Wednesday, December 24, 2008

मटमैले लबादे वाला सान्ताक्लोज़

आज ऑफिस से ही उमा को फोन कर दिया है हमेशा की तरह| पुरानी हिदायतें जो बरसों से दोहराता आ रहा हूँ, फिर समझा दी हैं के बच्चों की जुराबें खूब अच्छे से धोकर जैसे भी हो रात तक सुखा ले| टॉफी-चाकलेट वगैरह मैं ख़ुद ही लेता आऊंगा| आज क्रिसमस है ना? उनके बहुत छुटपन से ही सांताक्लोज़ के नाम से और बहुत से पिताओं की तरह मैं भी उनकी मासूम कल्पना को उड़ान देता रहा हूँ| सुबह दोनों पूछते है आपस में एक दूसरे से कि क्या रात को उसने किसी सान्ताक्लोज जैसी चीज का घर में आना महसूस किया था या नहीं| पर हमेशा की तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते और अपनी अपनी चाकलेट और टॉफी खाने जुट जाते हैं बगैर पेस्ट किए| कभी भी तो ये सोचना नहीं चाहते के रात को थका-हारा इनका बाप ही ये सब अपने मटमैले से लबादे में से निकाल कर ठूंसता होगा उस दिन की स्पेशल से धुली जुराबों में| इनकी कल्पना में तो आज भी वो ही सुर्ख लाल लबादे वाला सांता क्लॉज बसा है| पहले तो हम भी इस बैठक में शामिल होते थे, इनकी कल्पनाओं में अपने भी रंग भरने के लिए ....हाँ रात को कुछ आवाज सी सुनी तो थी पर दिखा कुछ नहीं था, सांता क्लोज ही रहा होगा और भला इत्ती रात में कौन आएगा तुम लोगों के लिए ये गिफ्ट लेकर| पर अब भीतर उदासीनता सी हो गयी है इस ड्रामे के प्रति| अब ये बचपना ही चिंता का कारण हो गया है| आख़िर आठवीं-दसवीं क्लास के बच्चों का सान्ताक्लोज से क्या काम| क्या अब इन्हें थोड़ा समझदार नहीं हो जाना चाहिए? टॉफी-चाकलेट तो यूँ भी खाते रहते हैं पर क्या आज के दिन ये उतावलापन शोभा देता है इतने बड़े बच्चों को? जीवन की बाकी सच्चाइयों को किस उमर में जानना शुरू करेंगे फिर| अब तो ध्यान जब तब इनके साथ के और बच्चों पर जाने लगा है| अकल भी अब मसरूफ रहती है जिस्मानी उठान और समझ के बीच ताल मेल बैठाने में| कभी इनके स्कूल का कोई और बच्चा घर आ जाता है तो आँखें ख्यालों के साथ मिलकर उसकी समझदानी का साइज़ समझने बैठ जाती है| पता नहीं स्कूल में ये लोग सांताक्लाज के बारे कोई बात करते हैं या नहीं? हो सकता है के इन दिनों पड़ रही छुट्टियों के कारण इस विषय पर चर्चा न हो पाती हो ...वरना इतने बड़े बच्चे और ऐसी बचकानी..| कई बार चाहा है के ख़ुद ही इन्हें रूबरू करा दूँ सच्चाई से पर जाने क्यूं ये भरम इस तरह नहीं तोड़ना चाहता| इनके विकास को लेकर मन का ज्वार-भाटा बढ़ता ही जाता है| अखबारों में निगाहें अब बाल-मनोचिकित्सकों के लेख ही तलाशती रहती हैं| आई क्यू., ई क्यू. ऐसे 'क्यूं' वैसे 'क्यूँ' कुछ समझ नहीं पाता| कद के साथ बढ़ता बचपना दो तीन साल से हताशा को और बढ़ा ही रहा है| कई बार ख़ुद को दोषी पाता हूँ कि शायद मैं ही स्वार्थवश बाल्यावस्था को समुचित रूप से....| हमेशा जुराबों से चाकलेट निकालते समय मेरी आँखें इनके चेहरे पर गड़ी होती हैं, बस एक नज़र इनकी बेएतबारी की दिख जाए तो कुछ सुकून मिले, कभी तो एहसास कराएँ मुझे बड़े होने का| कैसे जानें के मटमैले लबादे वाला इनका सांताक्लाज अब कैसा बेसब्र है इनकी उम्र का भेद जानने को|

