Monday, June 28, 2010

कम्पनी-राज ‍ः गौरव सोलंकी

जैसाकि हमने पिछले सोमवार को वादा किया था कि हर सोमावर हम आपको एक ऐसी कहानी से रूबर करवायेंगे जिसे युवा कहानकार ने लिखा हो। इस शृंखला में दूसरी कहानी के तौर पर मशहूर युवा कवि-लेखक गौरव सोलंकी की एक कहानी 'कम्पनी राज' लेकर उपस्थित हैं। यह कहानी वागर्थ में प्रकाशित हो चुकी है।


कम्पनी-राज


वह एक लम्बे अरसे से बीमार था। उसे कम भूख लगती थी और ज़्यादा सपने आते थे। वह एक साँवली सलोनी लड़की से प्रेम करता था और झटपट शादी कर लेना चाहता था। एक चुकी हुई सी नौकरी करने के अलावा उसके पास कोई काम नहीं था, लेकिन उसे लगता था कि उसके पास समय कम है और काम बहुत ज़्यादा। वह हर समय हड़बड़ी में रहता था और आधी चीजें भूल जाया करता था। जैसे आप उसके साथ रहते हैं और गैस पर दूध रखकर ऑफ़िस के लिए निकल गए हैं। रास्ते में गाड़ी में तेल भरवाते हुए आपको दूध याद आता है और आप तुरंत उसे फ़ोन करके दूध देखने को कहते हैं। वह फ़ोन पर बात करता हुआ रसोई की ओर बढ़ता है, लेकिन दरवाजे तक पहुँचते पहुँचते फ़ोन कट जाता है। आप निश्चिंत हो गए हैं लेकिन इस बात के नब्बे प्रतिशत चांस हैं कि फ़ोन कटते ही वह भूल जाएगा कि आपने क्या कहा है। ओह! वह मुड़ गया है और ऐसी संभावनाएँ सौ प्रतिशत हो गई हैं। वैसे इसमें सारा दोष उसी का हो, ऐसा भी नहीं था। वह गाँव जैसे एक छोटे से कस्बे से आया था और महानगर में खो गया था, लेकिन खोना नहीं चाहता था। सारी बेचैनी और परेशानी इसी कारण थी। उस महानगर में बहुत सारी अमेरिका-राष्ट्रीय कंपनियाँ थी जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहा जाता था। उन्हीं में से एक इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग का काम करने वाली कंपनी के लिए वह काम करता था यानी घूमती हुई पृथ्वी पर खड़े लोग, जो अपकेन्द्रण बल के कारण एक दूसरे से और धरती से दूर होते जा रहे थे, वह उन्हें जोड़ता था। दुनिया भर में डेढ़ करोड़ लोग उसकी कम्पनी की वेबसाइट के सदस्य थे और कम्पनी का दावा था कि उनकी साइट पर प्रतिदिन चार हज़ार प्रेम प्रसंग शुरु होते हैं। इसी तरह कम्पनी अब तक पन्द्रह हज़ार शादियों की पहली सीढ़ी बनने का दावा करती थी। ख़त्म होते प्रेम प्रसंगों और टूटी हुई शादियों का न तो कोई हिसाब रखा जाता था और न ही वेबसाइट के पहले पन्ने पर उन्हें मोटे मोटे अक्षरों में लिखा जाता था। जबलपुर की उस लड़की का नाम कनिका था और वह एम बी ए कर रही थी। लड़के का नाम उदयसिंह था और उस समय एक विकासशील देश में यह आत्मघाती ज़िद थी कि वह एम बी ए नहीं करना चाहता था। कुछ साल पहले तक वह अनाथ बच्चों के लिए एक स्वयंसेवी संगठन खोलना चाहता था लेकिन नौकरी में घुसने के बाद से उसका वह इरादा भी दिन-ब-दिन कमज़ोर पड़ता जा रहा था। अब ऐसा हो गया था कि वह कनिका से शादी कर लेना चाहता था और कभी कभी एसी, फ्रिज़ और दीवार पर तस्वीर की तरह टँगने वाले टीवी से युक्त तीन कमरों वाले घर के सपने देखता था। यह इकलौता सपना था, जिसे देखने के बाद उसे देर तक घुटन महसूस होती थी, जैसे किसी ने उसे तेईस डिग्री के स्थिर तापमान वाले कमरे में एक आरामदेह कुर्सी पर एक कम्प्यूटर के सामने बिठा दिया है और लोहे की जंजीरों से बाँध दिया है। इस तरह कि माउस से चुम्बक की तरह चिपके उसके हाथ उतनी ही गति कर सकें, जितनी कर्सर को पूरी स्क्रीन की यात्रा करवाने के लिए आवश्यक है और उसकी आँखें उसकी नाक पर अटके चश्मे की सीमाओं से बाहर न देख सकें और उसके पैर, जिनके नीचे घोड़े वाली नाल ठोककर लोहे के भारी पहिए लगा दिए गए हैं, उसे उतनी ही दूर ले जा सकें, जितनी दूर सी जी 4000 नाम की एक दूसरी मशीन है, जिस पर उसे काम करना पड़ता है। यह और
लेखक परिचय- गौरव सोलंकी
हिन्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय युवा कहानीकार। गौरव की कहानियों के प्रशंसकों की संख्या इंटरनेट और इंटरनेट के बाहर लगभग बराबर। पिछले डेढ़-दो सालों से हर नामी-गिरामी पत्र-पत्रिका में धड़ल्ले से छप रहे हैं। गौरव की एक कहानी 'पीले फूलों का सूरज' को चर्चित साहित्यिक पत्रिका 'कथादेश' द्वारा द्वितीय पुरस्कार। मेरठ (यूपी) में जन्मे और सांगरिया (राजस्थान) में पले-बढ़े गौरव सोलंकी आईआईटी रूड़की से बीटेक की पढाई पूरी कर चुके हैं, लेकिन लेखन ही इनका एकमात्र साध्य है। जीविकोपार्जन के लिए 'तहलका-हिन्दी' की नौकरी। हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित यूनिकवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में इनकी कविताएँ संकलित और इस कारण भी चर्चा में। गौरव की कविताओं को पसंद करने वालों की संख्या कहानीप्रेमियों की संख्या से भी अधिक। गौरव की कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं।
ईमेल- aaawarapan@gmail.com
मो॰- 9971853451
भयानक था कि उसकी सीट पर छना हुआ ठंडा पानी हर समय मौज़ूद रहता था और उसे प्यास नहीं लगती थी। उसके पास मुफ़्त आई एस डी कॉल की सुविधा वाला एक फ़ोन रखा रहता था और वह किसी से बात नहीं करना चाहता था। उस फ़ोन से वह किसी भी वक़्त ऑर्डर देकर मुफ़्त में पिज़्ज़ा मँगवा सकता था लेकिन उसे भूख नहीं लगती थी और लगती भी थी तो वह केवल चने खाना चाहता था। वह हर शाम सात या आठ बजे एक कमरे में लौटता था, ज्इसे वह घर कहता था। उसके मोबाइल फ़ोन में उस कम्पनी की सिम थी, जो दिलों को दिलों से जोड़ती थी। वह आकर आँख मूँद कर अपने बिस्तर पर पड़ जाता था और देर तक फ़ोन पर कनिका से बातें किया करता था। उसे कभी कभी गुस्सा आता था जिसमें वह फ़ोन काट देता था। प्यार आने पर वह फ़ोन को चूमने की ध्वनि निकालता था और मन में एक बार और निश्चय करता था कि जल्दी ही किसी दिन, जब आखातीज जैसा सावा होगा, वह कनिका से शादी कर लेगा और दहेज की एक फूटी कौड़ी भी नहीं माँगेगा। तब उसे अपने पिता की भी हल्की सी फ़िक्र होती थी जो उम्र भर घर घर घूम घूम कर बिजली के फिटिंग करते रहे थे और उसकी शादी से उम्मीदें बाँधे हुए थे कि वे एक नया घर बनाएँगे जिसमें पूरा फिटिंग अंडरग्राउंड होगा। फ़ोन रख देने के बाद वह देर तक तकिये को अपनी बाँहों में भींचकर पड़ा रहता था और फिर अपने कम्प्यूटर पर तेज़ आवाज़ में गाने चलाकर चाय बनाने लगता था। उसकी बगल में रहने वाला राजीव दीक्षित शाम को जाता था और सुबह पाँच बजे लौटता था। यह उसे अच्छा लगता था लेकिन राजीव को बहुत बुरा लगता था। उसे तारे देखते हुए सोना अच्छा लगता था। इसलिए उसने अपने कमरे की छत पर चमकते हुए चाँद, तारे और ग्रह चिपका रखे थे, जो अँधेरा होने पर चमकते थे। एक दिन उसका पारले जी बिस्कुटों को देखते हुए सोने का मन हुआ तो उसने गोंद से दस बारह बिस्कुट छत पर चिपका दिए। सुबह होने पर वह उन्हें उतारकर चाय में डुबो डुबोकर खा गया। गोंद का स्वाद भी उतना बुरा नहीं था। उसका कनिका को देखते हुए सोने का मन भी करता था। उदय की कम्पनी का नाम ‘वी’ था यानी हम। उसी की वेबसाइट पर चैटिंग करते हुए वह और कनिका मिले थे। कनिका की आईडी थी ‘लिप्स’ और उदय की ‘स्मोक’। वह कनिका से ऐसे मिला था-
