लेखक परिचय- आकांक्षा पारे
18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
'और बता क्या हाल है?' 18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
'अपना तो कमरा है, हाल कहां है?'
'ये मसखरी की आदत नहीं छोड़ सकती क्या?'
'क्या करूं आदत है, बुढ़ापे में क्या छोड़ूं? साढ़े पांच बज गए मेघना नहीं आई?'
'बुढ़ऊ झिला रहा होगा।'
'तू तो ऐसे बोल रही है, जैसे तेरे वाले की जवानी फूटी पड़ रही हो।'
'वो तो फूट ही रही है, तुम जल क्यों रही हो?'
'मैं क्यों जलूंगी भला। हम तीनों में से कौन है, जो जवान से प्रेम कर रहा है। तीनों ही तो प्रेमी हाफ सेंचुरी तक या तो पहुंचने वाले हैं या पहुंच गए हैं।'
'ले, मेघू आ गई।'
'हाय।'
'क्या है बे किस बात पर बहस कर रहे हो?'
'ये बे-बे क्या बोलती है रे तू?'
'और तुम ये तू-तू क्या करती रहती हो?'
'अरे हमारे इंदौर में ऐसे ही बोलते हैं, तू। जब पुच्ची करने का मन करता है न सामने वाले को तो तू ही बोलते हैं।'
'क्यों आज तेरे हीरो ने पुच्ची नहीं दी क्या, जो मुझे देख कर 'तू' बोलने का मन कर रहा है। स्नेहा, मुझे इस धारा 377 से बचाओ।'
'अब तू भी बता ही दे, ये बे क्या होता है रे?'
'फिर तू?'
'अच्छा बाबा, तुम-तुम ठीक।'
'हां तो मैं कह रही थी। ये बे है न मेरे वाले की सिग्नेचर ट्यून का जवाब है। वह फोन पर मार डालने वाले अंदाज में कहता है, 'हाय बेबी'। और बदले में मैं हमेशा कहती हूं, 'क्या है बे?'
'अच्छा अब ये दिल पर हाथ रख कर गिर पडऩे की एकटिंग अपने कमरे में जा कर करना। पहले बताओ रविवार कैसा बीता?'
'गिर कौन रहा है डॉर्लिंग, मुझे तो बस उसका 'हाय बेबी' याद आ गया।'
'तो जल्दी बता कल तू कहां गई थी।'
'आभा, फिर तू। ठीक से बोलो यार। प्लीज।'
'ओके बाबा। अब मैं तुम्हारे लखनवी अंदाज में कहूंगी, हुजूर आप। ठीक?'
'अच्छा लेकिन पहले मैं नहीं बताऊंगी कि कल क्या हुआ था। पहले ही तय हो गया था कि हम तीनों जब भी अपने रविवारी प्रेमियों से मिलेंगे, तब स्नेहा सबसे पहले बताएगी कि रविवार का उद्धार कैसे हुआ?'
'पिछले छः महीने से हम प्रेम में हैं। तुम्हें लगता है हमारे जीवन में कुछ नया होने वाला है। मुझे लगता है हम ऐसे ही सप्ताह में एक अपने प्रेमी से मिल कर अधूरी इच्छाओं के साथ मर जाएंगे।'
'वाऊ मेरे मन में क्या आयडिया आया है। हम रविवार के दिन मरेंगे। मौत भी आई तो उस दिन जो सनम का दिन था... वाह-वाह। तुम लोग भी चाहो तो दाद दे दो।'
'आभा, हम यहां तुम्हारी सड़ी शायरी सुनने नहीं इकट्ठा हुए हैं।'
'तो इसमें दही भी कभी छाछ था कि बुरी औरत की तरह मुँह बना कर बोलने की क्या बात है। आराम से कह दो। क्योंकि तुम इतनी भी अच्छी एकटिंग नहीं कर रहीं कि कोई तुम्हें रोल दे दे।'
'मैं यहीं पर तुम्हारा सर तोड़ दूंगी।'
'अब तुम भी कुछ न कुछ तोड़ ही दो। कल उसने दिल तोड़ा, आज सुबह मैंने मर्तबान तोड़ा अब तुम सर तोड़ दो।'
'अगर आप दोनों के डायलॉग का आदान-प्रदान हो गया हो तो क्या हम लोग कुछ बातें कर लें।'
'जी स्नेहा जी। मैं आपको अध्यक्ष मनोनीत करती हूं और आप बकना शुरू करें। बोलने लायक तो हमारे पास कुछ बचा नहीं।'
'तुम लोगों को नहीं लगता कि हम तीनों ही दो बच्चों के बाप से प्यार कर रही हैं। हम तीनों ही जानती हैं कि हमारा कोई भविष्य नहीं, फिर भी...।'
'बहन फिलॉस्फी नहीं, स्टोरी। आई वांट स्टोरी।'
'ओए ये स्टोरी का चूजा अपने दफ्तर में ही रख कर आया कर। हम दोनों को पता है कि तू एक नामी-गिरामी अखबार के कुछ पन्ने गोदती है।'
'हाय राम तुम दोनों कितनी खराब लड़कियां मेरा मतलब औरतें हो। क्या मैं कभी कहती हूं कि तुम अपने कथक के तोड़े और तुम अपने बेकार के नाटक की एकटिंग वहीं छोड़ कर आया करो। बूहू-हू-हू, सुबुक-सुबुक, सुड़-सुड़...!'
'अब यह बूहू-हू क्या है?'
'बैकग्राउंड म्यूजिक रानी। बिना इसके डायलॉग में मजा नहीं आता न। रोना न आए तो म्यूजिक से ही काम चलाना पड़ता है।'
'साली, थियेटर में मैं काम करती हूं और हाथ नचा-नचा कर एकटिंग तू करती है।'
'अब तेरी नौटंकी कंपनी तुझे नहीं पूछती तो मैं क्या करूं। आई एम बॉर्न एक्ट्रेस।'
'रुक अभी बताती हूं। तेरी चुटिया कहां है?'
'स्नेहा, आभा प्लीज यार। तुम दोनों कभी सीरियस क्यों नहीं होती हो यार?'
'सीरियस होने जैसा अभी भी हमारी जिंदगी में कुछ बचा है क्या मेघा? तुम्हें लगता है कि हमें जहां सीरियस होना चाहिए वहां भी हम ऐसे ही हैं, अगंभीर? क्या बताएं यार हर हफ्ते आ कर? वही की पूरा दिन उसके फ्लैट पर रहे, हर पल यह सोचते हुए कि कोई आ न जाए। यह सोचते हुए कि वो इस बार तो कहे कि वो तलाक ले लेगा। और क्या बताएं एक-दूसरे को की जब कभी उसे बाहों में भर कर प्यार करने का मन किया, उसी वक्त उसकी पत्नी का फोन आ गया। या मैं तुम्हें यह बताऊं कि उसके होंठ अब मखमली नहीं लगते, जलते अंगारे लगते हैं।'
'हां, शायद हम सब का वही हाल है। तुम दोनों के प्रेमी की बीवीयां तो दूसरे शहर में रहती हैं। इसलिए तुम दोनों उसके घर जाती हो। लेकिन मेरे वाले की तो इसी शहर में रहती है। वह मेरे घर आता है, तो जान सांसत में रहती है। मकान मालकिन जिस दिन उसे देखेगी, उसके कुछ घंटों में निकाल बाहर करेगी। तुम दोनों से ही छुपा नहीं है कि वह क्या चाहता है। और तुम दोनों ही जानती हो कि शादी से पहले मैं वह सब नहीं करूंगी। इस बात पर एक बार फिर बहस हुई।'
'मेरा वाला भी इसी बात पर अड़ा है। कहता है, 'मुझमें 'पवित्रता बोध ज्यादा है।'
'वह मुझे कहता है, मुझमें, 'सांस्कृतिक जड़ता' है।'
'आभा, हम तीनों में से तुम ही सबसे ज्यादा बोल्ड हो। तुम कैसे इस चक्कर में फंस गईं? तुम्हें तो कोई भी लड़का आसानी से...'
'मिल सकता था, यही न? आसानी से मर्द मिलते हैं रानी, लड़के नहीं। मर्द भी शादीशुदा, दो बच्चों के बाप। कुंआरे नहीं।'
'तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?'
'मुझे क्या लगता है, हमारी उम्र की किसी भी कुंआरी लड़की से पूछ लो। सभी को ऐसा ही लगता है।'
'पर ऐसा होता क्यों है? जब लड़के शादी की उम्र में होते हैं, शादी नहीं करते। जब वही लड़के मर्द बन जाते हैं, तो कहते हैं, पहले क्यों नहीं मिलीं?'
'क्योंकि शादी के बाद वे जानते हैं कि हम उनसे किसी कमिटमेंट की आशा नहीं रख सकते।'
'लेकिन मेरा वाला कहता है कि वह तलाक ले लेगा और मुझ से शादी करेगा?'
'कब? कब उठाएगा वह ऐसा वीरोचित कदम? सुनूं तो जरा'
'पांच साल बाद।'
'इतनी धीमी आवाज में क्यों बोल रही हो। यदि तुम्हें यकीन है तो इस बात को तुम्हें बुलंद आवाज में कहना चाहिए था। लेकिन मुझे पता है तुम्हारी आवाज ही तुम्हारा यकीन दिखा रहा है।'
'उसके बच्चे छोटे हैं अभी इसलिए...'
'हम दोनों वाले के तो बच्चे भी बड़े हैं, फिर भी ऐसा कुछ नहीं होगा हम दोनों ही जानती हैं। क्यों स्नेहा?'
'हूं।'
'समझने की कोशिश करो बच्ची, हम जिंदगी मांग रही हैं। उनकी जिंदगी। सामाजिक जिंदगी, आर्थिक जिंदगी, इज्जत की जिंदगी। वह जिंदगी हमें कोई नहीं देगा। इसलिए नहीं कि हम काबिल नहीं हैं, इसलिए कि हमें आसानी से भावनात्मक रूप से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वो तीनों जो हमसे चाहते हैं वह शायद हम कभी नहीं कर पाएंगी। हम उनका न हिस्सा बन सकती हैं न ही हिस्सेदार। अगर ऐसा हो जाए तो हम तीनों ही किसी मैटरनिटी होम में बैठ कर बाप के नाम की जगह या तो मुंह ताक रही होतीं या अरमानों के लाल कतरे नाली में बह जाने का इंतजार कर रही होतीं।'
'तुम बोलते वक्त इतनी कड़वी क्यों हो जाती हो?'
'मिठास का स्रोत सूख गया है न।'
'तो इस नमकीन दरिया को क्यों वक्त-बेवक्त बहाया करती हो?'
'मैं थक गईं हूं। सच में। मैं उसके साथ रहना चाहती हूं, किसी भी कीमत पर।'
'वो हम तीनों में से कौन नहीं चाहता? पर वो बिकाऊ नहीं हैं न तो हम कीमत क्या लगाएं?'
'लेकिन हम उनकी तानाशाही के बाद भी क्यों हर बार उनकी बाहों में समाने को दौड़ पड़ते हैं?'
'क्योंकि हमारी प्रॉब्लम अकेलापन है।'
'मुझे लगता है हम तीनों की प्रॉब्लम ज्यादा इनवॉल्वमेंट है।'
'ऊंह हूं, हम तीनों की प्रॉब्लम प्यार है...।'
'हम लोग उम्र के उस दौर में हैं, जहां हमारे पास थोड़ी प्रतिष्ठा भी है, थोड़ा पैसा भी है। बस नहीं है तो प्यार। जब हम कोरी स्लेट थे तो हमारे सपने बड़े थे। उस वक्त जो इबारत हम पर लिखी जाती हम उसे वैसा ही स्वीकार लेते। लेकिन अब... अब स्थिति बदल गई है। हमने दुनिया देख ली है। हमें पता चल गया है कि हम सिर्फ भोग्या नहीं हैं। हम भी भोग सकती हैं।'
'कुंआरे लड़के हमें तेज समझते हैं। लेकिन शादीशुदा मर्दों को इतने दिन में पता चल जाता है कि पत्नी की प्रतिष्ठा और पैसे की भी कीमत होती है। काम के बोझ में फंसे मर्दों को पता चल जाता है कि कामकाजी लड़कियां नाक बहते बच्चों को भी सभाल सकती हैं और बाहर जा कर पैसा भी कमा सकती हैं। लेकिन जब तक वह सोचते हैं तब तक देर हो चुकी होती है।'
'पर देर क्यों हो जाती है?'
'जब दिन होते हैं, तो वे बाइक पर किसी कमसिन को बिठा कर घूमना पसंद करते हैं। तब करियर की बात करने वाली लड़कियां अच्छी लगती हैं। साधारण नैन-नक्श पर भी प्यार आता है, लेकिन जैसे ही बात शादी की आती है, लड़के अपनी मां की शरण में पहुंच जाते हैं। तब बीवी तो खूबसूरत और घरेलू ही चाहिए होती है। तब अपनी क्षमता पर घमंड होता है। हम काम करेंगे और बीवी को रानी की तरह रखेंगे। बच्चे रहे-सहे प्रेम को भी कपूर बना देते हैं। महंगाई बढ़ती है और दफ्तर की आत्मविश्वासी लड़की देख कर एक बार फिर दिल डोल जाता है। और हमारी तरह बेवकूफ लड़कियों की भी कमी नहीं जो उनकी तारीफ के झांसों में आ जाती हैं और फिर वही बीवी बनने के सपने देखने लगती हैं, जिससे भाग कर वे मर्द हमारी झोली में गिरे थे!'
'फिर हम क्या करें?'
'अपनी शर्तों पर जिओ, अपनी शर्तों पर प्रेम करो। जो करने का मन नहीं उसके लिए इनकार करना सीखो, जो पाना चाहती हो, उसके लिए अधिकार से लड़ो।'
'पर वो हमारी शर्तों पर प्रेम क्यों करने लगे भला?'
'क्योंकि हम उनकी शर्तों पर ऐसा कर रही हैं। कोई भी अधिकार लिए बिना, हमारे कारण उन्हें वह सुकून का रविवार मिलता है।'
'फिर?'
'फिर कुछ नहीं मेरी शेरनियों, जाओ फतह हासिल करो। अगला रविवार तुम्हारा है...।'
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10 कहानीप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही साफ़ गोई ्व ईमान्दारी से आपने गमें दौरां को बयान किया है-सहज सरल भाषा में आज का सच बयान हुआ.
रसभरी आपने प्र्काशित की थी मधुरिमा में वह भी कथा -कविता पर उपलब्ध है और एक कहानी चोर-उचक्का भी वहां वक्त मिले तो देखें
श्याम सखा श्याम
'तीन सहेलियाँ, तीन प्रेमी" आकांक्षाजी की यह कहानी उन कामकाजी युवतियों की पीड़ा बयाँ करती है, जो पहले पढ़ाई-लिखाई और फिर कैरियर बनाने के लिए अपने जीवन का वह समय गुजार देती हैं, जिसमें उन्हें गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर लेना चाहिए। जब समय गुजर जाता है और कैरियर में एक बोझिलपन आने लगता है, तब वे किसी साथी की तलाश करती हैं और यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ कदम-कदम पर 'साथी" मिलते है और सभी का मकसद एक ही होता है। इन कहानियों के पात्रों के माध्यम से कामकाजी लड़कियों के एकाकीपन और उनके प्रेमियों की 'अभिलाषा" को बेहतरीन तरीके से बताया गया है। बीवी-बच्चों से दूर रविवार को हसीन बनाने के लिए मर्द इसी प्रकार की युवतियों की तलाश में रहते हैं। कहानी के माध्यम से आकांक्षाजी ने ऐसे मर्दों के वायदों को रेखांकित किया है, जिनमें तलाक लेने का साहस नहीं होता, लेकिन प्रेमिका बनाने का शौक जरूर रखते हैं।
बहरहाल अच्छी कहानी है और आकांक्षाजी पर सरस्वती मेहरबान रहती हैं। इसी प्रकार के विषयों के माध्यम से वे समाज और लेखन के क्षेत्र में अपना योगदान देती रहेंगी। उन्हें मेरी ढेरों शुभकामनाएँ।
Akankshaji,
Aapke lekhan ki to mai hamesha se hi kayal rahi hu,meri shubhkamanae hamesha aapke saath hi hai.
bahut steek kahaani aaj ke mahaul par
इतनी अच्छी कहानी पर अभी तक केवल ३ प्रतिक्रियाएं ,यानि नेट पर कहानी पढने की फ़ुरसत नहीं है लोगों के पास
ab is kahani ko badlo bhi bhai. aur koi kahani nahi hai kya?
बातचीत की कहानी.... खूब| आकांक्षा पारे जी को पहले भी पत्रिकाओं में पढ़ा है.... यह अबतक की पढ़ी कहानियो से अलग लगी... शायद शिल्पगत स्तर पर| पढ़ने के काफी देर बाद कहानी बातुनी पात्रो की मन:स्थितियों का गहन विस्तार रचती है| लेखिका को हार्दिक शुभकामना|
आज के समय का सही विश्लेषण....
बधाई आपको...
आकांक्षा जी आप अपनी कवितायेँ यहाँ पर पढ़ें प्लीज़.....साभार...
हम और हमारी लेखनी: ५ कवितायेँ ..आकांक्षा पारे .....जिनमें राग है, प्रेम है,, प्रतीक्षा है, औरत होने.
gita-pandit.blogspot.com
ये कहानी यदि लड़कियाँ समझ तो समाज मेँ सुधार आ जाये।
Wakai mein is kahani ka jawab nahi, mardo ki jaat ka vivran inhone kya khubi se prastut kia hai.
NABI RASUL ANSARI
akansha mam,
your story is really awesome ,i wish all the best for your further progress mam.........your student
kumkum
utkarsh academy.
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