आज तो आफिस में ही काफ़ी देर हो गयी है| बाहर आया तो देखा के बाज़ार भी बंद हो चला है| इलाके की बत्ती भी जाने कब से गुल है| चाल काफ़ी तेज हो चली है, निगाहें तेजी से दायें-बाएँ किसी खुली दूकान को तलाश रही हैं....दिल बैठ रहा है ..अब कि शायद आँगन में टंगी चक-दक धुली सफ़ेद जुराबें बस टंगी ही रह जायेंगी...क्या ऐसे टूटेगा मासूमों का भरम ...क्या गुजरेगी बेचारों पर...? बेबस सा आख़िर में आफिस के उस अर्जेंट काम को ही कोसने लगा हूँ| इसके अलावा और कर भी क्या सकता है एक मटमैले लबादे वाला| सुबह उसे एक अलग ही रूप लिए जगना होगा अब की बार| मन के भीतर किसी छोटे से कोने मैं इसकी भी रिहर्सल चल रही है| इन सब के बीच नज़र में किसी थकी हुई सी लालटेन की धुंधलाती रौशनी आ गयी है| मुझ से भी ज्यादा थका सा लग रहा कोई दूकानदार अपनी दूकान बढ़ाने को तैयार है शायद "ज़रा एक मिनट ठहरो......!!" कहता हुआ थका हारा सान्ताक्लोज दौड़ पडा है इस आखिरी उम्मीद की तरफ़| इसी उम्मीद से तो बच्चों का वो भरम बरकरार रह सकता है जिसे वो कब से तोड़ना चाहता है| जल्दी से जेब से पैसे निकाले और उखड़ी साँसों पे लगाम लगाते हुए दोनों बच्चों के फेवरिट ब्रांड याद करके बता दिए हैं| दूकानदार किलसने के बजाय खुश है| और एक वो है के आफिस से निकलते-निकलते एक अर्जेंट काम के आने पे कितना खीझ रहा था| बमुश्किल दस-पन्द्रह कदम दौड़ने पर ही साँसें कैसी उखड़ चली हैं| दुकानदार ने सामान निकाल कर काउंटर पर सजा दिया है| चॉकलेट के गोल्डन कलर के रैपर कुछ ज़्यादा ही पीलापन लिए चमक रहे हैं| शायद लालटेन की रौशनी की इन्हें भी मेरी तरह आदत नहीं है| मैंने सामान उठा कर लबादे में छुपाया और घर की तरफ़ बढ़ गया| तेज़ रफ़्तार चाल अब बेफिक्र सी चहल कदमी में तब्दील हो गई है| अब कोई ज़ल्दी नहीं है बल्कि अच्छा है कि बच्चे सोये हुए ही मिलें|
मेरा अंदाज़ा सही निकला | दोनों बच्चे नींद की गहरी आगोश में सोये हैं.....एकदम निश्छल, शांत....दीन-दुनिया से बेफिक्र| मैं और उमा खुले आँगन में आ गए हैं, बाहर से कमरे की चिटकनी लगा दी है ताकि किसी बच्चे की आँख खुल भी जाए तो हमारी इस चोरी का पता न चल सके| मोमबत्ती जला कर हमने धुली जुराबों में बच्चों की पसंद के अनुसार सौगातें जचा-जचा कर रखना शुरू किया| जुराबों में हल्का सीलापन अब भी है जो की रात भर आँगन में टंगे-टंगे और बढ़ जाएगा मगर रैपर बंद चीज़ों का क्या बिगड़ता है|
सुबह आँखें लगभग पूरे परिवार की एक साथ ही खुली| दोनों बच्चों ने भरपूर उतावलेपन से अपनी-अपनी रजाइयां फेंक दी और कुण्डी खोल के खुले आँगन में लपक लिए बगैर जाड़े की परवाह किए| दोनों जोशीले तार में लटकी-उलझी अपनी-अपनी जुराबें खींच रहे हैं भले ही उधडती-फटती रहें, उनकी बला से| उन्हें क्या फर्क पड़ता है| उन्हें तो बस सांताक्लोज के तोहफों से मतलब है हमेशा की तरह| बेकरारी पूरे शबाब पर है .....चक-दक जुराबों में तले तक पैबस्त उपहारों को उंगलिया सरका सरका के पट्टीदार दहानों से उगलवाया जा रहा है| सान्ताक्लोज की नेमतें सोफे पर टपक रही हैं मगर आज बच्चे इन्हें अजीब सी नज़रों से देख रहे हैं| जाने उपहारों में आज ऐसा क्या खुल गया है कि इनके चेहरे पर उत्साह के रंग मायूसी में बदल गए| सबसे पहले तो ज़रूरत से ज्यादा पीलापन लिए गोल्डन कलर की जांच हुई और फिर पारखी नजरें प्रोडक्ट की स्पेलिंग चेक करती हुई नीचे लिखा अस्पष्ट मैनुफक्चारिंग एड्रेस समझने लगीं| मेरे कुछ समझ पाने से पहले ही दोनों अपनी अजीब सी शक्लें बनाते हुए और भी ज्यादा बचपने में भर गए ........

"पापू....!! ये क्या ले आए......?...डुप्लीकेट है सारा कुछ..!! ये टॉफी भी ...."
"हाँ .. पापू..! मेरे वाला भी बेकार है एकदम से ...!!"
"आप भी ज्यादा ही सीधे हो ..बस..कोई भी आपको बेवकूफ बना दे...हाँ नहीं तो .."
"आज के बाद उस दूकान पे आप ...!!!!"

