Saturday, October 27, 2007

नारद उवाच...

पहले मुआ पोस्ट-ऑफिस आ गया फिर यह ई-मेल की बीमारी आ गयी, पृथ्वी लोक ज्यादा एडवांस हो गया और इस दौड में देवता गण पिछड गये। लंबी मीटिंग के बाद देव-दानवों और गंधर्वों नें मृत्यु-लोक को खाली करने में ही भलाई समझी और नारद जी बेरोजगार हो गये। नारद जी को इस बात का मलाल था कि स्वर्ग लोक में भी उनकी इम्पोर्टेंस घटती जा रही है, भगवान विष्णु सेटेलाईट टीवी के माध्यम से सबसे तेज चैनल में उलझे रहते हैं। माता लक्ष्मी, माता पार्बती से चैटिंग में बिजी रहती हैं। कल तो हद हो गयी, नारद जी क्षीर सागर में तीन घंटे नारायण!! नारायण!! करते रहे और माता लक्षमी अपने लैपटॉप पर कमल ककडी बनाने की विधि सीखती रहीं। भला हो शेषनाग का कि अपनी पूँछ घुमा कर स्टूल बना दी वर्ना चाय कॉफी छोडिये कोई बैठने को भी नहीं पूछता।..। वो भी क्या दिन थे, नारायण!! नारायण!!!.....पार्बती जी की साडी का कलर, सरस्वती जी लेटेस्ट नेल पॉलिश और लक्ष्मी जी का नया हेयर स्टाईल....इधर की लगाओ, उधर की बुझाओ।



आज नारद जी बहुत विचलित थे। नीचे नजर डाली तो काले सफेद बादलों के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। उनके मन की तरह, घुमड-घुमड कर बादल गरज रहे थे, जब तेज इलेक्ट्रिक शॉक लगा तो एकदम से उछल पडे.....”यह बिजली भी पैरों के नीचे ही कडकेगी” नाराज हो कर एक लापरवाह बादल को तो निचोड ही दिया उन्होंने। “जाने क्या समझते हैं, अपने आप को!!” अपनी वीरता पर खुश हो कर नारद भुनभुना उठे। बादलों के एक झुंड नें डर कर रास्ता ही बदल लिया। नारद जी के सामने अब नीले ग्लोब का एक हिस्सा उभर आया था। एकाएक वे ठिठक गये। पुरानी यादें ताजा हो गयीं। एक समय की लंकापुरी और आज की श्रीलंका उपर से एसे दीख पडती थी जैसे किसी नें ताजा छना समोसा नीली तश्तरी में रख दिया हो। राक्षस राज रावण की नगरी कभी बाईस कैरेट खालिस सोने की हुआ करती थी, आज कल सुना है जल भुन रही है। “लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल इलम”, बहुत जोर दे कर याद किया ही था महामुनी नें कि बडा तेज धमाका सा हुआ और उन्हें अपने बहुत निकट से कोई वाणनुमा चीज गुजरती महसूस हुई। यह सब इतना जल्दबाजी में हुआ कि कब उनकी धोती नें आग पकड ली पता ही नहीं चला। यह तो बादलों की उपलब्धता थी कि वे अपनी लाज बचा सके। आकाशमार्ग से जाते हुए एक गंधर्व नें आगाह किया कि मुनिवर जिस नभ के निकट से आप गुजर रहे हैं यह आकाशमार्गियों के लिये सुरक्षित नहीं है। गाहे-बगाहे सरकारी-विमान भेदी मिसाईलें निशाना चूक कर अपसराओं के साथ कोना पकडे देवताओं के पिछवाडे सुलगाती रहीं हैं, सो सावधान। नारद जी सचेत हुए फिर एक दृष्टि स्वयं पर डाली। धोती में हुए छेद नें अनायास महामुनि का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। कोई आपातकालीन उपाय करना ही होगा। नारद जी नें सोचा और जैसा कि एक कविता में कहा गया है “राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार” वे रामेश्वरम के पास सेफ लेंडिंग कर चुके थे। नारायण की महान कृपा से उन्हें पंडित पी. आर. पी. टी. सी. आर शास्त्री ( इस नाम का विस्तार स्वयं प्रजापिता ब्रम्हा कर पाने में असमर्थ हैं) की धोती जो कि उनकी ईंट-सीमेंट की कुटिया की छत पर सूख रही थी, प्राप्त हो गयी। यद्यपि इस प्रकार किसी की धोती उठाना इथिक्स के हिसाब से सही नहीं माना जायेगा किंतु आपातकाल में सभी कुछ जायज है।

अब नारद जी की साँस में साँस आयी। भारत वर्ष के अंतिम छोर पर खडे हो कर अथाह जलनिधि को उन्होनें प्रणाम किया। उनकी स्मृतियाँ चलचित्र की भाँति चल पडीं। इसी स्थान पर खडे हो कर “करुणानिधि” भगवान श्री राम नें समुद्र से रास्ता माँगा था। और यह सागर अकड गया था। तीन दिनों तक विनति करते रहे राम, कि हे सागर! मुझे वह मार्ग प्रदान करें जिससे हो कर मैं लंकापुरी पहुँच सकूं और रावण के दर्प का दमन कर सकूं। सागर नहीं माना। मानता भी कैसे? हाल ही में विवादास्पद हुए एक कवि महोदय श्री तुलसीदास अपनी कविता में कहते हैं “विनय न मानत जलधि जड, गये तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब, भय बिनु होहिं न प्रीत”



