Saturday, August 30, 2008

लघुकथाः मूक- विरोध

सुनील के यहाँ दो लड़कियों पर लड़का हुआ था। सो हम पति-पत्नी उसे बधाई देने पहुँचे थे। कॉल बेल बजाने ही वाला था कि अन्दर से जोर-जोर से लड़ाई की आवाज सुनकर ठहर गया।
''पापा आप खुश होते रहे अपने लाडले के जन्म पर। हमें आप के इस कार्य से बहुत ठेस पहुँची है।"
आवाज़ उनकी बड़ी बेटी इला की थी ।
''बेटी क्या कह रही हो तुम- क्या तुम्हें अपने भाई के जन्म पर खुशी नहीं है।"
''आप मेल शाऊन्जिम (पुरूषतावादी) की बात कर रहे हैं मैं बारहवीं में तथा इड़ा नवीं में है
आप की उम्र अड़तालीस व मम्मी की चव्वालीस वर्ष है क्या आपके दो बेटियों की जगह दो बेटे होते तब भी आप एक बेटी पैदा करते, भ्रूण जाँच करवाते?" इला झपटते हुए कह रही थी।
''बेटे वंश चलाने के लिए' सुनील की पत्नी की मरी सी आवाज निकली।
''बस चुप करिये मम्मी। और हाँ, आप दोनो सुन लीजिए अगर आपने बेटा होने का जश्र मनाया तो मैं और इड़ा मुँह पर पट्टी बाँधकर मूक विरोध करेंगे। समझे?"
यह सुन कर हम पति-पत्नि ने बिना बधाई के वापिस लौटने में गनीमत समझी ।

--श्याम सखा 'श्याम'

Thursday, August 28, 2008

लघुकथा- ईमानदार

रोज शाम बगीचे में घूमने जाना मेरी आदत में शामिल था | फाटक के पास ही शर्माजी मिल गए |
वहां रुक कर कुछ देर उनसे बतियाने लगा | सावन का पहला सोमवार था | आज कुछ विशेष रौनक थी | कुछ एक गुब्बारे-कुल्फी वाले भी आ जुटे थे |
शर्माजी से जैरामजी कर आगे बढ़ने लगा तो पास में खड़े कुल्फी वाले ने कुरते की बाह पकड़ कर कहा : "बाबूजी पैसे" ?
मैं हतप्रभ: "कैसे पैसे" ?
उसने पास खड़े कुल्फी खाते एक बच्चे की तरफ़ इशारा कर के कहा : "आपका नाम ले कुल्फी ले गया है, पैसे तो आपको देने ही पड़ेंगे" |
मुझे गुस्सा आ गया बच्चे के पास गया और दो थप्पड़ जड़ दिए और कहा "मुफ्त की कुल्फी खाते शर्म नही आती" ?
वह बोला : "मुफ्त की कहाँ ? इसके बदले थप्पड़ खाने के लिए तो आपके पास खड़ा था वरना भाग ना जाता"?


--विनय के जोशी

Monday, August 11, 2008

कोमा

डॉक्टर कह रहा था, सॉरी! मिसिज मलकानी, आपके पति मि. मलकानी के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं। वे अपना कार्य पूर्णतयाः छोड़ चुके हैं। इस वजह से उनके रक्त में इतना टाक्सिक पदार्थ इकटठा हो गया है कि वे कोमा से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। डायलिसिस के बावजूद उनके रक्त में यूरिया की मात्रा प्रतिपल बढ़ रही है। अब तो एकमात्र उपाय गुर्दों का प्रत्यारोपण है।

पत्नी के चेहरे पर अवसाद व चिन्ता के बादल छा रहे हैं। वह मुड़कर मेरे मृतप्राय शरीर को देखती है जिसमें अनेक नलियाँ घुसेड़ दी गई हैं।

डाक्टर चले गए। पत्नी बिटुर-बिटुर कर मुझे देख रही है। मैं उसका कष्ट समझता हूँ। मुझे सब सुन रहा है। मेरा मस्तिष्क भी काम कर रहा है, पर मैं बोल नहीं सकता। हिल-डुल नहीं सकता, शायद सारी मांसपेशियाँ निष्क्रिय हो गई हैं। मैं हाथ से हिलाकर सन्देश देना चाहता हूँ। कभी आँख से इशारा करना चाहता हूँ पर कुछ नहीं कर पाता।

