पढी जाने वाली कहानी बहुत ही रोचक ढंग से हर बात को आपने आज के युग को अपने
लफ्जों में ढाल दिया ....किसी एक विशेष को कहना बहुत मुश्किल होगा..आज के इ मेल और बाकी बातो को आपने जिस तरह से
कहा है वह बहुत ही तारीफ के काबिल है ...बाकी सब श्रीकांत जी ने कह दिया है ...बधाई एक अदभुत रचना के लिए!!
माफी चाहूँगा राजीव जी,
दोबारा आज फिर पढ़ा,लेकिन प्रतिक्रिया मे कोई तब्दीली नही ला पाया। आपकी कोशिश कामयाब नही हो पाई- आसमान मुठ्ठी मे समेटने की मशक्कत मे जो पास था, वो भी अंगुलियों की पोर से निकल गया!
आप इसे प्रयोगधर्मिता कह लें, पर रचना शास्त्रीय दृष्टिकोण से लचर सी दिख रही है। शुरूआत का तेवर अगर कायम रहता, तो हास्य-व्यंग्य की यह अनूठी प्रस्तुति हो सकती थी।..... पर राम के भूत ने आपको ग्रस लिया और सागर मे आप बह निकले......... अफसोस मगर, रचना सतह पर ही छूट गई।
मेरे अन्तर्मन का पाठक असंतुष्ट रह गया इस बार.....!
नारद काश नारद ही बने रहते, तो मजा आ जाता राजीव जी।
सस्नेह,
श्रवण
राजीव जी
बहुत ही सुन्दर रचना है । नारद की कल्पना काफी रोचक रही । मध्य भाग में आपका गूढ़ चिन्तन तथा
अन्वेषण सामने आ रहा है । सोच रही हूँ इसे संवाद बना कर अपने विद्यार्थियों द्वारा मंचन कराऊँ ।
आपके अथक परिश्रम तथा चिन्तन को प्रणाम ।
वाह राजीव जी, लेख की प्रशंसा में शब्द नहीं हैं। अतुलनीय, मैं आमतौर पर लम्बे लेख नहीं पढ़ पाता, पर इसे एक साँस में पूरा पढ़ गया।
yah....rachna adbhut hai isame koi is par koi sawal nahi.........parantu yah kahani na hokar vyangy ho gayi hai..............
aapki rachnaye padhne ka itna abhyast ho gaya hoon ki pahla para padhne ke baad hi pahchan gaya tha ki aap ki hi rachna hogi..........
mai aapka bahut bada prashnsak hoo
aisi raachnao ke liye na sirf vidya varan gyan bhi hona chahiye ,,,,,,,,,,
aap me pratibha aur gyan ka adbhut bland hai,,,,,,,,
aisi hi rachnao ki pratiksha rahegi..........
shubhkamnayen
राजीव जी!
पाठकों को सोचने पर विवश करने के अपने उद्देश्य में आप सफल रहे हैं. रचना आरंभ से अंत तक पाठक को बाँधे रखती है जो कि विचारात्मक रचनाओं के साथ कम ही हो पाता है. इस दृष्टि से आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं. रचना की उपयोगिता और अर्थ-गाम्भीर्य के चलते, मैं श्रीकान्त जी से काफी हद तक सहमत हूँ. एक हल्के-फुल्के हास्य और तीक्ष्ण व्यंग्य से शुरू हुई रचना यथार्थ की पेचीदगियों और विषमताओं को पूरी सूक्ष्मता से विवेचित करती है.
इस सब के बावज़ूद, कहानी विधा के लिहाज़ से रचना में कथात्मकता का अभाव दृष्टिगोचर होता है. जो प्रश्न आपने ‘नारद’ के माध्यम से उठाये हैं, उन्हें यदि कुछ संवादों व घटनाओं के माध्यम से उठाया जाता, तो शायद बेहतर होता. परंतु निश्चय ही यह कर पाना इतना सहज नहीं हो सकता जितनी सहजता से मैं या कोई अन्य इस बात को कह सकता है. पर उपदेश कुशल बहुतेरे! :)
राजीव जी,
आपकी इस रचना को कहानी नहीं कहा जा सकता.. हां एक रोचक लेख कह सकते हैं.
मुझे अजय जी की बात से इत्तेफ़ाक है.
इससे पहले लघु कथा लिखने की वकालत की गयी थी परन्तु... अमल में नहीं लाया गया.
मुझे ऐसा लग रहा है कि सभी मित्र सिर्फ़ एक दूसरे को खुश करने के लिये टिप्पणी कर रहे हैं..
एक बार फ़िर से इस बात पर विचार की आवश्यकता है कि कहानी कितने शब्दों तक सीमित होनी चाहिये, कवालिटी (विशेषता)और कुआनटिटी (मात्रा) में से क्या चाहिये, क्या हर रचना को एक टीम द्वारा पास किया जाना आवश्यक है.
