Monday, April 21, 2008

आत्मा की तेरहवीं

आज आत्मा से हमारा हमेशा के लिए पीछा छूट गया। बचपन से ही हमारा हमारी आत्मा के साथ संघर्ष चला आ रहा है। जाने कैसी आत्मा इशु की थी भगवान् ने हमारी काया को, हम जो भी काम करें इसे पसंद ही नहीं आता, जब देखो अपनी टांग फंसाती रहती थी। पूरे बचपन की वाट लगा दी इस आत्मा की बच्ची ने। जब कभी जेबखर्च के लिए पिता जी की पैंट से पैसे चुराने की सोचते, इस आत्मा की चोंच चलने लगती। जैसे-तैसे कठिन परिश्रम करके पिता जी की जेब हलकी करते, रात होते ही आत्मा के प्रवचन शुरू हो जाते। नन्ही उम्र थी हमारी सो ज्यादा बहस नहीं कर पाते। आत्मा की बातों में आ जाते और पैसे वापस जेब में रख आते। जब भी परीक्षा में नक़ल करने बैठते, कमीनी आत्मा झक सफ़ेद कपडों में सामने आकर खड़ी हो जाती, बगल वाले की कॉपी पर पर हाथ रख लेती! इन आत्मा मैडम ने कई दफा फेल करवाया।
१४-१५ साल की उम्र तक तो ऐसा हुआ कि हम आत्मा के मुकाबले थोड़ा कमज़ोर पड़ते रहे, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे हमारे अन्दर ताकत का संचार हुआ। हमने अपने जैसे आत्मा पीड़ितों का एक ग्रुप बना लिया था, जिसकी नियमित बैठकें होतीं और आत्मा से निजात पाने के तरीकों पर मंथन किया जाता, कभी कभी गेस्ट फेकलटी को बुलाकर आत्मा की आवाज़ दबाने के तरीकों पर लेक्चर भी करवाया जाता। इसका नतीजा ये निकला कि अब ७०% मामलों में हमारी जीत होती और ३०% मामलों में आत्मा की।
खैर,हम धीरे-धीरे बड़े होते गए। जुगाड़ लगाई तो क्लर्क बन गए और ईश्वर का कृपा से क्लर्की भी अच्छी चल निकली। पर ये धूर्त आत्मा को यह भी गवारा नहीं था। घूस ही तो खाते थे, इसके बाप का क्या लेते थे! जैसे ही रात होती तो हमें झिंझोड़ कर जगा देती और प्रवचन शुरू कर देती। हालाँकि अब तक हम मट्ठर पड़ने लग गए थे पर रात तो खराब हो ही जाती। एक दिन इस समस्या का भी समाधान हुआ। रोज़ की तरह आत्मा के उपदेश शुरू हुए तभी हमने देखा, ये सफ़ेद पेंट शर्ट वाली आत्मा के सामने बिलकुल वैसी ही भक काले पेंट शर्ट वाली आत्मा हमारे अन्दर से अवतरित हुई और आते ही कुलटा, कमीनी, मक्कार जैसी कई उच्च कोटि की गालियों से सफ़ेद आत्मा को नवाज़ दिया। अब हमें कुछ कहने का ज़रूरत नहीं थी, दोनों में आपस में मुंहवाद होता रहा। इसके बाद से तो वह वकीलनुमा आत्मा ही हमारी तरफ से बहस करती, हम आराम से सो जाते। सिलसिला चलता रहा, पर हाँ, अब हर बार सफ़ेद आत्मा ही हारती।
हाँ...तो हम आज के झगडे का बात कर रहे थे। वैसे भी रोज़-रोज़ का किटकिट से तंग आ गए थे हम। आज तो उसने हलकान ही करके रख दिया, पीछे ही पड़ गयी हमारे। इतना जोर से चिन्घाड़ी कि जीना दूभर हो गया। ऐसा भी क्या कर दिया था हमने, छोटी सी बात थी। हुआ यूं की एक ठेले वाला हमसे अपने जवान बेटे का मृत्यु प्रमाण पत्र लेने आया, हमने तो भैया आदत के मुताबिक ५०० रुपये मांगे। झूठा कहीं का, कहने लगा की पैसे नहीं हैं। उम्र हो गयी ठेला चलाते-चलाते, इतना पैसा भी नहीं कमाया होगा क्या? और फिर जब हम किसी का काम बिना पैसे के नहीं करते तो इसका कैसे कर देते, आखिर सिद्धांत भी तो कोई चीज़ है। खैर ठेले वाला तो चला गया रोते कलपते पर ये आत्मा की बच्ची बिफर गयी। बहुत जलील किया हमें। सो हमने भी आज अन्तिम फैसला कर डाला, अपनी काली आत्मा को बुलाकर सुपारी दे डाली। और उसने सफ़ेद आत्मा का गला हमेशा के लिए घोंट दिया।
हमें कोई ग़म नहीं उसकी मौत का। कोई गुनाह तो नहीं किया हमने, आखिर कानून में भी तो आत्मा के मर्डर के लिए कोई धारा नहीं बनी है। रोज़ ही तो लोग खुल्लम खुल्ला आत्मा का क़त्ल कर रहे हैं और हम भी इसी समाज का हिस्सा हैं।
बहरहाल, अगली ग्यारस को हमारी आत्मा की तेरहवीं है। पंडित ने बताया है की १०१ आत्माओं की आहूति देने से मरी आत्मा कभी वापस नहीं आती। सो सभी आत्मा पीडितों से अनुरोध है की अधिक से अधिक संख्या में उपस्थित होकर अपनी अपनी आत्माओं की आहूति दें और मृत्युभोज को सफल बनाएं!


***इस कहानी की लेखिका पल्लवी त्रिवेदी है जिन्हें कविता,नज्म,ग़ज़ल ,कहानी एवं व्यंग्य लिखने का शौक है। वर्तमान में लेखिका भोपाल (म॰ प्र॰) में उप पुलिस अधीक्षक के पद पर पदस्थ हैं।

Monday, April 14, 2008

एक सुखांत प्रेमकथा

सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
उस पर लिखा हुआ वाक्य बुदबुदाते हुए लाल और सफेद रंग की उस डिबिया को मैंने फेंक दिया। वह शायद आगे बैठे किसी आदमी को जाकर लगी। उसने अँधेरे को लक्ष्य करके गाली दी। मैंने सिगरेट सुलगा ली।
- तुम यहाँ भी शुरु हो गए। बुझाओ इसे।
- भाईसाहब, यह सिगरेट बन्द कीजिए। आप नहीं जानते कि पब्लिक प्लेसेज़ में पीना गैरकानूनी है?
पीछे से कोई अकड़कर बोला। मैंने बाएं हाथ से अँधेरे में ही उसकी गर्दन पकड़ ली। दाएं हाथ की दो उंगलियों के बीच वह जलती रही।
- रिश, यह क्या नौटंकी है? छोड़ो इसे....
उसने झटककर मेरा हाथ अलग करवाया। वह आदमी चुप हो गया था। मैं सामने के रंगीन पर्दे को देखता हुआ फिर पीने लगा। वह मुझे झेलती रही।
कुछ मिनट बाद वह फिर बोली- कितनी बोरिंग फ़िल्म दिखाने लाए हो....और एक यह धुंआ बर्दाश्त करना पड़ रहा है। मैं और कुछ महीने तुम्हारी गर्लफ्रैंड रही तो अस्थमा हो जाएगा मुझे।
मैं सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा। वह हर दो-चार मिनट बाद इसी तरह बड़बड़ाती रही। आधा घंटा और बीत गया।
- अब पूरे हॉल में मैं और तुम ही बचे हैं। सब चले गए तुम्हारी इस ‘नो स्मोकिंग’ से पककर...और अब मैं भी जा रही हूं।
वह उठकर चल दी। मैंने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया। वह मेरे ऊपर आ गिरी और मैंने अपने खुरदरे होठ उसके नकली गुलाबी होठों पर रख दिए।
- तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही है। सिगरेट पियोगे तो मुझसे नहीं होगा यह....
वह कसमसाते हुए मेरी पकड़ से छूट कर चल दी।
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और सिगरेट का जलता हुआ सिरा उसकी हथेली से छुआकर उसकी मुट्ठी भींच दी। वह दर्द से बिलबिला उठी। फ़िल्म की आवाज़ की तरह ही उसकी चीख पूरे हॉल में गूंज गई।
उसने किसी तरह हाथ छुड़ाया और दौड़ती हुई चली गई। स्क्रीन पर कोई छिपा हुआ चेहरा गाता रहा- घूंट घूंट जल रहा हूं...पी रहा हूं पत्तियाँ..
मैंने अपनी हथेली में वही सिगरेट रखकर मुट्ठी बन्द कर ली। धुआं मेरी हथेली से होता हुआ आँखों तक पहुंचा और जलती हुई दो बूंदें गालों पर लुढ़क आईं।

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मैं अकेला जब उस थियेटर से बाहर निकला, तब तक सूरज छिप चुका था। मैंने एक ऑटो वाले को रोका और फिर भूल गया कि मुझे कहाँ जाना है। उसने मुझसे दो-तीन बार पूछा। मैं उसकी ओर ऐसे देखता रहा, जैसे वह वहाँ था ही नहीं। वह कुछ बड़बड़ाता हुआ चला गया। मैं चुपचाप कुछ देर वहीं खड़ा रहा। फिर मेरे कदम एक दिशा में चल दिए।
मैं जब शील के सामने बैठा था, उसके सिर के ऊपर लगी दीवार घड़ी में सात बजे थे। वह सब काम छोड़कर मेरा मौन सुनने के लिए बैठी रही। मैं ज्यादा देर तक उसके सामने नहीं बैठ पाया। कुछ देर बाद उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। सात बीस पर उसका मोबाइल बजा। मैंने उसके हाथ से फ़ोन लेकर काट दिया। वह चुप रही।
- एक सिगरेट पी लूं शील?