स्मोक(10:25) – हाय... स्मोक(10:25) – हाउ आर यू? स्मोक(10:27) – आर यू देयर? स्मोक(10:31) - ? लिप्स(11:48) – आर यू अमित? स्मोक(11:49) – नो...आई एम उदय स्मोक(11:50) – एंड यू... स्मोक(11:52) - ? स्मोक(12:03) – फ़क ऑफ़ लिप्स(12:05) – सॉरी....आई वाज़ आउट ऑफ़ माई रूम लिप्स(12:06) – सो हू आर यू? स्मोक(12:07) – आई एम उदय लिप्स(12:08) – आई एम कनिका
बाद के दिनों में उन्होंने एक साझी मेल आई डी बनाई, ‘स्मोकिंग-लिप्स’। उसने सिगरेट कभी नहीं पी लेकिन उस आई डी के बनने के कुछ दिनों बाद से ही वह बीमार रहने लगा। वह ईश्वर और शगुन, दोनों में ही विश्वास नहीं करता था और कभी कभी इसके लिए पछताता भी था। उसे लगता था कि उसके फेफड़े खराब होते जा रहे हैं और वह जिस हवा में साँस लेता है, वह किसी प्रयोगशाला में बनाई गई हवा है। वह एक बार खाँसने लगता तो तीन-चार मिनट तक खाँसता ही रहता था। उसकी उम्र तेईस साल थी और कभी कभी उसे लगता था कि वह कई युगों से इस धरती पर है और जवान है, लेकिन बूढ़ा हो गया है। वह जब कार में बैठा होता था तो उसका रेलगाड़ी के जनरल कम्पार्टमेंट में बैठने का मन करता था। वह कार के शीशे पर अपनी आँख टिकाकर अपनी उंगलियों को गोल मोड़कर बाहर की सड़क को देखता था और जिस दिन धुंध होती थी, उसका मन करता था कि वह कुछ दूर तक पैदल चले। कभी कभी मोबाइल फ़ोन पर बात करते हुए उसे लगता था कि उसका कान गर्म होकर पिघलने लगा है। तब वह शीशे में अपना चेहरा देखता था और उसे एक कान नहीं दिखाई देता था। फिर उसे याद आता था कि उसकी दायीं आँख की नज़र कमज़ोर है और उसने चश्मा नहीं लगा रखा है। एक लम्बी सुबह में उसने तय किया कि उसे डॉक्टर के पास जाना चाहिए। शाम को जिम में दो किलोमीटर दौड़ने के बाद मौसमी का जूस पीकर वह एक डॉक्टर के पास गया, जो चार सौ रुपए फ़ीस लेता था। डॉक्टर फ़ुर्सत में था और ख़ुश था। मरीज़ वाली कुर्सी पर उदय बैठने लगा तो बिना बीमारी जाने ही उसने उसे विश्वास दिलाया कि वह बहुत जल्द ठीक हो जाएगा। डॉक्टर ने कहा, चूंकि बाहर बारिश हो रही है (और बारिश हो रही थी), इसलिए ऐसे सुहाने दिन में हम बीमारियों के बारे में बात नहीं करेंगे। हम जीत और आरोग्य के बारे में बात करेंगे। उसे डॉक्टर का यह दृष्टिकोण अच्छा लगा। डॉक्टर ने उसे स्तन कैंसर पर विजय पा लेने वाली औरतों की कहानियाँ सुनाई और पिचानवे रुपए प्रकाशित मूल्य वाली एक किताब पढ़ने को दी। वह उसका पहला पन्ना ही पढ़ पाया था, जब डॉक्टर ने किताब वापस ले ली। उसने कॉफ़ी पी और चार सौ रुपए देकर लौट आया। अगले हफ़्ते फिर से आने की बात के साथ डॉक्टर ने उसे लिखकर दिया कि उसे खाने में से मिर्च कम कर देनी चाहिए।
उस शाम वह उदास था और रोना चाहता था। उस सुबह की तरह ही वह एक लम्बी शाम थी, जो कई दिन तक बीतती रही। उसने नौकरी छोड़ देने की सोची और अपने पिता को फ़ोन किया मगर वह नौकरी छोड़ने की बात नहीं कर पाया। उसे पढ़ाई के लिए लिया गया लोन चुकाना था और उसकी दो छोटी बहनें थी, जो उसकी तरह किसी अच्छे मुहूर्त में शादी करना चाहती थी। उस रात उसने एक खराब कविता लिखी और सो गया। अगले दिन दफ़्तर में बहुत काम था। उसकी मैनेजर का नाम प्रिया गुप्ता था। वह चालीस के आस पास की मोटी और गोरी औरत थी। वह तेज गति से बोलती थी और कुछ अक्षरों में तुतलाती भी थी। वह एक घंटे बाद ही उसके पास आधे दिन की छुट्टी माँगने गया। वह आधे दिन की छुट्टी लेकर ही पूरे दिन के लिए चला जाना चाहता था। उसे छुट्टी नहीं मिली। मैनेजर के केबिन से लौटते हुए उसने सोचा कि कि किसी रात, जब वह देर तक ऑफिस में रुकी होगी, तो वह पार्किंग में गला घोटकर उसकी हत्या कर देगा और उसकी कार लेकर चला जाएगा। - तुम आजकल उदास उदास लगते हो। शाम को कनिका ने उसे फ़ोन पर कहा। - मैं आजकल एक नए प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। - कौनसे नए? - यह कि लोग जब अपना अकाउंट खोलें तो हर समय उन्हें विपरीत लिंग का कम से कम एक व्यक्ति बात करने के लिए तैयार मिले। - वह कैसे होगा? - हमें नए लड़के और लड़कियाँ पैदा करने होंगे। - सीरियसली बताओ। - हमारी कम्पनी इस काम के लिए लड़के लड़कियाँ रख रही है जो फ़र्ज़ी खाते बनाएँगे और दिनभर यही काम करेंगे। - हाउ इंट्रेस्टिंग इट इज़! - तो तुम भी यही कर लो। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूं। - तुम बहुत बोरिंग होते जा रहे हो। ”हाँ”, उसने कहा और फ़ोन काट दिया। उसने सोचा कि अब से वह हर हफ़्ते डिस्को जाया करेगा और कम सोचेगा। उसने ‘वी’ पर ‘क्लाउड’ नाम से एक नई आईडी बनाई।
क्लाउड(09:38) – हाय लिप्स! कॉफी पीने चलोगी? लिप्स(09:41) – हू आर यू? क्लाउड(09:42) – जतिन लिप्स(09:44) – मैं किसी जतिन को नहीं जानती क्लाउड(09:46) – मैं भी किसी कनिका को नहीं जानता
लिप्स(09:46) – कौन हो तुम? क्लाउड(09:48) – जतिन...और तुम्हारी आई डी की डीटेल्स में तुम्हारा नाम दिख रहा है...
लिप्स(09:49) – ओह! मुझे लगा कि तुम मुझे जानते हो।
क्लाउड(09:50) – कॉफ़ी पर जान भी लेंगे।
लिप्स(09:52) – इतनी रात को?
क्लाउड(09:53) – कहाँ रहती हो?
लिप्स(09:54) – आई पी एक्सटेंशन
क्लाउड(09:56) – हमममम
लिप्स(09:58) – ?
क्लाउड(09:59) – डू यू हेव अ बॉयफ्रेंड?
लिप्स(10:00) – नहीं
क्लाउड(10:02) – फिर तो हमें कॉफ़ी पीनी ही चाहिए
लिप्स(10:04) – आज नहीं...फिर कभी
क्लाउड(10:05) – फिर कब?
लिप्स(10:06) – मैं सोचूंगी...
क्लाउड(10:07) – यू आर ए रियल बिच
लिप्स(10:08) – !!??
क्लाउड(10:09) – मैं उदय हूं
लिप्स(10:11) – हाँ, मुझे पता था।
क्लाउड(10:12) – झूठी
लिप्स(10:13) – तुम्हारी कसम
लिप्स(10:14) – फ़ोन करो।