अब फिर मेरी विचारधारा कोमा की तरफ मुड़ती है। मैंने अनेक मरीज देखे हैं कोमा के। इलाज भी किया है। इसी विभाग का योग्य डाक्टर रहा हूँ, कोमा में जाने से पहले। सर्विस रिकार्ड में तो अब भी हूँ शायद। कल सब-कुछ खत्म हो जाएगा।

क्या कोमा में सभी व्यक्तियों का यही हाल होता है? माने जो हम चिकित्सक समझते-सोचते आए थे, कोमा वह नहीं है। कोमा में मस्तिष्क पूरा का पूरा काम करता है, आँखें देखती हैं, थोड़ा धुँधला दृश्य नजर आता है। कान सुनते हैं क्योंकि सोचने-देखने तथा सुनने में मांसपेशियों को विशेष कार्य नहीं करना होता। सोचने में तो कतई नहीं। हे राम! फिर तो कोमा बड़ा भयानक होता है। मैं सोचता हूँ, तिल-तिल कर मरना शायद कोमा का दूसरा नाम है।

मैं स्वयं एक डाक्टर हूँ। कोमा यूनिट में जाने कितने मरीजों का इलाज कर चुका हूँ। पर अब तक हमारी धारणा, माने डाक्टरों की धारणा, यही रही है कि कोमा में सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। परन्तु यह मेरे साथ क्या हो रहा है? मुझे सब-कुछ सुन रहा है। यहाँ तक कि देख-पहचान भी सकता हूँ। सोच भी सकता हूँ। पर यह सब-कुछ तो बहुत भयानक है। चाहे कुछ प्रतिशत में ऐसा होता हो, पर वाकई भयावह स्थिति है।

कमरे का दरवाजा खुलता है। पत्नी का भाई सुनील जो एयर इण्डिया में है आकर कुर्सी पर बैठ जाता है। पत्नी दूसरी कुर्सी पर बैठी है। वह एक उचटती-सी हिकारत भरी नजर मुझ पर फेकता है। मेरी पत्नी के इस भाई ने मुझे जीजा के रूप में कभी नहीं कबूला, क्योंकि मेरा और पत्नी का प्रेम विवाह था। वह मेरी कविताओं की दीवानी थी। पर मैं सिन्धी था तथा वे लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण। सुनील के मन में मेरे प्रति अव्यक्त निरादर रहा है। वह मुझे और हमारे रिश्ते को, यहां तक की मेरी मौजूदगी को भी नकारता रहा है।

सुनील मेरी पत्नी प्रमिला से कहता है गुरदा कहाँ से मिलेगा? कौन देगा? इस कमबख्त का तो कोई सगा भी नहीं। मैं अनाथ था तथा एक सिन्धी ट्रस्ट ने मुझे पढ़ाया था। मैं सोचता हूँ, पत्नी उसे डाँटेगी जैसा कि पहले कई बार कर चुकी है। परन्तु पत्नी भी चुप है, शायद असीम दु:ख से, या फिर क्या कहूँ या फिर शायद उसे मेरा-उसका रिश्ता समाप्त होता लगता है। ऐसे में भाई से भी क्यों बिगाड़े?

''भैया, क्या गुरदा कहीं से मोल नहीं मिल सकता?'' वह कहती है। मुझे अच्छा लगता है। पत्नी अभी रो रही है। मेरी चिन्ता है, उसे।

मिल सकता है। पर दो ढाई-लाख रुपए लेगा गुरदा दान करने वाला। फिर सौ झमेले, किसी को पता लग गया तो। आप्रेशन का खर्चा, अस्पताल का खर्चा, अस्पताल के बाद गुरदे को परित्यक्त होने से बचाने के लिए दो-तीन साल महँगी दवाइयाँ। सब मिलाकर लगभग दस लाख। कहाँ से लाओगी इतना रुपया ? अभी तक भी ढाई-तीन लाख खर्च हो चुका है और फिर गारन्टी कहाँ है कि यह बच जाएगा। तुमने तो इसके बहकावे में आकर नौकरी भी नहीं की। सुनील कोई मौका नहीं छोड़ता, मुझे नीचा दिखाने का। मुझे गुस्सा चढ़ आया है। पर सब बेकार, मैं भला गुस्सा कैसे दर्शाऊं ?

