जब उसकी टैक्सी बाहर आकर रुकी तो सवेरा हो जाने के बावजूद अभी शक्ल दूर से न पहचाने जाने लायक अंधेरा था। उसने अपने घर के गेट के सामने टैक्सी रुकवाई और सामान उतार कर उसका बिल अदा किया।
टैक्सी जाने के कुछ देर बाद तक वह अपना सामान लिये वहीं खड़ा रहा। उसके घर वाली पंक्ति में तीन नये मकान और बन गये थे। दो मकानों के बनने की ख़बर तो उसने सुनी थी पर यह तीसरा प्लॉट कब बिका और मकान भी तैयार हो गया ? उसने कॉलबेल बजायी।
मां गेट खोलने के बाद आश्चर्य से उसे घूरने लगी। क्या मां उसे पहचानने की कोशिश कर रही है ? पहचान का ऐसा संकट? वह डर गया। क्या डेढ़ सालों में वह इतना बदल गया है? बाल कुछ ज्यादा सफ़ेद हो गये हैं पर वह तो असमय ही॰॰॰॰॰॰। शायद मोटा ज्यादा हो गया है। पर फिर डर जाता रहा।
´´ आ॰॰॰॰॰ अंदर आ।´´
´´प्रणाम मां।´´ उसने पैर छुए।
घुसते ही पहली नज़र बिस्तर पर पड़ी। पिताजी मौजूद नहीं थे।
´´पिताजी क्या इतनी ठंड में भी॰॰॰॰?´´
´´और क्या, नियम धरम के पक्के हैं॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां मुस्करायी।
मां रज़ाई में पैर डाल कर बैठ गयी। वह भी कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गया। मां उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी। वह मां को ध्यान से देखने लगा। पिछली बार एक बार भी फ़ुरसत से मां के पास नहीं बैठ पाया था। मां कितनी बदलती जा रही है। हर बार वह दूसरी मां को पाता है। चेहरे पर झुर्रियां बढ़ती जा रही हैं।
´´मां, तुम तो बूढ़ी होती जा रही हो।´´ उसने मुस्करा कर कहा।
´´जब मेरा जाया बूढ़ा होने लगा तो मैं तो बूढ़ी होऊंगी ही।´´ मां उसके निकलते जा रहे पेट की ओर देखकर मुस्करायी।
वह शरमा गया और नज़रें हटाकर कमरे की ओर देखने लगा। अलमारियों में नये शीशे लगे थे। ऊपर वाले खाने से गुलदस्ते हटा दिये गये थे और वहां भगवान की कुछ तस्वीरें और मूर्तियां रखी हुयी थीं। नीचे वाले खाने पर कुछ किताबें और बीच वाले खाने पर दो मढ़ी हुयी तस्वीरें रखी हुयी थीं। एक तस्वीर मां और पिताजी की थी। जवानी के दिनों की जब पिताजी थोड़ी मोटी मूंछें रखते थे जों ऊपर की ओर तनी रहती थीं। दूसरी फोटो परिवार की थी जिसमें मां और पिताजी आगे कुर्सियों पर बैठे थे और वह और छोटे पीछे कुर्सियों की पीठ पर हाथ रखे खड़े थे।
´´ये भगवान की तस्वीरें और मूर्तियां यहां ड्राइंगरूम में क्यों रखी हैं ?´´ उसने आलमारी की ओर देखते हुये पूछा।
´´ तेरे पिताजी रोज़ पूजा करते हैं सुबह।´´ मां बताती हुयी हँसने लगी।
´´क्या॰॰॰॰॰॰॰॰॰? पिताजी और पूजा ?´´ उसे सुनकर एक अजीब सा गाढ़ा आश्चर्य हुआ जिसमें वह देर तक डूबा रहा। पिताजी तो शुरू से ही महानास्तिक किस्म के आदमी रहे हैं जो मां के पूजा-पाठ और व्रतों के विरोध में अक्सर लम्बे-लम्बे लेक्चर पिलाया करते थे। और अब ख़ुद पूजा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰?