बिना भय के प्यार नहीं उपजता। वेलेंटाईन डे मनानी वाली कौम डरपोक है यह बात तो खैर गले से नीचे नहीं उतरेगी। राम नें शस्त्र संधाना। सागर सूख सकता था, हजारो जीव जंतु, मछलियाँ, सीप, घोंघे समाप्त हो सकते थे, वह एक ब्रम्हास्त्र पर्याप्त था। बिलकुल वैसा ही सत्यानाश कर सकता था जैसा कि अमेरिका नें जापान के दो शहरों का किया था। आज के युग की सरकारों के प्राण नहीं काँपे, लाखों प्राण लिये जा सके चूंकि नया दौर है। सभ्य और तकनीकी दक्ष समाज है। राम के लिये वह शस्त्र क्षमा था और “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो”?



महासागर हाँथ जोडे बाहर आ गया। भय नें राम के लिये उपाय बना दिये। उपाय अत्यंत कठिन था। राम का पुरुषार्थ सरल उपायों से सिद्ध भी नहीं होता।....। आज जिन राष्ट्रों के पास परमाणु शस्त्र हैं उनकी दादागिरि देखिये किस देश को कच्चा चबा कर खा नहीं गये? किंतु वे महान राष्ट्र हैं, वे महाशक्तियाँ हैं, दोषी तो राम थे जो क्षमताओं के बावजूद उस शर का संधान नहीं कर सके जो स्वत: सागर चीर सकता था। नारद सागर की शोर करते लहरों के पास इस सोच के जगते ही ठिठके। स्वत: से प्रश्न था कि मानो राम इतिहास न हो कर केवल एक मिथक होते तो भी क्या यह मिथक आज के उन सत्यों से अधिक आदरणीय नहीं था जिसमें बेकसूर अफगानिस्तान केवल एक आदमी की तलाश में जला दिया जाता है? केवल एक आदमी के अहं के लिये पूरे इराक का सत्यानाश कर दिया जाता है। राम-राम!!!.....नारद सोच में डूब गये। जिस सभ्यता का वर्तमान इतना घृणित है उस सभ्यता को राम की कोई आवश्यकता भी है? राम असत्य ही रहे होंगे, बाल्मीकि की गलती है। ये पुराने ऋषिमुनि भी! ढाई अक्षर क्या सीख जाते थे पोथे लिख मारते थे। उन्हें क्या पता था कि कलियुग में इतिहास लिखने वाले कुछ खास किताबों के खास पन्नों को सही और खास पन्नों को खारिज कर देते हैं, चूंकि इतिहास “गरीब की लुगाई” है इसलिये “जगत भौजाई” है। आर्यों का इतिहास लिखना हो तो ऋगवेद को आधार मान लो। मानो भाई, नारद का क्या जाता है, किसी लेखक को अपने पुनर्जन्म की स्मृति रही होगी? आज कल पुनर्जन्म भी तो बहुत हो रहे हैं, पढी लिखी पीढी है, कुछ भी हो सकता है। कल्पना चावला का पुनर्जन्म हो सकता है, गाँव का एक लडका एकाएक फर्राटेदार अशुद्ध अमरीकी अंग्रेजी बोल सकता है और सारी दुनिया का “भेजा फ्राई” हो सकता है।.....। किसी पुरानी किताब के तथ्यों को एतिहासिक मानते हो तो यह मानने वाले की श्रद्धा है, और मिथक तो यह भी उसका अधिकार। उसके अनर्थ निकाल निकाल कर वोल्गा से निकल कर आर्य गंगा तक आ गये? बडा महान कार्य कर लिया भाई...लेकिन उस किताब में भी राम के राजा होने का जिक्र है। इस बात पर नजर नहीं गयी होगी लेखकों की। लिखना कोई मजाक तो है नहीं। कई बातों का खयाल रखना पडता है। अंगरेज जब कुर्सी पर थे तब उनका खयाल रखा, फिर नये कर्णधार पैदा हो गये तो उनका खयाल रखा। पंक्तियों के बीच में पढने का हुनर और पंक्तियाँ छोड छोड कर पढने का हुनर भी हर किसी के पास नहीं होता। फिर फूट डालो और शासन करो की तमाम अंतहीन सरकारों वाले इस देश में तो राम का नाम लेने पर ही “शूट एट साईट के ऑडर्स हैं”।

नारद नें यह सोचा फिर घबरा गये। इस तरह की बात वे जिस धरती पर बैठ कर सोच रहे थे वहाँ उनके साम्प्रदायिक हो जाने का खतरा है। धोती तो पहले ही गवा चुके हैं। साम्प्रदायिक नारद..यह विचार महामुनि के चेहरे पर मुक्कुराहट ले आया। बाबर अपना नामा लिख डाले तो एक एक हर्फ इतिहास है, ह्वेंसांग भारत आ कर कागज काले कर जाये तो हर अक्षर इतिहास है लेकिन महामूढ वालमीकि, यह रामायण लिखने की क्या सूझी तुझे? या सत्यकथा का ठप्पा लगवाना था तो भैया पहले कार्ल-मार्क्स को पैदा होने दे दिया होता।