- नहीं...
वह उस कमरे में हमारे बीच पहला संवाद था। वह मेरे बालों में उंगलियाँ तैराने लगी थी।
- बाल कम हो रहे हैं तेरे। ज्यादा मत सोचा कर।
उसके स्पर्श में स्नेह था।
- कल रात मैं सोया उसके साथ....
- किसके?
स्नेह अब भी उतना ही था।
- उसी के...
मुझे नाम याद करने में कुछ क्षण लगे। उन दिनों मेरी याददाश्त तेजी से कम हो रही थी।
- निहाँ के साथ।
- तो?
उसने ऐसे कहा जैसे कुछ न हुआ हो। मैं ऐसे बता रहा था जैसे काँच की प्लेट तोड़कर माँ के सामने अपराध स्वीकार कर रहा हूं। अब माँ ने डाँटा भी नहीं तो आश्चर्य तो होता ही!
- तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे सब कुछ पहले से ही पता हो तुम्हें।
वह हँसी।
- मैं लड़कियों के कपड़े देखकर तुझे बता सकती हूं कि कितने दिन में सोएगी तेरे साथ।
मैं कुछ पल तक निहाँ का पहनावा याद करने की कोशिश करता रहा। मुझे कुछ याद नहीं आया। उसकी छवि दिमाग में बनती भी थी तो शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं होता था। मेरी याददाश्त सच में कमजोर हो रही थी।
आखिरकार मैंने प्रयास छोड़ दिया।
- मैं निहाँ से प्यार नहीं करता शील....चाहकर भी नहीं कर पाता। उसके चेहरे में रात भर वही दिखती रही मुझे...
- तो क्या हुआ?
- वह नाराज़ हो गई। बोली कि तुम्हारा मन नहीं करता। तुम मेरे साथ होते हुए भी साथ नहीं होते....
- तो ज़ाहिर न होने दिया कर कि कुछ और सोच रहा है।
अब वह मुझे नहीं सोचने की सलाह नहीं देती थी।
- मैं नहीं कर पाता ऐसा। सब कहते हैं कि वह मेरी आँखों में बैठी हुई है। जब भी आँखें खोलता हूं तो वही दिखाई पड़ती है।
शील ने अपने हाथों से पकड़कर मेरा चेहरा ऊपर को घुमाया और आँखें देखकर हल्का सा मुस्कुराई।
- सच कहते हैं सब। तू आँखें बदलवा ले।
- वह फिर मेरे माथे पर बैठ जाएगी.. कहीं और दिखने लगेगी।
- तो छिपाना सीख उसे।
- तुम तो कहती थी कि कोई और आएगी तो आसानी से भूल जाऊंगा उसे।
- सब तो भूल जाते हैं इस तरीके से...
कहकर उसने गहरी साँस ली।
- मैं सोता हूं, तब हर सपने में भी वही दिखती है शील। मुस्कुराती हुई मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती है, जैसे कभी गई ही न हो और मैं चौंककर जग जाता हूं और सुबह तक पड़ा पड़ा कुछ भी बड़बड़ाता रहता हूं....
- रात को रूठ गई निहाँ?
मेरे दिमाग में निहाँ की वही छवि फिर से घूम गई।
- आज उसे पिक्चर दिखाने भी ले गया, लेकिन और नाराज़ कर दिया उसे। जाने क्यों....मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था आज।
- मान जाएगी...
मुझे लगा कि उसने फिर कपड़ों से अनुमान लगाया है।
- मुझे नहीं मनाना। भाड़ में जाए निहाँ। मैं किसी और से प्यार कर ही नहीं सकता अब...
- भूल जा उसे रिश।
उसने न चाहते हुए भी वही पुरानी बात दोहराई। वह और कहती भी क्या?
- नहीं भूल पाता शील। तुम क्या सोचती हो कि मैं कोशिश नहीं करता? दिन भर काम में लगा रहता हूं कि एक पल की भी फुर्सत नहीं मिलती। रात को इतनी पीता हूं कि पैसे भी नहीं बचते, सुध भी नहीं रहती। लेकिन वो कम्बख़्त हर काम में याद रहती है और बेहोशी में भी.....। शील, वह डायन बनकर मुझसे चिपक गई है...
- प्यार भी करता है और डायन भी कहता है?
वह अपनी कोमल हथेलियों से मेरा बेचैन दिमाग सहलाकर मुझे सुकून देने की कोशिश करती रही। मैं उसकी गोद में पड़ा पड़ा बच्चों की तरह पैर जमीन पर पटक रहा था। उसने मुझे तड़पने दिया, जैसे वह हमेशा मुझे मेरे मन का सब कुछ करने देती थी।
फिर वह चाय बनाने चली गई। मैं सिगरेट फूंकने लगा। उसके कमरे की सफेद दीवारों पर धुआं जमने लगा। दीवारें फिर भी उजली ही रही।

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मैं....मैं, जो उस शाम पीतमपुरा के उजले कमरे में शील के आँचल को पकड़कर रो रहा था, अगली सुबह बहुत खुश था। निहाँ पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेटी थी। मैं मंत्रमुग्ध सा होकर उसे देख रहा था। आले में भगवान शिव की एक मूर्ति रखी थी, जिसकी बगल में रखी माचिस अगरबत्ती जलाने के लिए लाई गई थी और अब मेरी सिगरेट के काम ही आती थी। उस मूर्ति को मैंने पर्दा खिसकाकर ढक दिया।
निहाँ अपने नाम के बिल्कुल उलट थी। निहाँ का अर्थ है गुप्त, छिपा हुआ और मुझे नहीं लग रहा था कि कहीं कुछ छिपा हुआ था।
मैं बहुत खुश था।
- तुम वे पकाऊ फ़िल्में मत दिखाया करो रिश।
उसने अपनी मादक आवाज़ में रुक-रुककर वाक्य पूरा किया।
मैं उसे देखता रहा। सुबह से मैंने एक भी सिगरेट नहीं पी थी और न ही पीने का मन कर रहा था।
- और आज परसों की तरह कहीं खो मत जाना....
उसने हिदायतें पूरी की। मैं बिस्तर पर बिछ गया।
हम दोनों इतने करीब थे कि एक-दूसरे की साँसें अपनी साँसें समझ कर पी रहे थे। मुझे केवल उसकी आँखें ही दिखाई दे रही थी। उसे शायद मेरी पुतलियों में बैठी किसी और की छवि दिखाई दी हो। उसने आँखें बन्द कर लीं।
उस भरे-पूरे कमरे में, जिसमें मेरे कम से कम आठ जोड़ी कपड़े तह हुए लोहे की अलमारी में रखे थे, उसी कमरे में उसने मुझे पानी की तरह निर्वस्त्र कर दिया। मुझे लगा कि उसके शरीर पर तो कभी कोई आवरण था ही नहीं। वह जब भी याद आती थी, कपड़े कहाँ होते थे?
- तुम कभी मुझ पर भी कविता लिखो रिश....
वह उसी नशीले ढंग से बोली। मेरे दिमाग में जाने क्या आई कि मैंने उसकी सुराही जैसी सुन्दर गर्दन पर अपने दाँत गड़ा दिए। वह वैसे ही चीख उठी, जैसे पिछले दिन सिनेमा हॉल में चीखी थी। मैं उसे छोड़कर निढाल सा होकर एक तरफ पड़ गया।
उसकी गर्दन पर माँस उखड़ आया था और खून निकलने लगा था। उसने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर मारा और बाथरूम में चली गई। मैं हिला तक नहीं। मैं उस सामान से भरे हुए कमरे में नंगा होकर ऐसे लेटा रहा, जैसे सृष्टि का सारा नंगापन मुझे ही बयान करना हो।

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शील मेरी मौसी की बेटी थी। वह चौदह साल की उम्र में अकेली घर से भाग गई थी। पूरे परिवार में मैं ही था, जिसे उसने बताया था कि वह कहाँ है। बाकी किसी को कभी उसके होने या न होने की खबर नहीं मिली। उसने दिल्ली में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की और नौकरी करने लगी। एक फ्लैट किराए पर लेकर अब अकेली उसमें रहती थी।
उसने कभी नहीं बताया कि उसने घर क्यों छोड़ा। मेरी जानकारी में वह न किसी से प्रेम करती थी और न ही उसके मिलने-जुलने वालों में ज्यादा लोग थे। मैं ही था, जो वक़्त-बेवक़्त उसकी गोद में जाकर पड़ जाता था। कभी-कभी मैं सोचता था कि ऐसी ज़िन्दगी तो वह घर रहकर भी जी सकती थी। लेकिन शील सबसे अलग थी।
दिल्ली की भीड़ में मेरे लिए तो वह सब कुछ ही थी- माँ भी और सहेली भी। मेरी उलझी हुई कविताएँ उसके कानों में पहुँचती थी तो जैसे सुलझ जाती थी। मेरी बहुत सी कविताओं के मायने उसने मुझे समझाए।
उस शाम, जिसकी सुबह मैं बहुत खुश था, मैं शील को ज़िद करके अपने साथ निहाँ के घर ले गया। मैं जानता था कि मैंने बात को इतना बिगाड़ दिया है कि अकेला नहीं संभाल पाऊँगा। लेकिन उस शाम शील भी नहीं सँभाल पाई। मेरी एक और प्रेम-कहानी ख़त्म हो गई। मैं पीतमपुरा के उस साफ-सुथरे उजले कमरे में फिर रोता रहा, शराब पीता रहा और उसके कमरे में राख फैलाता रहा।
हर महीने-दो महीने में यही सिलसिला दोहराया जाता था। लड़कियाँ बदल जाती थीं, लेकिन मैं हर बार मिताली को याद करके रात भर रोता रहता था। सब कहते थे कि वह मेरी आँखों में ही बैठी हुई है। एक दिन मैं बाज़ार जाकर सात-आठ काले चश्मे खरीद लाया था, जिससे किसी को मेरी आँखों में वह ना दिखाई दे। लेकिन अजित ने एक दिन कहा था कि उसने मेरे चश्मे में किसी लड़की की परछाई देखी। उस दोपहर मैंने सब काले चश्मे भी तोड़कर फेंक दिए थे।
मैं वैसी हर रात शील के कमरे की दीवारों पर बुझी हुई सिगरेटों की कालिख से या उसके ड्रैसिंग टेबल की दराज में से काजल निकालकर ‘मिताली’ लिखता रहता था और अगली सुबह जब मैं उठता तो मेरी सिर उसकी गोद में ही होता था और वह सामने रखे लैपटॉप पर कुछ काम कर रही होती थी। सब दीवारें फिर वैसी ही सफेद होती थी और बहुत बार तो मुझे लगता था कि मैंने सपने में ही उन पर मिताली लिखा था।
शील कभी उदास नहीं होती थी। कम से कम मेरे सामने तो कभी नहीं। और मैं था कि अक्सर उसे अपनी उदासी सुनाता रहता था। कई दफ़ा मेरी उदास कविताएँ वह रात भर सुनती रहती और अपना स्नेह भरा हाथ मेरे माथे पर रखे रहती। जब मैं बोलता था तो वह बहुत कम बोलती थी और जब मैं चुप रहता था तो कभी-कभी उसमें वही चौदह साल की लड़की की मासूमियत लौट आती थी। मैं दिन भर उसके फ्लैट में बैठा रहता और वह दौड़-दौड़कर उसका एक एक कोना साफ करती रहती, सजाती रहती। फिर शाम को आइसक्रीम खाने की ज़िद करने लगती और मेरे पैसों से आइसक्रीम खाकर ही मानती। गर्मियों की किसी दोपहर उस पर फ़िल्म देखने का भूत सवार हो जाता तो वह मेरे कमरे से जबरदस्ती खींचकर मुझे ‘प्रिया’ तक ले जाती।
उसकी पसंद की हर चीज नियत थी। प्रिया में फ़िल्म देखती थी, इंडिया गेट पर पिकनिक मनाती थी, सरोजिनी नगर से शॉपिंग करती थी, बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खाती थी, नई सड़क की मिश्राजी वाली दुकान से किताबें खरीदती थी, ज्ञानी की हट्टी की आइसक्रीम खाती थी और किसी इतवार की शाम अचानक मुझे बुलाकर ले जाती और अपनी बिल्डिंग की छत पर जोर-जोर से रोती थी। मैं उसे देखता रहता।
एक दिन उसने कहा था - मैं तुम्हें इसलिए लाती हूं ताकि रोते-रोते कभी ऊपर से कूदने लगूं तो तुम मुझे थाम सको।
लेकिन शील कभी उदास नहीं होती थी। पन्द्रह मिनट के उस मर्मभेदी विलाप के बाद सीढ़ियों से उतरते हुए वह किसी नई फ़िल्म की चर्चा कर रही होती थी या मेरी नई गर्लफ्रैंड के किस्से चटखारे लेकर सुन रही होती थी। छत पर बिखरे हुए उसके आँसू ठगे से हमें उतरते हुए देखते रहते।
मैं भी मिताली से मिलने से पहले इतना उदास नहीं था।
मिताली वह थी, जिसकी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए मैं अपने कस्बे से सब कुछ छोड़-छाड़कर दिल्ली आ गया था। कई घंटे दिल्ली की सड़कों पर निरर्थक घूमने के बाद मैं शील के पास ही पहुँचा था। उसने मेरी आवाज़ सुनकर इतनी व्यग्रता से दरवाज़ा खोला जैसे वह वक़्त को रोककर मेरे पहुँचने से पहले ही मेरी प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़ी हो जाना चाहती हो।
कई दिन तक मैं उसके फ्लैट पर ही रहा। वह भी छुट्टी लेकर घर पर बैठ गई थी और दिन भर मेरी उसी कहानी को बार-बार सुनती रहती थी। प्रेम के विफल होने के बहुत दिनों बाद तक व्यक्ति बहुत नीरस कहानियाँ सुनाता रहता है और भविष्य की निराशाजनक संभावनाएं तलाशकर उन्हें बार-बार दोहराता रहता है। उन किस्सों को दोहराने की मेरी आवृत्ति हालांकि समय के साथ कम होती रही, लेकिन शील ने भी कभी एक क्षण के लिए भी मुझे सुनने से मना नहीं किया।
हाँ, मिताली ने शायद मुझ पर कोई टोटका कर रखा था। वह मेरी हल्की नीली आँखों में वैसे ही बैठी रही।
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कभी वह साइकिल चलाती और मैं पीछे बैठता था और कभी मैं साइकिल चलाता था और वह मेरे साथ साथ दौड़ती थी।
मैं साइकिल चला रहा था तो वह पंक्चर हो गई। मैं समझ नहीं पाया और उसे खींचने का यत्न करता रहा। पिछला टायर भी निरीह होकर घिसटता रहा। मेरी साँस फूलने लगी तो वह रुक गई और साइकिल का हैंडल पकड़कर मुझे भी रोक दिया। मैं गिरते-गिरते बचा।
- पंक्चर हो गई है....
अब मैं साइकिल से उतरा और खड़ा हो गया। वह साइकिल के आगे से घूमकर मेरी तरफ आई और मेरे हाथ से साइकिल ले ली।
मैंने प्रस्ताव रखा - इसे यहीं छोड़ देते हैं।
मेरी उम्र सात साल थी। वह मुझसे डेढ़-दो साल बड़ी रही होगी।
- पागल हो गया क्या? मैं ले चलती हूं खींचकर।
वह साइकिल लेकर आगे आगे चली। मैं उसका अनुसरण करता रहा। जेठ का महीना था। पाँच बजे होंगे, लेकिन गर्मी बहुत थी। उस धूल भरी पगडंडी पर थोड़ी दूर चलते ही हम दोनों पसीने में भीग गए। पास ही एक ट्यूबवैल दिखी।
मैंने दूसरा प्रस्ताव रखा- यहाँ बैठ जाते हैं।
इस बार वह मान गई। उसने धीरे से साइकिल को ज़मीन पर लिटा दिया और मुझे रास्ता दिखाती हुई ट्यूबवैल की ओर बढ़ी।
एक छोटी सी डिग्गी बनी हुई थी। उसमें पानी लगातार गिरने से शोर भी बहुत हो रहा था और बहते हुए पानी की गति भी बहुत थी। हम दोनों डिग्गी की मुंडेर पर आमने सामने बैठ गए और हमने उस बहते पानी में पैर लटका लिए। हम जामुन की छाँव में थे। बार बार हरे, काले और लाल जामुन हमारे बीच के पानी में गिरते थे और पानी के तेज प्रवाह के साथ ईख के खेतों में चले जाते थे। मेरी आँखें मछली बनकर उनके साथ-साथ कुछ दूर तक तैरती थी और फिर वापस डिग्गी में लौटकर नया साथी ढूंढ़ लेती थी।
- तुझे खाने हैं जामुन?
उसने अचानक पूछ लिया। मैं कुछ बोला नहीं, लेकिन मेरी आँखें चमक उठीं। वह मछलियों की बोली जानती थी। पल भर में उठी और उस पेड़ पर चढ़ गई। वह चुन-चुनकर जामुन तोड़कर फेंकती रही और मैं खाता रहा। मैं छक गया तो वह उतर आई।
- तू नहीं खाएगी?
- नहीं, मेरा पेट भर गया।
- तूने तो खाए ही नहीं...
- नहीं, अब भूख नहीं है।
वह हँस दी और फिर मेरे सामने पानी में पैर लटकाकर बैठ गई।
- तेरा चिड़िया बनने का मन नहीं करता?
- करता है...
- मेरा भी करता है पर डर लगता है कि चिड़िया बनकर दूर उड़ गई तो वापस कैसे आऊंगी?
- मैं ले आऊंगा तुझे।
मैंने कल्पना में पंख, घोंसला और आकाश बुन लिए थे।
- चल, चलते हैं।
वह मुझे धरती पर ले आई।
- रिश, तुझे पता है....किसी को कोई अच्छा लगने लगता है तो वह उसके साथ घर से भागकर कहीं दूर चला जाता है....चिड़िया की तरह...
वह उठकर चल दी थी। मैं आधी बात समझ पाया था और आधी नहीं। हैरान सा मैं भी गीले पैरों को धूल से बचाने का असफल प्रयास करते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिया।
- अच्छे कैसे लगते हैं?
मैंने पूछ ही लिया। इस पर वह मुड़कर रहस्यमयी तरीके से मुस्कुराई। वह उसी मुस्कान पर रुकना चाहती थी, लेकिन कच्ची उम्र के कारण थम नहीं पाई और हँसी फूट पड़ी।
- जैसे तेरी मम्मी को तेरे पापा अच्छे लगते हैं।
- पापा को मम्मी अच्छी नहीं लगती?
- लगती है बाबा....
वह फिर झूलती हुई सी चल दी।
- और मेरी मम्मी को तेरे पापा?
मैंने अगला प्रश्न पूछ लिया।
- छि, ऐसा नहीं कहते।
उसने पलटकर मुझे आँखें दिखाई। मैं कुछ क्षण चुप रहा। उस दौरान उसने लेटी हुई साइकिल को उठाकर खड़ा किया और हम साइकिल के साथ उसी धूल भरी पगडंडी पर फिर चलने लगे।
- तो फिर मम्मी पापा दूर क्यों नहीं गए?
- पता नहीं....
- क्या पता....हम दूर में ही रहते हों।
- हाँ, यह हो सकता है।
- तुझे दीदी कहा करूं?
- क्यों?
- मम्मी कहती है। डाँटती है।
- नहीं, कोई जरूरत नहीं है। शील ही कहा कर।
- ठीक है।
- तू भी मुझे बहुत अच्छा लगता है रिश।
मुझे लगा कि जामुनों के भीतर से लाली निकलकर मेरे गालों पर आ गई थी। मैं कुछ नहीं बोला।
- जो हम चिड़िया होते तो दूर से भी दूर चले जाते – वह बोलती रही – चलता तब तू?
मैंने हाँ में गर्दन हिला दी और हँसने लगा। वह भी हँसने लगी। सब हँसने लगे।
कुछ साल बाद चिड़िया अकेली उड़ गई। मैं गर्मी की वह शाम भूल गया।


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- अच्छा है कि तुमने कभी प्यार नहीं किया शील।
मैं उसकी बिल्डिंग की छत पर लेटकर सिगरेट फूंक रहा था। वह इधर-उधर घूम रही थी। वह कुछ नहीं बोली, घूमती रही।
- मुझे रोज लगता है कि मैं मिताली के बिना मर जाऊंगा और मरता भी नहीं....। वो हर पल मेरे साथ रहती है, मारती रहती है।
वह घूमती रही। तेज हवा से उसके बाल बार-बार उड़कर चेहरे पर आ जाते थे और वह दूसरी दिशा में मुड़ती थी, तो अपने आप ही हट जाते थे।
- प्यार में कुछ लोग तेरी तरह मुखर हो जाते हैं रिश....और कुछ मौन।
उस दिन इतवार था। वह मुझे अपनी बिल्डिंग की छत पर ले आई थी, लेकिन अब तक रोई नहीं थी। आकाश में कुछ घटाएँ छाई हुई थी। समय से पहले ही अँधेरा होने लगा था।
- मैं साला आज भी नहीं समझ पाता कि मिताली गई क्यों....
मैंने आधी सिगरेट जोर से जमीन पर मसल कर बुझा दी और बेचैन होकर बैठ गया।
- मिताली, मिताली, मिताली.........पागल हो जाऊंगी मैं सुन-सुनकर....
वह चिल्लाई। वह ऐसे चिल्लाई, जैसे किसी ने कुछ न कहा हो। उसके चिल्लाते ही इस तरह सन्नाटा हो गया, जैसे वह पहले से वहीं था। मैं उसकी इस प्रतिक्रिया पर कुछ देर भौचक्का सा होकर उसे देखता रहा। वह टहलती हुई रुक गई थी और अब उसकी आँखें चिल्ला रही थी। मेरी आँखें इतना शोर नहीं सुन पाईं। मैं आँखें बन्द करके लेट गया।
देर हो रही थी, लेकिन अँधेरा कम होने लगा था। घटाएँ छँटने लगी थी। पक्षियों के जो झुण्ड अपने घर लौट रहे थे, उस छत पर बैठकर शोर और खामोशी सुनने लगे थे। लेकिन वह ज्यादा देर तक वैसी नहीं रही।
वह मेरे पास आकर बैठ गई और मेरा सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया। मैंने आँखें खोलीं तो पक्षी जा चुके थे, अँधेरा फिर बढ़ने लगा था और बादल फिर छाने लगे थे।
- सॉरी रिश, न जाने क्या बोल दिया मैंने।
शील मुस्कुराकर पहले वाली शील ही बन गई थी। मैं चुप रहा। उसे पहचानने का यत्न करता रहा, खोजता रहा कि कौनसी शील सच्ची थी।
वह इतवार की शाम थी, लेकिन वह रोई नहीं। उसके आँसुओं को सोमवार के आने का इंतज़ार करना पड़ा।

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वह रात ऐसी थी, जैसी दूसरी कोई नहीं बनी थी। उस रात सड़क पर कुत्ते नहीं भौंक रहे थे। उस रात कभी अँधेरा हो जाता था और कभी उजाला। सूरजमुखी के फूल भी खिले थे और रात की रानी भी। असल में दिल्ली के बीचों बीच एक सफेद रेखा खिंची हुई थी, जिस पर कई मील चौड़ा और कई मील ऊँचा दर्पण रखा था। दर्पण के उत्तर में हम थे और दक्षिण में प्रतिबिम्ब या यह होगा कि दक्षिण में वास्तविकता होगी और उत्तर में हम प्रतिबिम्ब!
उधर दिन था, इधर रात थी और दोनों मिले-जुले लग रहे थे। इधर का कोयला उधर हीरा दिखाई दे रहा था और उधर का सोना इधर काली मिट्टी बनकर चमक रहा था। इधर कोई रोता था तो उधर ठहाके सुनाई पड़ते थे और बीच-बीच में सब कुछ एक ही हो जाता था। उस रात दिल्ली में काले-सफेद, सुन्दर-असुन्दर, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक को पहचानना असंभव था और कोई इन कसौटियों से किसी निष्कर्ष पर पहुँचता तो यकीनन गलत होता।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे जानते होंगे कि भारत की पहली ट्रेन मुम्बई से थाणे के बीच नहीं चली थी।
दुनिया की पहली रेलगाड़ी उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे बुढ़ाना और दिल्ली के बीच चली थी। उसका ज़िक्र किताबों में नहीं किया गया, इसके पीछे वही उत्तरदायी रहे होंगे, जिन्होंने उस रात भी दिल्ली में काले और सफेद को अलग-अलग करने की चेष्टा की थी।
उस रेलगाड़ी में ड्राइवर नहीं था। बुढ़ाना से एक चौदह साल की लड़की सदियों पहले उसमें दिल्ली आने के लिए चढ़ी थी और उसके दिल्ली में उतरते ही रेलगाड़ी भी गायब हो गई और उसका ज़िक्र भी। उसे इतनी प्यास लगी थी कि वह यमुना को पूरा पी गई, लेकिन उसकी प्यास नहीं बुझी। दिल्ली में त्राहि-त्राहि मच गई। राजा ने उसे ढूंढ़कर लाने का आदेश दिया। वह अकेली लड़की सदियों तक दिल्ली की तंग-परेशान-हैरान गलियों में भटकती रही और आखिरकार एक ऊँची इमारत की तीसरी मंजिल पर एक फ्लैट में आकर छिप गई। वह साँस भी नहीं लेती थी कि कोई कहीं सुन न ले। वह आह भी नहीं भरती थी कि कहीं किसी को उसकी तकलीफ़ देखकर शक न हो जाए। वह हँसती रहती थी क्योंकि दिल्ली में रोना अपराध था।
और उस दर्पण वाली रात, जब उधर एक लड़की सर्दी से ठिठुर रही थी तो शील गर्मी से बावली होने लगी। उधर की लड़की जब प्यार के ढेरों कम्बल ओढ़ रही थी, शील ने सब आवरण उतार फेंके। मैं उसके उसी कमरे में सो रहा था, जब वह मेरे ऊपर आ गिरी। शीशे में जो प्रतिबिम्ब दिख रहा था, उसमें लड़की ऊपर आकाश की ओर उठती जा रही थी। वह मुझे बेतहाशा चूम रही थी। शीशे वाली लड़की के होठों से फूल झड़ रहे थे।
मुझे नहीं मालूम कि मैं कितनी देर बाद जगा और शीशे वाली लड़की तब तक कितना ऊपर उठ चुकी थी, लेकिन इतना याद है कि आँख खुलते ही मैं चौंक गया और मैंने शील को धकेलकर ज़मीन पर फेंक दिया।
वह बहुत मासूम थी, भोली थी, निर्मल थी – शीशे के उधर भी और इधर भी।
अपने सच की दुनिया में मैंने उसे झटककर दूर फेंक दिया था और वह नीचे गिरी पड़ी थी। लेकिन मुझे याद है कि शीशे के उस पार शील देवी बन गई थी और उसकी पूजा की जा रही थी। पता नहीं, वह वर्तमान था, अतीत था अथवा भविष्य....कुछ था भी या नहीं....लेकिन वह दर्पण अगले ही क्षण टूट गया और श्रीकृष्ण की सूखी यमुना में जा गिरा।
शील अगले चौबीस घंटों में इतना रोई कि यमुना फिर से भर गई। जिन्होंने उस रात नैतिक और अनैतिक में भेद किया, उन सब को मरने के बाद कठोरतम नर्क मिला।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे इन बातों को बेहतर जानते होंगे। मैंने कभी इतिहास नहीं पढ़ा।
मैं रात के एक बजे आधे कपड़ों में उसके फ्लैट से निकल आया। वह पड़ी रही।
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और जैसे बीता हुआ समय लौट आता है, कमान से निकला हुआ तीर लौट आता है, जुबान से निकले हुए शब्द लौट आते हैं। वैसे ही एक दिन मिताली लौट आई।
उस दिन, जिस दिन मुझे पहली बार लगने लगा था कि वह अब कभी नहीं आएगी, वह लौट आई। इतने बड़े शहर में जैसे तैसे तलाश करके वह मेरे कमरे पर पहुँची थी।
दो साल में ही वह इतनी कमजोर हो गई थी, जितना कोई पूरी कोशिश करके भी कम से कम दस साल में हो पाता। उसके चेहरे पर स्थाई मायूसी सी छाई हुई थी, जो उसके स्वाभाविक गुलाबी रंग पर हावी हो गई थी। उसे देखकर मेरे मन में असीमित प्यार उमड़ना चाहिए था, लेकिन पहला भाव दया का आया।
वह, जो बिना कारण बताए मुझे छोड़ गई थी, मेरे दरवाजे पर खड़ी थी। मैंने न जाने का कारण पूछा था और न ही उस दिन लौट आने का कारण पूछा। वह इस तरह मेरे घर में आ गई, जैसे उसे मालूम हो कि इस पर सिर्फ़ उसका ही अधिकार है।
सिगरेट पीने से मेरे होठ काले पड़ने लगे थे, जिन्हें उसने कुछ क्षण के लिए गुलाबी कर दिया। मैं न रोया, न हँसा। कुल मिलाकर मैं उस समय को सहन नहीं कर पा रहा था। मैं उसे अपने कमरे में छोड़कर बाहर निकल गया और शाम तक इधर-उधर आवारा सा भटकता रहा। पिछले चार दिन से मैं शील के घर वाली घटना को सोचता हुआ अपने कमरे में ही पड़ा रहा था। शील रोज सुबह फ़ोन करती थी, लेकिन मैं काट देता था। मुझे लग रहा था कि मैं इतने तनाव के बीच पागल हो जाऊंगा, लेकिन पागल भी नहीं हो पाया था।
फिर भी मैं रात को कमरे पर लौटा तो बहुत खुश था। मिताली मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैं बहुत पीकर आया था और मुझे लग रहा था कि मैंने दुनिया की सब खुशियाँ पा ली हैं। दोपहर का सारा पागलपन और बेचैनी कहीं उड़ गए थे।
मैंने मौसी को फ़ोन कर दिया कि उनकी शील, जो वर्षों पहले खो गई थी, दिल्ली में है। वह लड़की, जो केवल मुझे बताकर दस साल पहले घर से भागी थी, मैंने उसके माँ बाप को उसका पता बता दिया।
मैं बहुत खुश था। वे भी बहुत खुश थे। मिताली भी खुश थी।
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- मैं तुमसे प्यार करती हूं रिश।
एक प्लास्टिक की टूटी हुई सी गुड़िया, जिसके गाल पहले कभी गुलाबी हुआ करते थे, मेरे सामने बैठी थी।
- मैं भी तुमसे प्यार करता हूं।
मैंने जो वर्षों पहले कहा था और वर्षों तक कहता रहा था, वह अपने में ‘भी’ जोड़कर कमरे में गूँज रहा था।
- हम शादी कर लेते हैं...
प्लास्टिक की गुड़िया मुस्कुराई।
- वो तो सब कर लेते हैं।
- हम इतना प्यार करेंगे कि सब पुरानी बातें भूल जाएँगे।
- सब भूल जाते हैं।
- मैं जानती थी कि तुम मेरा इंतज़ार करते रहोगे रिश....
- तुम बहुत कुछ जानती हो......। भगवान हो?
वह हँस कर आगे को झुकी। मैं उठकर खड़ा हो गया।
- तुम्हारा यही पागलपन तुम्हारी खासियत है रिश।
मैं हँसने लगा। इतना हँसा कि वह घबरा गई। फिर मैं खामोश हो गया। वह उसी तरह की बातें बोलती रही। मैं अपने कमरे में वे काले चश्मे ढूंढ़ता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरी आँखों पर मेरा नियंत्रण नहीं है। लेकिन चश्मे तो तोड़ दिए गए थे, वे नहीं मिले।
- बरसों से तुम्हारी कविताएँ नहीं सुनीं। आज रात भर सुनना चाहती हूं....
मैं उसे घंटों तक औरों की कविताएं सुनाता रहा। अपनी एक भी कविता सुनाने का मन नहीं किया। मुझे लगा कि वे उसके कानों में पड़ी तो मैली हो जाएँगी। कविता सुनते सुनते वह भावुक हो गई। मैं नहीं हुआ। फिर उसने मुझे चुप करवा दिया।
हम दोनों बिस्तर पर बिछ गए।
कुछ मिनट बाद वह मेरी आँखों में देखकर डर से चीख उठी और मुझे उसी तरह अपने ऊपर से धकेल दिया, जिस तरह मैंने शील को गिराया था। वह काँप रही थी।
- तुम्हारी आँखों में कोई लड़की है....
मैं गिरता-पड़ता उठा और सामने दीवार पर लगे शीशे के सामने जाकर खड़ा हो गया। मेरी मौसेरी बहन मेरी आँखों में थी। मैं खुद को बर्दाश्त नहीं कर पाया और कमरे से निकलकर भाग लिया।
नहीं, यह गलत है....
मैं भागता रहा....सुनसान सड़कों पर........कुछ पहचाने, कुछ अनजाने रास्तों पर.....
मैं अपने आप को दुनिया की सबसे गन्दी गालियाँ देता हुआ, चिल्लाता हुआ भागता रहा।
मेरे पीछे भी कोई नहीं भाग रहा था और मेरे आगे भी मुझ जैसा कोई नहीं था। मैं रात भर दौड़ता रहा। उन काले रास्तों पर मैं अकेला था।
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एक सुखांत!
अगली सुबह ऋषभ नाम का एक लड़का, जो रात भर दिल्ली की सड़कों पर दौड़ता रहा था, शील नामक एक लड़की के घर पहुँचा।
- तुम्हारे मम्मी-पापा पहुँचते ही होंगे।
वह सब समझ गई, जैसे पहले से ही जानती हो।
- मैं तुमसे प्यार करता हूँ....
इस बार दो लोग भागे। वे दोनों गहरी खाई में जा गिरे थे।
दर्पण में दिखाई दिया कि दो सुनहरे खूबसूरत पंछी उन्मुक्त होकर आसमान में उड़ रहे हैं।
उन दोनों ने दर्पण को सच समझा और बाकी सब ने खाई को.....

Thursday, April 3, 2008

दिव्या, तुम कहाँ हो?

दिव्या, तुम कहाँ हो?
सपना देख रहा हूं क्या? या सब कुछ मेरे सामने घट रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। न मैं पूरी तरह होश में हूं न बेहोशी में। मैं जागने और नींद के बीच इधर से उधर झूल रहा हूं। हिचकोले खा रहा हूं। सरकस के एक्रोबैट्स की तरह। ऊपर से हवा में लटके एक तरफ के डण्डे से झूलते हुए दूसरी तरफ के डण्डे को थाम लेना। इधर होता हूं तो सब कुछ साफ होता है। रोशनी, कमरा... बिस्तर पर लेटा हुआ मैं, लेकिन उधर की तरफ का डण्डा थामते ही जैसे नींद की गहरी अंधेरी सुंग में उतर जाता हूं। सब कुछ गायब हो जाता है। एकदम अंधेरा। सन्नाटा। कई बार खुद को बीच अधर में पाता हूं। कुछ भी थामे बिना। रोशनी और अंधेरे की झिलमिल में वहां से तेजी से गिरने को होता हूं कि एकदम आंख खुल जाती है। थोड़ी देर बाद फिर वही कलाबाजियां। पता नहीं कितनी देर से चल रहा है यह सब। नींद की लहरों पर डूबना-उतराना।
तेज प्यास लगी है। आसपास देखता हूं। कोई भी नहीं है। किसी को पुकारना चाहता हूं। आवाज ही नहीं निकलती। कौन-सी जगह है यह? यह मेरा कमरा तो नहीं? हवा में दवाओं की गंध है। यानी अस्पताल में हूं। यहां कैसे आ गया मैं? क्या हुआ है मुझे? याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालता हूं। दर्द की एक तेज लहर से माथे की नसें तड़कने लगती हैं। याद आता है - आधी रात को सिर दर्द उठा था। भयंकर। जैसे पूरा कपाल भीतर तक खदबदा रहा हो। उलटी-सी भी आने को हो रही थी। पेनकिलर, बाम, नींद की गोलियां, सभी तो आजमाये थे। पता नहीं कितनी देर छटपटाता रहा था। दर्द की सुइयां और बारीक होती चली गयी थीं। अजीब तरीके से दिमाग चुनचुना रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। याद नहीं आ रहा, फिर क्या हुआ होगा? हो सकता है उठकर किसी पड़ोसी की जगाया हो, वही मुझे यहां छोड़ गया हो। अकेले तो नहीं आया होऊंगा। क्या कहा होगा डॉक्टर ने? इलाज शुरू हो गया क्या? कोई सीरियस बात होगी तभी तो अस्पताल में हूं। सिर अभी भी भारी लग रहा है। ऊपर से यह नींद आने उचटने की हालत।
उठकर बैठने की कोशिश करता हूं। दर्द की एक धारदार छुरी पूरे कपाल को चीरती चली जाती है। फिर लेट जाता हूँ। साइड टेबल की तरफ निगाह जाती है। ढेर सारी दवाएंं। मेडिकल रिपोर्ट। तो इसका मतलब... इलाज शुरू हो चुका है। टेस्ट भी हो चुके। कब से हूं यहाँ? दर्द तो... याद नहीं आता... कब उठा था...। आज कितनी तारीख है? कैलेण्डर तो सामने लगा है। सितम्बर 1992। लेकिन इसमें दिखाई दे रही तीस तारीखों में से आज कौन-सी है? उस दिन कौन-सी तारीख थी... नहीं याद आता। आंखें बंद कर लेता हूं। क्या हुआ है मुझे? कहीं... कोई... खतरनाक...बी... मा... री...। मेडिकल रिपोर्ट तो यहीं रखी है। देखूँ, क्या कहती है। फाइल उठाता हूं। कई रिपोर्टें हैं इसमें तो। इसका मतलब कई टेस्ट हुए हैं। हर रिपोर्ट के नीचे लाल स्याही में टाइप की हुई इबारतें पढ़ने की कोशिश करता हूं।
ओह गॉड! यह... क्या... हो... गया...। फाइल मेरे हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी है। निढाल-सा पड़ गया हूं। सांस सकदम तेज हो गयी है। जैसे मीलों दौड़कर आया हूं। गले में कांटे उग आये हैं। पानी रखा है, पर उठकर पीने को हिम्मत नहीं है। पथराई आंखों से खिड़की के बाहर का अंधेरा देखता हूं। यह अंधेरा धीरे-धीरे कमरे के भीतर आ रहा है। मेरे चारों तरफ इस अंधेरे ने एक घेरा बना लिया है। अब यह मेरे भीतर उतरेगा और फिर... सब कुछ... खत्म...।
मैं... मुझे... मुझे... ब्रेन ट्यूमर हो गया है। कैंसर के जीवाणु लिये। कोई इलाज नहीं। निश्चित मौत। छ: महीने से दो साल के बीच। कभी भी। जब आखिरी बाद दर्द उठेगा तो चौबीस घंटे की मोहलत भी नहीं मिलेगी। उससे पहले कष्टदायक बीमारी झेलते हुए जीना। खर्चीला इलाज... ऑपरेशन... तकलीफ... तकलीफ... तकलीफ... इलाज से मौत थोड़ा पीछे खिसक सकती है। टलेगी नहीं। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है... अरे कोई है... मुझे बचाओ... किसी को बुलाने के लिए आवाज देना चाहता हूं। आवाज ही नहीं गले में... पानी... पा... नी... कोई है... पानी।
तो... ? खत्म हो गया मैं। सिर्फ़ चौंतीस साल की उम्र... आधी... अधूरी ज़िंदगी... सब कुछ यहीं छूट जायेगा। पैक अप कर लूं? खाली हाथ जाने के लिए पैक अप! यह घर-बार... दिव्या, मां-पिताजी, भाई-बहन, ऑफिस, सुख-दुख, दोस्त, खुशियां सब यहीं... रह जायेंगे... । सब कुछ चलता रहेगा। मैं ही नहीं रहूंगा। कहीं मज़ाक तो नहीं है? डॉक्टरों ने मुझे डराने के लिए, मुझसे पैसा ऐंठने के लिए यह सब लिख दिया हो। आजकल खूब चल रहा है इस लाइन में। कब हुए थे सब टेस्ट? मुझे होश में क्यों नही लाया गया? मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?
दिमाग सुन्न हो रहा है। एकदम अंधेरा। बाहर-भीतर, दोनों जगह। मुझे मरना होगा... उससे पहले तिल-तिल कर जीना। हर सांस अनिश्चित। मेरी रुलाई फूट पड़ी है। मैंने क्या कसूर किया था, अधबीच ऊपर बुला लिया जाऊंगा। वह भी इतनी घातक बीमारी से? दिव्या, तुम कहां हो? देखो मैं कितना लाचार पड़ा हूं यहां। अपनी मौत का परवाना लिये! अपना ख्याल रखना दिव्या! ओ मेरी मां, मुझे बचाओ। मैं इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता। बहुत डर लग रहा है मां, मैं क्या करूं।
एक चीख निकलती है, लेकिन उसकी आवाज भीतर ही भीतर घुटी रह गई है। किसी तरह उठ कर पानी पीता हूं। थकान होने लगी है। फिर लेटता हूं। कौन है यहाँ? यह कैसा अस्पताल है? कोई पूछने क्यों नहीं आता? इतने सीरियस मरीज को भी ये लोग अकेला छोड़ देते हैं। मुझे अभी कुछ हो जाये तो? सिर में अभी भी करेंट उठ रहे हैं। कया करूं? पता तो चले कौन लाया मुझे? डॉक्टर कया कहते हैं? दवाएं? इलाज? क्या यहां इलाज हो पायेगा? या मुम्बई जाना होगा? वहां बेहतर सुविधाएं हैं? मौत को पीछे सरकाने की। अमेरिका में और बेहतर हैं। लेकिन पैसे?
पता नहीं ऑफिस वालों को खबर है या नहीं? अस्पताल का खर्च कौन देगा? दवाएं, ऑपरेशन? कहां से करूंगा इतना इंतज़ाम? पता नहीं कितनी तारीख है? घर पर तो दो-चार सौ भी नहीं होंगे। बैंक में जितने पैसे थे, दिव्या पहले ही ले जा चुकी है। कोई एडवांस बाकी नहीं है। कौन करेगा देखभाल मेरी। उधर दिव्या एक नये प्राणी के स्वागत में व्यस्त है और इधर मैं अपनी बची-खुची ज़िंदगी का लेखा-जोखा तैयार कर रहा हूं। वह तो पता चलते ही रो-रो कर जान दे देगी। मेरे बच्चे का आना और मेरा जाना। कैसा अभागा जन्मेगा! कहीं मैं ही तो अपने बच्चे का रूप धर कर नहीं लौट रहा! सोच... सोचकर कलेजा मुंह को आ रहा है।
कभी सोचा भी नहीं था, अपनी मौत को खबर बरस-दो बरस पहले मिल जायेगी मुझे। और फिर मरने के पल तक लगातार इस अहसास को जीते रहना - कोई भी पल मेरे लिए आखिरी हो सकता है। वैसे तो मौत किसी को भी कभी भी आ सकती है, रोज सैकड़ों-हजारों दुर्घटनाओं में, भूकंप से, दंगों, लड़ाइयों में मरते ही हैं, लेकिन वह मौत तो एकदम अचानक होती है। पल भर पहले भी पता नहीं होता, पिछली सांस, पिछला बोला गया संवाद, मिलाया गया हाथ, लिया गया चुम्बन आखिरी था। अगली सांस गायब। बल्ब फ्जूज हो जाने की तरह। एकदम अंधेरा। मेरे साथ भी वही होता। मरने से पहले की यह पीड़ा, ये चिंताएं तो न होतीं। एकदम मुक्त हो जाता। जो जहां है, जैसा है, वैसा ही छोड़कर। लेकिन मुझे तो खराब चोक वाली ट्यूब लाइट की तरह न जाने कब तक भक...भक... जलना-बुझना है। सबकी आंखों में चुभते हुए। मरना सिर्फ मुझे होगा, लेकिन झेलना सबको पड़ेगा।
आंखें बंद करता हूं। अपनी मौत को हर वक्त पास आते महसूस कर रहा हूं। क़ॉरीडोर में उसके कदमों की आहट आ रही है। दरवाजे पर आकर ठिठक गयी है। नॉक किया है उसने। मैं दम साधे पड़ा हूं। उसकी आवाज न सुनने का नाटक करता हूं। मौत मुस्कुराती है-घबरा रहे हो? पहले से पता हो तो सबके साथ ऐसा ही होता है। चलो। थोड़ा और जी लो। लेकिन ज्यादा नहीं। मैं यहीं बाहर इंतज़ार कर रही हूं।
देख रहा हूं - सब लगे हैं मेरी सेवा में। खुद को और मुझे झूठी तसल्ली देते हुए। मेरे सामने कोई नहीं रोता। सब आंसू पोंछकर आते हैं। जबरदस्ती रुलाई रोके हुए। लेकिन मेरे सामने से जाते ही इतनी देर से रोकी गयी रुलाई और नहीं रोक पाते। संवाद खत्म हो गये हैं। हर आदमी सूनी-सूनी आंखों से मेरी तरफ बैठा देखता रहता है। फिर हाथ दबाकर, सिर पर हाथ फेर कर चला जाता है। हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह `सब ठीक हो जाएगा' का मंत्र दोहराता हुआ। सब परिचितों की दिनचर्या में एक और काम जुड़ जायेगा। मुझे देखने आना। मुझे और मेरे परिवार को लगातार याद दिलाया जायेगा कि मैं बस चंद दिनों का मेहमान हूं। यह अवधि जितनी कम होती चली जायेगी, सबकी चिंता का ग्राफ ऊपर उठता रहेगा। इतना ऊपर कि एक दिन मैं ही उस ग्राफ की सीमा से बाहर निकल जाऊंगा।
मेरी सांस फिर फूल गयी है। क्या है यह सब? कोई है क्यों नहीं मेरे पास? किसे बुलाऊं? किसका हाथ थामूं? दिव्या? कब आओगी दिव्या? लेकिन वह तो मायके में है? नन्हें-नन्हें स्वेटर, मोजे बुन रही होगी! खूबसूरत सपनों में जी रही होगी। और मैं?