´´और सुन, मांस-मछली भी खाना छोड़ दिया है। कहते हैं तुम नहीं खाती हो तो मुझे भी नहीं खाना चाहिये। मांस वाले सारे बर्तनों को स्टोर में रख दिया है।´´ मां उसी रौ में बता रही थी।
उसकी समझ में पिताजी का कायांतरण बिल्कुल नहीं आया। उन्हें क्या हो गया है ? उसके सामने पिताजी का रोबदार चेहरा घूम गया। उसे अपने बचपन के, पुराने दिन याद आने लगे, जब पिताजी घर में तानाशाह की हैसियत रखते थे। इतने कड़क कि सामने जाने में डर लगे और इतने अनुशासन वाले कि घर के पेड़-पौधे भी हिलने से पहले उनकी इजाज़त लें। पुरूष होने का दंभ उन्हें विरासत में मिला था। दादाजी गांव के खांटी ज़मींदार थे और उन्होंने पूरी ज़िंदगी में दादी से एक बार भी प्रेम से बात नहीं की। पिताजी उनसे भी दो क़दम आगे थे। वे मां की हर बात, चाहे वह सही हो या गलत, इतनी तेज़ी से डपट कर काटते कि मां सहम जाती।
कारण शायद रहे होंगे अवचेतन में बैठ गयीं कुछ बातें और कुछ संस्कार। दादाजी और उनकी मंडली आपस में बैठ कर बातें करती तो तेज़ आवाज़ में कुछ शिक्षाएं निकलतीं जो अप्रत्यक्ष रूप से पिताजी के लिए होती थीं। जनानियां पांव की जूती होती हैं, उन्हें ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए। मरदों को औरतों की कोई बात नहीं माननी चाहिए। लुगाइयों को खाना पकाने और बच्चा जनने से ज्यादा कुछ नहीं सोचना चाहिए। इत्यादि इत्यादि।
मां ने सारी बातें दादी से सुनकर और फिर अपने अनुभवों से सबक प्राप्त कर अपने लिए एक सीमा खींच ली थी। मां बताती थी कि पिताजी शादी के बाद कई-कई दिनों तक मां से बोलते ही नहीं थे। मां शाकाहारी थी और वे उन्हीं बरतनों में मछलियां और अण्डे वग़ैरह खाते। कभी बाज़ार से ख़रीद कर लाते और कभी लाकर मां को बनाने का हुक्म देते। मां नाक बंद करके रोती हुयी बनाती। उस समय उसे मांसाहार बनाना भी नहीं आता था हालांकि बाद में वह बहुत अच्छा बनाने लगी थी, बल्कि उसके थोड़ा बड़ा होने के बाद तो मां ख़ुद कभी-कभी बाज़ार से अण्डे लाकर बनाकर उसको और पिताजी को प्रेमपूर्वक खिलाती।
चूंकि पिताजी पढ़े-लिखे थे और शादी के डेढ़-दो साल बाद ही शहर में नौकरी के लिये आ गये थे, इसीलिये किसी की सीखों ने ज्यादा दिनों तक काम नहीं किया। कुछ समय बाद वह मां से ठीक से बर्ताव करने लगे थे। ठीक से बर्ताव का मतलब क़तई यह नहीं था कि वह मां के कामों हाथ बंटाने लगे थे या मां के कहने पर फ़ैसले लेने लगे थे। हां, मां को बात-बेबात डपटना छोड़ दिया था और उसकी बातें एक बार सुन ज़रूर लेते थे, भले ही आखिरी फ़ैसला खुद ही लेते थे। मां बताती थी कि सुनने में भले ही ये परिवर्तन छोटे लगें पर उन जैसे इंसान के लिए बहुत क्रांतिकारी थे।
´´चाय पियेगा ?´´ मां ने बिस्तर से उतरते हुये पूछा।
´´ अं॰॰॰हां॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰बनाओ।´´ उसकी तंद्रा टूटी।´´ मां किचन में चली गयी और वह टहलने लगा।