- यह सब क्यूं? मेरी परीक्षा ले रहे थे? - जिसमें तुम फेल हो गई। - अब जैसा तुम्हें समझना है, समझो। - परीक्षा नहीं ले रहा था। नए लड़कों को यही ट्रेनिंग देने का काम मिला है मुझे। - ओहहो! हाउ इंट्रेस्टिंग! उसने फिर फ़ोन काट दिया। दो या तीन मिनट बाद फ़ोन बजा। कनिका ही थी। - तुम फ़ोन क्यूं काट देते हो? अगर मेरी कोई बात पसन्द नहीं आती तो बताओ ना कि क्यूं नहीं आती? - मैं तर्क नहीं करना चाहता। - असल में तुम्हारे पास कोई तर्क होता ही नहीं। - हाँ, मैं बेवकूफ़ हूँ। - मैंने ऐसा कब कहा? - नहीं, तुमने नहीं कहा लेकिन मैं मानता हूँ। - तुममें खालीपन आता जा रहा है... - हाँ लिप्स...आई एम टेरिबली अलोन। - मेरे रहते हुए भी? - शायद हाँ। - मैं आऊँ वहाँ? - साढ़े दस बज रहे हैं। - आई मिस यू। - उससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्यों मुझे ज़रा भी बेहतर महसूस नहीं होता कनिका? - मुझे तुम्हारी फ़िक्र हो रही है बच्चे। तुम यहाँ आ जाओ। - आई पी एक्सटेंशन? - हाँ। - तुम्हारे हॉस्टल में रुकूंगा? - वापस चले जाना। - नहीं, मैं ठीक हूँ। - फ़ोन मत काटना। आई वांट टू बी विद यू। वह आधी रात के बाद तक जागता रहा। उसे अपने कॉलेज के दिन याद आए, जब वह रात भर जागकर फ़िल्में देखने के बाद दोस्तों के साथ बस स्टेंड के ढाबों पर चाय पीने जाया करता था। वह पहाड़ और मैदान की सीमा पर बसा एक छोटा सा हरा-भरा शहर था। वहाँ बहुत बारिश होती थी और हफ़्ते में कम से कम एक बार तो वह क्लास से लौटते हुए भीगता ही था। कुछ दिन बीते- दो या तीन दिन। एक शाम उसने एक सुपरहिट फ़िल्म भी देखी जो उसे बहुत बुरी लगी। चौथे दिन सुबह से बरसात हो रही थी। वह मरे हुए से कदमों से चलकर अपनी मैनेजर के पास गया। उसकी आँखें अपने लेपटॉप में गड़ी थीं और उदय को लगा कि वह अगले ही क्षण उसमें घुस जाती यदि वह उससे न बोलता।
- प्रिया, बरसात हो रही है और अमूमन ऐसे मौसम में मुझे अपने घर और कॉलेज की याद आती है। - स्वूपर वाले काम की डेडलाइन आधे घंटे बाद ख़त्म हो रही है उदय। वह मुस्कुराकर बोली और उसे लगा कि बिल्कुल इसी तरह लॉर्ड क्लाइव अपने भारतीय मातहतों से बात करते होंगे। उसे लगता था कि प्रिया अपने आप को किसी अंग्रेज़ की औलाद समझना चाहती है और वह तीन मिनट की बात के बाद (या उससे भी कम) किसी भी अमेरिकन के साथ सो सकती है। उदय को सब गोरे लोग घृणित रूप से एक जैसे लगते थे। गोरी लड़कियाँ भी, लेकिन उन्हें वह भोगना चाहता था। - मेरा मन कर रहा है कि मैं बाहर सड़क पर कुछ देर घूम आऊँ। वह भरसक मुस्कुराकर बोला और उसकी आँखों में आँसू आ गए। - तुम पिछले महीने भी एक दिन इसी तरह पन्द्रह मिनट के लिए गए थे और तीन दिन बाद लौटे थे....और जहाँ तक मुझे याद आता है, उसके बाद भी कम से कम सात आठ बार तुम मुझसे ऐसा पूछ चुके हो।
- क्योंकि मुझे लगता है कि पहाड़ और बारिश और यहाँ तक कि केंचुए भी इंटरनेट से ज़्यादा ज़रूरी हैं। - हाँ, लेकिन तुम्हें याद होना चाहिए कि हम लोगों को करीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है कि मैं बार बार तुम्हें यह याद दिलाऊँ। वह गुस्से में आ गई थी लेकिन मुस्कुराती रही। वह उठकर चल दिया।
- अगर अगले बाईस मिनट में स्वूपर पूरा न हो तो मुझे मेल करके स्टेटस बताना।
वह पीछे से बोली। सामने एक ख़ूबसूरत लड़की का पोस्टर लगा था, जो बहुत उत्साह से अपने कम्प्यूटर पर काम कर रही थी। वह ‘वी’ का प्रतीक पोस्टर था। अपनी सीट पर आकर उदय ने अपने साथ वाले लड़के को लगन से महानता की ओर कदम बढ़ाते हुए देखा और उसे लगा कि मैं दुनिया का सबसे नाकारा इंसान हूँ। काम के हर दिन के बाद उसका आत्मविश्वास पहले दिन से कुछ कम हो जाता था। कभी कभी उसे अपनी सब योग्यताएँ फ़र्ज़ी लगने लगती थी और वह अलमारी में से अपनी सब डिग्रियाँ निकाल निकालकर उन पर लगी मोहरों को सूरज की रोशनी में अलग अलग दिशाओं से देखा करता था। उसे लगता था कि वह सारी पढ़ाई भूल गया है और यह ऐसा ही है, जैसे वर्षों तक गुल्लक में सिक्के डालते रहने के बाद एक दिन उसे उठाकर हिलाओ तो कुछ भी न बजे। वह फटी फटी आँखों से आसमान को देखता रहता और हर महीने की पच्चीस तारीख को उसके खाते में आ जाने वाले पैंतीस हज़ार रुपए भी उसकी आँखें बन्द नहीं कर पाते थे। वह एक ऐसे समय और परिस्थितियों की पैदाइश था जिसमें पैंतीस हज़ार रुपयों का सीधा सा मतलब था खुशी। उसकी माँ का मानना था कि पैसा ख़ुदा नहीं है तो उससे कम भी नहीं है। उसे जुगुप्सा होती थी। एक शाम उसने अपने स्कूल के दिनों की एक दोस्त को फ़ोन किया जिसकी शादी हो चुकी थी। उन दिनों वह गर्भवती और व्यस्त थी। वह उसे कई दिनों से फ़ोन मिला रहा था, लेकिन वह हर रोज़ काट देती थी। उस शाम उसने फ़ोन उठाया और चहचहाकर बोली- कहाँ मर गए थे बन्दर? इतने दिन बाद याद किया। - मैं तुमसे एक सलाह लेना चाहता हूँ। - लड़की का चक्कर है क्या? शादी के बाद से वह उससे ऐसे बात करने लगी थी जैसे उसकी भाभी हो। फ़िक्रमन्द, समझदार और कुछ भी कहकर हँस देने का अधिकार रखने वाली। लक्ष्मण-सीता टाइप होता यह रिश्ता उसे काटने को दौड़ता था। - क्या तुम्हें लगता है कि मैं किसी और लड़की के बारे में तुमसे बात करना चाहूंगा जबकि तुम्हें वे दिन याद हैं जब मैं तुम्हारे प्यार में रात रात भर जगा करता था और जिस दिन तुमने मुझे पार्क के पिछले दरवाज़े की ओट में ऊपर से नीचे तक अपने आप से चिपका लिया था, मैं एक पेपर में फेल हो गया था... उसे बुरा लगा। वह गर्भवती थी और अपनी होने वाली संतान को संस्कारित बनाना चाहती थी। उसने फ़ोन काट दिया और अपने पूजाघर में जोत जलाने चली गई।
वह सड़क पर निकल गया। उसने आठ-नौ साल के एक बच्चे से जीवन के उद्देश्य के बारे में बात छेड़ी। वह बच्चा उसे घूरता हुआ अपने घर की तरफ भाग गया। उसने सोचा कि यदि वह नौकरी छोड़ दे तो उसके पिता, माँ, भाई और बहनों की क्या प्रतिक्रिया होगी? उसने शहर की सड़कों की कठोर प्रतिक्रियाओं के बारे में भी सोचा और कुछ देर के लिए उसमें डर भर गया। वह किसी भी स्थिति में अपने कस्बे में नहीं लौटना चाहता था क्योंकि उसे लगने लगा था कि वहाँ के वायुमण्डल में कमर और आँखें झुका देने वाली गहरी निराशा तैरती है। वहाँ उसने दब्बू किस्म के बच्चों वाला स्कूली जीवन जिया था और उसे अपने बचपन को याद करना बुरा लगता था। उसकी सबसे सघन यादें वे थी जिनमें बड़ी कक्षाओं के लड़के स्कूल के अँधेरे कोनों में उसके गाल चूमते थे। उसने सोचा कि उसकी बहनें किन्हीं लड़कों के साथ भागकर शादी कर लें तो अच्छा हो। वह बार बार जेब से फ़ोन निकालकर देखता था। उसे लगता था कि उसके स्कूल की वही दोस्त, जिसने एक गर्म फरवरी में उससे प्यार किया था, फोन करेगी। वह एक शांत किस्म की लड़की थी, जो जल्दी सोकर उठ जाती थी। उसी ने उदय को बताया था कि उसे पायलट नहीं बनना चाहिए क्योंकि वह बहुत देर में निर्णय ले पाता था और पुलिस अफ़सर भी नहीं, क्योंकि उसे दया आती थी। संभोग के क्षणों में वह उन्मत्त बाघिन सी हो जाती थी और वह उसे और भी हिंसक देखना चाहता था। उसे काला रंग और सफेद चूहे पसन्द थे। उसकी जाँघें अमचूर की तरह खट्टी थीं। अगले दिन दफ़्तर में एक मीटिंग थी जिसमें उसके और प्रिया गुप्ता के अलावा आठ लोग और थे। वह एक नया मनोरंजक फ़ीचर जोड़ने के लिए तकनीकी और ऊबाऊ बहस थी, जिसमें से वह निकल भागना चाहता था। वह पूरा समय खिड़की के काँच में से बाहर देखता रहा। - तुम्हारा क्या कहना है उदय? बीच में प्रिया ने उसे टोका। - किस बारे में? - प्रोग्रेसिव नेचुरलाइजेशन ठीक रहेगा या प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन? - मुझे तो दोनों ही ठीक नहीं लगते। - क्या तुम हमें इन दोनों के बीच का अंतर समझा सकते हो? उसने दो रटी रटाई परिभाषाएँ बोल दी। प्रिया को अच्छा नहीं लगा।