''फ्लैट बेचने से नहीं चलेगा, पत्नी मरी आवाज से कहती है। मुझे भला लगता है। कितना मिलेगा ? साढ़े तीन लाख, फिर तुम सड़क पर रहोगी। और तुम उसे बेच भी नहीं सकती जब तक यह जिन्दा है क्योंकि नाम तो इसी के है, ना।

फिर दोनों चुप हो जाते हैं। मेरे कान उधर ही लगे हैं। अब न केवल मेरा धुंधलापन बढ़ गया है बल्कि आवाज भी दूर से आती हुई लगती है, जैसे किसी कुंए में से।

पत्नी फिर कहती है भैया कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसे तो नहीं छोड़ा जा सकता इनको। पर उसकी आवाज में दम नहीं है। ऐसा लगता है कि यथार्थ उसे भी दिखने लगा है।

''देखो ! तुम तकदीर से जीत नहीं सकती। हमसे अपने परिवार से तो तुमने मनमानी कर ली इससे विवाह करके, पर तकदीर........... वह बीच में चुप हो जाता है। नर्स आकर मेनीटोल की बोतल बदल देती है और चली जाती है।
सुनील फिर कहता है, ''इसने कोई बीमा भी करवा रखा है या नहीं।

पत्नी चुप रहती है। मैं तड़प उठता हूँ। वह इसे धमकाती क्यों नहीं? कैसी पतिव्रता नारी है ? क्या यह वही है जिसने इन सबसे लड़कर मुझसे विवाह रचाया था।

डाक्टर फिर कमरे में आता है। पूछता है, फिर क्या फैसला किया ?'' सुनील से पहले पत्नी बोलती है 'डाक्टर गुरदे प्रत्यारोपण के बाद इनके बचने की कितनी उम्मीद है ?

मेरी उम्मीद जवाँ हो जाती है। शायद प्रमिला ने फिर फैसला कर लिया। भाई की दलीलों के खिलाफ वह सब-कुछ बेचकर मेरा इलाज करवाएगी।

'फिफ्टी-फिफ्टी मिसिज मलकानी!' डाक्टर कहता है।

''तब तो आप ऐसे ही कोशिश करके देखें, क्योंकि गुरदा देने वाला तो कोई है नहीं।''

हम मध्य वर्गीय लोगकितने कायर होते हैं, कितने कैलकुलेंटिंग ! प्राप्त सुख सुविधाओं को छोड़ने का साहस हम में उतना नहीं होता जितना गरीबों में होता है। शायद मैं प्रमिला की जगह होता तो यही करता। मेरे चेहरे पर तो क्या है पता नहीं, मेरे भीतर यह बीभत्स सत्य मुझे अट्टहास करने पर मजबूर कर रहा था।
मैं सकते में हूँ। मुझे सहसा याद आता है कि हमारे मेडिकल कालेज हास्टल के बाहर खोखे वाला मनोहर। उसकी पत्नी को कैंसर हो गया था। निदान भी बड़ी देर से हुआ था। लगभग आखिरी स्टेज थी। उसने उसे अस्पताल में दाखिल करवाया था। डाक्टर के साफ जवाब देने के बावजूद भी वह दिलेरी से कहता रहा ''जनाब आप कोशिश तो कीजिए जो होगा देखा जाएगा। इसको भाँवर डालकर लाया था तो वचन दिया था पण्डित, जात-बिरादरी तथा अग्नि के सामने, कि इसका पूरा ख्याल रखूँगा।'' मनोहर की पत्नी का रोग काबू नहीं आ रहा था। कीमती कीमो थेरेपी में मनोहर ने पहले अपना पुराना स्कूटर, फिर खोखा, फिर शहर के बाहर बना कोठरीनुमा घर बेच दिया था। फिर रिश्ते-नाते, यार-दोस्तों, यहाँ तक कि हम विद्यार्थियों से कर्ज लेकर इलाज करवाता रहा। उसकी पत्नी दस दिन कोमा में रही। वह रात-दिन उसके सिरहाने बैठा कहता रहता ''रामरती घबराना नहीं तुम ठीक हो जाओगी। मैंने माता की मन्नत मांगी है, मन्नत कभी बेकार नहीं जाती।'' मैं भी रामरती को देखने गया था। संयोग से जब उसने आखिरी साँस ली तो मैं वहीं था। उसके पीले जर्द चेहरे को मनोहर ने अपनी गोद में ले रखा था। रामरती की साँसें उखड़ रही थीं। पर उसके नीले पड़ते होठों पर एक मुस्कान थी। मनोहर उसका माथा सहलाता हुआ कहता जा रहा था कि घबराओं नहीं रामरती और रामरती बिना घबराए चली गई। शायद कोमा में भी उसे अपने महबूब के प्यार का सहारा था, भरोसा था।