´´परसों रात टीवी पर तेरा कार्यक्रम देखा था। बहुत अच्छा लगा।´´ मां किचन में से बोली।
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी ने भी देखा ?´´ उसने आवाज़ थोड़ी ऊँची करके पूछा।
´´ हां, हां, उन्होंने भी देखा।´´
उसका जी चाहा कि वह पूछे कि पिताजी को कार्यक्रम कैसा लगा मगर चुप रहा। मां को ख़ुद बताना चाहिये। वह जानती तो है इस रिश्ते के बारे में। पिताजी कभी उसकी तारीफ़ नहीं करेंगे और वह कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि पिताजी उसके बारे में जो भी सोचते हैं, उसे जानने की उसके अंदर कोई इच्छा या उत्कंठा है।
मां चाय लेकर बिस्तर पर आ गयी। वह बहुत प्रफुल्लित दिख रही थी। हाल के घटनाक्रमों को जैसे उस पर कोई असर ही न हुआ हो। क्या मां छोटे की वजह से बिल्कुल भी दुखी नहीं है ? जब उसने बिरादरी के बाहर शादी की थी तो सुना था कि मां ने हफ़्तों अन्न-जल त्याग रखा था। छोटे ने तो दूसरी धर्म वाली से शादी कर ली है। फिर मां इतनी खुश कैसे दिख सकती है, वह भी सिर्फ़ सात-आठ महीनों में ही॰॰॰॰॰॰?
´´बहू कैसी है ? और रिंकी॰॰॰॰॰॰॰॰?´´ मां ने चाय पीते हुये पूछा।
यही विषय है जिस पर मां या पिताजी के बात करते ही वह ख़ुद को अपराधी समझने लगता है। पिताजी ने तो खैर इस मुद्दे पर एक-दो बार के बाद बात ही नहीं की पर मां॰॰॰॰॰॰? उसने भी जैसे अपने आप को संभाल लिया है।
´´ठीक हैं दोनों।´´ उसने खिड़की की ओर देखते हुये जवाब दिया।
´´रिंकी तो अब बड़ी हो गयी होगी ?´´ मां ने वात्सल्य से मुस्कराते हुए पूछा।
´´हां, अब स्कूल भी जाने लगी है।´´
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰। मुझे उसे देखने का मन करता है पर॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां कुछ-कुछ कहती-कहती रुक गयी।
´´सच॰॰॰॰॰॰? तो चलो न मेरे साथ। जब मन करे फिर यहां छोड़ दूंगा।´´ वह चहक उठा।
´´अरे॰॰॰॰॰॰पिताजी अकेले हो जायेंगे यहां।´´ मां ने ठंडी सांस ली।
´´ मां, कुछ दिन के लिये चलो न॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी से कहो वह भी चल चलें।´´ उसने मां के घुटने पर हाथ रख बात का भावनात्मक वज़न बढ़ाते हुये कहा पर तुरंत अहसास हुआ कि उसने एक असंभव बात कह दी है और फिर उसने एक संभव विकल्प रखा।
´´तुम चलो मां। पिताजी अकेले रह सकते हैं कुछ दिन। मैं उनसे बात करूंगा।´´
´´अरे नहीं, वह मुझे भी नहीं॰॰॰॰॰॰।´´
´´क्यों, तुम्हें क्यों नही जाने देंगे ? क्या मेरा इतना भी हक नहीं बचा॰॰॰॰॰?´´
मां परेशान होकर कुछ सोचने लगी। फिर अचानक मुस्कराती हुयी बोली, ´´ अरे उनका कुछ पता नहीं। मुझे नहीं जाने देंगे। पता है क्या कहते हैं? पहले कहते थे जब हमारे बच्चों को हमारी परवाह नहीं तो हम उनकी क्यों करें और अब॰॰॰॰॰॰॰॰।´´
´´अब क्या कहते हैं ?´´ वह जानने को उत्सुक हो उठा क्योंकि ये पहले वाली बातें तो वह जानता था पर अब पिताजी क्या सोचने लगे हैं ?