हिन्दी के तमाम दैनिक समाचार पत्रों में 'नारद उवाच', 'अनहद' आदि नाम से इस तरह के लेख छपते रहते हैं। आपने नयी व्यवस्था पर जो व्यंग्य नारद के माध्यम से करना चाहा है वो कहीं भी ध्यान आकृष्ट नहीं करता। कमलेश्वर के 'कितने पाकिस्तान' में भी पुराने पात्र जीवित किये गये हैं लेकिन हाँ उसमें एक कहानी है। आपके 'नारद उवाच' में एक विवेचना है। कहानी में लेखक उपदेश देता दीख रहा है या अपनी बातों को ज़ोर-ज़ोर से तर्कों द्वारा सिद्ध करता दीख रहा है। ये कहानी के लक्षण नहीं है। विचार हो या संदेश पात्र हीं कहें तभी सफलता है।
मैं श्रवण सिंह से सहमत हूँ।
आदरणीय मोहिन्दर जी,
मैं बाध्य हो कर कहानी की परिभाषा सम्मुख रख रहा हूँ। वर्तमान कहानियों पर सर्वाधिक प्रभाव अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' का है जिनके अनुसार एक सफल कहानी में एक केन्द्रीय कथ्य होता है जिसे प्रभावशाली और सघन बनाने के लिये कहानी के सभी तत्वों - कथानक, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, उद्देश्य - का उपयोग किया जाता है। श्री पो के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार हैः
"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"
हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले 'प्रेमचन्द' ने भी श्री पो के विचारों को स्वीकारते हुये कहानी की परिभाषा इस प्रकार से की हैः"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"
कहानी के तत्व
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रोचकता, प्रभाव तथा वक्ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच यथोचित सम्बद्धता बनाये रखने के लिये सभी प्रकार की कहानियों में कमोबेस निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं:
कथावस्तु
पात्र अथवा चरित्र-चित्रण
कथोपकथन अथवा संवाद
देशकाल अथवा वातावरण
भाषा-शैली
उद्देश्य
मेरी कहानी कमोबेश इन सभी शर्तों को पूरा करती है।
कहानी कलश पर लघुकथा का हश्र कहानी कलश के वर्तमान संचालक ही बता सकेंगे। मैंने कहानी कलश के द्वार को बार बार खोलने की कोशिश की है किंतु वहाँ सक्रियता का अभाव है। कौन किसे क्या टिप्पणी कर रहा है यह मेरी कहानी से संदर्भित हो कर कही गयी बात है तो क्षुब्ध हूँ। मैं इसे पूर्वाग्रह मान रहा हूँ।
यदि मेरी यह रचना इतनी स्तरहीन थी कि हिन्दयुग्म के वरिष्ठतम सदस्य को कमीटी बनाने तक की बात करनी पडी तो मुझे भी इस कमीटी की प्रतीक्षा है और उसके निर्धारित मानदंडों की भी। क्वांटिटि का अर्थ अगर इस रचना की लंबाई है तो कहानी कलश का कोई नीयम कहानी की लंबाई को ले कर मुझे नहीं बताया गया। और क्वालिटी का जो अर्थ मैं लगा रहा हूँ उसमें मैं कई बार यह भी सोचने के लिये बाध्य होता हूँ कि मेरी कुछ खास "विषय" पर लिखी रचनाओं पर ही यह बात क्यों उठती है? क्षमाप्रार्थी हूँ किंतु यह टिप्पणी न तो कहानी पर आपका मंतव्य बता रही है न ही आलोचना है और समीक्षा भी नहीं। यह टिप्पणी न हो कर ग्रुप मेल में डिस्कशन का विषय होना चाहिये। कमसेकम कहानीकार की मेहनत तो जाया न हो?
मैं श्रवण जी अजय जी और शैलेष जी तीनों से सहमत हूँ, कमोबेश कहानी के प्रवाह में कई शैलियाँ मिलायी गयी हैं जो कि एक प्रयोग धर्मी लेखक की असफलता हो सकती है। तथापि कहानी की परिभाषा से इसे विमुख नहीं पाता। कृपया इस स्पष्टीकरण को मनमुटाव की तरह नही अपितु मतभिन्नता की तरह विवेचित किया जाये।
*** राजीव रंजन प्रसाद
राजीव जी ये तो हद है, क्यों आखिर हम इतनी परिभाषाओं मी फंसे रहते हैं, क्या जरुरी है हर रचना को कोई लेबल दिया जाए , मैं इस बहस में नही पडूंगा की ये कहानी है , गध्य है , या व्यंग है, जो भी है पाठक को बाँध कर रखने में सक्षम है, भाषा प्रवाह उत्कृष्ट है, तीखा व्यंग, सोच को आंदोलित करता है, और क्या कहूँ, हाँ ये अवश्य है की आपकी व्यक्तिगत सोच कहानी के मुख्य पत्र नारद पर जरुरत से ज्यादा हावी है.
आपके नारद की तरह भटकती हुई यहाँ तक पहुँची हूँ और जो कुछ पाया है उसका वर्णन नहीं कर सकती हूँ। आपने सोचने और रिसर्च करने के किये बहुत कुछ बताया है अपनी कहानी में। यह कहानी किसी को विचलित करेगी या प्रभावित किंतु खाली नहीं जायेगी।
राजीव जी
एक ही सांस में पढ़ी जान ेवाली अद्भुत रचना. बधाई शब्द छोटा पड़ेा. दुआ है कि इस कलम में और ज़ोर पैदा हो और आप खूब खूब बेहतर व्यंग्यकार बनें.
सूरज
namaste sir,
main sahityakar banne layak to nahi lekin aapki rachna padh kar acha laga, vishwas hua ki abhi log poori tarah soye nahi hain kuch jagte hue bhi desh ke baare mein soch rahe hain.
lekin thoda bahot jo dukh hai wo yahi rahega ki apki rachna ko log hindu nazariye se dekh kar kharij kar denge jaise ram ko kar chuke hain.
fir bhi umeed hai ki shayed itihas aur sahitya mite ya na mite wo vichar kisi na kisi tarah jeevit rahein.
god bless you.
hehehehehehe
saare comments padh ke aisa lagta hai ki sab sahitya ka gyan baant rahe hain,, i m sorry lekin mujhe lagta hai usse behtar hai iss koshish ka asar dekhne ki, ke ye kya asar dalti hai apke mann par..
agar wahi result hai jo lekhak chahta hai to fir rachna mein koi kami nahi hai aur agar wo nahi hai to fir baat alag hai.
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