लेकिन मुझे इतना घबराना नहीं चाहिए। हो सकता है, इनीशियल स्टेज ही हो। या डॉक्टरों की गलती भी तो हो सकती है। फिर से टेस्ट कराये जा सकते हैं। इतनी जल्दी तो नहीं मरा जा रहा। अस्पताल में तो हूं ही। देखभाल हो ही रही होगी। घबराने से क्या होगा? आखिर ऊपर वाले से छीना-झपटी तो नहीं की जा सकती। हिस्से में होगा तो बेहतर इलाज से ठीक भी तो हो सकता हूं। मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। अभी तो मेरे पास वक्त है। इसे जीना चाहिए।
कौन था वह? हां, आनन्द फिल्म का नायक। राजेश खन्ना। उसे भी तो कोई ऐसा ही रोग था। कितना हंसता-हंसाता था। लेकिन वह तो एक्टिंग कर रहा था। जब मरने का वक्त आया तो कितना चिल्लाता था, `बचा लो मुझे। मैं मरना नहीं चाहता। ज़िंदगी के नाटक का अंतिम सीन करते-करते कितना रोता था। लेकिन वह भी तो एक्टिंग ही थी। यहां तो सचमुच का रोल है। जीवन्त मंच। जीवंत अभिनय। मैं अकेला पात्र, कोई संवाद नहीं। बस दम साधे पड़े रहो। एक पूरा नाटक समाप्त। इस अभिनय के लिए तालियां, आंसू, शाबाशी, रोना-धोना कुछ नहीं पहुंचेगा मुझ तक।
फीकी हंसी आती है। राजेश खन्ना को अगर सचमुच ब्रेन ट्यूमर हो जाये तो कर पायेगा आनन्द फिल्म की तरह हंसना-हंसाना। कहीं रोता-छटपटाता पड़ा रहेगा। कर पाऊंगा मैं भी उसी की तरह मौत का सामना! या बाकी सारा समय रोते-कलपते बीतेगा? अपनी ज़िंदगी का नायक बनकर जीना। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ... हम तो सिर्फ कठपुतलियां...।
खुद पर काबू पाने की कोशिश करता हूं। अभी तो नहीं मर रहा हूं। जब तक वक्त है मेरे पास, हाथ-पांव और दिमाग चलते हैं, चीजें व्यवस्थित कर लूं। अपनी अधूरी हसरतें पूरी कर लूं। जितना है जी लूं। यह सोचकर तनाव थोड़ा कम हो गया है। उठता हूं। पानी पीता हूं।
अभी भी याद नहीं आ रहा, यहां कैसे पहुंचा? कब आया अस्पताल! नर्स आयेगी तो पूछूंगा। सारे टेस्ट हो गये हैं या नहीं! मुझे पता क्यों नहीं चला। आंखें बंद कर लेता हूं। अब क्या फर्क पड़ता है। अस्पताल तो पहुंच ही गया हूं। सुबह कोई तो आयेगा। ऑफिस या कॉलोनी से। हो सकता है, किसी ने पता ढूंढ़कर दिव्या या पिताजी को भी खबर भेज दी हो।
किसी को तो बुलवाना ही होगा। डॉक्टर भी अकेले रहने की सलाह नहीं देंगे। दिव्या तो डिलीवरी के बाद ही आयेगी। उसका अभी आना ठीक नहीं होगा। उसे खुद देखभाल की ज़रूरत है। लेकिन एक बार पता चल जाये तो रुक पायेगी क्या... रो...रोकर बुरा हाल कर लेगी। कौन करेगा उसकी देखभाल यहां?
मेरी तो पुकार हो गयी। वह कैसे निभायेगी? छोटा बच्चा? अकेली कहां रहेगी? फ्लैट भी तो छोड़ना पड़ेगा। अपना मकान अभी अधूरा खड़ा है। पता नहीं कब पैसे होंगे और कब पूरा होगा। कब तक भागदौड़ करेगी बेचारी। कैसे कर पायेगी। किस-किस के आगे हाथ जोड़े जायेंगे? वैसे भी खुद्दार है, आसानी से उसके हाथ नहीं जुड़ते।
इलाज...ऑपरेशन... कहां से आयेगा खर्च। कहां कहां भटकना होगा दिमाग का यह रोग लिये? रोज़-रोज़ नयी दवाएं, टेस्ट... मोटे-मोटे मेडिकल बिल... लम्बी मेडिकल लीव... फिर हाफ पे... फिर विदआउट पे और आखिर में... एक्सपायर्ड... इस घर, परिवार, ऑफिस से, इस दुनिया से एक और आदमी चला जायेगा। बिना कुछ हासिल किये। कुछ दिन अल्बम में, लोगों की याद में बना रहूंगा। फिर धीरे-धीरे पूरी तरह भुला दिया जाऊंगा। कहां याद करते हैं हम अपने पूर्वजों को। अपने गुजरे साथियों को। एक आदमी से एक याद और उस याद के भी धुंधला जाने के दौर से मुझे भी गुजरना होगा। मेरा सब कुछ मेरे साथ खत्म हो जायेगा।
लेकिन इस तरह खत्म होने से पहले की ज़िंदगी मैं कैसे गुज़ारूंगा? अकेले तो कत्तई नहीं रह पाऊंगा। किसी को तो घर से बुलाना पड़ेगा। दौड़-धूप... डॉक्टरों, अस्पतालों के चक्कर। हो सकता है, डॉक्टर बंबई जाने के लिए कहें। किसे बुलाऊं। सुनील भाई साहब, परेश भाई साहब या फिर छोटा सुदीप। लेकिन जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। काम का हर्जा होगा। पता नहीं कितने दिन रहना पड़े। और फिर सभी को तो पचीसों तकलीफें हैं। सुनील भाई साहब खुद ढीले रहते हैं। आये दिन चारपाई पकड़े रहते हैं। परेश जी तो पैसों की तंगी की वजह से छुट़टी तक नहीं ले पाते। प्राइवेट नौकरी। जो भी आयेगा, मेरी इस महंगी बीमारी में न चाहते हुए भी उस पर बोझ पड़ेगा। न भी खर्च करने दूं मैं, बीसियों बार डॉक्टरों, कैमिस्टों के चक्कर लगेंगे। पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े।
पिताजी को बुलवाऊं। लेकिन कहां कर पायेंगे इतनी भागदौड़। बेशक पता चलते ही तुंत चल पड़ेंगे। इस उम्र में भी सबसे ज्यादा मददगार और सहारा देने वाले साबित होंगे। सब कुछ छोड़कर आ जायेंगे। मां की भी परवाह नहीं करेंगे, जो अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। उसे तो हर वक्त किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। मां को किसके भरोसे छोड़ेंगे। पिताजी को बुलवाऊं भी किस मुंह से। कई-कई महीने बीत जाते हैं उन्हें मनीऑर्डर भेजे हुए। हर बार उन्हीं का मनीऑर्डर टल जाता है। उनकी मामूली-सी पेंशन। मां का इलाज। बीसियों दूसरे खर्चे। पूरी रिश्तेदारी। पैंसठ साल की उम्र में भी वे अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम नहीं देना चाहते। कहीं न कहीं खटते रहते हैं। न किसी से कुछ मांगते हैं, न हममें से कोई आगे बढ़कर उनकी बूढ़ी हथेली पर कुछ रखने की सोचता है। हर बार यही होता है। हम सब भाई यही मान लेते हैं, इस बार दूसरे ने भेज दिया होगा। सामने कोई नहीं आता।
आये भी कैसे? सबके पीछे बीवियां हैं, जो दरवाजे की ओट में खड़ी देखती रहती हैं। कहीं उनका पति आगे बढ़कर कोई फालतू जिम्मेवारी तो नहीं उठा रहा। ताने मारती रहती हैं। उनकी तेज आंखें पति की पीठ पर चिपकी उन्हें कोंचती रहती हैं। बहुत कर लिया है इस घर के लिए। सारी उम्र का ठेका थोड़े ले रखा है।
अगर पिताजी आते भी हैं तो भी मां की ही पोटलियां खुलवायेंगे। गनीमत होगी उनमें भी अगर किराये भर के पैसे निकल आयें। वैसे भी मेरी बीमारी का सुनकर एकदम टूट जायेंगे। उन्हें ही कुछ हो गया तो...? मां के एक्सीडेंट के समय इस बुढ़ाने में भी ज़ार-ज़ार रोते थे। इस उम्र में अकेले रह जाने का डर उनकी जान खाये जा रहा था। उन्हें पता था, हम सब बच्चों के होते हुए भी वे एकदम अकेले और अलग-थलग पड़ जायेंगे। नहीं, उन्हें तकलीफ होगी यहां आकर। फिर मां भी तो है। उनकी कौन करेगा?
मैं भी कैसा पागल हूं। लगता है दिमागी फोड़े ने अपना असर दिखाना खुरू कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी एक को बुलवाऊं और उसे जब यहां आकर असलियत का पता चले और वह औरों को न बताये। दो-तीन दिन में ही पूरा कुनबा यहां आ पहुंचेगा। कैसे भी करके। आयेंगे सब। बिना बुलाये ही। बस पता लगने भर की देर होगी। मुझे एक दिन भी यहां अकेले नहीं रहने दिया जायेगा। कहीं भी शिफ्ट कर दिया जायेगा। हर तरह का संभव, असंभव इलाज आजमाया जायेगा।
मां के एक्सीडेंट के समय देख चुका हूं। पता लगते ही पास-दूर के सब रिश्तेदार आ जुटे थे। हर आदमी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना चाहता था। हर तरह की मदद के लिए तैयार था। मां को चौथे दिन होश आया था, वह याददाश्त खो बैठी थी। फिर भी सबकी चाह रहती, मां उन्हें कम-से-कम एक बार तो पहचान ले। मां कोशिश करती। कुछ बुदबुदाती। दिमाग पर ज़ोर पड़ता। वह दर्द से कराहती। लेकिन कोई भी मां की आंखों में पहचान दर्ज करवाये बिना जाना नहीं चाहता था।
तो... तो... इसका यही मतलब हुआ, किसी को भी बुलवाया जाये, आयेंगे सब। जो भी पहले आयेगा, पहला काम यही करेगा सबको फोन, तार, चिट्ठी से खबर करेगा। यहां अकेला हूं। अस्पताल में पड़ा हूं। दिव्या मायके में। सब आ गये तो कैसे होगा? कौन करेगा सबके लिए? दिव्या लौट भी आये तो मेरी देखभाल करेगी, खुद को संभालेगी या आया-गया देखेगी। मेरे बीमार होने से सब पेट पर पट़टी बांधकर नहीं आयेंगे। फिर इलाज? खर्च?