´´अब॰॰॰॰॰? अब बच्चों पर कोई गुस्सा नहीं। कहते हैं बच्चों को अपनी ज़िंदगी जीने दो सुमन। हमने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया बस। हमें अब उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये । हम कोई व्यापारी हैं जो हर बात का बदला खोजें ? अरे वो कुछ करते हैं हमारे लिये तो ठीक, हमें याद करते हैं, हमारे पास आते हैं तो ठीक वरना हम एक दूसरे का अकेलापन बांट सकते हैं। हमें ज्यादा मोहमाया नहीं बढ़ानी चाहिये। और तो और मुझे गीता के पता नहीं क्या-क्या श्लोक सुनाकर उनके अर्थ बताया करते हैं।´´ मां मुस्कराती हुयी बताती जा रही थी। वह मां को खुश देखकर खुश था।
´´अच्छा, ऐसी बातें करने लगे हैं वे॰॰॰॰॰?´´ उसे विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी ज़िद को हमेशा सही समझने वाले और ज़िंदगी में कभी हार न मानने वाले इंसान के बारे में सुनकर भी उसका दिल इन बातों के सच होने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
´´ अरे बहुत बदल गये हैं॰॰॰॰॰॰।´´ मां को ज़ाहिर है खुशी हुयी थी। खुश वह भी था, हालांकि इसके पीछे की ठोस वजह नहीं समझ पा रहा था।
´´ ऐसा परिवर्तन कब से आया है उनके भीतर॰॰॰॰॰॰॰? क्या छोटे के शादी कर लेने के बाद से॰॰॰॰॰?´´ उसके मन में जो संदेह था, वह उसने सामने रख दिया।
मां थोड़ी देर के लिये ख़ामोश हो गयी। फिर अचानक ही जैसे उसे कुछ याद आया हो।
´´ हां पर एकदम से उसी के बाद नहीं॰॰॰॰॰॰॰॰। परिवर्तन तो तेरी शादी के बाद से ही आने शुरू हो गये थे।
´´ कैसा है छोटे॰॰॰॰॰?´´ उसने पूछा।
´´ अच्छा है। हर दो-तीन दिन पर फोन करके हाल-चाल पूछता रहता है। महीने-डेढ़ महीने में घर भी आ जाता है। इस बार तो अपनी पत्नी को भी लेकर आया था। वह भी अच्छी है। बहुत जल्दी सारे हिंदू संस्कार सीख लिये हैं उसने। तेरे पिताजी से ख़ूब बातें करती है। तेरे पिताजी भी उसकी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे।´´
उसे घोर झटका लगा। पिताजी बातें करते हैं अपनी बहू से, वह भी वह बहू जो दूसरे धर्म की है, जिसके लिये बेटे ने घर का विरोध करके शादी की। उनका नज़रिया इतना विस्तृत हो गया है। उसे पिताजी से मिलने की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी।
´´ तूने तो जैसे सारे संबंध ही खत्म कर लिये हैं। आता है साल-साल भर पर और चला जाता है दो दिन में। बहू और बच्ची को भी नहीं लाता। कितनी बार कहा तुझसे कि बहू और बच्ची को गर्मियों की छुटि्टयों में यहां पहुंचा दे, दस दिनों के लिये ही सही। लेकिन नहीं तेरी तो अपने पिताजी से ही ठनी रहती है।´´ मां ने जैसे शिकायतों का पुलिंदा ही खोल लिया था।
´´ पिताजी ने ही कहा था कि इस औरत को अपने घर में घुसने नहीं देंगे। अब जब तक वह ख़ुद नहीं कहेंगे, तब तक मैं उसे नहीं लाउंगा।´´ उसने मां की आंखों से आंखें मिलाये बिना कहा। यह बात उसने बहुत पहले तय कर ली थी। आखिर उसका भी तो कोई स्वाभिमान है।
