तीन दिन पहले प्रेमचंद की याद में कुछ लिखने के लिए जब प्रेमचंद सहजवाला से शैलेश भारतवासी ने आग्रह किया तो प्रेमचंद जी ने दिल्ली के कई पुस्तकालयों में अपने दो दिन लगाकर यह विश्लेषण भेजा।
प्रेमचंद - एक युग पुरूष
लेखक- प्रेमचंद सहजवाला
shakespeare ने कहा है 'what is in a name'. मैं जब स्वयं अपने नाम की तरफ़ देखता हूँ तो यह कहावत याद आती है. प्रेमचंद जैसे महापुरूष का हम-नाम होना खुशी की बात हो सकती है,
पर शायद कई जन्म ले कर भी उस महान विभूति के बराबर नहीं हुआ जा सकता. यदि कोई उनके चरणों की धूल के एक कण की संज्ञा दे दे तो यही सौभाग्य है. मैं प्रेमचंद के जाने के भी एक दशक बाद दुनिया में आया. इसलिए उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. पर कहानियाँ लिखनी शुरू की तो एक दिन स्वयं तो दिल्ली के हौज़ खास में प्रेमचंद के सुपुत्र श्रीपत राय के यहाँ बैठा पाया. श्रीपत राय ने 'कहानी' पत्रिका में मेरी 25 के करीब कहानियाँ छापी व एक प्रतियोगिता में पुरस्कार भी दिया. मेरे पहले संग्रह की भूमिका भी उन्होंने लिखी. तब मैं मौसम विभाग के सोनीपत कार्यालय तैनात था और अक्सर दिल्ली आता तो श्रीपत राय के दर्शन करने अवश्य जाता. वहां उनके चित्र देखते देखते व उनसे बातें करते हुए अपने सौभाग्य पर ऑंखें स्वयमेव छलछला जाती कि मैं प्रेमचंद के घर बैठा हूँ. श्रीपत राय मेरी कहानियो पर खूब डांटते कि भाषा कितनी कच्ची है. पात्रों की विविधता है ही नहीं. कभी वे कोई कमज़ोर कहानी लौटाते तो बस में वापस आते आते कहानी के लौटने का कोई गम न रहता बल्कि मन में एक खुशी का सैलाब सा उमड़ रहा होता कि मुझे प्रेमचंद के सुपुत्र ने डांटा है. श्रीपत राय ने ही प्रेरणा दी कि सभी कहानियाँ मेरे पास क्यों भेज देते हो. उनकी प्रेरणा से ही धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान सारिका वामा व रविवार जैसी पत्रिकाओं में छपा. एक कहानी संग्रह को शिक्षा मंत्रालय का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. पर यह सब श्रीपत राय जी की प्रेरणा से ही हुआ. श्रीपत राय ने मेरे संग्रह की भूमिका में लिखा - 'उनकी कहानियाँ जीवन की आतंरिक अनुभूति में उद्भूत हुई हैं. उनमें जीवन की पीड़ा है. और उस पीड़ा को झेलने की क्षमता प्रदान करने वाली अदम्य शक्ति. अभी इन रचनाओं में सर्वगुण-संपन्नता की खोज मैं नहीं कर रहा हूँ. मैं तो इन रचनाओं के नियंता को अपनी संतति मानने की अवज्ञा कर रहा हूँ'.
अब वो दौर भी समाप्त हो गया है. पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो अपनी उपलब्धियों की फ़िक्र नहीं होती. वे बहुत कम हैं. पर महापुरुषों की जन्म तिथियों पर अपनी कलम से चंद श्रधा पुष्प अर्पित करता हूँ, इसी सौभाग्य से प्रायः फूला नहीं समाता
तारीख 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में एक युग पुरूष का जन्म हुआ जिसने विश्व साहित्य की फलक पर भारत के नाम को बुलंदियों पर पहुँचा दिया. गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि व गबन जैसे विश्व प्रसिद्द उपन्यासों व शतरंज के खिलाड़ी, ठाकुर का कुआँ, कफ़न, पूस की रात व दो बैलों की कथा जैसी सशक्त कहानियों के रचयिता प्रेमचंद किसी एक भाषा के लिए गर्व का विषय नहीं हैं वरन समस्त साहित्य जगत के शाश्वत युग द्रष्टा हैं. जन्म के समय पिता ने उन का नाम रखा धनपत राय व ताऊ ने रखा नवाब राय. ७ वर्ष के थे तो माँ चल बसी व 14 वर्ष के थे तो पिता चल बसे. तदुपरांत सौतेली माता व सौतेले भाई के साथ जीवन यापन प्रारम्भ किया. लगभग उसी समय उनका बेमेल सा विवाह हुआ और वे एक लंबे समय तक अपनी पत्नी से अलग रहे. इस के बाद मार्च 1906 में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया जो मृत्यु पर्यंत उनकी जीवन संगिनी बनी रही. बीसवीं सदी के उस पहले दशक में एक विधवा से विवाह करना एक क्रन्तिकारी कदम था जो ईश्वरचंद्र चंद्र विद्यासागर द्वारा करवाए गए प्रथम विवाह के बाद हुए बहुत कम विधवा विवाहों के कड़ी में था.