- तुम्हारा क्या ख़याल है रवि? - वही ठीक होगा प्रिया, जो तुम्हें ठीक लगता है। - नहीं। आप सब जानते हैं कि हमारे यहाँ चर्चाएँ होती हैं और वह हर विचार स्वीकार किया जाता है, जो इनोवेटिव हो। फिर चाहे वह आइडिया किसी का भी हो। - हाँ, हम सब जानते हैं। - हाँ, हम सब जानते हैं। उदय को छोड़कर सबने दोहराया। - आप सब अपनी अपनी स्वतंत्र राय दीजिए। सबने अलग अलग एक ही बात कही। जैसे बहुत ज़ोर देने पर रवि ने बहुत मुस्कुराते हुए अपनी टाई ठीक करते हुए कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन बेहतर है क्योंकि वह भविष्य की तकनीक है और कम्पनी के सिद्धांतों के सर्वाधिक अनुकूल है। विनीता ने कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन में लगातार चकित करते रहने वाली एकरसता है। उसे बीच में टोककर प्रिया ने कहा- तुमने असली पॉइंट पकड़ा है। विनीता आभार में मुस्कुराई। यह पंक्ति उसने सुबह अख़बार में किसी आध्यात्मिक लेख में ईश्वरीय सत्ता के बारे में पढ़ी थी। मनिन्दर ने कहा कि यह पुरानी तकनीक की खूबियों और नई ज़रूरतों के समाधानों का आदर्श मिश्रण है। इस पर तो हमें पेटेंट के लिए आवेदन करना चाहिए। सबने हाँ, हाँ कहकर उसका समर्थन किया।
प्रिया गुप्ता प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन की मुख्य डिजाइनर थी। मीटिंग रूम से बाहर निकलते हुए, जिसका नाम सोच समझकर ब्रह्मपुत्र नदी के नाम पर रखा गया था, उदय ने अपने साथ वाले क्लीनशेव्ड लड़के से पूछा- क्या तुम्हें लगता है कि मानवजाति पचास और साल जी पाएगी? उसने आश्चर्य से उदय को देखा और प्रिया उनके पास से गुज़र रही थी, इसलिए वह उदय की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गया। आधे घंटे बाद प्रिया ने उसे अपने केबिन में बुलाकर कहा कि वह इस विषय पर उसकी जानकारी से प्रभावित है इसलिए वह चाहती है कि उदय आज शाम एक अतिरिक्त घंटा रुककर काम करे। उसकी मेज पर स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी का एक प्रतिरूप रखा था। उदय ने उससे पूछा कि वह पार्किंग में अपनी कार कहाँ खड़ी करती है? - जहाँ ग्लोब में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ। - लेकिन ग्लोब गोल होता है और पार्किंग चौकोर है। - फिर जहाँ नक्शे में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ।
वह उसी समय पार्किंग में गया, यह देखने के लिए कि जहाँ भारत है, वहाँ किसकी कार है? उसने पाया कि भारत की जगह महिला शौचालय है और चीन की जगह पुरुष शौचालय। उसे लगा कि हर दिन पार्किंग का केन्द्र-बिन्दु प्रिया की कार की ओर खिसक रहा है, जैसे वहाँ से पूरी पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नियंत्रित होता हो। उसे लगा कि एक दिन आएगा, जब पूरी पार्किंग अमेरिका बन जाएगी और शौचालयों की ज़गह नक्शे के बाहर कहीं हवा में होगी। उसने अपनी आँखें मली और अपनी सीट पर लौट आया। उसके कम्प्यूटर पर प्रिया का एक मेल आया हुआ था, जिसमें तीसरी बार उससे सख़्त अनुरोध किया गया था कि वह चौड़ी आस्तीन की शर्टें पहनकर दफ़्तर न आया करे। कम्पनी का मानना था कि यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे उनकी कार्यक्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। उस शाम वह तीन अतिरिक्त घंटे रुका। एक घंटा काम करने के बाद उसने अपना कम्प्यूटर बन्द कर दिया और दो घंटे तक इधर उधर घूमता रहा। उस शाम उसे पहली बार पता चला कि हर मंजिल पर दो-दो आपातकालीन निकास द्वार हैं और कम्पनी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के केबिन उन दरवाज़ों से सटे हुए हैं। उस शाम से उसने उन्नीस सौ इकत्तीस की मार्च का इंतज़ार करना शुरु कर दिया। वह दो हज़ार आठ का अगस्त था और उस शहर में हर दूसरे तीसरे दिन बरसात होती थी। वह एक बड़ा शहर था, जिसकी सड़कें टूटी हुई थीं और चूंकि स्ट्रीट लाइटें कहीं कहीं थीं, सात बजते बजते उन सड़कों के गड्ढ़े अँधेरे में डूबने लगते थे। वहाँ पक्षी नहीं थे और जिन्हें घोंसलों से प्रेम था, वे चिड़ियाघर जाते थे। हालांकि घोंसले वहाँ भी नहीं मिलते थे। उसे बार बार अपनी उसी स्कूल वाली दोस्त की याद आने लगी थी और यह उसने कनिका को भी बताया। इसका कारण उसे समझ में नहीं आता था। उसने कनिका से कहा कि वह उससे प्यार करना चाहता है और वह उसे खो देने पर बहुत दुखी नहीं होती, मगर उसे इस तरह खोना भी नहीं चाहती थी, इसलिए उसने कहा कि वह सप्ताहांत तक इंतज़ार करे। सप्ताहांत के रास्ते में शुक्रवार बचा था। वह उस दिन दफ़्तर नहीं गया और उसने देर तक बालकनी में खड़े होकर बादल गिने। वह कुछ दूर पैदल चला और दूध का पैकेट खरीदकर हाथों में उछालते हुए लौटा। उस सड़क पर ज़्यादातर कारें ही चलती थी और पैदल या साइकिल पर चलने वाले लोग साम्यवादी सजावट सी लगते थे। उसने उस दोपहर इंटरनेट पर लेनिन को ढूंढ़कर पढ़ा और भगतसिंह के बारे में सोचता रहा। उसे यह सोचकर अच्छा लगा कि उसने बहुत से शहरों में भगतसिंह चौक देखे हैं। कनिका ने उससे कहा था कि राजीव गाँधी और इन्दिरा गाँधी ही पिछली सदी के सच्चे महापुरुष हैं। कई बार ऐसा हुआ था कि एक ही शहर में तीन-चार इन्दिरा गाँधी मार्ग या राजीव चौक होने की वज़ह से वह घंटों तक रास्ता भटककर चक्कर काटता रहा था। यह अजीब था कि जिस दिन उसने छुट्टी ली, उस दिन कड़ाके की गर्मी पड़ी और वह दोपहर के बाद बाज़ार में ही घूमता रहा। वह बन्दूकों की एक दुकान पर गया और उन्होंने उसे बन्दूक या पिस्टल का लाइसेंस होने की ज़रूरत के बारे में विस्तार से समझाया। उसने कहा कि वह बिना लाइसेंस का एक रिवॉल्वर खरीदना चाहता है और ‘रिवॉल्वर’ बोलते हुए बचपन की गर्मियों में पढ़े हुए कई जासूसी उपन्यास उसकी स्मृति में से गुज़र गए। उसे अपनी माँ की याद आई जो चाहती थी कि वह दो-तीन बच्चे पैदा करे और उसे लगा कि शायद यह भी चाहती थी कि उसे चालीस की उम्र में डायबिटीज हो जाए और वह मोटा हो और सोते हुए खर्राटे ले। वह हँसा। दुकान वाले ने बिना लाइसेंस के हथियार बेचने से मना कर दिया। वह चला आया। उसे लगा कि उन्हें उसके आतंकवादी होने का शक हुआ है और कुछ दूर तक कोई उसका पीछा करता रहा है। वह मुड़ मुड़कर पीछे देखता रहा। वह घुमावदार रास्तों से आया और उसने दो ज़गह ढाबों में बैठकर चाय पी।