नारद सागर की स्मृतियों में लौटते हैं। भारत और श्रीलंका पहले एक ही भूभाग का हिस्सा रहे थे। एक भूवैज्ञानिक काल में प्लेट-विवर्तनिकी के सिद्धांत बताते हैं कि वर्तमान ऑस्ट्रेलिया भी भारतीय प्रायद्वीप का हिस्सा रहा था जो अलग हो कर स्वतंत्र महाद्वीप बन गया। यही श्रीलंका के साथ भी हुआ। भारतीय प्रायद्वीप से टूटने की प्रक्रिया में कई छोटे छोटे टुकडे एक रस्सी या कि पुल जैसे भूभाग द्वारा दोनों स्थल भागों को जोडे रख सके। अत्यधिक भूवैज्ञानिक हलचलों के कारण यह बंधन सूत्र कई स्थलों से टूट गया। यह टूटना सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी, उतनी ही सहज जैसे कि कोरल का पानी में तैरना। कई अन्य तरह के छिद्रदार पत्थर भी पानी में तैरने की क्षमता रखते हैं। नल और नील नाम के दो पुरा-अभियंता जो कोरल चट्टानों के गुणों से पूर्णत: परिचित थे। उन्होनें दोनों स्थल भागों को अपनी इन्ही तकनीकी जानकारियों के आधार पर जोडा और कुछ हिस्सा प्राकृतिक, कुछ बंध मानव-कृत जुड कर वह सेतु बन सका जिस पर से हो कर लंका पहुचा जा सकता था।....। अंतरयामी नारद निरुत्तर थे कि वैज्ञानिक युग राम सेतु को मिथक मानता है तो निश्चय ही वालमीकि नेस्त्रादमस रहे होंगे जिन्हें कश्मीर से ले कर लंका तक के भूगोल की इतनी गहरी जानकारी थी कि जो कुछ रच गये उसका चयनित हिस्सा इतिहास और बकाया मिथक बन गया। बिलकुल वैसा ही पुल भारत और श्रीलंका के मध्य अवस्थित है जो कि वाल्मीकी की कविता में वर्णित है। उसी स्थान से दोनों स्थलाकृतियों को जोडता है जैसी कि झूठ का पुलिंदा वह वाल्मीकि की हजारों वर्ष पुरानी कविता कहती है। नारद जी की सोच में तल्खी आ गयी थी। राम की माया...नारायण!! नारायण!!!



दण्डकारण्य का गहन वन, आधुनिक युग में इस स्थान को बस्तर कहा जाता है। बाल्मीकि कहते हैं कि अपने चौदह वर्ष के वनवास का बहुत सा हिस्सा राम नें इन वनों में बिताया। लेकिन अनर्थ!! अब भी इन गहन जंगलों के कई स्थानों पर आदिम जन-जातियों द्वारा तो रावण की पूजा होती है। शायद इस लिये कि आर्य जिस प्रकार राम को सहेजे रख सके, यहाँ के आदिम अपनी महान संस्कृति को और प्रकांड पंडित रावण को हजारो-हजार साल से सहेजे हुए अपने पर्वो, त्योहारों और मंदिरों में सजीव रख कर मिटने से बचाते रहे। रावण के कई मंदिर तो हजारों वर्ष प्राचीन हैं। यही वह स्थल था जहाँ रावण के “केयर-टेकर” शाशक के तौर पर खर और दूषण नामक राक्षस राज्य किया करते थे। ये “हिस्ट्री” वाले “एंथ्रोपोलोजी” नहीं पढते, नारद मन ही मन मुस्कुराये। हाँ भाई, कोई सुषैण वैद्य का युग तो रहा नहीं कि कोई मुन्ना-भाई एम.बी.बी.एस सिर से ले कर पैर तक सारी चीजों का ईलाज कर ले। ये आयुर्वेद भी बला है, अमरीका से पेटेंट हो कर आयी नहीं अब तक, इस लिये मिथक है। दो चार “गुप्त-रोग उपचार केंद्र” और सरकारी “आयुर्वैदिक औषधालय” छोड कर अंगरेज (अंगरेजी दवाओं वाले) डाक्टरों की बेहद कमी वाले भारत वर्ष में वैद्य मिलते कहाँ हैं। फिर इस चिकित्सा पद्यति में वेद लगा है तो बुद्धिजीवी जन का फर्ज बनता ही है कि खारिज कर दें।...। नारद जी नें सिर झटका। समय बदल गया लेकिन उनकी अपने विषय से बार बार भटकने की आदत गयी नहीं। “जैक ऑफ आल ट्रेड” हैं महामुनि नारद तो भाई “मास्टर ऑफ नन” होने का विदित खतरा है ही।

नारद जी अपनी एंटीनानुमा चुटिया पर जितना जोर देते पुरानी यादों के उतने ही गहरे दलदल में धँसते जाते। “आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया” नें भारत की सर्वोच्च अदालत हलफनामा दायर किया कि राम कभी थे ही नहीं। सही कहा!! नारद भुनभुनाये। राम न ही रहे होते तो बेहतर था। इस युग को एसे मिथक की भी क्या आवश्यकता है? इन्हें राम में हजारों दोष दीख पडते हैं, पडने ही चाहिये। आज का युग तो आदर्शों का स्वर्ण युग है। पाँच-सात हजार साल पहले के आदमी के किये कु-कृत्यों पर क्या दृष्टि डालते हो, हे इस युग के एम.बी.ए/एम.सी.ए/सी-ए/बी.ई डिगरी धारकों!! अपने बाप-दादाओं के ही कृत्यों-सुकृत्यों का हिसाब रख लोगे तो शर्मे से कभी नजरें नहीं उठा सकोगे। निठारी जैसे दुष्कृत्य रावण नें तो नही किये। दो वर्ष की दुधमुही बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसकी हत्या कर देने का दुस्साहस अतीत में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, यह वर्तमान समाजवादी-महान विचारशील व्यक्तियों के युग में ही होता है, जिनकी ढोल में बहुत पोल है। जो मुँह को पूरा खोल कर अतीत पर बकवास करने से नहीं चूकते, लेकिन अपने ही युग की कालिख को साफ करने के लिये किसी राम की प्रतीक्षा भी करते है। राम एक राजा थे, पत्नी को प्रेम करते हुए भी वे लोक मत की अवहेलना नहीं कर सके। पत्नि का उस समय की राजनीतिक स्थिति और सोच के अनुसार परित्याग कर दिया। लेकिन राम नें हजारों शादियाँ करने वाले समाज को “एक-पत्नि” का आदर्श भी दिया। राम आज की कसौटी पर निश्चित गलत थे लेकिन रोज तलाकों के हजारों केस ढोने वाला यह देश किसके आदर्श पाल कर इस गर्त में गया? दलितों के संदर्भों में राम के युग को देखा जाना भी सही नहीं है। केवट के मित्र राम और शबरी के झूठे बेर खाने वाले राम विषमता का एसा कोई उदाहरण अपने कृत्यों से पैदा नहीं करते। लेकिन राम को गाली देने के फैशन वाले इस युग में दो धर्म के अनुयायी शांति से नहीं रह पाते, दो जाति के अनुयायी एक दूसरे का छुवा नहीं खाते? किसने मना किया है? कौन रोक रहा है इस विषमता को मिटाने से तुम्हें? राम गलत थे, मान लिया पर तुम्हरी नपुंसकता क्या तुम्हें शर्मिंदा करती है, महान विद्धिजीवियों? यह पुरा-वैदिक काल की कुरीतियाँ थी जिसे ब्राहमणों की देन ही माना जाना चाहिये। यही वह समय है जब कर्म से बनी जातियाँ जन्म से बनने लगीं। एक और बात कि राम के समय रहीम नहीं थे, न ही रहीम को राम से दुश्मनी थी, जो गंदगी तुमने ही फैलाई है, मेरे प्रिय विचारक महा-मानवों उसे किसी के भी मुँह पर मढ सकते हो, आपको तो कानूनन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है। “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” नारदजी को इस शब्द में व्यंग्य दीख पडा। कलम है तो कुछ भी लिखूंगा, क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? कूची है तो कुछ भी रंग दूंगा या यह अभिव्यक्ति की स्कतंत्रता है? सरस्वति और दुर्गा जैसी पुरा-मान्यताओं के नग्न चित्र बना कर अभिव्यक्ति का ढोल एसा समाज ही पीट सकता है तो खोखला हो या कि मानसिक रोगी। आपकी अभिव्यक्ति की वहीं तक सीमा है जहाँ मेरी बाधित न होती हो? वरना इस सबाल पर कि अपनी ही सगी माँ और बहनों को ले कर आपकी कलात्मकता एसी ही अभिव्यक्ति क्यों नहीं बनती? स्वतंत्रता, नये नये मुखौटे चेहरे पर लगाने लगती हैं।



खैर ये बातें तो दूर की कौडी हैं, चूंकि अलग अलग इतिहासकार भारत के इतिहास की अलग-अलग व्याख्यायें करते हैं, आज का असत्य कल का सत्य भी तो हो सकता है? आज सरकार का लाल चश्मा है तो ईतिहास का रंग कुछ और है, कल यह रंग केसरिया हो जायेगा तो उंट दूसरी करवट बैठ सकता है, हरा हो गया तो तीसरी और नीला हो गया तो चौथी...इस देश के अतीत की कोई कहानी सच्ची नहीं है। नारद जी नें कविता याद की जो आजकल सी.बी.एस.ई के सिलेबस में भी पढाई जाती है “जिसको न निज गौरव यथा, निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा, और मृतक समान है”। यह निज गौरव क्या है भारतवासियों?.... अंग्रेजों पर गौरव? मुगलों पर गौरव? जजिया पर गौरव या कि जौहर पर गौरव? जयचंदों पर गौरव कि नाथू पर गौरव? चौरासी के सिक्ख हत्याकांड पर गौरव कि भागलपुर, मेरठ और गुजरात के दंगों का गौरव? इन सवालों को खडा करते ही दोषी हो जाते हैं राम और रहीम। किताबें लिख मारते हैं विचारक कि धर्म है जनता कि अफीम। जरूर है, लेकिन उससे बड़े महत्वाकांक्षा के ड्रग्स वे तथाकथित विचार हैं, जो लोगों को झंडों में बाँटते हैं, भाषा से बाँटते हैं, नारों से बाँटते हैं, क्रांति के नाम पर बंदूख थमा कर नक्सलवादी होने का लेबल प्रदान करते हैं, कश्मीर के पंडित विस्थापित करते हैं, असाम के बिहारी भगाते हैं, महाराष्ट्र को केवल मराठियों का घोषित करते है....नारद जी, अपनी समसामयिक नॉलेज पर गर्व से भर उठे। सदियों से तो वे खुद भी चलता फिरता न्यूजपेपर ही रहे हैं।

राम-सेतु को तोडा जा रहा है। यह बहुत सी बातों को समेटता है, प्रगति, धरोहर और आस्था की जंग है। धरोहर नही कहा जायेगा चूंकि पुल के मानव-निर्मित होने के केवल दस्तावेज हैं, प्राचीन कवितायें हैं किंतु वैज्ञानिक आधार नहीं (कई राजाओं के इतिहास यद्यपि केवल पुरानी कविताओं पर ही लिखे गये हैं)। एक गहरी सांस ले कर महामुनि फिर सोचने लगे। आज कल तो सूचना का अधिकार है, लोगों के पास, किसी खोजी नें दस रुपये का नोट खरच कर पुरातत्व विभाग से यह तो पूछा होता कि मान्यवर आपने कितना सर्वे किया है? कितने सेंपल विवेचित किये? किस प्रक्रिया के अनुसार किये? आस-पास कोरल की क्या उपलब्धता है या जिस रफ्तार से यह उपलब्धता घट रही है पाँच हजार वर्ष पूर्व क्या रही होगी? पुल की क्या गहराई है? प्राकृतिक पुल पर बोल्डर कहाँ से आये? इनकी मूल उत्पत्ति किन चट्टानों से हुई? कितने पत्थरों की डेटिंग करायी गयी? कब कोई अध्ययन या एतिहासिक तथ्यों की जाँच के लिये खुदायी की गयी? पुल का क्रोस-सेक्शन बतायें? इतना हक तो उसकी क्षुधा की शांति के लिये बनता ही है जिसे भविष्य में गौरव तलाशने की ललक हो। कुतुब-मीनार के लिये मेट्रो-रेल का प्रस्तावित रास्ता बदला गया था तो क्या फर्क पडेगा यदि किसी दूसरी एलाईन्मेंट का प्रयोग इस मिथक की रक्षा ही कर दे? कल यदि किसी इतिहासकार का सत्य बदल गया तो? ताज महल के नीचे कच्चा-तेल मिल गया तो बगल से पाईप डालोगे या फोड दोगे उसे?

सरकारों को ही निर्णय लेना है और वे ही बेहतर जानती हैं कि अगले चुनाव में जीतने के लिये कौन सा ड्रामा बेहतर है प्रगति का या आस्था का। लेकिन विरोध करने वाले जुलूसों मे पिसते आम आदमी, बीच सडक पर ही बच्चा जनती वह औरत जो भीड के कारण अस्पताल नहीं पहुचायी जा सकी, शर्मिंदा इस युग को ही करती है। राम हँसते हैं। राम को हक है कि हँसे चूंकि राम तुम्हारा आज नहीं हैं तुमने उन्हे अतीत होने ही नहीं दिया और राम सच हैं या मिथक इससे क्या फर्क पड जाता है? राम कुदाल नहीं बने चूंकि तुमने कुदाल से बचने के लिये राम के नाम को आगे किया। राम रोटी नहीं बने चूंकि गेहूँ पसीना माँगता है और तुम्हें तो माँग कर खाने की आदत है, कभी अमेरिका से तो कभी रूस से, फिर खाली समय में झाल बजा बजा कर राम का नाम हराम करने की। राम ने नहीं कहा था कि हिन्दुस्तान के दो टुकडे कर दो, राम नें नहीं कहा कि मेरे लिये तोडो कोई मस्जिद या दरगाह। यह तो तुमही हो असभ्य और बरबर। अपना चेहरा राम की आड में ढक कर नाम के आगे पी. एच. डी लिखे फिरते हो..शर्म!! शर्म!!! नारद लगभग कोस रहे थे।



नारद नें अथाह जल राशि को पुन: नमन किया और आकाश मार्ग से बढ चले किसी दिशा में।...। मैं आँखे मलता उठ बैठा। विचित्र स्वप्न था। आधा तो मैंने जागती आँखों ही से देखा था।

*** राजीव रंजन प्रसाद
14.10.2007

Tuesday, October 23, 2007

तरक्की की कीमत


बचपन के दिन कैसे फुदक के उड़ जाते हैं ,स्कूल की शिक्षा खत्म हुई और आँखो में बड़े बड़े सपने खिलने लगते हैं जैसे ही उमंगें जवान होती है कुछ करने का जोश और आगे ऊँचे बढ़ने का सपना आंखो में सजने लगता है !ठीक ऐसा ही शिवानी की आँखो में था एक सपना कुछ बनने का , कुछ पाने का जिन्दगी के सब खूबसूरत रंगो को जीने का! वह मेघावी थी और सब गुण भी थे उस में , पर वह एक बहुत छोटे से शहर की लड़की थी !अपने सपनो को पूरा करने के लिए उसको शहर जाना पड़ता और घर की हालत ऐसी थी नही की वह आगे पढने जा पाती ..पिता का साया बचपन में ही उठ गया था ,घर में सिर्फ़ माँ थी ...वैसे माँ भी उसके सपनो को पूरा होते देखना चाहती थी पर एक तो पैसे की कमी दूसरा लड़की जात कैसे बाहर जाने दे! ,शिवानी माँ को भरोसा दिलाती कि उस पर विश्वास रखे वह उनको जरुर कुछ बन के दिखायेगी .! बस अब उसको इंतज़ार था अपने रिजल्ट का जिसके अच्छा आने पर उसको स्कालरशिप मिल सकती थी .. और वह अपने सब सपनो को अपनी माँ के सपनो को पूरा कर सकती थी ! और आखिर रिजल्ट आ गया .वह जो उम्मीद कर रही थी वही हुआ ,वह न केवल फर्स्ट क्लास से पास हुई बल्कि उसको स्कालरशिप भी मिल गया था ..अब उसके सपनो को पंख मिल गए और उसने सोच लिया कि वह आगे पढने शहर जायेगी !


अपने सपनो के साथ बड़े शहर मुंबई आ गयी, यहाँ की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी और महंगाई के साथ उस यहाँ रहना बहुत मुश्किल सा लगाने लगा ! इसी शहर में उसके एक दूर की आंटी रहती थी जो शहर की मानी हुई डाक्टर थी ...बहुत मुश्किल से उसको कॉलेज के होस्टल में ही रहने की जगह मिल गयी तो उसने कुछ राहत की साँस ली ...सोचा की चलो पढ़ाई के साथ रहने का बदोबस्त हो गया है अब कोई पार्ट टाइम काम करके अपना ख़र्चा ख़ुद ही निकल लूंगी और अपनी माँ को ज्यादा तकलीफ़ नही दूँगी ....उसकी साथ कमरे में रहने वाली लड़की बड़े शहर से थी और बहुत अमीर परिवार से थी ..ख़ूब शान शौकत से रहती ..पैसे उड़ाना उसका शौक भी था और जनून भी ..रोज़ नये कपड़े मेकअप और ऊपर से सिगरेट और नशे की भी आदत ...शिवानी देख के डरी डरी सी रहती ...पर क्या करती ,रहना तो था ही ना .. !

बला की सुंदर और खूबसूरत शिवानी को जो देखता वो देखता रहा जाता ,हँसती तो गालो के गड्ढे जैसे अपनी और बुलाते थे ,...कालेज के कई लड़के उसको बस देखते ही रह जाते पर एक समान्य सा दिखने वाला लड़का रोहित तो जैसे उस पर अपनी जान देता था !..शिवानी शुरू शुरू में अपनी आंटी के घर चली जाती ..और उनसे कहती की कोई काम साथ साथ मिल जाए तो उसकी पैसों की परेशानी कम हो जाएगी!

परिस्थितियाँ या तो इंसान को बहुत ताक़तवर बना देती हैं या बहुत कमज़ोर! कुछ ऐसा ही शिवानी के साथ हुआ पहले उसके साथ उसके कमरे में रहने वाली लड़की सीमा उसके साथ बहुत प्यार से पेश आई फिर उसने उसका मज़ाक बनाना शुरू कर दिया ,कभी उसके कपड़ों का कभी उसके रहने के ढंग का कि वो यहाँ आ कर भी के कस्बे की लड़की ही बना रहना चाहती है ,,धीरे धीरे शिवानी भी उसके रंग में रंगने लगी , पर उस के पैसे कहाँ से आए... कोई नौकरी अभी मिल नही रही थी ,पहले सीमा के साथ सिगरेट फिर नशा और फिर गए देर रात तक पार्टी ..और उसके बाद सिर्फ़ अंधेरा था जहाँ वो लगातार गिरती चली गयी .. धीरे धीरे उसको वो जीने का ढंग रास आने लगा !
अब वो भी नये महंगे कपड़ों में घूमती ..महंगी कारो में घूमना उसका शौक बन गया .होस्टल उसको बंदिश लगने लगा तो उसने एक नया घर किराए पर ले लिया !रोहित यह सब देख के उसको समझाने की कोशिश करता ..कभी कभी उसकी अन्तरात्मा भी उसको कचोटती पर वो ख़ुद को यह कह कर चुप करा देती कि जीने के लिए सब जायज़ है.. क्या हुआ जो दो घंटे किसी के साथ गुज़ार लिए हँस बोल लिया , ज़िंदगी तो अब जीने लायक लगने लगी है ,उसके सारे सपने हवा में उड़ गये जो वो अपनी आँखो में बसा के आई थी ..रोहित उसको वापस बुला बुला के थक गया पर उसने पीछे मुड़ के उसकी तरफ़ देखा भी नही ....बस एक ही नशा की पैसा कमाना है किसी भी तरीक़े से और सुख से जीना है !

उधर उसकी आंटी भी हैरान परेशान थी की जो लड़की हर सप्ताह के अंत में उस से मिलने को उतावाली रहती थी अब वो महीनो-महीनो अपनी शक्ल नही दिखाती हैं उन्होने जब उसके बारे में सब पता लगाया तो उनके पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन सरक गयी ..बहुत समझाने की कोशिश की ...यह भी कहा कि वो उसके घर में ख़बर कर देंगी पर शिवानी जैसे कुछ सुनने की तैयार ही नही थी !
हार कर उसकी आंटी ने उसकी माँ को फ़ोन पर सब बात बता दी कि मेरे समझाने से वह कुछ नही समझ रही है शायद आपका डर और कुछ शर्म उसको वापस राह पर ले आए ! शिवानी की माँ सुन कर जैसे सुन्न सी हो गई एक अकेली विधवा औरत जिसका बुढापा शिवानी के सहारे गुजरना था आज यह सब सुनते ही शिवानी के साथ सजाये सब सपनों के साथ सब मिटटी में मिल गया ...

कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि अब कौन समझाए उस को जो ख़ुद ही ना समझना चाहे सो थक हार के उसकी माँ आंसू बहा के रह गई और उसकी आंटी ने उसको उसके हाल पर छोड़ दिया !


वक़्त का पहिया चलता रहा ...एक दिन आंटी अपने क्लीनिक से घर जा रही थी कि सड़क के एक और उन्हें शिवानी दिखी उसके साथ उसका दोस्त रोहित था ..शिवानी की हालत बहुत बुरी हो रही थी .. सुंदर शिवानी के गाल पिचक चुके थे बाल उलझे हुए कंघी मांग रहे थे और गोरा खिला हुआ रंग काला पड़ चुका था .कमज़ोर इतनी थी कि बोला भी नही जा रहा था .हर चीज की अति बुरी होती है और शिवानी कि हालत उसकी बर्बादी की कहानी सुना रहे थे !
आंटी उसकी यह हालत देख के घबरा गयी और पूछने लगी कि हुआ क्या है ??.. शिवानी अब क्या बोलती ..तब रोहित ने आंटी को बताया कि वो जिस रास्ते पर चल पड़ी थी वहाँ जाने के लिए कितनी बार मना किया पर शायद उस वक़्त यह मेरी बात नही समझ पाई मुझे तो इसका पता अपने एक दोस्त से चला मैं इसको डाक्टर के पास चेकअप के लिए ले के गया था ..इसको एड्स हो गया है और अब वह आखरी स्टेज पर है! यह सुन कर आंटी जैसे स्तब्ध रह गयीं! रोहित ने उसकी रिपोर्ट्स की फाइल आंटी को दिखा दी ..जिसके पन्ने बर्बादी की दास्तान सुना रहे थे ..उन्होंने उसको अपने नर्सिंग होम में एडमिट होने को कहा .वह उसकी सब रिपोर्ट्स देख चुकी थी, कही कोई उम्मीद की किरण नज़र नही आ रही थी !.शिवानी अपनी आंटी से नज़रें नही मिला पा रही थी ,उसने रोहित को कहा कि वह वहाँ से जाए वह अपने आप घर चली जायेगी उसको आंटी से कुछ बात करनी है !रोहित उसको वहाँ छोड़ के चला गया ! उसका दर्द उसके चेहरे से छलक रहा था ,और वो जैसे हर पल अपने इस किए से मुक्ति पाना चाहती थी .पर उसके लिए वह हिम्मत नही संजो पा रही थी .उसने अपनी आंटी से कहा कि मुझे प्लीज नींद की गोलियां दे दो ..मैं जीना नही चाहती ख़ुद मरने का साहस मुझ में है नही और मैं तिल तिल के नही मारना चाहती!

आंटी ने यह सुनते ही उसको डांट लगाई कि बेवकूफी की बातें न करे ..वो उसकी आखरी साँस तक उसको बचाने कि कोशिश करेंगी!जो होना था वो हो गया अब हिम्मत से काम ले ! उन्होंने उसको कुछ खिला के दवा दे दी और सोने के लिए कहा ..अपने कमरे में आ कर आंटी सोचने लगी . कि हमारी यह आने वाली पीढी किस दिशा की और चल -पड़ी है ..इनका अंत इतना भयानक क्यों है ? क्यों आज पैसों कि भूख शोहरत की भूख इतनी बढ़ गई है कि हम अपना सब कुछ गंवाने को तैयार हो गए हैं ...ऐसे कई सवाल शायद जिसका जवाब वक़्त के पास भी नही है ......और कहाँ अब उसकी माँ को तलाश करे जो दुनिया के तानों से घबरा कर न जाने कहाँ गुम हो गई थी !!
उधर शिवानी कि आंखो में नींद कहाँ ? उसका रोम रोम उसको दर्द के साथ साथ गुनाह का एहसास करवा रहा था ,थोडी रात और बीतने पर वह चुपके से नर्सिंग होम से निकल कर वापस अपने घर आ गई रात धीरे धीरे ढल गई !सुबह आते ही आंटी ने जब देखा कि वो कमरे में नही हैं तो रोहित को फ़ोन किया ..सिर्फ़ रोहित ही उसके नए घर का पता जानता था ,रोहित सुनते ही शिवानी के घर भागा ,और जब वहाँ पहुँचा तो शिवानी अब अपने हर दर्द से छुटकारा पा चुकी थी और घर में फैला सन्नाटा किसी गहरे दर्द में डूब चुका था !!

Saturday, October 6, 2007

चलते चलते : गाय और सुअर शावक

भगवान भुवन भास्कर की पहली किरण अभी फूटी ही थी. प्रातः वायुसेवन हेतु पार्क में लोगों ने टहलना प्रारम्भ कर दिया था. रातभर के विश्राम पश्चात जानवरो के झुण्ड सब्जी मण्डी की ओर बढ चले थे. एक गाय अपने बछड़े को जल्दी से दुलार कर दूध पिलाते हुये अपने झुण्ड में शामिल होने को तत्पर मालुम पड़ती थी.

उसी समय एक तीव्र मर्मभेदी पशु चीत्कार से लोगों के हृदय हिल उठे. प्रातःकालीन सन्नाटे के भंग होने चौंके लोगों का ध्यान बरबस ही उस ओर चला गया जहां पर कुछ लोग एक सुअर शावक को मारने का प्रयास कर रहे थे. प्राणासन्न संकट और मर्मान्तक प्रहार की पीड़ा से सुअर शावक की चीखें असह्य होती जा रहीं थी. लोगों ने अनसुना करने का प्रयास किया. कुछ ने कानों मे उंगली डाल कर अपने अभिजात्य होने का प्रदर्शन किया तो कुछ ने उसी समय ध्वनि प्रदूषण पर चर्चा को उपयुक्त समझा. कुछ लोग तो बस बड़बड़ाते हुये पार्क से बाहर निकल लिये. इस प्रकार सुसभ्य मानव समाज ने अपनी शाब्दिक संवेदना व्यक्त कर छुट्टी पा ली.

किन्तु उसी समय, यह क्या..! कुछ लोग दौड़े, कुछ भागे, कुछ गिर पड़े तो कुछ ने पार्क की झाड़ियों में छिपने का प्रयास किया. इस भागा दौड़ी में कईयों के चश्में टूटे और कुछ लोग ठगे से रह गये. जब लोगों ने कुछ पल पूर्व तक अपने बछड़े को दूध पिलाती गाय को एक भीषण हुंकार के साथ सींगों की आक्रामक मुद्रा में दौड़ते देखा. वह रौद्र रूप धारणी सुअर शावक की रक्षा हेतु शावक हंताओं की ओर बड़ी तेजी से दौड़ी जा रही थी. और उन लोगों को तो उस पल सिर पर पैर रख कर भागने के अतिरिक्त कुछ न सूझा.

अब जो दृश्य था उसे देख कर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न था. गाय शान्त मुद्रा में उस सुअर शावक को अपने पैरों के बीच लिये हुये दुलार रही थी.सुअर शावक भी अपनी जीवन रक्षिणी गाय मां के साथ शान्त हो गया था. पार्क में पशुता को क्रूरता का पर्याय मानने वाला मानव समाज सिर झुकाये लज्जित खड़ा था. पशुता के सम्मुख मानवता पराजित हो यह अद्भुत दृश्य निहार रही थी.

Wednesday, October 3, 2007

सुरूचि एवं सुस्रष्टा

शून्य से उपजा कभी था, शून्य जोड़ा शून्य में,
शून्य में मिल जायेगा, 'कान्त' कुछ पग छोड़ दे.
सुस्रष्टा अपने एकाकीपन से व्यथित था. अंर्तमन की कोमलतम् भावनाओं को छेनी हथौड़े से इधर उधर उकेरता हुआ प्रकृति में विचरण करता रहता. परन्तु शान्ति कहीं न मिलती .

एक दिन उसे सुरूचि मिली. मानो अभिनव ब्रह्माण्ड के 'सारे प्रश्नों' का उत्तर सुस्रष्टा को मिल गया . भूल गया वह स्वयं को भी .

सुरूचि उसके 'प्रजापति धर्म' के लिये स्नेहिल हाथों से रससिद्ध मिट्टी तैयार करती. वह अपने कल्पनाशील मष्तिष्क से नूतन अभिनव रचनायें तैयार करता. सम्पूर्ण 'प्रकृति' सुस्रष्टा के रचनाशील हाथों का स्पर्श पाकर अनूठे सौंदर्य सागर में हिलोरें लेकर आनन्दविभोर हो उठी.

अब सुरूचि का ध्यान सुस्रष्टा की 'रचनाओं' में अधिक लीन रहने लगा. अन्यावस्थित मन से एक दिन उसने रससिद्ध मृदापिण्ड के स्थान पर नम बालुका पिण्ड सुस्रष्टा के हाथों में दे दिया. रचनाशीलता में तल्लीन वह विशाल 'कौटुम्ब वृक्ष' की रचना करता रहा. हाथों में आयी मिट्टी एवं बालुका पिण्ड में वह भेद न कर सका. आज की रचना को वह अप्रतिम बनाने में खोया हुआ, जुटा रहा सारी रात भर. बृहदाकार तना, सुडौल शाखायें, पत्ते, फूल सब कुछ , उसकी श्रेष्ठतम् कल्पना के अनुरूप.

भगवान भुवन भास्कर की पहली पहली किरण ने जैसे ही मानव रचित कला का स्पर्श किया, स्वर्णिम रश्मियाँ मानो ठहर सी गयीं. ऐसा अनूठा सौंदर्य उन्होंने कभी नहीं देखा था. कुछ ऐसी ही अवस्था में सुस्रष्टा भी पहुँच गया. सुनहली आभा में अपनी ही रचना पर मुग्ध हो रात्रि जागरण से क्लान्त, आंखे मूंदकर उसी 'कौटुम्ब वृक्ष' की छाया में लेट गया.

भोर से हुयी सुबह और फिर दोपहर की यात्रा पर निकले आदित्य ने तपना प्रारम्भ किया . किन्तु वह सोता रहा सम्पूर्ण स्थिति से अनभिज्ञ अपनी श्रेष्ठतम रचना की छॉव में.

बालुका पिण्डों में व्याप्त नमी सूरज की तीक्ष्ण उष्मा से उड़ने लगी. हवा के झकोरों से बालू इधर उधर बिखरने लगी किन्तु थकान से चूर वह‚ अवस्थातीत सोता रहा तब तक‚ जब तक हवा के एक हल्के से झकोरे मात्र से विशाल कौटुम्ब वृक्ष भरभरा कर उसके ऊपर न गिर पडा .

अब प्रकृति उजाड़ है. सुरूचि सुस्रष्टा की रचनाओं मे लीन हो उसकी आभा ढूँढ़ती रहती है. प्रकृति में सुगठित रससिद्ध मिट्टी कैसे तैयार हो बस यही सोचती रहती है. परन्तु सुस्रष्टा तो मिले ?

(परिवर्तन होना चाहिये कहानी कलश की निरंतरता में ऐसा विचार मित्र राजीव जी एवं रंजना जी का, अपनी लम्बी कथा के प्रकाशन से ठीक समय पहले मुझे मिला, उसी भावना के अनुरूप यह लघु कथा प्रस्तुत है)