बचपन में गरीबी के कारण देखे गए संघर्षमय दिनों के बावजूद, समय के साथ उनकी शख्सियत कैसी बनी इसकी दो झलकियाँ हम उनके ही सुपुत्र अमृत राय के व शिवरानी देवी के शब्दों में देखते हैं.
प्रसिद्व पुस्तक 'प्रेमचंद स्मृति - स्नेह के फूल' (चयन अमृत राय) में कई लेखकों के प्रेमचंद सम्बन्धी संस्मरण हैं. अमृत राय अपने संस्मरण में लिखते हैं -
'क्या तो उनका हुलिया था. - घुटनों से ज़रा ही नीचे तक पहुँचने वाली मिल की धोती, उसके ऊपर उसके ऊपर गाढे का कुरता और पैर में बन्ददार जूता.. गंवैया भुच्च जो अभी गांव चला आ रहा है, जिसे कपड़ा पहनने की भी तमीज नहीं, जिसे यह भी नहीं मालूम की धोती कुरते पर चप्पल पहनी जाती है या पम्प. आप शायद उन्हें प्रेमचंद कह कर पहचानने से भी इनकार कर देते. मुझे अच्छी तरह याद है सस्ते के ख़याल से किरमिच का जूता पहना और रंगरोगन की झंझट न रहे, रोज़ रोज़ उस पर सफेदी पोतने की मुसीबत से निजात मिले इसलिए वह किरमिच का जूता brown रंग का होता था जिसे आजकल तो शायद रिक्शेवाला भी नहीं पहनता और शौक से तो नहीं ही पहनता....
... उन्हें ऐशो-इशरत पसंद होती तो जहाँ अंतःकरण को बेच कर बहुत लोग बम्बई की फिल्मी दुनिया में पड़े रहते हैं वहां प्रेमचंद भी अपने अंतःकरण का थोड़ा बहुत सौदा कर के पड़े रह सकते थे. और (फिल्मी दुनिया में) एक हज़ार रूपया महीना तो पा ही रहे थे और भी ज़्यादा बनाने के सिलसिले निकाल सकते थे - लेकिन नहीं ऐशो इशरत की संकरी सुनहली गली उनके लिए नहीं थी. उनके लिए खुली हवा का राज मार्ग ही बेहतर था., जहाँ वे एक बड़ के तले कुएं के पास आराम से अपनी जिंदगी बिता सकते थे. वहां खुली हवा तो है, ताज़ा ठंडा मीठा पानी तो है नीला आसमान तो दिखाई देता है, राह चलते किसी आदमी का बिरहा तो सुनायी दे जाता है. आदमी आदमी के दुःख दर्द की तो एकाध बात कर लेता है....'
अमृत राय के इन शब्दों में प्रेमचंद की पूरी साहित्यिक शख्सियत छलकती है.. वे आम आदमी के साहित्यकार थे जो खेतों में सड़कों पर व कारखानों में अपनी जिंदगी की गर्दिशों से जूझता था.
सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति प्रेमचंद के विषय में उसी पुस्तक 'प्रेमचंद स्मृति' में स्वयं उनकी पत्नी शिवरानी देवी एक प्रसंग ले कर लिखती हैं -
' प्रेस खुल गया था, और आप स्वयं (प्रेमचंद) वहां काम करते थे; जाड़े के दिन थे. मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जँचे और गरम कपड़े बनाने के लिए अनुरोध पूर्वक दो बार चालीस चालीस रूपये दिए परन्तु उन्होंने दोनों बार वे रुपये मजदूरों को दे दिए. घर पर जब मैंने पूछा - कपड़े कहाँ हैं? तब आप हंस कर बोले - कैसे कपड़े? वे रुपये तो मैंने मजदूरों को दे दिए; शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद लिया होगा. इस पर मैं नाराज़ हो गयी. तब वे अपने सहज स्वर में बोले - जो दिन भर तुम्हारे प्रेस में मेहनत करे वह भूखा मरे और मैं गरम सूट पहनूं, यह तो शोभा नहीं देता. उनकी इस दलील पर मैं खीझ उठी और बोली - मैंने तुम्हारे प्रेस का ठेका नहीं लिया है. तब आप खिलखिला कर हंस पड़े और बोले - जब तुमने मेरा ठेका ले लिया है तब मेरा रहा ही क्या? सब तुम्हारा ही तो है... मैं निरुत्तर हो गयी और बोली - मैं ऐसा सोचना नहीं चाहती. तब उन्होंने असीम प्यार के साथ कहा - तुम पगली हो. '
जीवन के अन्तिम क्षण तक साथ देने वाली इस जीवन संगिनी के विषय में स्वयं प्रेमचंद क्या कहते हैं यह उसी, शिवरानी जी के लेख में ही देखिये. गरम सूट आख़िर उन्होंने प्रेमचंद के भाई साहब के माध्यम से बनवा ही लिया और आख़िर पहन कर जब उन्होंने शिवरानी जी को सलाम किया तब वे बोली -
'सलाम तो बड़ों को किया जाता है; मैं तो न उमर में बड़ी हूँ न रिश्ते में न पदवी में फिर आप मुझे सलाम क्यों करते हैं? तब उन्होंने उत्तर दिया - उम्र, रिश्ता, या पदवी कोई चीज़ नहीं है; मैं तो ह्रदय देखता हूँ और तुम्हारा ह्रदय माँ का ह्रदय है. जिस प्रकार माता अपने बच्चों को खिला पिला कर खुश होती है, उसी प्रकार तुम भी मुझे देख कर प्रसन्न होती हो और इसीलिए अब मैं हमेशा तुम्हें सलाम किया करूँगा.'
ब्रिटिश काल था और महात्मा गाँधी नेहरू व पटेल के रास्ते पर चलते असंख्य लोग देखते देखते जेलों में भर जाते थे. प्रेमचंद व पत्नी शिवरानी देवी पर भी ब्रिटिश के प्रहार होने ही थे. शिवरानी देवी भी महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन के बाद गिरफ्तार हो गयी थी. पर प्रेमचंद ब्रिटिश की निर्ममता के उससे पहले ही तब शिकार हो गए थे जब नवाब राइ नाम से उनका उर्दू कहानियो का संकलन 'सोजे वतन' छपा था. तब वे बीस रुपये मासिक वेतन पर सरकारी अध्यापक थे. कहानियाँ देश भक्ति की भावना से भरी थी. collector ने उन्हें बुला कर झाड़ते हुए कहा था कि आपकी कहानियो में ज़बरदस्त sedition (भड़काने वाले भाव) है. यदि आप मुग़ल सल्तनत के समय होते तो आप के दोनों हाथ काट दिए जाते. collector ने उस संग्रह की बची हुई सात सौ प्रतियाँ अग्नि की भेंट चढा दी थी. प्रेमचंद उस समय तक धनपत राय या नवाब राय के नाम से लिखते थे पर अब प्रेमचंद नाम से लिखने लगे. पर ब्रिटिश से पूर्णतः मुक्त वे तब हुए जब 8 फ़रवरी 1921 को उन्होंने गोरखपुर में महात्मा गाँधी का भाषण सुना और 16 फ़रवरी 1921को उन्होंने बीस साल पुरानी सरकारी नौकरी छोड़ दी. पति पत्नी कांग्रेस में थे तब . प्रेमचंद ने पत्नी शिवरानी देवी से एक बार कहा - 'मैं महात्मा गाँधी को सब से बड़ा मानता हूँ. उनका भी उद्देश्य यही है कि मजदूर और काश्तकार सुखी हों और मैं भी लिख कर उनको उत्साह दे रहा हूँ. वे हिंदू मुसलमान एकता चाहते हैं तो मैं हिन्दी उर्दू को मिला कर हिन्दुस्तानी बनाना चाहता हूँ (सन्दर्भ - साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित वृहद पुस्तक 'प्रेमचंद रचना- संचयन' में कमल किशोर गोयनका का लेख 'निवेदन' पृष्ठ ११)
कांग्रेस के उन दिनों का ही सन्दर्भ दे कर शिवरानी देवी अपने संस्मरण में एक दिन का विवरण देते लिखती हैं, जब प्रेमचंद घर में ही रह गए थे और वे कई महिलाओं के साथ कांग्रेस कार्यालय गई थी ('प्रेमचंद स्मृति') -
'आठ बजे रात को जब लौटी तब लड़कों के ज़बानी मालूम हुआ कि आप भी कांग्रेस दफ्तर की तरफ़ गए हैं. आख़िर आप रात के दो बजे आए, मेरे पूछने पर मुस्करा कर बोले - जब तुम्हें देश प्रेम बेबस कर सकता है तो क्या मुझे नहीं कर सकता?'