´´ और तूने मान लिया ? अरे उन्होंने गुस्से में कह दिया था। याद नहीं तेरे और छोटे पर कितना गर्व किया करते थे। देखा नहीं था, जब तुम्हारे चाचाओं से झगड़ा हुआ था तो उन्होंने सबके सामने क्या कहा था। मुझे किसी भी मतलबी रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं, मेरे दो बेटे दो करोड़ के हैं। और तुम लोगों ने आज तक उनकी कोई बात नहीं मानी। कभी उनके मन लायक कोई काम नहीं किया। गुस्सा आना तो स्वाभाविक है।´´
सच ही कहती है मां। पिताजी वाकई उसे और छोटे को ग़ज़ब मानते थे। वह शुरू से ही बहुत यारबाश किस्म के आदमी थे और सभी यारों के बीच अपना स्थान बहुत ऊँचा रखना चाहते थे। किसी दोस्त की लगातार तीन लड़कियां होने पर उन्होंने उसके दु:ख को बांटने के लिये अपने दोनों बेटों की शादी उनकी दो लड़कियों से बचपन में ही तय कर दी थी। एक दोस्त जो पुलिस में काफी ऊँचे ओहदे पर था, से काफी पहले से उसकी नौकरी के लिये बात कर रखी थी। मकान बनवाते समय छोटे के लिये आगे की जगह दुकान, शोरूम या ऑफ़िस खोलने के लिये सुरक्षित कर रखी थी। एक बेटे का पुलिस की वर्दी में देखने का उनका पुराना सपना था। एक बेटा हमेशा घर में रहना चाहिये, ऐसी उनकी अटल मान्यता थी। लेकिन उनके बेटे उनकी छोटी-छोटी उम्मीदें भी कहां पूरी कर पाये। उसने पढ़ाई पूरी करते ही एक दोस्त के साथ मुंबई का रुख़ कर लिया और अब स्ट्रगल करते-करते अब अच्छा नाम बना लिया था। वहीं अपनी सहकर्मी के साथ शादी कर ली। छोटे दिल्ली निकल गये और शादियों के कांट्रैक्ट लेने लगे। काफी पैसा बनाने के बाद उससे भी दो क़दम आगे निकले और एक ग़ैर हिंदू से शादी कर ली। पिताजी की प्रतिक्रिया तो ठीक ही थी। उनके लड़कों ने लायक होने के बावजूद उनकी बात नहीं मानी। ग़ुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन उसके और पिताजी के मानसिक संघर्ष में मां बेकार ही पिस रही है। अबकी वह ज़रूर मीता और रिंकी को ले आयेगा। अगर पिताजी एक बार खुद लाने को कह दें तो ज़रूर॰॰॰॰॰॰।
पिताजी के टहलने जाने का नियम बहुत पुराना था। वह जब काफी छोटा था, तब पिताजी उसे भी टहलने ले जाते थे, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, पिताजी की लगायी सारी आदतें छूटती गयीं।
थोड़ी देर में कॉलबेल बजी। दरवाज़ा खोलने वही गया।
´´ अरे तुम॰॰॰॰॰॰॰॰?´´
´´प्रणाम पिताजी।´´ उसने पैर छुए।
´´ खुश रहो, जीते रहो।´´
उसे लगा जैसे पिताजी के चेहरे पर वही भाव आएंगे जो उसे पहले देख कर आते थे पर उनका चेहरा एकदम शान्त था। वह अंदर जाकर सोफ़े पर बैठते हुये बोले, ´´ आओ बेटा, अंदर आ जाओ।´´
उसे शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। पिताजी ने न जाने कितने अरसे बाद उसे बेटा कहा था। वह जाकर उनके सामने बैठ गया। यह एक साधारण घटना क़तई नहीं थी।