उसका कॉलेज का दोस्त, जो बेरोज़गार था और बहुत व्यग्र था कि नौकरी करे, उससे मिलने आया। कॉलेज से निकलने के बाद वे पहली बार मिल रहे थे। उदय को लगा कि अचानक उनके बीच वह औपचारिकता आ गई है जो वह अपने पिता और घर में उनसे मिलने आने वाले उनके दोस्तों के बीच देखा करता था। कुछ देर के लिए उसे लगा कि वह अपना पिता हो गया है क्योंकि वे दोनों मौसम और महंगाई के बारे में बात करते रहे। उसे लगा कि उसका दोस्त उसकी हर बात को बहुत ध्यान से सुनता है और एक सम्मान देते रहने की कोशिश करता है। उसे शर्मिन्दगी हुई। दोस्त यह कहकर गया कि वह उसकी नौकरी कहीं लगवा दे तो उसका बहुत अहसान हो। उदय उसके गले लग गया और उसका जी हुआ कि अपनी सब डिग्रियों और बैंक की पासबुक को आग लगाकर कहीं चला जाए। दुख में से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि यह हमेशा रहेगा। ऐसा सुख में से गुज़रते हुए नहीं लगता। उसने कूलर बेच दिया। वे आठ सौ रुपए उसने अपनी अलमारी के अख़बार के नीचे अलग से सँभालकर रख दिए। कनिका शनिवार की सुबह ही आ गई। वह मीठी थी। उदय ने कहा कि हम चाय के साथ कुछ नमकीन खाएँगे। उन्होंने खाया भी। - यह सब जो अँधेरा है कमरे में, हम बस उसके बारे में बात करेंगे।
कनिका ने उसके बहुत क़रीब आकर यह कहा। ऐसे, जैसे किसी की उपस्थिति में ही उसके ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचना पड़े, तब जितने नज़दीक जाकर हम फुसफुसाते हैं। वह चुप पड़ा रहा। - और थोड़ी सी बात तुम्हारे बालों के बारे में भी... वह हँसी। उदय ने पूछा- क्या यह अनैतिक होगा कि हम आग बुझाने के लिए उनके घर से पानी लाएँ, जो माचिसें बेचते हों? - यदि समय है कि नीति-अनीति के बारे में सोचा जा सके, तो शायद अनैतिक ही होगा। - और मानो कि समय नहीं है, तो? - तो सब माफ़ है। मेरा और तुम्हारा क़त्ल भी। - फिर भी...सोचेंगे कि समय है। तुम क्या कुछ पैसे मुझे उधार दे पाओगी? - कितने? - मैं लौटाऊँगा नहीं। - मैंने पूछा, कितने बाबा? - पाँच सौ। - बस? - हाँ बस। - ले लेना...लेकिन बदले में तुम्हें मुझे साझेदार बनाना पड़ेगा। - किसमें? - अपने अँधेरे में... - तुम जानती हो कनिका...कि मैं प्यार करता हूँ तुमसे। - तुम्हारी बातों से नहीं लगता। - मैं तुम्हें कभी कभी बहुत बेवकूफ़ समझता हूँ और तुम्हारे ऊपर हँसता भी हूँ...कभी कभी मैं तुमसे इतनी नफरत करता हूँ कि तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। - तुम गधे हो। - सब लड़कियों को जानवर ही क्यों अच्छे लगते हैं? वह करवट के बल उसकी ओर चेहरा करके लेटी थी। अब तुनककर सीधी लेट गई। - और किसे अच्छे लगते हैं? और किसने कहा कि तुम मुझे अच्छे लगते हो? - किसी को नहीं... - क्या तुम्हें तब भी वह याद आती है, जब मैं तुम्हारी टाँगों पर टाँगें रखकर तुम्हारे बिस्तर पर लेटी होती हूँ? - सिर्फ़ उसके कूल्हे याद आते हैं – उसने एक गहरी साँस ली – और आज हम तुम्हारे बालों के बारे में बात करने वाले थे ना? - नहीं, तुम्हारे बालों के बारे में बुद्धू...और अँधेरे के बारे में, जो तुम्हारी आँखों से कमरे तक फैला हुआ है। - तुम्हारी आवाज़ मुझे बदली बदली सी लग रही है। - मैं भी तुम्हें मार डालना चाहती हूँ उदय। ”मार डालो”, उसने धीरे से कहा और वे सो गए। वे तब तक सोते रहे, जब तक उन्हें बहुत तेज भूख नहीं लग गई। शाम के पाँच बज चुके थे। एक रेस्तराँ में खाने के बाद उसने कनिका से कहा कि अब उसे चले जाना चाहिए। हालांकि वह उसे एक दिन और रोकना चाहता था। वह चली गई। उसने पहुँचकर एस एम एस किया कि वह ठीक ठाक पहुँच गई है। उसने निश्चय किया कि वह कनिका से ज़रूर शादी करेगा। उसने अपनी माँ को फ़ोन किया और यह नहीं बताया क्योंकि एक तो वह माँ के साथ बहुत लम्बी बात नहीं करना चाहता था और दूसरे, माँ के इस भ्रम को भी नहीं तोड़ना चाहता था कि उसने होश सँभालने के बाद से पूरी स्त्री नहीं देखी। उसे अजीब लगता था कि वह जब माँ को याद करता है तो उसके हृदय में बिल्कुल भी कोमलता नहीं होती। वह बिजली के कुछ तार खरीदकर लाया और कुछ मैकेनिक वाला सामान, जिसमें चार तरह के पेंचकस थे। तभी से उसे अपनी महानता का अहसास होना शुरु हुआ। उसने सोचा कि वह उस दुकानदार से कितना अलग और ऊपर है, जिसने उसे ग्यारह सौ रुपए में यह सामान बेचा है। उसने घर लौटते हुए पच्चीस रुपए की एक आईसक्रीम खाई। उस रात उसने सोचा कि अब से वह हर रोज़ डायरी लिखा करेगा। लेकिन जब वह लिखने बैठा तो उसे लगभग सभी वे बातें महत्वहीन लगीं, जिन्हें वह लिखना चाहता था। जैसे उसे ये पंक्तियाँ लिखना बहुत हल्का लगा कि ‘मैंने आज बिजली के तार खरीदे’ या ‘कनिका जब बस में चढ़ रही थी तो मेरा मन किया कि मैं गन्ने का रस पियूँ’। वह नहीं चाहता था कि कल को कोई उसकी डायरी पढ़कर हँसे। उसका यह पक्का विश्वास था कि यदि कोई डायरी लिखी जाती है तो एक न एक दिन वह किसी और द्वारा ज़रूर पढ़ ली जाएगी। - तुम्हारी शादी हो चुकी है? उसने सोमवार को लंच के समय के दौरान मेन गेट पर खड़े गार्ड से पूछा। - जी नहीं। - तुम बिहार से हो? - जी। उदय मुस्कुराया। - आपको कैसे पता चला? - तुम्हारे चेहरे की चमक देखकर पता चलता है। गार्ड को उसका चेहरा याद हो गया। मंगलवार को जब कम्पनी में घुसते हुए उसके बैग की जाँच हो रही थी तो गार्ड उसे देखकर मुस्कुराया।
उदय ने पूछा- क्या तुमने इतिहास पढ़ा है? - मैं तो दसवीं पढ़ा हूँ साहब। - कहीं से ढूंढ़कर तांत्या टोपे की पर्सनेलिटी के बारे में पढ़ना। तुम्हारा चलने और बोलने का ढंग वैसा ही है। वह तांत्या टोपे को नहीं जानता था, फिर भी वह लगभग गदगद हो गया। उस दिन उदय ने लंच नहीं किया और मेन गेट के पास खड़ा होकर उसी से बतियाता रहा। उसका नाम सुन्दरसिंह था। वह अपने गाँव की एक लड़की से प्रेम करता था, जिसकी एक बाबू से शादी हो गई थी। सबका एक साझा किस्सा था जिसमें कभी बाबू तो कभी इंजीनियर होते थे। बुधवार को उसकी तलाशी की औपचारिकता भर हुई और बृहस्पतिवार के बाद वह दफ़्तर में ऐसे दाख़िल होने लगा, जैसे बाहर के लोग डाकघर या बिजलीघर के किसी भी कमरे में बेहिचक घुस जाते हैं। इतिहास गवाह है कि दुनिया में कोई भी ऐसी क्रांति नहीं हुई जिसमें निर्दोष लोग न मारे गए हों। यह सोचकर उसे तसल्ली होती थी और बुरा भी लगता था। धीरे धीरे वह इस बुरा लगने से बाहर आता गया। यह ज़रूरी भी था। उसने गीता और विवेकानन्द को पढ़ा। उसने दूसरे विश्वयुद्ध की कहानियों पर बनी कुछ अंग्रेज़ी फ़िल्में देखी और उसे याद आया कि उसके बचपन में बच्चों के बीच यह डरावनी अफ़वाह फैली रहती थी कि जल्दी ही तीसरा विश्वयुद्ध होगा और उसमें पूरी दुनिया नष्ट हो जाएगी। कुछ दिनों तक वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक सुरंग बनाने की योजना बनाता रहा था।
उसे कभी कभी बहुत डरावने सपने आते थे- खूंखार जादूगरों और चुड़ैलों के। किसी किसी सपने में तो उसकी माँ ही राक्षसी बनकर उसे खाने लगती थी। आधी रात में अक्सर वह चिल्लाकर जगता था। उन्हीं दिनों वह गीता पढ़ रहा था, जिसे उसने बीच में ही छोड़ दिया। उसे लगा कि यह सब वह पहले से ही जानता है। उसे तेज गुस्सा आता था और वह अपने कमरे की चीजें तोड़ते तोड़ते रुक जाता था। एक छुट्टी के दिन (शायद पन्द्रह अगस्त) उसे अहसास हुआ कि उसे कभी किसी ने तोहफ़ा नहीं दिया। उसने कनिका को फ़ोन करके कहा कि वह उसे भोगना चाहता है। इस पर कनिका को बहुत हँसी आई। - पागल.... – वह हँसते हँसते ही बोली – तुमने कहा नहीं। मैं आ जाती वहाँ। - नहीं, फ़ोन पर। - फ़ोन पर कैसे? - जैसे हम लोगों को क़रीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं... - तुमने पी रखी है? - ना.. - पर फ़ोन पर क्यूँ? - क्योंकि मुझे लगता है कि हम आमने-सामने उतने ईमानदार नहीं रह पाते। तुम जब आँखें खोले रखना चाहती हो, तब भी बन्द कर लेती हो। ....या यह मेरा बहाना ही है और मैं सिर्फ विद्रोह करना चाहता हूँ। - उदय...तुम्हारा यही पागलपन मुझे उत्तेजित करता है। - क्या पहना है तुमने? - समझो कि हवा। बीच में ही, जब वे उस तहखाने के आखिरी कमरे का ताला खोल रहे थे, उदय ने कहा कि वह उससे ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहता है। वह बोली कि यह तो ऐसा है, जैसे किसी ने उसे ख़ूबसूरत सी चोटी पर ले जाकर धक्का दे दिया हो। उदय बोला- मैं और तुम साथ में एक फ़िल्म देखेंगे, जिसके अंत में हीरो हीरोइन की शादी हो जाती हो। यह वादा था या जैसे सगाई की अँगूठी। वह ख़ुश हुई। उदय ने सोचा था कि एक अच्छी ज़िन्दगी होगी, जिसमें इज़्ज़त होगी और पवित्रता। यह उसने बहुत पहले सोचा था, जब वह पढ़ता था और इम्तिहान देता था। उसके कुछ समय बाद उसने समाज और दुखों के बारे में सोचा था।
उसने वह कमरा खाली कर दिया। कुछ ख़ास सामान नहीं था। कुछ कपड़े, किताबें, दो चार बर्तन, बिस्तरबन्द और कम्प्यूटर। कम्प्यूटर बेचकर बाकी सामान उसने कम्पनी में ही काम करने वाले एक साथी लड़के के कमरे में रख दिया। वह लड़का हैरान था। उसने कुछ सामान्य सवाल पूछे, जिनका जवाब उदय ने नहीं दिया। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा कि वह जा रहा है और ऐसे लौट आएगा, जैसे गया ही न हो। यह भटकाने वाला उत्तर था। ऐसे उत्तर के साथ रहकर संन्यासी या अपराधी हो जाने का डर था। वह एक मेहनती लड़का था और दस घंटे की नौकरी करने के साथ साथ पढ़ाई भी कर रहा था। उसने उदय की बातों पर अधिक ध्यान देना उचित नहीं समझा। वह भटकना नहीं चाहता था। उन दोनों को एक दूसरे के दर्शन पर तरस आता था। वे दोनों दोस्त नहीं थे और उससे पहले उन्होंने तीन या चार बार ही बात की होगी। अब, जबकि वह बेघर था तो थोड़ा खुलकर साँस लेता था और सोचता था कि कुछ करना होगा, कुछ करूँगा तो उसे लगने लगा कि उसका आक्रोश कम होने लगा है। वह बहुत दूर आ गया था और लौटना नहीं चाहता था। उसे लगा कि असुविधाएँ उसे कमज़ोर बना रही हैं। यह एक नया रहस्योद्घाटन था। एक छोटा समयांतराल था जिसमें उसमें रिक्तता भर गई। वह एक दिन रेलवे स्टेशन पर गया और उसने सामान्य कूपे में बैठकर देखा। उसे वहाँ भी घुटन सी हुई। उसे गरीबी से हमेशा से डर लगता रहा था और उससे ज़्यादा गरीबी से उपजने वाली अबौद्धिकता से। आलू पूड़ी और सस्ते पाउडर वाली औरतों के बीच से तेजी से निकलकर वह बाहर आ गया। बाहर, जहाँ धूप थी, पार्क था और कुछ बूढ़े थे। वह पेड़ की छाँव में बैठी एक सुन्दर अधेड़ औरत को कुछ देर तक देखता रहा और उसने सोचा कि मर जाना चाहिए। मगर यह विकल्प उसे ज़रा भी प्रभावित नहीं कर पाया और वह देर तक घास पर लेटा रहा। उसने सोचा कि दुनिया बेवकूफ़ लोगों से भरी पड़ी है जिनके पास बहुत सारा धन है। वह उन्हें मूर्ख बनाएगा और कभी गरीब नहीं होगा। उसे अपनी क़ाबिलियत पर फिर से यक़ीन होने लगा और उसने सोचा कि यह शनिवार है।
बीच में कहानियाँ और भी थी जिनमें रेलगाड़ियों की सुखद या कष्टदायक यात्राएँ नहीं थी और गर्मी की लम्बी दोपहरों में बरामदे की चटाई के पीछे से झाँकती उदासियाँ थी। उसकी दो बहनें थी और माँ-पिता ने सोचा था कि एक और हुई तो वे कस्बा छोड़कर गाँव लौट जाएँगे। यह घर में सबको मालूम था और उन दिनों, जब उदय दस या ग्यारह साल का रहा होगा, वह प्रार्थना करता था कि उसकी माँ की बच्चा पैदा करने की शक्ति अब छीन ली जाए। वह शुरु से आखिर में ही था जैसे चार भाई-बहनों के बीच में दूसरे और तीसरे नम्बर के बच्चे अक्सर होते हैं। ईश्वर यदि था – और होगा ही, क्योंकि इसी इकलौती बात पर पूरा शहर एकमत था और वह अकेला बिना तर्क बेवकूफ़ – तो उसने उदय की गुहार कुछ इस तरह सुनी कि शादी के पाँच साल बाद तक भी उसकी भाभी को कोई संतान नहीं हुई। उसकी माँ ही कहती थी कि भाभी भी माँ जैसी ही है और उदय को लगता था कि यह ऐसा सोचने का ही नतीज़ा है। भाभी सुन्दर थी और वह उसे कभी माँ की नज़रों से नहीं देख पाया। उसने कभी चाहा भी नहीं। उसका भाई एक के बाद एक, कई काम करके छोड़ चुका था और फ़िलहाल खाली था। भाभी को देखकर उसे लगता था कि वह उसके भाई से ऊब चुकी है। वह दिन भर झल्लाई रहती थी और किसी से फ़ोन पर लम्बी लम्बी बातें किया करती थी। उसकी बहनें घर के सब कामों में कुशल थी और महीनों तक उसकी राह देखा करती थी। दोनों बहनों को छोड़कर पूरे घर से उसे कोफ़्त होती थी। पिता से उसे प्रेम था। नौकरी ऐसी थी कि उसके कम होते आक्रोश में एक नया सोमवार ही काफ़ी था। उस दिन, जब उसे गर्मियों के उदास कस्बे अच्छी तरह से याद थे, उसने प्रिया के केबिन में जाकर कहा कि वह नौकरी छोड़ना चाहता है।
- तुम ठीक तो हो उदय? वह उस दिन ख़ुश लग रही थी।
- हाँ, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ... - कहीं स्वूपर के डर से तो नहीं? – वह ज़ोर से हँसी (उस पर) – वो काम किसी और को दे देते हैं। तुम डाटा हैंडलिंग या टेस्टिंग सँभाल लो। - मैं यह नौकरी छोड़ना चाहता हूँ और तुम लोगों के इस दो कौड़ी के काम के बारे में एक भी बात नहीं करना चाहता। - तुम बहुत कमज़ोर कर्मचारी रहे हो। ज़रा सा भी दबाव नहीं सह पाते। मुझे लगता है कि इस तरह तुम ज़िन्दगी में किसी भी क्षेत्र में बहुत आगे नहीं जा पाओगे। - और दुनिया बहुत बड़ी, मेहनती और चुस्त है। है ना? - हाँ... - तुम औरत नहीं होती तो मैं तुम्हें अभी एक गाली देना चाहता था। - शुक्र है कि ऐसे समय में भी तुमने अपने मूल्य बचा रखे हैं। - यह मूल्यों की बात नहीं है। वह गाली ही पुरुषों के लिए है। - तुम सोचते हो कि तुम बदतमीज़ी करोगे तो हम आसानी से तुम्हें निकाल देंगे? एक क्षण में ही वे सब मिलकर हम हो गए थे – उसके विरुद्ध ‘वी’। - ...तुम शायद भूल चुके हो कि तीन साल से पहले नौकरी छोड़ने पर तुम्हें कम्पनी को तीन लाख रुपए देने पड़ेंगे। एक अच्छी सुबह में तुमने ख़ुश होकर उन कागज़ों पर हस्ताक्षर किए थे। क्या मुझे वे कागज़ ढूंढ़ने पड़ेंगे? ये सब बातें वह अंग्रेज़ी में बोल रही थी। अंग्रेज़ी चमत्कारिक भाषा है जिसमें बहुत अश्लील बातें भी सभ्य लगती हैं। वह चुपचाप लौट आया। उसने शायद माफ़ी भी माँगी। वह जब लौटकर अपनी सीट पर आया तो उसके हाथ दो मोटी रस्सियों से बँधे हुए थे। उसे लगा कि ग़ुलामों से भरे हुए एक ट्रक में ठूँसकर उसे अफ़्रीका ले जाया जाएगा और वहाँ एक बड़े से चबूतरे पर उसकी नीलामी होगी। एक गोरी चमड़ी वाला सुदर्शन नवयुवक उस पर लगातार कोड़े बरसा रहा होगा। वहीं कहीं आसपास घंटाघर भी हो, ऐसा उसने चाहा। वह समय देखना चाहता था। अपनी ओमेगा की घड़ी उतारकर उसने कूड़ादान में फेंक दी। पिछले सोमवार को इसी समय उसने अपने कम्प्यूटर की पीठ थपथपाई थी, जब उसने पूरी इमारत के बिजली के कनेक्शन का नक्शा ढूंढ़ निकाला था। फिर हर दिन शाम को वह देर तक रुकता था। उस पूरे सर्किट को समझने में उसे तीन दिन लगे और क्या करना है, यह सोचने में तीन मिनट। रोज़ रात को आठ बजे सुरक्षा कर्मचारियों की ड्यूटी बदलती थी। पूरी बिल्डिंग में खुफिया कैमरे लगे थे, जिनकी लाइव रिकॉर्डिंग देखने के लिए एक आदमी नौकरी पर था। आठ बजे से जिसकी ड्यूटी लगती थी, साढ़े आठ के आसपास उसे गुटखे की तलब लगने लगती। धूम्रपान प्रतिबन्धित था लेकिन गुटखे के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा था। उदय सोचता था कि अमेरिका में गुटखा नहीं खाया जाता होगा। इस बात के लिए वह पश्चिम का अहसानमन्द था। वह गार्ड साढ़े आठ बजे निकलकर बाहर सड़क पर लगे खोखे तक जाता, रजनीगन्धा का एक पाउच खरीदता, खोलकर हथेली पर रगड़ता, मुँह में रखता और धीमे धीमे कदमों से लौट आता। इस पूरे काम में पन्द्रह या बीस मिनट लगते थे। ऐसा सवा दस बजे के आसपास फिर से होता था। यानी उदय को हर दिन तीस या चालीस मिनट मिलते थे, जब खोजी कुत्तों की निगाहें कोने कोने पर नहीं होती थी। उसने ऐसे कोने ढूंढ़ निकाले थे जो उसके काम के थे और जहाँ बैठने वाले कर्मचारी कभी देर तक नहीं रुकते थे। पिछले पाँच दिनों में उसने उन्हें कोनों के बिजली के कनेक्शन में थोड़ी थोड़ी बड़ी छेड़छाड़ की थी। एक दिन का काम बाकी था। उसी के लिए उस सोमवार भी वह देर तक रुका। वह नौकरी छोड़ सकता तो उसी सुबह काम अधूरा छोड़कर चला जाता।
मंगलवार एक अच्छा और पवित्र दिन था। उस दिन उसने दफ़्तर के फ़ोन से दो घंटे तक कनिका से बातें की। कनिका उस दोपहर सोना चाहती थी। जब दो घंटे पूरे हो गए तो उसने कनिका को गुडनाइट कहा और खुलकर चूमा। उसके सामने बैठने वाली एक औरत उसे ऐसा करते देख हँसी भी। उदय को उस औरत पर दया आई। वह उठकर उसकी सीट पर गया और उससे पूछा कि क्या उसने कभी किसी से प्यार किया है? वह हड़बड़ा गई और बोली कि वह गर्भवती है। एक क्षण के लिए उदय को लगा कि यह उसकी स्कूल की दोस्त है। लेकिन उस औरत के बाल लम्बे थे। उसे लगा कि चाहकर भी बालों को बहुत अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। फिर भी उसने उससे उसका नाम पूछा। उसका नाम नताशा था और उदय को अपनी याददाश्त पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी अपनी दोस्त का नाम याद नहीं आया। उसे लगा कि उन दोनों ने कभी एक दूसरे को नाम लेकर पुकारा ही नहीं था। उन दिनों वे पकड़े जाने से डरते थे इसलिए फ़ोन पर बात करते समय बार बार एक दूसरे का नाम लेकर मुसीबत नहीं बढ़ाना चाहते थे। उदय ने सोचा कि यदि उस समय उसे ज़रा भी आशंका होती कि वह उसका नाम भूल जाएगा तो वह कम से कम एक दो बार तो रोज़ बातों बातों में उसका नाम लेता ही। उसने उस औरत से पूछा कि क्या स्कूल में ऐसा कोई लड़का उसका दोस्त था, जो आई ए एस अफ़सर बनना चाहता था? उस औरत ने कहा, जो नताशा थी, कि हर स्कूल में ऐसे कई लड़के होते हैं और अभी उसे तीन ऐसे लड़के याद आ रहे हैं, जिनमें से दो तो आई ए एस अफसर बन भी चुके हैं। वह पछताया कि क्या बात छेड़ दी! उसने उस औरत से अनुरोध किया कि वह आज आधी छुट्टी लेकर चली जाए। वह गिड़गिड़ाया भी, लेकिन वह नहीं मानी। उसने कहा कि वह चला जाए और उसे काम करने दे, नहीं तो वह शिकायत कर देगी। उदय बोला कि एक स्विच है, लेकिन उसे नहीं सुना। वह बहरी हो गई। मृत्यु ऐसी ही होती है।
वाकई एक स्विच था, एंकर का स्विच, जो उदय की मेज के नीचे लगा था और सोमवार की शाम से पहले जिससे एक दूधिया लाइट जलती थी और दबाने पर इमारत की हर मंजिल पर दो ज़गह शॉर्ट सर्किट होकर आग नहीं लगती थी। यह सोमवार की शाम से पहले था और आप जानते हैं कि उदय शिद्दत से चाहता था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाए। सोमवार की सुबह वह प्रिया के पास गया भी था और जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ और वह भी अपने आप से कह चुका था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाती तो वह कनेक्शन बदलने का काम बीच में ही छोड़कर चला जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक अठारह उन्नीस साल का लम्बा लड़का, जो हरियाणा के किसी गाँव से उस महानगर में आया था, बहुत से और कामों के साथ इस काम के लिए भी नौकरी पर रखा गया था कि हर शाम छ: बजे जो क्यूबिकल खाली हो जाएँ – उदय को क्यूबिकल हीरे की तरह चमकता हुआ शब्द लगता था – उनकी बड़ी लाइट ऑफ करके वह छोटी दूधिया लाइट जला दिया करे। ऐसा मन्दी के कारण था। वह बेचारा लड़का सिर झुकाकर ग़ुलामों वाला सलाम अच्छी तरह करता था और समय का पाबन्द था। उदय दोपहर बाद तीन बजे बिना किसी से कुछ पूछे निकल आया। बाहर निकलकर उसने सबसे पहले आसमान को देखा। बादल छा रहे थे और ठंडी तेज हवा चल रही थी। फिर उसने मुड़कर कम्पनी की विशालकाय इमारत देखी, जिस पर अंग्रेज़ी में लाल रंग से ‘वी’ लिखा था। उसने सोचा कि ‘हम’, ‘मैं’ से कहीं अधिक अहंकारी शब्द है क्योंकि इसमें शक्तिशाली होने का बोध भी है। काँच के पार सैंकड़ों लोग अपने अपने कम्प्यूटरों में नज़रें गड़ाकर फटाफट काम करते हुए दिख रहे थे और तब उसे शक्कर के दाने के लिए कतार में लगी चींटियों की याद आई और भेड़ों के उस झुंड की भी, जो हर शाम मैदान के ठीक बीच में से गुजरता था, जब वह बचपन में क्रिकेट खेलता था। वह बाहर निकलकर अन्दर आने वाले दरवाज़े की तरफ़ गया और सुन्दरसिंह से हाथ मिलाया। सुन्दरसिंह ने कहा, “मौसम बहुत अच्छा है साहब।“ “हाँ”, उसने कहा और चल दिया। एक टाटा सुमो उसे लगभग छूती हुई सी गुज़र गई। उसने मन में कोई गाली नहीं दी और वह मुस्कुराता रहा। कुछ दूर आगे जाकर वह सड़क किनारे लगे एक पत्थर पर बैठ गया और उसने अपनी माँ को फ़ोन करके कहा कि वह उससे बहुत प्यार करता है। यह उसने बार बार कहा। साथ ही उसने सोचा कि कैसे भी हो, शादी से पहले वह एक रात कनिका के गर्ल्स हॉस्टल में ज़रूर गुजारेगा।
फिर उसने एक कंकर उठाया और हवा में उछाल फेंका। सच मानिए, मैं पूरे होश में हूँ और मुझे वह हवाई काल्पनिकता बिल्कुल भी पसन्द नहीं जो सच और सपने का भेद ही मिटा दे, लेकिन सड़क के दूसरी तरफ बैठी एक भूरी चिड़िया ने साफ साफ देखा कि आसमान में सूराख हो गया है।

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11 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

gaurav solanki is back.gaurav ji bahut din baad hindyugm par aaye lekin pahale wali dhar nahi hai. ravi

आलोक साहिल का कहना है कि -

आखिरी पंक्ति से शुरू करें, तो बात ज्यादा मुनासिब लगती है...इस कहानी के साथ भी वैसा ही है, उलझे हुए झोलों के बीच अच्छी झालर बुनी गई है...ये मेरा पूर्वाग्रह नहीं क्योंकि कहानी से पहले कहानीकार का नाम पढ़ता हूं...हरबार की तरह तो शायद नहीं, लेकिन, एकबार फिर अद्भुत!!!

arun का कहना है कि -

dear gaurav solanki i like your story of company raj its realy a very realistic story but try to best in this type of story some basic things which can not be expressed by a common man so that it can convert you a great story writer to a common man

Anonymous का कहना है कि -

gaurav selsh ka ek purana chamcha he.... kuchh bhi likh kar naam pana uska dhandha he.....

aaj kal selseh se nahi banti uski paisa nhi deta aur selseh nahi chaapta uski kahanee .....

DUBE का कहना है कि -

aapki kahani kalpnaonka adbhut mail hay ajaykumar dube jhansi

DUBE का कहना है कि -

aapki kahani kalpnaonka adbhut mail hay ajaykumar dube jhansi

Unknown का कहना है कि -

This story is realistic but sick and prejudiced..i am a Hindu girl from Ayodhya..married with a white American...they are also human beings with salty tears, sweet emotions and love for grandma and babies and dogs...and yes Gaurav can be so raw and naked in expression og precise emotions of any given moment, specially of a person who has witnessed the core transformation og his/her soul beacause of overexposure and globalization but can not change the core values and double standards of society or basic human nature...Gaurav is awesome writer but the story makes me disappointed...way to go Gaurav.

ARUN SHEKHAR का कहना है कि -

bhai gaurav mujhe to yeh kahani padhne mein bahot dimag lagana pada, bahot uljhav hai baat kuchh nahi .. proper end nahin hua .. mere hisaab se .. baaki tum log to buddhijivi ho hi..hum to shramjivi hain
..all d best ..

Unknown का कहना है कि -

Achhi likhi hai bhaaisaab.

बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' का कहना है कि -
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बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' का कहना है कि -

बहुत खूब गौरव, पर मेरे हिसाब से यहाँ उस दोपहर को लेनिन की जगह "मार्क्स" होते तो माज़रा और भी ज्यादा उफनकर सामने आता।

खैर, एक उम्दा कहानी के लिए बधाई।

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