उसी वार्तालाप में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी को बताया -
'मैं तो मजदूर हूँ. लिखना मेरा धर्मं है - यही मेरी मजदूरी है इसमें मुझे संतोष है ...'
कलम के सिपाही प्रेमचन्द जी नाम लेते ही आँखों के समक्ष एक चित्र उभरता है- गोरी सूरत, घनी काली भौंहें, छोटी-छोटी आँखें, नुकीली नाक और बड़ी- बड़ी मूँछें और मुस्कुराता हुआ चेहरा। टोपी,कुर्ता और धोती पहने एक सरल मुख-मुद्रा में छिपा एक सच्चा भारतीय। एक महान कथाकार- जिसकी तीक्ष्ण दृष्टि समाज और उसकी बुराइयों पर केन्द्रित थी। एक समग्र लेखक के रूप में उन्होने मध्यवर्गीय समाज को अपने साहित्य में जीवित किया।
अनेक पत्र- पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए ख्याति प्राप्त की। १९०१से इनकी लेखनी चलनी प्रारम्भ हुई तो चलती ही रही। इन्होने कथा जगत को तिलिस्म , ऐयारी और कल्पना से निकाल कर राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी भावनाओं की दुनिया में प्रवेश कराया। १९३० में 'हँस' निकाला और १९३२ में 'जागरण'।
सरकारी नौकरी में स्वाभिमान आड़े आया और त्यागपत्र देकर गाँव लौट आए। कलम चलाकर ४०-५० रपए में घर चलाने लगे। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा खी। कभी जेल नहीं गए, किन्तु सैनिकों की वाणी में जोश भरा। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से अपने विचार जन-जन में पहुँचाए।
उन्होंने पहली बार कथा साहित्य को जीवन से जोड़ा और सामाजिक सत्यों को उजागर कर अपने दायित्व का निर्वाह किया। उनमें पर्याप्त जागरूकता और सूक्ष्म दृष्टि थी। उन्होंने अपने युग को पहचाना । जीवन की पाठशाला में जो भी सीखा उसी को साहित्य का आधार बनाया। समाज, जीवन और भावबोध प्रेमचन्द के लिए महत्वपूर्ण बातें थीं। वे ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे जिसमें किसी का भी शोषण ना हो ।
प्रेमचन्द प्रगतिशील साहित्यकार थे किन्तु उनकी प्रगतिशीलता आरोपित नहीं थी। वे भारत को रूढ़िमुक्त करना चाहते थे। उन्होने मध्यम वर्गीय आत्मप्रदर्शन व आडम्बर प्रियता पर करारी चोट की, उनका विविध चित्रण किया। निर्मला उपन्यास मध्यवर्ग और उसकी कमजोरियों का कच्चा चिट्ठा है। गोदान में ग्रामीण जीवन को जीवित किया है।
उनका साहित्य एक ओर भारत की अधोगति, और दूसरी ओर भारत की भावी उन्नति के पथ पर चला है। उन्होंने जिस विचारधारा का सूत्रपात किया वह थी पापाचार का निराकरण। उन्होंने अपने उपन्यासों में धर्म की पोल खोली है। हिन्दू धर्म की की जीर्णशीर्णता का सुन्दर चित्रण किया व धर्म को मानवता वादी आधार प्रदान किया। उन्होंने मनुष्य सेवा को ही ईश सेवा माना।
प्रेमचन्द जी ने अपने समाज की रूढ़ियों पर खुलकर प्रहार किया। उन्होंने अपने उपन्यासों के द्वारा पाठकों तक ऐसी भावनाओं का सम्प्रेषण किया जिसमें जीवन के प्रति गरिमा हो। उन्होंने समाज को दिशा प्रदान की। प्रेमचन्द जी ने पूँजीवाद का तीव्र विरोध किया।
नारी को प्रगतिशील बनाया तथा बाल-विवाह और अनमेल विवाह के दुष्परिणामों से समाज को परिचित कराया। निर्मला का करूण अन्त चीख-चीख कर यही कहता है। दहेज प्रथा से उन्हें चिढ़ थी। दहेज का दुष्परिणाम भी इनके उपन्यासों में मिलता है।