सुनील और प्रमिला की आवाज अब मुझे अस्पष्ट लग रही थी। हम मध्य वर्गीय लोगकितने कायर होते हैं, कितने कैलकुलेंटिंग ! प्राप्त सुख सुविधाओं को छोड़ने का साहस हम में उतना नहीं होता जितना गरीबों में होता है। शायद मैं प्रमिला की जगह होता तो यही करता। मेरे चेहरे पर तो क्या है पता नहीं, मेरे भीतर यह बीभत्स सत्य मुझे अट्टहास करने पर मजबूर कर रहा था। मेरा अन्तस फराज अहमद की पंक्तियाँ गुनगुना रहा है-

ढूँढता कहाँ है तू वफा के मोती
यह खजाने शायद खराबों में मिलें।


मेरी कड़वाहट धीरे-धीरे शून्य में विलीन हो रही थी। मुझे अनन्त निद्रा के आने की आहट सुन रही है। ऐ दोस्तो, रकीबो, मेरा सलाम अलविदा, दुआ करना मुझे दोबारा वहाँ जन्म मिले जहां सरसों के तेल का दिया टिमटिमाता हो। जहाँ हवा बेरोक-टोक आती हो। जहाँ पिता के बदन से पसीना सूखता ही न हो। जहाँ माँ के आंचल के अलावा कुछ नहीं हो। और कुछ नहींं तो मुझे मनोहर और रामरती में से एक बना देना। पर डाक्टर मलकानी नहीं, अलविदा।

कथाकार- डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'
[कहानी लिखने का समय रात्रि 1.30 बजे -स्थान-एक मरीज को देखकर वार्ड के रिटायरिंग रूम में]

Tuesday, August 5, 2008

नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी 'स्वेटर'

हम गद्य विधा के लिए नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी-संग्रह 'डर' से कहानी प्रकाशित कर रहे हैं। पिछली बार हमने विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी 'रंगमंच' प्रकाशित किया था। इसी कहानी संग्रह की एक और कहानी 'सफ़र' आप बहुत पहले ही कहानी-कलश पर पढ़ चुके हैं। आज प्रस्तुत है तीसरी कहानी 'स्वेटर'