बच्चे अचानक संभल गए| गोल-गोल आँखें मटकाती दो शक्लें, दांतों के तले दबी जीभ.. | इस अचानक की पर्दाफाशी से मैं भी हैरान हूँ | दोनों दबी-दबी मुस्कान लिए, मुझसे आँखें बचाते हुए अपनी-अपनी चाकलेट का ज़रूरत से ज्यादा पीला रैपर उतार रहे हैं| एक बार फिर नजरें उठ कर मिली हैं और अब कमरे में ठहाके फूट चले हैं....बच्चों के मस्ती भरे और हमारे छलछलाई आंखों से..!!
बच्चे अभी छोटे हैं शायद ..हमारा ये भरम टूट चुका है..बिलंग्नी पर टंगे मटमैले लबादे से कहीं कोई सुर्ख लाल रंग भी झांकता दिख रहा है..|

कहानी व चित्र- मनु बे-तख्खल्लुस

Monday, December 15, 2008

दंगों पर एक किस्सा और सही

आतंकवाद के जमाने में दंगों के किस्से कौन पढ़ता है, फिर भी समाज की यह एक पुरानी विधा है, यह मान, एक किस्सा और सही .... वह दंगों का शहर था और उस शहर में फिर दंगा हो गया। दो मजहबों के पूजा स्थल पास-पास ही थे। वर्ष में एक बार ऐसा मौका आता कि दोनों धर्मों के उत्सव एक ही दिन आते। तब सार्वजनिक चौक के बंटवारे का प्रश्न आ खड़ा होता। सभी जानते थे कि दंगा होगा इसलिये गुपचुप कई महिनों पहले तैयारियाँ होनी शुरु हो जाती। इस बार भी जम कर दंगा हुआ। पत्थर, जलते टायर, चाकू, देशी कट्टे, ऐसीड बम, जलती मशाले इत्यादि का भरपूर उपयोग हुआ। जितने हुनरमंद थे सब संतुष्ट हुए। कहां मिलता है रोज-रोज ऐसा मौका? अब तो प्रशासन भी नकारा हो गया है। जरा सा कुछ हुआ नहीं कि कर्फ्यू लगा दिया। पुलिस भी कानून की उँगली थामने लगी तो वकील और पुलिस में क्या अंतर रहेगा? डंडे की दहशत का नाम ही तो पुलिस है।

दंगा ही वह पर्व है जिसे सभी लोग बिना किसी भेदभाव के मनाते हैं। सभी मजहबों का एक ही मकसद होता है दंगा। पिछले दंगों के किस्से, बाप दादाओं की शौर्य गाथाएं, हर गली हर नुक्कड़ का मुख्य व्यंजन होता है। कर्फ्यू अवधि खत्म होने पर घर लौटते हर व्यक्ति के मुँह में, आने वाले दिन के दंगा लक्ष्यों के चटकारे होते हैं। सभी घर लौटने की जल्दी में होते हैं। घर पर खवातीन भी बेसब्री से दूध ब्रेड और अफवाहों का इंतजार कर रही होती हैं।

खाली हवा में बातें करने से किस्सा आगे नहीं बढ़ता। किस्से के प्रवाह के लिये पात्रों का होना निहायत ही ज़रूरी होता है। आइये इस शहर के दो बाशिन्दे को लेकर किस्सा आगे बढ़ाते है। गुलमोहर बी और ब्रह्मभट्ट। गुल और ब्रह्म।

पहली बार ब्रह्म ने गुल को शहर के चैराहे के पास धुंए से भरी एक गली में देखा था। एक लाश के पास बैठ विलाप करती हुई। तार-तार बुर्का, आंसू गालों पर जमे हुए। ब्रह्म ने एक उड़ती सी निगाह से उधर देखा और आगे बढ़ चला। वह भी अपने भाई की लाश फूंक कर घर जा रहा था ।

घुटे हुए सिर लिये लोगों को देखते ही अचानक गुल उठी और उनकी और दौड़ पड़ी ''अरे हत्यारों क्या बिगाड़ा था मेरे कलेजे के टुकड़े ने तुम्हारा .......... हमारा घर जलाया ....दूकानें जलाई ......मेरे सरताज को मार दिया ......और अब मेरे ...मेरे लाल को भी मार दिया..........। वह रोती जा रही थी और उन लागों को कोसती जा रही थी। साथ ही एक विशेष आवाज के साथ सांस भी ले रही थी। कुल-मिलाकर उसके गले से जो विभत्स आवाज निकल रही थी, वह शहर के वर्तमान हालात की प्रतिध्वनी थी। गुल का विलाप जारी था। ...''मुझे क्यूं छोड़ दिया मुझे भी मार डालो .....अरे इतने पाप किये है ..एक तो पुण्य करलो ..एक तो पुण्य करलो, मुझे भी मार डालो ....'' इन अंतिम शब्दों को दोहराती ठठ्ठा मार कर हँस पड़ी। इसी बीच दो पुलिस वाले आये, उसके जवान बेटे की लाश को गाड़ी में रखा और गुल को भी घसीट कर गाड़ी में लाद दिया ।

इस पूरे प्रकरण से ब्रह्म के मन में एक नफरत की लहर सी उठी। पुलिस वाले ना आते तो वह दौड़ कर उस औरत का टेंटूआ ही दबा देता। उसे घुटन सी महसूस हुई। वमन करने को मन हुआ उसने अपनी अंतस की घृणा को इकट्टा किया और फुटपाथ पर थूक दिया।

दूसरी बार गुल से उसका सामना तब हुआ जब वो अपने संकल्प को क्रियान्वीत करने जा रहा था । हाथ में पेट्रोल से भरा बल्ब, साथ में लटकती सूतली । .... यही वह सामान था जिसने इंसान की शिराओ में बारुद भर दिया था। हाथ में नफरत की दियासलाई लिये कही भी कभी भी फट पड़ने को तत्पर। स्वार्थ सिंचित धर्म वृक्ष, नफरत फल ही देता है।

यह फल सभी जाति समुदाय के संकुचित सोच सदस्यों को समान तृप्ती देता है । धर्मान्ध व्यक्तियों को तो यह अमृत तुल्य लगता है। .... हां तो दूसरी बार ब्रह्म ने गुल को तब देखा जव वह भाई की मौत का बदला लेने जा रहा था। चारों तरफ जलती दुकानें ... भागते लोग... जलते टायर... गोलियों की आवाजें। सब कुछ उसे बेहद रोमांचक लग रहा था। अब तक वह कई घर और दुकानें जला चुका था। उजाले दीपावली की याद दिला रहे थे। गोलियों की आवाज मानो छूटते पटाखे। जलते मांस और बारुद की गूंथी हुई गंध मानो हलवाई की दूकान से आती बयार। तभी गली के दूसरे छोर पर हाथ में पत्थर और होंठों पर ठहाका लिये गुल खड़ी दिखाई दी। शायद उसने भी बरबादी का जश्न मनाना सीख लिया था। गुल ने खींच कर ब्रह्म की तरफ पत्थर फेंका। उधर ब्रह्म ने भी सूतली में आग लगाई और बल्ब गुल की तरफ उछाल दिया। गली के मध्य दोनों टकराये और आग की दीवार खड़ी हो गई। कहीं दूर पुलिस की गाड़ी का सायरन सुनाई दिया। दोनों भाग लिये।

घर और दोस्तों में ब्रह्म बहुत ही सयाना व संकोची माना जाता था। साइकिल वर कॉलेज से सीधा घर आता, दिन भर पढ़ता रहता और शाम को छोटे भाई को साथ ले पड़ौस के दोस्तो के घर कैरम खेलता। पढ़ाई में भी वो सदैव अग्रिम पंक्ति मे ही गिना जाता था। दंगाइयों के हाथों मित्रवत भाई की हत्या के बाद तो उसकी दुनिया ही बदल गई थी। पिता तो थे ही नहीं और मां की आँखें पिता को नित्य तर्पण से धुंधला ही देख पाती। मां को यह आभास ही नहीं हुआ कि कब उसका अंतिम अवलम्ब अग्निपथ पर चल पड़ा। शहर में कई दिनों से कर्फ्यू था। वह दोस्तों के घर जाने का बहाना कर छत के रास्ते गली में उतर हैवान बन जाता।

एक सुबह खाना खाकर जैसे ही वही वह घर से जाने लगा। मां के कराहने की आवाज सुनाई दी। माथे पर हाथ धरा तो तप रहा था। थर्मामीटर लगा कर देखा। बुखार तेज था। एक तरफ नफरत के नशे का चस्का दूसरी तरफ मां की चिंता। कुछ पल की कशमकश के बाद आज उसने अपनी हैवानियत स्थगित रखी। नफरत पर प्रेम की विजय ने सिद्ध किया कि नफरत आंधी है, आती है और सब कुछ तबाह कर के चली जाती है। जबकि प्रेम तो वह सरस सलिल है जो सदैव बहती है, शाश्वत है, जीवनदायिनी है। कुछ देर मां के सिरहाने बैठ गीला गमछा माथे रख बुखार कम करने का प्रयत्न करता रहा। बुखार जब थोड़ा कम हुआ तो मां को डाक्टर के पास ले जाने का तय किया। बाहर के हालात ठीक नहीण होने पर भी वह मां को पड़ौस के डाक्टर के पास ले चला। अंदर डाक्टर जांच कर रहा था और बाहर आगजनी हो रही थी। धार्मिक उन्माद के नारे लग रहे थे। आज उसका ध्यान पूर्णतया मां की चिन्ता में ही लगा था। डाक्टर ने दवाई लिखी। मां को घर छोड़ा। उसे मालूम था कि सरकारी अस्पताल में मेडिकल स्टोर खुला होगा। अपने खुफिया रास्तों से वह अस्पताल की ओर बढ़ चला। स्टोर से दवा खरीदी और लौट गया। वह जल्दी में था। मां की चिंता सता रही थी। शीघ्र मां के पास पहुँच जाना चाहता था कि वही मस्त कर देने वाले वहशी नारे उसके कानों में पड़े। कदम एक क्षण को ठिठके, अंदर की नफरत ने अंगड़ाई ली। एक पल के लिये रुका। गहरी सांस खीच कर स्वयं पर नियंत्रण किया। हाथ में पकड़ी दवा को कस कर पकड़ा और दृढ़ कदमों से घर की और चला। जैसे ही वह अपने मोहल्ले मे दाखिल हुआ चीखने-चिल्लाने की आवाजें और बचाओ-बचाओ की पुकार सुनाई दी। वह झपट कर अपने घर की तरफ दौड़ पड़ा। उसने देखा घर आग से लपटों से घिरा पड़ा था। खिड़की में देखा तो दो हाथ पुकार को उठे हुए थे। ......माँ ....हाँ वह हाथ माँ ही के थे। वह माँ.. माँ.. चिल्लाता हुआ घर की और लपका कि एक गोली दनदनाती हुई आई और उसके कंधे में आग उतरती चली गई। सड़क पर ब्रह्म पछाड़ खाकर गिरा और ढेर हो गया।

इस घटना की मौन साक्षी गुल, वही एक कोने में सहमी सी दुबकी खड़ी थी ।

कई दिन बीत गये लोगों में और दंगे करने और सहने की क्षमता नहीण रही तो जिन्होंने पहले कहा था '' जाओ मेरे बच्चो, धर्म की रक्षा करो ... मजहब के लिये मर मिटो ... ईश्वर की रक्षा आज मानव के हाथ है'' । उन्होंने फरमान जारी किया .. ''रुक जाओ मेरे बच्चो, ... दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता..... तुम्हें भड़काने वाले तो शैतान की औलाद और इंसानियत के दुश्मन है ...'' और इस तरह शहर में शांति बहाल कर दी गई।

पिछले कई दिनों से ब्रह्म फटेहाल खुद से अंजान सड़कों पर घूम रहा था। उसकी स्मृति लुप्त हो चुकी थी। कहीं कोने में पड़ी जूठन खा लेता रात किसी दुकान के शटर से लिपटा पड़ा रहता। अब वह सभी रंजो-गम से निर्लिप्त था। भूत का साया नहीं, भविष्य को खौफ नहीं। खालिस आज में ही नहीं वरन् वर्तमान में जीता हुआ। धरती उसका घर थी और आसपास के सभी मौहल्लों के कचरापात्र उसके अपने सगे।

चैराहे पर थोड़ी भीड़ थी। वह भी कुछ खाना पाने की आस में वहां चला गया। दंगा पीड़ितों का पुनर्वास केम्प लगा था। एक बाबू बैठा समोसा खा रहा था। वह समोसे को बड़े अपनेपन से देखने लगा। बाबू ने देखा, चपरासी को ईशारा किया। चपरासी ने पत्थर उठाने का अभिनय कर, उसे वहा से भगा दिया। ब्रह्म निर्विकार पास की होटल के पिछवाड़े, जूठन तलाशने चला गया।

दूसरी तरफ गुल, आज तक सहमी हुई। एक बेटे के सामने मां का जलना, बेटे का लपकना, कंधे में गोली लगना, पछाड़ खा कर गिरना बेहोशी की हालत में माँ-माँ चिल्लाना, इस पूरे घटना क्रम ने गुल को झकझोर कर रख दिया था। वह भी बदहवास लावारिस गलियों में भटका करती। इस दुनिया में अब उसका भी कोई नहीं था। अपनी सुरक्षा के लिये हाथ में हमेशा एक पत्थर रखती। मारने का अभिनय करती पर मारती किसी को नहीं। पत्थर लेकर लपकती परन्तु पास आकर पुचकार कर, माथे हाथ फेर कर चली जाती। दिन भर जनअरण्य में देह जठर और मन ममता की क्षुधातृप्ति को भटकती रहती। ब्रह्म जिस होटल के पिछवाड़े खाना तलाश रहा था वह भी वहाँ पहुँच गई। दोनों एक दूसरे को देखते रहे। फिर गुल के होंठ फड़फड़ाए ....बाहें पसारी और रो पड़ी ....बेटा .... । ब्रह्म स्तब्ध, विचारशून्य....। महीनों बाद किसी रिश्ते से सम्बोधित हुआ था। पलके बंद किये नतजानू वही बैठ गया। अपने लुट चुके स्मृतिकोश से लड़ता रहा। धीरे-धीरे धुँध छटने लगी। सड़क किनारे तार-तार बुर्के में अपने बेटे की लाश का सर गोद में रख रोती एक छाया, पलक पटल पर उभर आई। फिर जलती खिड़की में उभरे दो हाथ नजर आये। उसे लगा गोद में लेटे बेटे का चेहरा उसका अपना है और गुल के दोनों हाथ जल रहे हैं। उसने बेटे की लाश में कुछ हलचल महसूस की । अचानक वह दौड़ पड़ा और ... माँ .... कहता हुआ गुल से लिपट गया । दोनों की आंखों में अश्रुधारा बह निकली । रक्त के सैलाब से उजड़ चुकी धरा पर अश्रुसिंचन से एक नये मजहब की कौंपल फूट पड़ी। चेतना का कबूतर आशातृण लिये रिश्तों के खंडहर पर उतर गया ।

कोण और किस्सों का विस्तार अनंत होता है उन्हें सीमित करने के लिये कहीं ना कही चाप कांटना ही पड़ता है। इस किस्से को भी यहा चाप काट कर पूरा किया जाता है। पर आइये एक नजर चाप से परे भी डाल देते हैं।

अब दोनों अक्सर शहर के किसी कौने में खाना तलाश करते मिल जाते। दोनों के पास जो भी खाने का होता मिल-बांट लेते। धीरे-धीरे दोनों को पता चला कि वह अकेले नहीं है। उन जैसे बहुत हैं। अलग-अलग मजहब से आये हैं। पर वे आपस में कभी नहीं लड़ते। ना इनमें धर्मान्धता है, ना मजहबी उन्माद। सबका, सब कुछ दंगों में जल गया या लूट लिया गया है । हर एक का कोई अपना या तो दंगाइयों के हाथों मारा गया है या पुलिस की गोली से हलाक हुआ है। ये सभी किसी संत की मानिंद है जिनकी चेतना मां अन्नपूर्णा को समर्पित है। भूख इनका मजहब है, कचरा पात्र मंदिर और जूठन आराध्य। यहां गुलमोहरबी मां है और ब्रह्मभट्ट बेटा। हर दंगे के बाद इस समुदाय के सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब इस दंगों के को अमन के शहर होने में अधिक देर नहीं है।

--विनय के जोशी

Thursday, December 11, 2008

13 जुलाई 2010 : प्लास्टिक की पलकें

निखिल सचान द्वारा रचित धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैबंद' शृंखला के दो भाग '10 मार्च ,1998 : इतिश्री' और '14 जुलाई 1998 : मिट्टी के असबाब' पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए इसकी तीसरी कड़ी॰॰॰॰




१३ जुलाई २०१० : प्लास्टिक की पलकें


वो शायद आरव नहीं था और मैं चाहता भी नहीं हूं कि वो आरव हो लेकिन मुझे कहानी से मतलब है और एक नाम से भी , इसलिए मैं उसे आरव ही कहूंगा , क्या पता वो बाद में आरव ही निकले और एक अतिरिक्त नाम और एक रिक्त शब्द का मेरा खर्चा बच जाए .बस इतना ज़रूर पता है कि उसके घर में भी वैसी ही डाइरी की चिंदियों के पैबंद मिले थे जैसे मैंने आरव के पास से निकाले .
खैर ये हिस्सा शुरु होता है ठाणे पोलिस स्टेशन , मुंबई से .
आरव लकड़ी की एक बेंच पर बैठा हुआ था , उसे पहचानना ज़रा मुश्किल था . आंखों के नीचे काले घेरे , झाइयां , घुंघराली झुर्रियां और उथले गड्ढे अपनी अपनी स्पष्ट सत्ता बनाए नुमायां थे और उनका अस्तित्व बाकी चेहरे के अस्तित्व के मुक़ाबले कहीं से भी कमती नहीं था . उसकी आंख आधे हांथ के पोलिस के डंडे और उसके नीचे रक्खी लाल फ़ाइल पर झूल रही थी और उसे दोनों चीज़ें आपस में घुलती हुई दिखाई दे रही थीं . कोई भी दो आस पास रक्खी चीज़ों में सही सही फ़रक़ करना उसके लिए आसान काम नहीं था . एक टक घूरते रहने के अचानक बाद उसे एक झटके से ध्यान आता था कि उसके सिर का वज़न सम्भालना उसके लिए आसान नहीं है इसीलिए जैसे ही उंगली चिटकने की आवाज़ के जैसे एक चुटकी उसकी गर्दन के पीछे बजती थी, वो दोनों हंथेलियों के बीच अपनी गर्दन थाम कर उसे वापस सही ठिकाने पर रख देता था .
उसके एक हांथ में मोबाइल था और दूसरे हांथ में अखबार .मोबाइल बासी और अखबार ताज़ा . मोबाइल की स्क्रीन पर कोई नेट्वर्क का निशान नहीं , ना ही बैटरी का .अखबार के पहले पन्ने पर किसी ना पहचानी हुई जनानी लाश की खबर थी .
वो बार बार अपना मोबाइल अपने कान पर लगाता था , फ़िर हांथ से झटकता था , हेलो जैसा ही कुछ बोलता था और फ़िर उसे खिड़की की ऊंचाई तक ले जाकर सिग्नल पकड़ने की कवायद करता , लेकिन मोबाइल सिग्नल नहीं पकड़ रहा था क्योंकि उसे शायद ही होश था कि वो बस दस साल पुराने खिलौने जैसी कोई चीज़ ही हांथ में लिए हुए था .जिसमें ना तो कोई बैटरी ही थी और ना ही शायद कोई सिमकार्ड भी .
ये फोन एक मात्र ऐसी चीज़ थी जो हमेशा उसके पास रहती थी . रात में सोने के लिए वो उसे अपने कान से सटाकर लेटा रहता था .सारी रात सीलिंग ताकता रहता था और किसी के फोन आने का इंतज़ार करता रहता था .इसी खेल में रात ज़ाया हो जाया करती थी और कभी कभी नहीं भी .फोन के माउथपीस पर वो रात भर कुछ कुछ बुदबुदाता रहता था .बीच बीच में उसे तकिए पर पटककर सिग्नल देखता रहता था या फ़िर बिस्तर के बगल में लगी दीवार पर खुदी खिड़की की सीखचों के बाहर उसे लहराने लगता था कि अब शायद सिग्नल आ जएगा. आंखें बंद करने की कोशिश करता तो अचानक से तेज सिहरन और उलझन गुंथ कर उसके सीने में कई चक्कर दौड जाया करती थीं और वो अपनी दुबली पिंजरनुमा छाती घबराकर रगड़ने लगता था .कभी कभी थोड़ी देर बाद आराम पड़ जाता था लेकिन ज्यादातर बार नहीं भी .संक्षेप में बताऊं तो उसे एक्यूट इंसोम्निया था . अजीब अजीब इल्यूज़न्स होते थे और किसी इल्यूज़न के दौरान ही उसके आंखें बंद हो पाती थीं , भ्रम खतम और शटर की तरह आंख भी खुल जाती थी .वो खिलौने वाली गुड़िया तो देखी ही होगी ना तुमने जिसे झुकाओ तो गोल बटन सी आंख अपने भार से खुद बखुद बंद हो जाया करती थीं और खड़ा कर दो तो चुड़ैल प्लास्टिक की पलकों से कैसे आंखें फ़ाड़ फ़ाड़ कर घूरने लगती थी !
आरव भी ऐसा ही हो गया था . उसकी अखरोट के रंग वाली आंखें भी वैसे ही इल्यूज़न्स के इशारों पर रात भर गुलामी करती रहतीं थीं .
भ्रम लम्बा खिंच गया तो नींद की सब्स्टीट्यूट बनकर बेहोशी सी आ जाती थी और नींद की ज़रूरत भी पूरी कर ली जाती थी . और इसी से दिमाग की उलझी पड़ी नसों की छोटी मोटी मरम्मत भी हो जाया करती थी .बहरहाल जीने का कारोबार ज़िंदा था ....

यहां ,स्केच बनाने वाला आरव के पास लाया गया . होलकर , शिंदे और गोडसे आरव की बेंच के बगल में खड़े थे . होलकर बोला ,
"सर मैं अब भी कहता हूं कि ये साला किसी कातिल का स्केच नहीं बनवा पाएगा , इसे कुछ पता भी नहीं है हलकट को . खाली पीली टाइम खोटी करने आया है .पता नहीं खुद को भी पहचानता है कि नहीं साला "
"देखो कैसे घूरता है एक नज़र में , जैसे अखबार जला देगा आंख से ! "
शिंदे को भी ख़ास भरोसा नहीं था उस पर लेकिन दिल्चस्पी ज़रूर थी ये जानने में कि वो जैसा सोच रहा है वैसा ही कुछ है कि नहीं ?.
गोडसे को लग रहा था कि शिंदे और होलकर क्यों उसकी घंटों की मेहनत खराब करने पर तुले हुए हैं ...ख़ास तौर पर तब , जबकि ये साफ़ था कि लड़की का ख़ून नहीं हुआ है और वो क्रानिक इंसोम्निया की शिकार थी ,इसी के चलते वो बड़ी बड़ी बिना नींद की खुली हुई गोल काली आंखें लिए बिस्तर पर पड़ी मिली थी . पूरे शहर में उसे पहचानने वाला कोई था नहीं और पहचानाता भी होता तो मुंबई में ज़बर्दस्ती अपनी देने आता ही कौन है !
"काए रे ! जानता है तू उसे ? "
उसने फ़िर घूरा ...
"हां "
"कातिल को ? "
इस बार खाली घूरा...ज़वाब नहीं दिया ...
"बोल ना ..जानता है कातिल को ? "
"हां "
"ठीक है ..गोडसे तो ले के जा इसे अंदर और स्केच तैयार करा ."
आरव और गोडसे अंदर चले गए .
"कैसा बदन था ? "
"इकहरा "
"नाक ?"
"नुकीली "
गोडसे धीरे धीरे डीटेल्स लेने लगा और कैन्वस पर एच.बी. ने एक शकल को उकेरना शुरू कर दिया.बीच बीच में वो आरव पर खीझता भी था और चिल्लाता भी क्योंकि आरव लगातर ऊंघ रहा था और फ़िर वो प्लास्टिक की पलकों वाली कमीनी गुड़िया के जैसे गोडसे को घूरने लग जाता था ....
आरव के ६ बाई ८ के कमरे में अजीब अजीब से असबाब फ़ैले पड़े थे .
पूरे घर में एक भी शीशा नहीं था ,रोशनी के नाम पर बस ज़ीरो वाट का बल्ब . बेड-पोस्ट पर रेस्ट्रां के कुछ बहुत पुराने बिल पड़े थे . ध्यान से सिग्नेचर देखने पर पता पड़ जाता था कि वो सब लगभग ११-१२ साल पुराने हैं . ज्यादातर में आर्डर रिपीट हुआ था , १ वेज-सैंडविच और दो कप मोका. रेस्ट्रां का नाम ’द सिज़लर्स’ , कोलाबा .
बेड पोस्ट के ठीक ऊपर एक कैलेंडर टंगा हुआ था जिसमें कुछ कुछ तारीखों को आरव ने लाल मार्कर से गोल घेरा हुआ था और कुछ लगातार तारीखों पर काला क्रास .नवम्बर ४ से २८ . लाल घेरे पर एरो लगाकर कुछ कुछ चार लाइनों की पोएट्री अथवा गज़ल .
बेड के नीचे एक बर्थडे केक का डिब्बा भी रक्खा हुआ था जिसकी साइड वाल्स पर बटर क्रीम की फ़ंगस लगी हुई थी . और वैसी ही सहेजी हुई काफ़ी सारी चीज़ें और वैसी ही लिखावट की डायरी जिसकी वजह से मुझे लगा कि वो आरव था .
दो तीन पेंटिग्स पड़ी हुई थीं , जिस पर उसने सिरफ़ घुंघराले बाल और एक सुन्दर सी मुस्कान उकेरी हुई थी . एक प्यारी सी लड़की की उससे भी ज्यादा प्यारी मुस्कान कि कसम से किसी को भी पल भर के लिए उसकी दुनिया से खींच ले जाती मनमोहनी और उसके सारे ग़म अपने जादू से ग़लत कर देती . ये वैसी लड़की की हंसी नहीं थी जो सोफ़िस्टिकेशन के उसूलों के तहत हथेली या नैपकिन के पीछे दबाकर हंसी गई हो .ये एक ऐसी लड़की की हंसी थी जो ऊपर वाले की महर नज़र आती थी , उसके सबसे बेशकीमती मोतियों की ख़नक,चमक,धमक और हनक के साथ जीवंत !