उन्होंने किसानों की समस्याओं को लेखनी में उतारा। मज़दूरों, युवकों, विद्यार्थियों और अछूतों को साहित्य का विषय बनाया और उनके कष्टों को वाणी दी।
शोषण,गुलामी,ढ़ोंग, दंभ,स्वार्थ रूढ़ि, अन्याय,,अत्याचार सबकी जड़ें खोदीं और मानवता की स्थापना की।
गोदान, मंगलसूत्र निर्मला सेवासदन इनकी अमर कृतियाँ हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानियाँ हिन्दी साहित्य का श्रृंगार हैं। बड़े भाई साहब, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, कफ़न,आज भी प्रासंगिक हैं। समाज का हर वर्ग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ उनमें जीवित है।
आर्थिक समस्याएँ उन्हें फिल्म जगत में ले गईं किन्तु समझौता करना उनका स्वभाव नहीं था। वापिस आ गए और संघर्षों से भरा जीवन जीते रहे । ८ अक्टूबर १९३६ को मात्र ५६ वर्ष की अवस्था में पंचभौतिक शरीर को त्याग परम तत्व में विलीन हो गए।
प्रेमचन्द की कथाएँ और उनके उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। जब-जब उन्हें पढ़ा जाएगा, जन मानस उन्हें अपने बहुत करीब ही पाएगा। उस पवित्र आत्मा को मेरा शत-शत नमन। -शोभा महेन्द्रू
प्रेमचंद B.A तक की परीक्षाएं आर्थिक संघर्षों नौकरियों ट्यूशनों के बीच केवल द्वितीय श्रेणी में ही पास कर पाए, पर बचपन ही से उन्हें पुस्तकें पढने की एक अदम्य भूख सी थी. २० वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते विश्व का प्रमुख साहित्य पढ़ डाला. उनकी प्रखर शख्सियत ने एक भावी युग पुरूष को जन्म दे दिया था. उर्दू के बाद वे जब हिन्दी में भी लिखने लगे तब उनकी पहली कहानी 'सौत' छपी तथा उनका पहला हिन्दी कहानी संग्रह 'सप्त-सरोज' जब छपा तब साहित्य प्रेमियों ने सहज ही उन का नाम गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के समकक्ष रख दिया . देखते देखते प्रेमचंद नाम विश्व के साहित्याकाश पर छा गया. प्रेमचंद के उपन्यासों के विदेशी अनुवाद छपने लगे. यहाँ यह लिखना ज़रूरी है कि भारत में जहाँ बंगाली साहित्य पर अंग्रेज़ी साहित्य की गहरी छाप थी वहीं प्रेमचंद व उन के परवर्ती साहित्यकारों पर रूसी क्रांति व रूसी साहित्य का भरपूर प्रभाव रहा. प्रेमचंद के बाद रेणु, अज्ञेय, जैनेन्द्र, यशपाल आदि की पीढी भी जब अपना साहित्य लिख गयी तब नयी कहानी के आन्दोलन में मोहन राकेश जैसे साहित्यकारों पर अन्तोन चेखोव की छाप स्पष्ट नज़र आती थी. प्रेमचंद के विश्व प्रसिद्व उपन्यास रंगभूमि में औद्योगीकरण व उस से जुड़े शोषण के विरुद्ध गांव के एक सूरदास भिखारी का ज़बरदस्त संघर्ष है. जब ब्रिटिश ने भारत-भूमि पर उद्योग का जाल बिछाया तब पहले पहल कार्ल मार्क्स तक ने उसे सराहा था पर शीघ्र ही एक मोह-भंग का सा आभास देते हुए मार्क्स ने ब्रिटिश की शोषण वृत्ति के विरुद्ध चेतावनी दी थी. रंगभूमि में भी सूरदास की ज़मीन जिसे उसने पशुओं को चरने के लिए छोड़ दिया है, पर जॉन सेवक नाम का एक अँगरेज़ तम्बाकू की फैक्ट्री लगाना चाहता है. पूरा उपन्यास उद्योग जगत व पूंजीवादी व्यवस्था की शोषण वृत्ति को नग्न करता सा प्रतीत होता है. प्रेमचंद की शख्सियत व साहित्य पर उन के चरम काल तक पहुँचते पहुँचते रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की से उन की बेहद गहरी समानता पाई गयी. मैंने गोर्की का