´´ कब आये ?´´
´´ जी, एक डेढ़ घंटे पहले॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ वह बात करते हुये खुद को असहज पा रहा था।
´´ पेट कैसा रह रहा है आजकल ?´´
घोर आश्चर्य। उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो। पिताजी उसकी सेहत के बारे में पूछ रहे थे। पेट का रोगी वह बचपन से था। वह बहुत संभलने के बाद बोल पाया, ´´ जी॰॰॰॰॰ आजकल ठीक है।´´
´´ चलो बढ़िया है। और सब॰॰॰॰?´´
´´जी सब अच्छा है।´´
´´ बहू और रिंकी बिटिया ?´´
´´ जी॰॰॰॰ दोनों ठीक हैं।´´ उसने आंखें फाड़ कर इस सच पर विश्वास करने की कोशिश करते हुये कहा।
पिताजी थोड़ी देर के लिये चुप हो गये। मां नाश्ता बना कर लायी थी। नाश्ता बीच में रख कर पिताजी की बगल में बैठ गयी। पिताजी चाय उठाते हुये बोले।
´´तुम कैसे होते जा रहे हो दिन-प्रतिदिन ? जैसे पैंतालिस साल के अधेड़ हो। बाल इतने सफेद होते जा रहे हैं और तोंद॰॰॰॰? ऐसा लगता है जैसे हलवाई हो। देख रही हो सुमन ? मेरी लगायी टहलने की आदत को इसने अपनाया होता तो आज पैंतीस की उमर में पचपन का न लगता। ॰॰॰थोड़ा सेहत का खयाल रखा करो बेटा।´´
वह मुस्कराने लगा। पिता भी मुस्करा रहे थे। मां दोनों को इस तरह बातें करते देख खुश थी। थोड़ी देर में वह उठ कर फिर किचेन में चली गयी।
´´ अभी रहोगे न कुछ दिन ?´´ पिताजी ने मुलायमियत से पूछा।
´´ जी, सिर्फ़ एक दिन का काम है दूरदर्शन में। ॰॰॰॰॰॰॰कल शाम को चला जाउंगा।
पिताजी थोड़ी देर तक उसे देखते रहे, फिर आवाज़ ऊँची करके मां से बोले।
´´ सुमन, मुझे सब्ज़ियां दे दो। मैं मंजन करने के बाद सब्ज़ियां काट दूंगा ओर तुम आटा गूंथ लेना।´´
वह मंजन करने आंगन में चले गये थे। उसे पिताजी से मिलकर, उनका यह रूप देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुयी थी पर पता नहीं क्यों, एक और अजब सी भावना भी मन में घुमड़ रही थी। उदासी, निराशा, क्रोध, आत्मग्लानि या इनमें से कई भावनाओं से मिश्रित कोई नयी भावना ही जिसे न पहचान सकने के कारण वह कोई भी संज्ञा दे सकने में असमर्थ था। यह भावना उसकी खुशी को रोक रही थी। इसमें इतना खुश होने वाली भी बात नहीं। सच तो यही है कि पिताजी का जो रूप वह शुरू से देखता आया था, उसमें एक सौ अस्सी अंश का परिवर्तन उसे बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लग रहा था। वह शुरू से ही एक तानाशाह की तरह रहे हैं। उनका इस कर हंस कर उसके बराबरी में बैठकर बात करना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। वह मां के कामों में भी हाथ बंटाने लगे हैं। उनका नज़रिया निश्चित ही बदला है पर क्यों? वह सचमुच मां की सहायता करना चाहते हैं या उन्हें डर है कि मां भी उन्हें उनके बेटों की तरह अकेला न छोड़ दे?