स्वेटर



बाहर अभी उजाला है। हल्का-हल्का उजाला जो अभी थोड़ी देर में अंधेरे की शक्ल लेना शुरू कर देगा। माँ रसोई में अब भी कुछ खटपट कर रही है जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि दोनों सूटकेस और बैग पैक हो चुके हैं और अब कोई चीज़ रखने की जगह नहीं।
वह कुर्सी पर आराम की मुद्रा में बैठा है। सामने अभिजीत पलंग पर बैठा है। पापा दरवाज़े पर टहल रहे हैं और पता नहीं किस चीज़ का इंतज़ार कर रहे हैं। वह कभी बाहर की तरफ देखता है, कभी अभिजीत की तरफ और कभी किचेन की तरफ। सभी मानो किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहे हों। घड़ी की सुइयों का एक जगह से दूसरी जगह जाकर एक निश्चित जगह पहुँच जाना भी कितनी उदास घटना है, और कितना थका देने वाला है यह इंतज़ार। पापा बाहर टहलते-टहलते ही उसे बीच-बीच में देख ले रहे हैं जैसे उन्हें यक़ीन ही न हो कि वह इसी घर में उसी हत्थे टूटी कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर पर अंदर आ जा रहे हैं।
''विक्रांत का पता और फोन नम्बर कहाँ रखा है?''
''डायरी में।'' वह जैकेट की जेब थपथपाता है।
''कहीं दूसरी जगह भी लिख लो, अगर ये डायरी खो गयी तो.........?'' थोड़ी देर खड़े रहते हैं फिर बाहर जा कर टहलने लगते हैं। मां एक डब्बे में कुछ लेकर आती है।
''इसे बैग की साइड वाली पॉकेट में जगह बना कर रख लो।''
''क्या है ये..........?'' वह डब्बे को बिना थामे पूछता है।
''रास्ते में खाने के लिए मठरियाँ....।''
''मां, मैंने बताया था न कि प्लेन में खाना मिलता है।'' वह झुंझला जाता है।
''............पर ये खाना थोड़े ही है, थोड़ी-थोड़ी देर पर निकाल कर खाते रहना।'' मां थोड़ी सहम जाती है।
''मां तुम भी.........।''
अभिजीत उठकर मां के हाथ से डब्बा ले लेता है।
''लाओ आंटी, मैं रख देता हूँ। दो-चार अपनी जेब में और बाकी बैग में......।''
'' हाँ बेटा, ले रख दे।''
पापा फिर अंदर आते हैं।
''बेटा, वहाँ जाकर अपना हिसाब-किताब देख कर मुझे फोन करना। और भी पैसों की ज़रूरत होगी तो बताना। पढ़ाई में ध्यान लगाना, पैसों की कोई फ़िकर मत करना......।''
उसे पता है पापा की आदत है ये, जिस चीज़ की सबसे ज्यादा कमी होती है उसे ही सबसे ज्यादा उपलब्ध दिखाने की कोशिश करते हैं।
अभिजीत चुपचाप बैठा मठरियाँ खा रहा है। बीच-बीच में उसे देख ले रहा है और मुस्करा दे रहा है। ये इतना चुप तो कभी नहीं रहता। मठरियाँ खाने में ऐसे जुटा है जैसे मठरियां खाना दुनिया का सबसे ज़रूरी काम हो और उसका पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया जाना एक मामूली बात हो।
अभी तीन घंटे बाद वह फ्लाइट में होगा। सभी से दूर..........माँ-पापा से, दोस्तों से, इस मुहल्ले से, इस शहर से, इस देश से...........।
थोड़ी देर में अनुज भी आ जाता है।
''सब तैयार है न ?'' वह अभिजीत से पूछता है।
''हाँ, हाँ सब तैयार है। बस........निकलते हैं।'' अभिजीत इत्मीनान से एक मठरी निकाल कर अनुज की ओर बढ़ा देता है।
रोज़ का दिन होता तो अनुज इतनी शांति से एक मठरी लेकर खाने लगता ? अभिजीत के हाथ से दूसरी भी छीन लेता और अभिजीत उसे छीनने के लिए उसकी टांगों में हाथ डालकर गिरा देता और मठरियां छीनने लगता। माँ हमेशा की तरह दोनों की तरफ देख कर कहती, ''अरे लड़ो मत बेटा। अभी और भी मठरियाँ बची हुयी हैं।''
मगर अनुज एक मठरी आराम से खा रहा है। माँ सोफे पर बैठकर एकटक उसकी ओर देख रही है। वह मुस्करा देता है।
''क्या है माँ ? ऐसे क्यों देख रही हो ?''
''अं हां, अपने खाने-पीने का बहुत ख़याल रखना। रात को दूध ज़रूर पीना और.....और फोन करते रहना। पढ़ाई पर ध्यान देना और चिट्ठी ज़रूर डालते रहना।''