उपन्यास 'वे तीन' पढ़ा तथा उस के बाद रंगभूमि पढ़ा तो रंगभूमि के सूरदास और 'वे तीन' के गरीब कबाडी येरेमाई बाबा के बीच बेहद समानता मिली. विश्व के ये दोनों महान साहित्यकार अपने अपने परिवेश का चित्रण करते हुए व अपनी अपनी मौलिकता खोये बिना एक दूसरे के प्रतिबिम्ब से लगने लगे थे . रूसी क्रांति भी शोषण के विरुद्ध थी और यहाँ भारत में भी ब्रिटिश अपनी पूंजीपति ताकत द्वारा भारतीय मजदूर किसान का शोषण ही कर रही थे. इसलिए भारत के भगत सिंह में जहाँ लेनिन नज़र आता था वहीं नेहरू व सुभाष आदि वामपंथी विचारों से बेहद प्रभावित दिखे . यहाँ के साहित्य के साथ भी यही होना था. पर यदि हम प्रेमचंद के सभी उपन्यासों व उनके सर्वोत्कृष्ट उपन्यास 'गोदान' पर एक नज़र डालें तो शुद्ध भारत-भूमि के शोषित पात्रों से साक्षात्कार करते हैं प्रेमचंद जैसी विभूतियों की मौलिक छटपटाहट व चिंतन का पता चलता है. गोदान का होरी हो या रंगभूमि का सूरदास, या गबन की जालपा, प्रेमचंद के सभी पात्र यथार्थ पात्र हैं और यथार्थ के चित्रण में उन से अधिक सिद्धहस्त कोई अन्य नहीं हो सकता. मुझे बहुत वर्ष पहले दूरदर्शन पर देखा एक साक्षात्कार याद आ रहा है, जो जैनेन्द्र जी से कोई महिला साहित्यकार ले रही थी. साक्षात्कार के दौरान सम्बंधित महिला ने जब यह कहा - मुंशी प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र जी, आप को भी एक दिग्गज माना गया है...तब प्रश्न के पूरा होने से पहले ही जैनेन्द्र जी ने साक्षात्कारकर्ता महिला को रोकते हुए कहा - प्रेमचंद के साथ मुझे भी एक दिग्गज माना जाए, इसकी तो मैं अनुमति नहीं दूँगा...प्रेमचंद ने गद्य की सभी विधाएं लिखी. पर विश्व में वे उपन्यास-सम्राट माने गए व उनकी कई कहानियाँ विश्व-पटल पर अभी तक छाई हुई हैं. उनके पात्र तत्कालीन समाज के भीतर से जन्म ले कर ही कथा मंच पर आते हैं . भला 'बड़े घर की बेटी' की आनंदी को कौन भूल सकता है. उस समय के गांव के एक संयुक्त परिवार की बहू आनंदी एक अमीर घर से आयी ,पर मन में अमीरी का गुरूर होते हुए भी एक गरीब घर का हिस्सा बन गयी है. देवर उस पर किसी झगडे के दौरान खड़ाऊं फेंकता है, फिर भी वह सारा गरल पी कर दो दिन में ही बात भूल जाती है. इसमें प्रेमचंद की निजी आदर्शवादिता अवश्य सम्मिलित सी है, पर अस्वाभाविक नहीं लगती. कहानी में सगे भाइयों के बीच उभरते क्रोध व मन-मुटाव के बावजूद एक दूसरे के बिना न रह सकने की जो कमजोरी है उसे केवल प्रेमचंद ही व्यक्त कर सकते हैं. मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रेमचंद की कहानियों में एक अन्य अनूठा तकनीकी गुण नज़र आया. पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता है जैसे शब्दों का कोई चलचित्र चल रहा है, एक फ़िल्म सी सामने चलती नज़र आती है . प्रेमचंद की कहानियाँ हमेशा एकरस नहीं रही, बल्कि चार दशकों में उनमें हर किस्म के बदलाव आए. प्रेमचंद आदर्श के लेखक माने गए हैं. आदर्श के आभाव में होने वाली दुर्घटनाएं उन के कई धरातलों में से एक महत्वपूर्ण धरातल है. कुछ कहानियों में भले ही हृदयपरिवर्तन उनके आदर्श को स्थापित करने का एक महत्त्वपूर्ण हथकंडा रहा हो (जैसे 'नमक का दरोगा' आदि में) पर आदर्श से विमुखता के दुष्परिणाम भी उनका एक सशक्त हथकंडा है.