कहां से आयेगा यह रुपया। इलाज के लिए? घर खर्च के लिए। इधर-उधर से कर्ज उठाये जायेंगे। कौन लेगा? मेरे बाद चुकाना भी तो होगा। तय है जो लेगा उसी को चुकाना पड़ेगा। कौन आयेगा सामने। बात पांच-सात हजार की हो तो कोई सोचे भी। अंधे कुएं में पता नहीं कितना डालना पड़े। न वापसी की गारंटी, न मेरे ठीक होने की।
याद करने की कोशिश करता हूं, क्या लेना-देना है। कहां से लिया जा सकता है लोन? उस दिन इन्कम टैक्स के लिए हिसाब लगाया तो था। नकद बचत तो दिव्या ले गयी है। थोड़े-बहुत सेविंग सर्टिफिकेट्स हैं। दो पॉलिसियां। और कर्ज़-डेढ़ लाख हाउसिंग लोन के, सात हजार स्कूटर लोन के। चार हजार कन्ज्यूमर लोन के, सत्रह हजार क्रेडिट सोसाइटी के। क्रेडिट सोसाइटी से लोन रिन्यू करा के तीन हजार मिलेंगे और एमरजेंसी लोन पांच हजार। ये आठ हजार तो डॉक्टर चरणामृत के रूप में ही ले लेंगे। बाकी?
ख्याल आता है, अगर मुझे कुछ हो जाये तो? पैसों के अभाव में ढंग का इलाज न मिल पाने के कारण अगर मुझे कुछ हो जाता है तो? जीते जी मुझे कर्ज़ चुकाने हैं, इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मरने के बाद सारे कर्ज़ चुकाकर भी कम से कम ढाई लाख रुपये दिव्या को मिलेंगे। साठ हजार फंड के। नब्बे हजार ग्रुप इंशोरेंस, पन्द्रह हजार स्पेशल ग्रेच्यूटी, साठ हजार ग्रेच्यूटी। सर्टिफिकेट्स वगैरह के। और छोटी-मोटी रकमें, दो लाख बीमे के। अजीब मज़ाक है। ज़िंदा हाथी खाक का, मरा सवा लाख का। इलाज के बिना मरूं और मरने पर पैसे ही पैसे। किसे? दिव्या को ही तो। वही तो नॉमिनी है।
कम से कम इस फ्रंट पर तो मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। कभी न कभी मकान भी पूरा हो जायेगा। हो सकता है, मेरे सामने हो जाये। फिर मेरी जगह दिव्या को नौकरी भी तो मिलेगी। ग्रेजुएट है। क्लर्की ही सही। आगे तरक्की कर सकती है। पर ये सारे पैसे दिव्या को मिलें, नौकरी भी उसे मिले, मकान भी उसी के नाम रहे और मां-पिताजी उन्हीं ग्यारह सौ की पेंशन में गुजारा करते रहें? अब तो फिर भी कुछ न कुछ देता हूं, बाद में तो वह भी बंद हो जायेगा। उन्हें इन पैसों में से कुछ नहीं मिलेगा, क्या किसी एकाध जगह नॉमिनी बदला नहीं जा सकता। पूछना पड़ेगा। अगर दिव्या नौकरी करेगी तो उसे यहीं रहना होगा और मां-पिताजी अपना घर छोड़कर यहां आयेंगे नहीं?
फिर ख्याल आता है, क्यों सोच रहा हूं मैं यह सब? अभी तो पता नहीं, इलाज शुरू भी हुआ है या नहीं। अभी तो नहीं मर रहा। क्या पता एकदम ठीक हो जाऊं। इन रिपोर्टों में भी जिस शब्दावली में मेरा रोग और निदान लिखा है, मुझे समझ कहां आयी है। मुझे सोच-सोचकर अपना खून नहीं जलाना चाहिए।
आंखें बंद करता हूं, फिर वही ख्याल... अपने-पराये... मरना... दिमाग में टूटे-फूटे वाक्य बन-बिगड़ रहे हैं। मानस पटल पर सबके चेहरे आ-जा रहे हैं। मां... दिव्या... पिताजी... अपने होने वाले बच्चे का चेहरा... कैसा होगा... यार-दोस्त...। सिर झटकता हूं। उठकर पानी पीता हूं। यह क्या हो रहा है मुझे... मैं... मैं... मुझे आराम क्यों नहीं मिल रहा... कोई है... मुझसे बात करो... मेरी सारी बातें नोट करे कोई... मैं... अकेला नहीं रह सकता... मुझे कोई... बोलने वाला... सुनने वाला चाहिए... अरे... कोई है...? कहां है... नर्स... कितने बजे हैं... कौन-सी तारीख है... महीना... साल... डॉक्टर कब आयेगा मां... मां... मैं यहां हूं मां... मुझे कुछ दिखायी क्यों नहीं दे रहा... किसकी चिट्ठी है... कौन आया है... कौन-कौन आ रहा है... जो भी आये... जल्दी आये... तुरंत... मैं सबसे मिलना चाहता हूं। गले मिलना... पिताजी आ रहे हैं... लेकिन मां उन्हें अकेले... नहीं आने देगी... वह भी आयेगी... लेकिन मां तो सब कुछ भूल जाती है... मुझे पहचानेगी क्या या गुमसुम बैठी रहेगी... दोनों आयेंगे। पेंशन के चैक के बदले किसी से उधार लेकर...। भाई आयेंगे... भाभियां आयेंगी... कुछ भी हो... मुझसे स्नेह रखती हैं... सब...। बहनें आयेंगी... सारी तकलीफों के बावजूद... कब से नहीं मिला हूं उनसे। दीपा... उसका पति अजय... उनकी नन्हीं-सी बच्ची... क्या नाम है... करिश्मा... और संध्या... उसका गोल-मटोल गोपू... लेकिन अब उसे उठाकर ऊपर... उछाल नहीं पाऊंगा... सब दोस्त आयेंगे... उमेश, देशी, गामा, फिर... मामा आयेगा... सबके सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचता है... दिव्या तुम... तो यहीं हो न... मेरे सिरहाने... कहीं जाना नहीं दिव्या... नहीं मुझे दवा नहीं चाहिए... तुम यहीं मेरे पास बैठकर...स्वेटर और ख्वाब... बुनती रहो... अनन्त काल तक... मुझे... कुछ नहीं होगा... इस घड़ी में अभी... बहुत चाभी बाकी है... अभी तो मेरा बच्चा... उसका नामकरण... बर्थ डे पार्टी... तालियां...।
दिमाग को एक तेज झटका लगता है। मैं यह सब क्या देख रहा था? आस-पास देखता हूं। अभी भी रात है। नर्स अभी तक नहीं आयी। दवा...पानी... फाइल अभी भी फर्श पर गिरी पड़ी है... उठाऊं। उठने की कोशिश करता हूं। टाल जाता हूं। उसमें लिखा बदल थोड़े ही गया होगा।
लेकिन अगर मैं किसी को भी न बुलवाऊं तो...? अस्पताल में तो देखभाल हो ही जायेगी। यहां हमेशा तो नहीं रहना होगा... और फिर दर्द हर समय तो नहीं उठेगा? इलाज तो चलता रह सकता है। मैं सबको प्यार करता हूं। सबको इस तरह परेशान करने का मुझे क्या हक है। मेरी मरने के बाद सबके हिस्से में जो दु:ख लिखा है, वे उसे झेलेंगे ही। जीते-जी सबको क्यों रुलाऊं। जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। मेरी हालत देख-देखकर रोता रहेगा। जो नहीं आयेंगे, उनकी जान वहीं सूखी रहेगी। हर वक्त तार या फोन का खटका लगा रहेगा।
जो भी झेलना है, मुझे ही झेलना है। सबको अपने साथ क्यों मारूं। सबका मोह सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं। मैं भी तो सबको खुश देखना चाहता हूं। सबको क्यों परेशान करूं। सबसे मिलना है, तो फिर आखिरी बार मैं ही क्यों न जाऊं सबसे मिलने? सबके पास रहूं। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह हमारी आखिरी मुलाकात है। अभी तो मेरी मौत मुझे इतना समय देगी कि सबसे मिल-जुल लूं। कुछ जी लूं। मां-बाप के पास रह लूं। दिव्या को उसके कठिन वक्त में साथ दूं। अपने होने वाले बच्चे का इंतजार करूं। उसका स्वागत करूं। खिलाऊं। उसकी मुस्कान में खुद को देखूं।
ब्रेन ट्यूमर का क्या है। किसी को बताया न जाये तो उसे पता भी न चलेगा। कहीं ज्यादा तकलीफ हुई तो कह दूंगा - मामूली सिर दर्द है। ठीक हो जायेगा। दवाएं लेता रहूंगा। लेकिन महंगा इलाज, ऑपरेशन नहीं कराऊंगा। क्या होगा उससे? मौत सिर्फ सरकेगी। टलेगी नहीं। पैसे कहां हैं इलाज के लिए? अगर हो भी जायें तो उनसे दूसरे काम निपटाऊंगा।
सोचकर अच्छा लग रहा है। लेकिन कर पाऊंगा यह सब? आनन्द की तरह जीना? या जीने का नाटक करना... किसी को पता भी न चले... और जब पता चले तो बहुत देर हो चुके... इतनी देर कि इलाज... खर्च... रोना... धोना... और फुलस्टॉप... कुछ भी मायने न रखें।
दिमाग फिर थकने लगा है। दर्द की लहरें फिर माथे से टकरा रही हैं। आंखें बंद कर लेता हूं। धीरे... धीरे... नींद...।