''अरे आंटी, अब कौन चिट्ठी-विट्ठी लिखता है। यह हर दो-तीन दिन पर ई मेल करता रहेगा और हम आकर इसका हाल-चाल आपको बता दिया करेंगे।'' अनुज कहता है।
''जुग-जुग जीओ बेटा।''
वह अनुज की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। अनुज भी कुछ बताने के लिए उसकी तरफ देख रहा है पर माँ की उपस्थिति से दोनों ख़ामोश हैं। वह अभिजीत की ओर देखता है। अभिजीत उसकी आंखें का इशारा समझा जाता है। वह उठकर मां के पास चला जाता है।
''आंटी वह नमकीन वाली गुझिया दो न एक।''
'' जा बेटा, उस सफ़ेद डब्बे में है, निकाल ले।'' माँ वहाँ से बिल्कुल नही उठना चाहती।
'' नहीं आंटी प्लीज़ आप निकाल लाओ न।''
''अच्छा रुको लाती हूँ।'' माँ धीरे से उठ कर रसोई की तरफ चली जाती है।
अनुज लपक कर उसके पास पहुँचता है।
''क्या हुआ ?'' वह बेचैन दिख रहा है।
''वह सीधा एअरपोर्ट आयेगी।'' अनुज बताता है।
''यार यहाँ आ जाती तो मैं नीचे जाकर मिल आता। एअरपोर्ट पर तो पापा भी होंगे। क्या बोलकर परिचय कराऊँगा उसका.......?''
''बोल देना दोस्त है।'' अनुज राय देता है।
''हाँ पर.....फेयरवेल किस नहीं ले पाएगा पापा के सामने।'' अभिजीत मुस्कराता हुआ कहता है।
''अरे यार वो बात नही...........अभी तक माँ-पापा को कुछ नहीं बनाया तो अब जाते वक्त.......। बाद में बताऊँगा, सीधे फ़ाइनल डिसीजन के समय..............।'' वह कुछ सोच में पड़ जाता है।
''सुन तू पापा को एअरपोर्ट चलने के लिए मना कर दे। कुछ भी बोल कर समझा ले। बोल दे कि दो लोग तो जा ही रहे हैं।'' अभिजीत आइडिया देता है।
''हाँ शायद यही ठीक रहेगा।'' वह सोचते हुए बुदबुदाता है।
माँ गुझिया रख कर पापा के पास चली गयी है। दोनों आपस में बातें कर रहे हैं। या अब अकेले सिर्फ़ एक दूसरे के साथ रहने का अभ्यास..........?''
पापा फिर अंदर आते हैं।
'' ठंड से बचकर रहना। वहाँ ठंड ज्यादा पड़ती है। हमेशा मफ़लर लगा कर रहना। ठंड कानों पर ही सबसे पहले आक्रमण करती है। कान हमेशा ढके होने चाहिए। ये नही कि फ़ैशन में बाल न बिगड़ें, इसलिए मफ़लर ही न लगाओ। स्वविवेक से काम लेना। वहां कोई देखने नहीं आयेगा। वह तुम्हारा घर नहीं मेलबर्न है।''
पापा पिछले कुछ दिनों से हर बात में घुमा-फिरा कर मेलबर्न का ज़िक्र ज़रूर ले आते हैं जैसे पूरी तस्दीक कर लेना चाहते हों कि वह वाकई इतनी दूर जा रहा है।
पापा बाहर जा कर फिर टहलने लगते हैं। माँ बाहर कुर्सी पर बैठी है।
''जी.............।'' इतनी बातों के जवाब में वह सिर्फ़ एक शब्द बोलता है जो बाहर पसर रहे अंधेरे में गुम हो जाता है।
''आज रोज़ इतनी ठंड नहीं है।'' अनुज कहता है।
''हां बल्कि मुझे तो गर्मी लग रही है।'' वह कहता है।
''वह तो लगेगी ही, तूने स्वेटर और जैकेट दोनों पहन रखी है। मुझे देख...।'' अभिजीत उसे अपना हाफ़ स्वेटर दिखाता है।
''अरे यार, पापा ने ज़बरदस्ती.........।''
''तो पापा के सपूत, अब तो उतार दे। पापा बाहर हैं। उतार कर जैकेट की चेन बंद कर ले। उन्हें क्या पता चलेगा।'' अभिजीत राय देता है।
वह जैकेट उतार कर स्वेटर उतार देता है। फिर जैकेट पहन कर उसकी चेन बंद कर देता है।
''मैं सोच रहा था, ये स्वेटर न ले जाऊँ।'' वह स्वेटर को तह करते हुये कहता है।
'' सही सोच रहा है। इस पुराने स्वेटर को ले जाकर क्या करेगा ? तीन-तीन अच्छे स्वेटर तो हैं तेरे पास........।'' अनुज समझाता है।
''मगर पापा देख लेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा। वह ख़ुद यह स्वेटर मेरे लिये नेपाल से लाये थे।'' वह हिचकिचाता है।
''अभी नहीं देखेंगे ना ? बाद में देखेंगे तो सोचेंगे गलती से छूट गया।'' अनुज स्वेटर तह करके तकिये के नीचे रख देता है।
फिर तीनों अचानक चुप हो जाते हैं। अनुज व अभिजीत दोनों उसकी तरफ देख कर मुस्कराते हैं।