इसका सब से सशक्त उदाहरण है 'शतरंज के खिलाडी'. कहानी का पहला अनुच्छेद पढ़ कर देखें -
'लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे बड़े गरीब अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था...'
वाजिद अली शाह तब अवध के नवाब थे और ब्रिटिश जैसी उपनिवेशवादी ताकत के ख़िलाफ़ किसी भी चेतना के अभाव में देखिये, कहानी का अंत कैसा होता है .
'अँधेरा हो चला था. बाज़ी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे. चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती हुई सर धुनती थी...'
शतरंज के दोनों खिलाडी इस प्रकार शतरंज के बादशाहों पर lad कर एक दूसरे को मार देते हैं पर उधर ब्रिटिश की गोरी पलटन वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर देती है.
कई समीक्षकों ने माना है कि तकनीकी तौर प्रेमचंद की कहानियों के पात्र यथार्थ होते हुए भी लेखक की कठपुतली का सा व्यवहार करते हैं . परन्तु यदि हम एक नज़र उनकी तीन विश्वप्रसिद्ध कहानियों पर डालें जो उन्होंने लगभग अंत में जा कर लिखी, तो इस असामान्यता से वे मुक्त होते दिखाई देते हैं. ये तीन कहानियाँ हैं 'शतरंज के खिलाडी', 'पूस की रात' व 'कफ़न'. बल्कि कई समीक्षक यह मानते हैं कि इन तीन कहानियो में वे भावी नयी कहानी तक के बीज बो गए और यदि वे और अधिक वर्षों तक रहते तो पात्रों के स्वाभाविक व्यवहार तक अवश्य पहुँचते. मैं ने महसूस किया कि 'शतरंज के खिलाडी' के अन्तिम वाक्यों ( 'अँधेरा हो चला था. बाज़ी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे. चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती हुई सर धुनती थी...' ) में एक बिम्ब का जन्म हुआ है जो नयी कहानी का एक सशक्त अवयव था. साथ ही प्रेमचंद की कई कहानियो में संवाद कम हैं पर narration ज़्यादा है. पर ज़रा कफ़न कहानी को पढिये जिसे मैं उनकी सब से अधिक सशक्त कहानी मानता हूँ. इस में एक युग पुरूष द्वारा लिखी गयी कालजयी कहानियों के सभी तत्त्व हैं, क्या पात्र, क्या कथ्य तथा क्या तकनीकी पहलू. मैंने हर दौर की कहानियाँ पढ़ी होंगी पर 'कफ़न' से अधिक सशक्त कहानी नहीं पढ़ पाया. इस कहानी के कुछ अनुच्छेद नीचे उद्दृत कर रहा हूँ
घीसू के पुत्र माधो की गर्भवती पत्नी के मरने पर लोगों से जुटे पैसे ले कर कफ़न खरीदने गए पिता पुत्र जब शराबखाने पहुँचते हैं तब एक दूसरे से कहते हैं) -
('कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथडा भी न मिले उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए'
'कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है.'