पिताजी मंजन करके आ गये। सोफ़े पर बैठ कर उन्होंने अख़बार उठाया ओर कुर्ते की जेब से चश्मा निकाल कर लगा लिया और इत्मीनान से अख़बार के पन्ने पलटने लगे।
वह सनाके में था। उसका सिर जैसे चकराने लगा था। पिताजी उसका चश्मा लगाये हुये थे। वही चश्मा, जिस तरह के चश्मों से उन्हें सख्त चिढ़ थी। जब एक बार वह अपने पॉवर के शीशे उसे नये फ़्रेम में लगवा कर लाया था तो पिताजी बहुत गुस्सा हुये थे।
´´ ये फ़िल्मी फ़ैशन वाले चश्मे पहनोगे तुम ? इतने छोटे-छोटे शीशे जिनमें से आंखें बाहर झांकती रहती हैं ? उठा कर बाहर फेंको इसे। जाकर बड़े शीशे वाला चश्मा ले आओ जो क़ायदे का लगे, चश्मे जैसा। जैसा विद्यार्थी लगाते हैं॰॰॰॰॰॰।´´ पिताजी दहाड़ कर बोले थे। और उसने वाकई डर कर उस चश्मे को छिपा दिया था और दूसरा चश्मा ले आया था।
बाद में वह उस तरह के चश्मे पिताजी के सामने नहीं लगाता था। यह चश्मा वह ग़लती से छोड़ गया था जब पिछली बार आया था।
´´ पिताजी, यह चश्मा॰॰॰॰॰ ?´´ वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में था, बहुत परेशान और बहुत कंफूयज्ड।
´´ अरे यह तुम्हारा ही है।´´ पिताजी ने चश्मा निकाल कर एक बार देखा और फिर लगा लिया।
´´ आपका वाला॰॰॰॰॰?´´
´´ वह? वहां आलमारी पर रखा है। मुझे लगता है इससे ज्यादा साफ़ दिखता है।´´
´´ अच्छा॰॰॰॰।´´ वह फिर चकित था।
´´तुम फ्रेश-व्रेश होना हो तो हो लो। फिर साथ में खायेंगे।´´ पिताजी फिर अख़बार पढ़ने में मशगूल हो गये।
वह बेचैन हो उठा और उठकर टहलने लगा। पिताजी से इस तरह के मित्रवत् व्यवहार की न उसने कभी उम्मीद की थी और न उसे अच्छा लग रहा था। एक चट्टान का इस तरह से दरकना, एक पर्वत का झुक जाना उसे बहुत अखर रहा था। जो कभी किसी के सामने नहीं झुका, भगवान के सामने भी नहीं, आज वह इतना नरम पड़ गया है। पूरे परिवार का, पूरे अनुशासन ओर कठोरता से नेतृत्व करने वाला सुल्तान आज खुद को ही हार गया है। इस समझौते के लिये उन्हें किसने विवश किया, उनकी संतानों ने ही तो। इतना असुरक्षित स्वयं को उन्होंने अपने बेटों की ही वजह से तो महसूस किया है। वह लगातार अपराधबोध में धंसता जा रहा था।
टहलता हुआ वह आलमारी के पास गया और पिताजी का पुराना चश्मा उठाकर देखने लगा। वह चश्मा लगाने पर उसे लगा जैसे उसे पहले से ज्यादा साफ़ दिखायी देने लगा है। उसके खुद के चश्मे से ज्यादा साफ़। थोड़ी देर तक चश्मे को लगाये घूमता रहा फिर आकर पिताजी के सामने बैठ गया।
´´ इस बार मीता और रिंकी को भी ले आऊँगा पिताजी।´´ चश्मा उसको एकदम फ़िट आया था।
´´ हां बेटा, इस बार छुटि्टयां भी कुछ ज्यादा दिन की निकाल कर आना।´´ पिताजी ने अख़बार पढ़ते हुये ही कहा।
मां ने शर्बत बनाया था और पीने के लिये दोनों को अंदर बुला रही थी।
--विमल चंद्र पाण्डेय