''कुछ कह रही थी ?'' वह भी मुस्कराता है।
''नहीं, कुछ ख़ास नहीं। बस यही कि पहुँचते ही अपना पोस्टल एड्रेस उसे मेल कर देना। जो स्वेटर तुम्हारे लिये बुन रही है, बस पूरा होने ही वाला है, उसे कूरियर करेगी। कह रही थी बहुत सारी बातें हैं जो तुमसे एअरपोर्ट पर करेगी। मैंने कहा मुझे बता दे, मैं तुम्हें बता दूंगा तो नाराज़ होने लगी.........।'' अनुज कुटिल मुस्कान मुस्कराता है।
''साले, तुझसे क्यों बतायेगी ? वो बातें तू सीमा से क्यों नही करता ?'' वह भी मुस्कराता है।
''यार, वह ना तो मुझे घास डालती है न मेरी डाली घास खाती है। उससे क्या बातें करूँ, मुझ तो तेरी कविता ही पसंद है।'' अनुज ढीठता से हँसता हुआ कहता है।
वह फिर मुस्कराता है। वह जानता है ओर कोई दिन रहता तो सीमा का नाम सुनते ही अनुज दिल पर हाथ रखकर सारी बातें धीरे-धीरे नाटकीय अंदाज़ में कराहते हुये कहता। वह भी उसकी ज़बान से कविता का नाम सुनते ही उस पर लातें चलाने लगता। पर आज की बात दूसरी है। आज उनके पास वक्त नहीं है। आधे घंटे के भीतर वे एअरपोर्ट के लिये निकल लेंगे। उससे पहले यारों के बीच होने वाली बेवकूफ़ियों को रिवाइंड करना अच्छा लग रहा है।
पापा मां के साथ फिर अंदर आते हैं।
''अब निकलते हैं बेटा, कहीं पहुँचने में देर न हो जाय।''
''अरे अंकल, अभी तो टाइम है।'' अनुज कहता है।
''अरे भई ट्रैफ़िक जैम का कोई भरोसा है क्या। कभी भी लेट करा सकता है।''
मां भीगी आंखों से उसे देखती है। ''तेरे जाने के बाद घर एकदम सूना हो जायेगा।'' लगता है माँ रो देगी।
''कम ऑन आंटी, हम सूना होने देंगे तब ना..........।'' अभिजीत माँ के कंधे पर हाथ रखता है। माँ उसका गाल थपथपा देती है।
''चलो बेटा चलो, अब निकलते हैं.................कहीं देर न हो जाय।'' पापा पास आकर खड़े हो जाते हैं। उसे पापा पर इसी बात से गुस्सा आता है। जिस बात को एक बार मुँह से निकाल देते हैं उसके पीछे ही पड़ जाते हैं।
''चलो बेटा, आओ अनुज.............।'' उसके सोचने भर में पापा एक बार और अपनी बात दोहरा देते हैं और एक बैग उठाने का उपक्रम करते हैं।
''अरे अंकल, आप कहाँ परेशान होंगे ? हम हैं ना..........। आप आराम कीजिये।'' अनुज यह कहता हुआ बैग उठा लेता है। अभिजीत दोनों सूटकेस उठा लेता है।
''अरे नहीं बेटा, मैं भी चलता हूं।'' पापा परेशान दिखने लगे हैं।
''छोड़िये अंकल, डॉक्टर ने वैसे भी आपको ज्यादा दौड़ने-धूपने से मना किया है। आप यहीं रहिये । हम हैं ना.........।'' कहता हुआ अभिजीत बाहर निकल जाता है। पीछे-पीछे अनुज भी।
''डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है भई। मुझे दौड़ते हुये थोड़े ही चलना है।........चलता हूँ मैं भी...........।'' पापा उसके कंधे पर हाथ रखते हुये एक उदास हँसी हवसते हैं जो इस उदास शाम को और उदास कर जाती है।
''रहने दीजिये पापा, आप बेकार परेशान होंगे।'' वह पापा के पैर छूता है, फिर माँ के।
'' बेटा, माता के पैर छू लो।'' माँ दुर्गा के शीशे में मढ़ायी गयी तस्वीर की ओर इशारा करती है।
वह आगे बढ़ कर दुर्गा की तस्वीर को प्रणाम करता है जिसके शीशे में पापा की उदास खड़ी परछाई दिखायी देती है। वह बाहर आ जाता है। पापा उम्मीद भरी आंखों से उसे देखते रहते हैं। माँ उसे दही खिलाती है। वह जल्दी से दही खाकर निकल जाता है।
तीनों घर से निकल कर सड़क पर आ जाते हैं। वह ख़ुद को ऐसे मक़ाम पर पा रहा है जहां एक वाज़िब ख़ुशी का एहसास दिल में इसलिये नहीं उमड़ पा रहा है क्योकि कुछ छूट जाने का गम उस पर हावी होता जा रहा है। अपने दोस्त, अपनी जगह, अपना माहौल.........। एक नयी दुनिया में जाने की ख़ुशी पता नहीं क्यों इतनी शिद्दत से महसूस नहीं हो पा रही है।