काश उस लड़की की पूरी तस्वीर आरव ने बनाई होती तो देखने वालों के बहुत से मुग़ालते दूर हो गए होते जिसे वो आज तक भूलवश खूबसूरती समझा करते थे वो तो इस तस्वीर के अतिरिक्त और कहीं बेनक़ाब हुई ही नहीं ! ऐसे घुंघराले बाल जो सिर्फ़ किसी की पतली पतली उंगलियों से सुलझाने के लिए ही बने हों . कंघा लगा दो तो शायद बेचारी भोली परी चीख पड़ती ...
बेड पर कुछ कागज़ के टुकड़े पड़े थे जिन पर बच्चे की लिखावट में गज़लों की लाएनें लिखी हुई थीं,एक के ऊपर एक ,जैसे कि अंधेरें में लिखने की कोशिश की गई हो और उसी से लाइनें एक के ऊपर एक अंधेरे में भटक कर लिपट गई हों या फ़िर अंधेरे का फ़ायदा उठा कर लिपट गई हों .पन्नों को दबाने के लिए पेपरवेट की तरह उन पर एक काले वेलवेट के कवर की डायरी रक्खी हुई थी और उसमें सुर्ख लाल ग़ुलाब के जीवाश्म भी दबे पड़े मिले थे , जो पन्नों में घुट कर लाल बुरादा हो चले थे लेकिन तबियत से सूंघो तो यक़ीन होता था कि तबस्सुम की उमर रूह की उमर से कितनी ज्यादा लम्बी होती है .खुशबू अभी भी ताज़ा थी ....
ख़ैर ..यहां पोलिस स्टेशन में गज़लों और तबस्सुम की दुनिया से अलग-थलग एक दूसरी दुनिया थी जहां पर अभी भी गोडसे ,आरव के साथ सर खपा रहा था .
"और कोई ख़ास निशानी बताना चाहते हो ?"
"नहीं..."
"कुछ बाकी रह गया हो तो बता दो ..."
"नहीं.."
गोडसे को लगा कि उसके साथ काफ़ी मज़ाक हो चुका था...पर्याप्त मात्रा में , वो अब और झेलने की दशा में बिल्कुल नहीं था . दशा में यदि था भी तो कम से कम मूड में तो बिल्कुल नहीं था .कार्यवाही और ज़िम्मेदारी दोनों खतम मान कर उसने घंटों से कैनवस के कूल्हे घिसती हुई एच.बी. की नोक मेज पर पटककर गर्दन से तोड़ डाली और शिंदे को आवाज़ दी .शिंदे अंदर आया तो कुर्सी पर आरव अभी भी बीच बीच में ऊंघ रहा था .
मेज पर अख़बार पड़ा हुआ था ,जिस पर घुंघराले बालों वाली जनानी लाश की तस्वीर थी ...
साथ में पड़ा था गोडसे का बनाया हुआ स्केच ...
ये नुकीली नाक, अखरोट सी आंखें और इकहरे बदन वाले एक तीस साल के नौजवान की तस्वीर थी .उसकी शकल में कुछ झुर्रियों ,काले घेरे , घुंघराली झाइयां और बाकी बचे कुछ गड्ढे जोड दिए जाते तो ये साफ़ था कि यही चेहरा कैनवस से निकल कर सामने बेंच पर ऊंघ रहा था ...
लड़के और लड़की की तस्वीर के बीच में एक मोबाइल पड़ा था जो नेटवर्क पकड़ने की अभी तक कोशिश कर रहा था ....
अखबार और कैनवस में कुछ प्लास्टिक की पलकों वाली आंखें भी पड़ी थीं दोनों की ...एक की बंद और दूसरे की खुली ...
मोबाइल जादू की छड़ी जैसा ....
इशारे पर आंखें खोलता बंद करता हुआ...
अभी भी नेटवर्क की तलाश में बेवकूफ़ ...
मुझे डर है कि वो आरव ही था ....

क्रमशः॰॰॰॰