'और क्या रखा जाता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते तो दवा दारू कर लेते'
(घीसू और माधो गांव में व्याप्त भूख के प्रतीक हैं व इसलिए अकर्मण्य हो गए हैं, कि काम करने वाले किसानों को भी एक चेतनाहीन गूंगी जिंदगी बितानी पड़ती है एक जगह:)
माधव आसमान की तरफ़ देख कर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो - दुनिया का दस्तूर है लोग बाम्भनों को हजारों रूपये देते हैं. कौन देखता है, परलोक में मिलता है कि नहीं.
(एक अन्य संवाद):
(माधव) बोला - बड़ी अच्छी थी बेचारी. मरी तो खूब खिला पिला कर.
बहू के मरने के बावजूद घीसू और माधो की चेतना आज हो रहे जश्न में है क्यों कि पेट भरने का इतना बड़ा जश्न इस से पहले घीसू ने बीस वर्ष पहले मनाया था जब एक शादी में उसने बहुत सी पूरियां कचौडियाँ व मिठाई खाई थी.
प्रेमचंद की कहानियो पर फिल्में भी बनी और tele-films भी, पर न तो श्वेत-श्याम film 'गबन' ही स्तर की उन ऊंचाइयों को छू पाई जहाँ प्रेमचंद थे, न ही दूरदर्शन की सब से पहली tele-film सद्गति. सत्यजित राय भले ही ऑस्कर विजेता रहे पर 'शतरंज के खिलाडी' बना कर वे औंधे मुंह ही गिरे. उन्होंने 'शतरंज के खिलाडी' पहले अंग्रेज़ी में अनुवादित कराई, फिर बंगाली में फिर उस से हिन्दी में script लिखवाई. लखनऊ के पुस्तकालयों में इतिहास की पुस्तकों का घोर अध्ययन भी किया . पर प्रेमचंद की आत्मा तक पहुँचने में वे विफल ही रहे.
तारीख 8 अक्टूबर1936 की प्रातः दस बजे इस युग-द्रष्टा महापुरुष ने अन्तिम रूप से आँखें मूँद ली. किसी शायर ने जीवन की नश्वरता पर लिखा है -
कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए, बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं.
पर नश्वर जो भी होता है, वह शरीर होता है. प्रेमचंद जैसे ज्योतिपुंज अपने शाश्वत साहित्य के मध्यम से अनंत काल तक विश्व-पटल पर विद्यमान रहते हैं. इसी लिए एक फारसी शायर ने लिखा है:
ऐ रफ्तागाने महफिले मा
रफ्तेद वले न अजदिले मा
अर्थ - ऐ हमारी महफिल से जाने वाले तू चला तो गया, पर हमारे दिल से नहीं गया.
एक रोचक प्रसंग
प्रेमचंद का हर वर्ग के पात्रों विशेषकर गरीब पात्रों से कितना लगाव था इस का एक रोचक उदहारण यह कि एक बार वे महादेवी वर्मा जी के घर गए तो महादेवी जी की काम करने वाली बाई ने बताया कि वे विश्राम कर रही हैं. प्रेमचंद जी ने बाई से कहा कि महादेवी जी को विश्राम करने दे तथा विश्राम में अकारण विघ्न न डाले. तब तक प्रेमचंद जी आँगन में उस बाई के साथ फर्श पर बैठे गांव-खेत की असंख्य बातें करते रहे. महादेवी जी की आंख खुली और उन्होंने प्रेमचंद जी को बाहर आंगन में बैठा पाया तो बाई से गुस्से में बोली - 'तुम ने मुझे जगा कर बताया क्यों नहीं कि प्रेमचंद जी आए हुए हैं.' इस पर प्रेमचंद जी मुस्करा कर महादेवी जी से बोले कि आप के न जागने से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ. मुझे इस महिला व इसके गांव के लोगों की कई बातें पता चली जो मेरे लेखन में बहुत उपयोगी होंगी. प्रेमचंद समाज के हर पात्र, चाहे वह निम्न वर्ग का हो या राजसी ठाठ-बाठ वाला, को निकट से जानने में एक अनूठा आनंद महसूस करते थे व उसे अनिवार्य भी समझते थे और यही उन की मौलिकता भी थी और लेखन-शक्ति भी.
(यद्यपि इसके कहीं प्रमाण नहीं मिलते, लेकिन बहुत से प्रेमचंद प्रेमियों से सुना जा सकता है।)
छायाचित्र साभार- छाया