क़रीब सौ मीटर चलने के बाद अनुज सिगरेट जलाकर दोनों को एक-एक थमा देता है। दोनों सिगरेट फूँकते हुये ऑटो स्टैंड की तरफ जाने लगते हैं।
'' आज सुबह मनु के घर पुलिस की रेड़ पड़ी थी।'' अनुज सिगरेट का धुँआ छोड़ता हुआ बताता है।
'' हां, उसके डैडी बिजनेस की आड़ में कुछ गलत धंधा करते थे।'' अभिजीत कहता है।
उसका मन सुबह से भारी हो रहा है। वह अपनी बीती ज़िंदगी और आने वाली ज़िंदगी के बारे में सोच रहा है। इन दोनों की बातें सुनकर उसका मन डूबता हुआ सा लग रहा है। वे भी तो उसके बिना अकेले हो जाएंगे। वह कितना मिस करेगा इनको..........।
''अच्छा सुन, वहां की लड़कियां बड़ी फ़्रैंक होती है। दो-चार पट जायं तो बताना, हम भी आय ई एल टी एस ट्राय कर लेंगे। क्यों अभि ?'' अनुज खी-खी करके हंसने लगता है।
वह भी मुस्करा देता है। अभिजीत एक बार उसकी तरफ़ देख भर लेता है। वे कितनी सफ़ाई से दिल दुखाने वाली बातें नहीं करना चाहते।
''मैं वहां तुम लोगों को बहुत मिस करूँगा.........।'' वह भरी-भरी आवाज़ में कहता है। अभिजीत उसकी हथेली अपनी हथेली में पकड़ कर दबा देता है।
''अरे कभी-कभी उसे भी मिस कर लेना जो अपना प्यार स्वेटर की शक्ल में भेजने वाली है........................।'' अनुज अपनी आदत के अनुसार भावुक होने के बावजूद बात को हंसी में उड़ा देता है।
'' अंकल आ रहे हैं। पीछे पलटने से पहले सिगरेट फेंक दो।'' अभिजीत धीरे से फुसफुसाता है।
वह सिगरेट फेंक कर पलटता है। पापा लगभग दौड़ते हुये आ रहे हैं। वह आगे बढ़कर सड़क पार करता है और उनके पास पहुंचता है।
'' क्या बात है पापा ? आपके लिये दौड़ना नुकसानदायक है, आप जानते हैं फिर भी.......?'' वह हल्का गुस्सा दिखाता है। उसे पहली बार याद आता है कि उसके जाने के बाद पापा का उतावलापन नियंत्रित करने वाला कोई नहीं रहेगा और वह उतावली में अपना नुकसान करते रहेंगे।
'' अरे तुम ये स्वेटर भूल आये थे तकिये के नीचे.............। तुम्हारी मम्मी ने कहा कि.तुम्हें दे आऊँ......इसलिये थोड़ा दौड़ना पड़ा।...........लो बैग में रख लो.........।'' पापा अटकती सांसों के बीच बोलते हैं और उसे देखते रहते हैं।
उसे अचानक पापा के ऊपर तरस आने लगता है, फिर अपने ऊपर। फिर पापा के ऊपर प्यार आने लगता है और अपने ऊपर गुस्सा। स्थिर, गंभीर आंखों और लंबी सांसों के बीच पापा ने कितनी चिंतायें छिपा रखी हैं। उसका मन करता है कि अपने दिल में पापा के लिये छिपा सारा प्यार ज़ाहिर कर दे। क्या पता फिर पापा भी जाते समय उससे पैर छुआने की जगह उसे गले लगा लें।
वह डूबती आंखों और कांपते हाथों से स्वेटर हाथ में लिये थोड़ी देर खड़ा रहता है और पापा को देखता रहता है।
'' सारी ज़रूरी चीज़ें रख ली हैं न ? ये याद रखना कि हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रखना। सही रास्ता कठिन हो या लंबा, हमेशा उसे ही चुनना। शरीर और पढ़ाई दोनों पर ध्यान देना। पैसों की चिन्ता मत करना। चलो, अब जाओ, देखो अनुज ने ऑटो तय कर लिया है।..............बुला रहा है तुम्हें।'' पापा सामान्य दिखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
'' जी...........।'' वह भरी आंखों के साथ पलटता है। दो-तीन क़दम चलने पर पापा की आवाज़ सुनायी देती है।
'' कहो तो मैं भी चल ही चलूँ.........। वैसे भी घर पर बैठा ही रहूँगा..........।'' पापा की धीमी आवाज़ जैसे कहूँ और न कहूँ के संशय के बीच से निकल कर आ रही है। ज़माने भर का दर्द और निवेदन समेटे अपनी आवाज़ को उन्होंने इस तरह ज़ाहिर करना चाहा है जैसे उन्होंने बहुत सामान्य और छोटी सी बात कही है और इसके न माने जाने पर भी उन्हें कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा।