Monday, December 21, 2009

औरांग उटांग- धीरेन्द्र अस्थाना

यह तो वह समय था न, जब आप दौड़ना छोड़ चुके होते हैं। तो फिर? मैं सोच रहा हूं और दौड़ रहा हूं, एक द्वार से दूसरे द्वार तक। लेकिन आश्चर्य कि हर द्वार जैसे मेरे ही लिए बंद। हर दुःस्वप्न जैसे मेरे ही लिए छोड़ दिया गया। घृणा और दुश्मनी का एक-एक कतरा जैसे मेरे ही विरुद्ध तना हुआ। किनाराकशी की हर मुद्रा जैसे मेरे ही खाते में।

यह तो घटना-विहीन, उत्सुकता से खाली और उबा देनेवाली शांत-सी जीवन-स्थितियों वाला समय था न। तो फिर?
तो फिर? एक चीखता हुआ सा आश्चर्य मेरी चेतना पर ‘धप्प‘ से आ गिरा है।

समने चांदनी चैक को जाती लंबी संड़क है-एकदम ठसाठस। दौड़ती हुई, सिर ही सिर, मैं लाल किले के सामने वाले कई बस स्टाॅप में से एक पर बैठ गया हूं। यूं ही, समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? सब जगह तो जा आया हूं।
बगल में देर से एक अधेड़ आदमी बैठा आती हुई बसों के नंबर पढ़ रहा था। सोचा मेरी मदद कोई नहीं कर रहा है तो क्या? मैं तो किसी की मदद के लिए आगे बढूं।

‘कहां जायेंगे भाई साहब?‘ मेरे स्वर में अतिशय नम्रता है। सहानुभूति की आर्द्रता में रची-बसी।
‘कौन मैं?‘ बगलवाला अधेड़ चैंक-सा पड़ा। ‘क्यों? कहीं नहीं जाना है।‘
कहीं नहीं जाना है? मुझे धक्का-सा लगा। यह भी उन्हीं में से है। याद आया। लाल किले में गाइड का काम करनेवाला मेरा एक बचपन का दोस्त (बचपन में यह कहां पता था कि इसकी नियति गाइड बन जाना होगी) एक बार मुझसे इसी स्टाॅप पर टकरा गया था-एकाएक।
‘तुम? आप? नमस्ते जी! पहचाना? मैं? देहरादून।‘ उसने एक-दूसरे से असंबद्ध इतने शब्द एक साथ बोले। और वह भी इतनी मुद्राओं में कि जब मैंने उसे पहचाना तो वह लगभग रो-सा पड़ा।
यह मेरे बचपन का दोस्त था, जिसके साथ मैंने बहुत-से दुख देखे थे। फिर बीच में पंद्रह साल का अंतराल था जिन्होंने उसे याचक और मुझे दाता के दायरे में खड़ा कर दिया था।
‘मैं पांच साल से यहीं हूं साहब जी!‘
‘पांच साल से?‘ मैं बुदबुदाया था फिर नकली क्रोध में भरकर बोला था, ‘यह साहब जी-साहब जी क्या लगा रखी है प्रेम!‘ प्रेम कहते हुए मैं बेहद आत्मीय हो गया था। सच बात तसो यह है कि मुझे काफी देर बाद उसका नाम याद आया था।
‘आप यहां कैसे?‘ वह बोला था। ‘कोई बस लेनी है?‘
‘बस?‘ मुझे दुख हुआ था, कुछ-कुछ क्षोभ भी। दुख इसलिए कि वक्त प्रेम को बस से आगे सोचने की कल्पना भी नहीं दे सका और क्षोभ इसलिए कि इसने मेरे संदर्भ में भी बस की कल्पना की।
‘नहीं, बस नहीं।‘ मैं खिसियाकर बोला। मानो मेरे आभिजात्य पर चोट लगी हो। ‘मैं इतनी भीड़-भरी बसों में नहीं चल पाता।‘ मैंने सफाई-सी दी। ‘मैं आॅटो के इंतजार में हूं। तुम यहां कैसे?‘
मैं लाल किले में चपरासी हूं। प्रेम के चहेरे पर कोई पछतावा नहीं था। बल्कि एक तरह का वैसा सुख था जैसा आत्मनिर्भर आदमी के मन में होता है। वह आगे बोला, ‘मैं अधिकारियों की आंख बचाकर कभी-कभी किसी मोटी पार्टी का गाइड भी बन जाता हूं।‘
‘अच्छा-अच्छा।‘ मैंने लापरवाही से कहा, ‘तो यहां खड़े क्या कर रहे थे?‘
‘यह मेरा शौक है।‘ प्रेम ने रहस्योद्घाटन-सा किया। ‘मैं वक्त निकालकर अक्सर यहां आ जाता हूं और बस स्टाॅप पर बैठे या खड़े लोगों के चेहरे पढ़ा करता हूं।‘
‘अच्छा?‘ मैं अचरज से भर उठा था।
‘ये बस स्टॉप न होते तो बहुत-से लोग मारे जाते।‘ प्रेम ने दूसरा रहस्योद्घाटन किया था।
‘वह क्यों?‘ मेरा अचरज उत्सुकता में ढल रहा था।
‘क्यों क्या? वक्त काटने की इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है भला! इन स्टाॅपों पर बीसियों लोग ऐसे बैठे रहते हैं जिन्हें कहीं नहीं जाना होता। वे यहां सुबह आ जाते हैं और रात तक बैठे रहते हैं।‘
‘क्या?‘ मैं लगभग चीख ही तो पड़ा था।
‘यह तो कुछ भी नहीं है।‘ प्रेम मेरी अज्ञानता पर रस लेने लगा था। ‘यहां बैठे-बैठे कई धंधे भी होते रहते हैं।‘
धंधों की फेहरिस्त में जाने का समय नहीं था तब। मैंने अपने दफ्तर और घर का पता उसे दिया था और कभी आने का निमंत्रण देकर वहां से चला आया था।
और अब बगल में बैठे अधेड़ ने जब चैंककर बताया था कि उसे कहीं नहीं जाना है, तो मुझे प्रेम से अपनी वह अचानक हुई मुलाकात याद हो आयी है।
तो मैं क्यों हूं यहां? मैंने सोचा। मुझे कहां जाना है? क्या मैं भी वक्त काट रहा हूं? मैं और वक्त काट रहा हूं? हे भगवान, जिस शख्स के पास एक क्षण की फुर्सत नहीं होती थी वह यहां, लाल किले के स्टाॅप पर खड़ा वक्त काट रहा है? औरांग उटांग क्या इसी को कहते हैं?
सहसा मेरी आत्मा के निस्तब्ध अंधेरे में पसरा शोकाकुल मौन चीख ही तो पड़ा - वध करो! वध करो! वध करो उन सबका, जो शामिल हैं तुम्हारी हत्या के जश्न में।
मैं मारा जा चुका हूं क्या? मैंने सोचा और डर गया। तभी बगल वाले अधेड़ ने गहरी सहानुभूति में भरकर पूछा, ‘तुम्हें भी कहीं नहीं जाना है न?‘
‘मैं घर जाऊंगा।‘ मैंने कुछ इस तरह जवाब दिया मानो मुझसे प्रश्न पूछता वह अजनबी मेरा न्यायाधीश हो।
‘घर जाओगे?‘ मेरा वह न्यायाधीश जैसे आहत हो गया। ‘भाग्यशाली हो।‘ उसने बुदबुदाकर कहा, ‘तो फिर निकल लो। अंधेरा होने को है।‘
मैंने पाया, अंधेरा आसमान से गिरने को ही था और हवा ने ठंडी खुनक के साथ धीरे-धीरे बहना शुरू कर दिया था।
मैंने हवा से पूछा, औरांग उटांग माने क्या? हवा ने सुना। ठिठकी। मुस्करायी और किनारा कर गयी।
किनारा तो ऐसे-ऐसे लोगों ने कर लिया था कि कलेजा मुंह को आ लगा था। मुहावरे अपनी उपस्थिति किस तरह प्रकट करते हैं, यह इन्हीं दिनों जाना था मैंने। पैंतीस की उम्र में जब कनपटियों पर के बाल कहीं-कहीं से सफेद पड़ने लगे हैं। और आंखों के नीचे स्याह धब्बे उतरने को ही हैं।
पैंतीस की उम्र। ईश्वर, मृत्यु और अध्यात्म के सवालों पर लौटने फिसलने का मन करता है न पैंतीस की उम्र में?
तो फिर? किसी बद्दुआ की तरह यह बेराजगारी कैसे सामने आ गयी पैंतीस की उम्र में?
एक भीड़-भरी बस में धंस गया हूं और सरकता हुआ एक कोने में जा लगा हूं - शर्म की तरह छिपता हुआ। आॅटो वाले दिन सीने में जख्म-से रिसने लगे हैं।
यह तो बहुत निरापद और श्लथ समय था न! यह तो वह समय था जब पब्लिक स्कूल में पढ़ते हुए बच्चे स्कूल की तरफ से कभी आगरा, कभी बंबई और कभी गोवा के टूर पर जाते रहते हैं और आप माथे पर बिना कोई शिकन लाये दो सौ, तीन सौ या पांच सौ रुपये चुपचाप उन्हें थमाते रहते हैं - कुछ-कुछ इस अहसास के साथ मानो अपने खुद के वंचित और बुरे बचपन की स्मृति से बदला चुका रहे हों।
उफ! किसी ने पांव कुचल दिया है।
यह तो वह समय था न जब आप बिना सोचे थ्री व्हीलर पर सवार हो जाते हैं, जब पैसे से ज्यादा कीमती वक्त हो जाता है।
‘वक्त बहुत बड़ी चीज है गुरु।‘ बस के किसी यात्री ने अपने साथी से कहा है, ‘वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिलता।‘
मेरे माथे पर शिकन पड़ गयी है। सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने कहा था, ‘तुम पर शनि की साढ़े साती है। इसका निदान ढूंढ़ो।‘
औरांग उटांग माने क्या? मैं सोच रहा हूं। यही न! हो जाना बेरोजगार पैंतीस की उम्र में?
पैंतीस की उम्र और सहसा जाती रही नौकरी का कोई अंतर्संबंध नहीं समझ पा रहा हूं मैं। यह तो बहुत लापरवाह और कुछ-कुछ दंभी समय था न! ऐसे समय में नौकरी का चले जाना ही क्या औरांग उटांग है?
घर के सामने खड़ा हूं मैं और बेल बजाने से डर रहा हूं। पत्नी का पहला सवाल होगा, नौकरी मिली? कैसा मजाक है? जो शख्स नौकरी दिया और दिलाया करता था, वह नौकरी ढूंढ़ रहा है! एक नास्तिक के घर में भाग्य ने डेरा डाला है।
बेल बजा दी है और इस तरह खड़ा हो गया हूं जैसे किसी भिखारी की याचना।

×××

पत्नी को हर समय गुस्सा आता रहता है। एक दिन मारे गुस्से के रो ही पड़ी। कातर आवाज में बोली, ‘क्या ऐसा भी हो सकता है कि अब तुम्हें नौकरी मिले ही न?‘
सवाल पर जोर से हंस पड़ने का मन हुआ। इतना लंबा अनुभव अध्ययन, शोहरत और इज्जत, इस सबके बावजूद नौकरी नहीं मिलेगी? लेकिन रात होते-होते मैं डर गया।
मेरी आत्मा के जंगल में एक ही सवाल सिर पटकता रहा-कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच अब नौकरी मिले ही न?
और यह जो अनुभव, ज्ञान, शोहरत, इज्जत है-नौकरी की राह में कहीं यही चार बाधाएं तो नहीं खड़ी हैं?
आशंका पर हंस पड़ने का मन हुआ, पर आश्चर्य कि दोनों आंखें रो रही थीं।
पैंतीस रुपये महीने से शुरू होकर साढ़े तीन हजार रुपये तक पहुंचा था मैं और फिर सड़क पर आ गया था-जाहिर है कि एक बार फिर से शुरू होने का समय खोकर।
‘यह तो गनीमत हुई कि छोटे ही सही, पर दो कमरों के अपने मकान में तो हैं।‘ एक दिन पत्नी ने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा था, ‘वरना तो...‘
‘वरना तो‘ के बाद वह चुप हो गयी थी और मैंने मजे-ले-लेकर सोचा था, वरना तो औरांग उटांग हो जाता।
इस समय वह एकदम चित पड़ी है-छत पर आंखें गड़ाये। शायद उस समय को कोस रही होगी जब उसने अपना भाग्य मेरे जैसे हतभाग्य के साथ बांधा। सहसा वह पलटी और दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘सब लोग कायदे से नौकरी कर रहे हैं, एक तुम्हारी ही नौकरी क्यों चली गयी?‘
मैं ‘तड़‘ से पड़े इस तमाचे पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता, उससे पहले ही मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला -‘औरांग उटांग।‘
‘छिः‘ उसने करवट बदल ली और आंखें बंद कर लीं।

×××

मैं पढ़ रहा हूं। सच यह है कि पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूं। छोटा बेटा आ गया है। बोला, ‘पापा, जब आपको नौकरी मिल जायेगी तो मेरे लिए स्पाइडर मैन के स्टिकर ला दोगे?‘
बेटे के सवाल से दिमाग कई जगह से तड़का है शायद। तभी न कंपकंपी-सी छूट गयी। जेब से दो रुपये निकालकर उसे दिये और आहिस्ता से बोला, ‘अपने पापा का इस तरह अपमान नहीं करते बेटा। जाओ और स्टिकर ले आओ।‘
अब तो पढ़ने में एकदम मन नहीं लग रहा है। उठूं और चलूं। लेकिन कहां? लाल किले के स्टाॅप पर? नहीं, लाल किले के भीतर। प्रेम के पास। बता रहा था कि उसे आठ सौ पचास वेतन मिलता है। प्रेम भी तो पैंतीस का ही है। उसका-मेरा जन्मदिन, पंद्रह दिन आगे-पीछे ही तो पड़ता था। उसी से पूछता हूं कि बिना अपने मकान के, आठ सौ पचास में कैसे चलता है जीवन, पैंतीस की उम्र में!

---धीरेन्द्र अस्थाना

Saturday, November 7, 2009

आकांक्षा पारे- तीन सहेलियां, तीन प्रेमी

लेखक परिचय- आकांक्षा पारे
18 दिसंबर 1976 को जबलपुर में जन्म आकांक्षा ने इंदौर से पत्रकारिता की पढ़ाई की। दैनिक भास्कर, विश्व के प्रथम हिंदी पोर्टल वेबदुनिया से होते हुए इन दिनों समाचार-पत्रिका आउटलुक में कार्यरत हैं। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
'और बता क्या हाल है?'
'अपना तो कमरा है, हाल कहां है?'
'ये मसखरी की आदत नहीं छोड़ सकती क्या?'
'क्या करूं आदत है, बुढ़ापे में क्या छोड़ूं? साढ़े पांच बज गए मेघना नहीं आई?'
'बुढ़ऊ झिला रहा होगा।'
'तू तो ऐसे बोल रही है, जैसे तेरे वाले की जवानी फूटी पड़ रही हो।'
'वो तो फूट ही रही है, तुम जल क्यों रही हो?'
'मैं क्यों जलूंगी भला। हम तीनों में से कौन है, जो जवान से प्रेम कर रहा है। तीनों ही तो प्रेमी हाफ सेंचुरी तक या तो पहुंचने वाले हैं या पहुंच गए हैं।'
'ले, मेघू आ गई।'
'हाय।'
'क्या है बे किस बात पर बहस कर रहे हो?'
'ये बे-बे क्या बोलती है रे तू?'
'और तुम ये तू-तू क्या करती रहती हो?'
'अरे हमारे इंदौर में ऐसे ही बोलते हैं, तू। जब पुच्ची करने का मन करता है न सामने वाले को तो तू ही बोलते हैं।'
'क्यों आज तेरे हीरो ने पुच्ची नहीं दी क्या, जो मुझे देख कर 'तू' बोलने का मन कर रहा है। स्नेहा, मुझे इस धारा 377 से बचाओ।'
'अब तू भी बता ही दे, ये बे क्या होता है रे?'
'फिर तू?'
'अच्छा बाबा, तुम-तुम ठीक।'
'हां तो मैं कह रही थी। ये बे है न मेरे वाले की सिग्नेचर ट्यून का जवाब है। वह फोन पर मार डालने वाले अंदाज में कहता है, 'हाय बेबी'। और बदले में मैं हमेशा कहती हूं, 'क्या है बे?'
'अच्छा अब ये दिल पर हाथ रख कर गिर पडऩे की एकटिंग अपने कमरे में जा कर करना। पहले बताओ रविवार कैसा बीता?'
'गिर कौन रहा है डॉर्लिंग, मुझे तो बस उसका 'हाय बेबी' याद आ गया।'
'तो जल्दी बता कल तू कहां गई थी।'
'आभा, फिर तू। ठीक से बोलो यार। प्लीज।'
'ओके बाबा। अब मैं तुम्हारे लखनवी अंदाज में कहूंगी, हुजूर आप। ठीक?'
'अच्छा लेकिन पहले मैं नहीं बताऊंगी कि कल क्या हुआ था। पहले ही तय हो गया था कि हम तीनों जब भी अपने रविवारी प्रेमियों से मिलेंगे, तब स्नेहा सबसे पहले बताएगी कि रविवार का उद्धार कैसे हुआ?'
'पिछले छः महीने से हम प्रेम में हैं। तुम्हें लगता है हमारे जीवन में कुछ नया होने वाला है। मुझे लगता है हम ऐसे ही सप्ताह में एक अपने प्रेमी से मिल कर अधूरी इच्छाओं के साथ मर जाएंगे।'
'वाऊ मेरे मन में क्या आयडिया आया है। हम रविवार के दिन मरेंगे। मौत भी आई तो उस दिन जो सनम का दिन था... वाह-वाह। तुम लोग भी चाहो तो दाद दे दो।'
'आभा, हम यहां तुम्हारी सड़ी शायरी सुनने नहीं इकट्ठा हुए हैं।'
'तो इसमें दही भी कभी छाछ था कि बुरी औरत की तरह मुँह बना कर बोलने की क्या बात है। आराम से कह दो। क्योंकि तुम इतनी भी अच्छी एकटिंग नहीं कर रहीं कि कोई तुम्हें रोल दे दे।'
'मैं यहीं पर तुम्हारा सर तोड़ दूंगी।'
'अब तुम भी कुछ न कुछ तोड़ ही दो। कल उसने दिल तोड़ा, आज सुबह मैंने मर्तबान तोड़ा अब तुम सर तोड़ दो।'
'अगर आप दोनों के डायलॉग का आदान-प्रदान हो गया हो तो क्या हम लोग कुछ बातें कर लें।'
'जी स्नेहा जी। मैं आपको अध्यक्ष मनोनीत करती हूं और आप बकना शुरू करें। बोलने लायक तो हमारे पास कुछ बचा नहीं।'
'तुम लोगों को नहीं लगता कि हम तीनों ही दो बच्चों के बाप से प्यार कर रही हैं। हम तीनों ही जानती हैं कि हमारा कोई भविष्य नहीं, फिर भी...।'
'बहन फिलॉस्फी नहीं, स्टोरी। आई वांट स्टोरी।'
'ओए ये स्टोरी का चूजा अपने दफ्तर में ही रख कर आया कर। हम दोनों को पता है कि तू एक नामी-गिरामी अखबार के कुछ पन्ने गोदती है।'
'हाय राम तुम दोनों कितनी खराब लड़कियां मेरा मतलब औरतें हो। क्या मैं कभी कहती हूं कि तुम अपने कथक के तोड़े और तुम अपने बेकार के नाटक की एकटिंग वहीं छोड़ कर आया करो। बूहू-हू-हू, सुबुक-सुबुक, सुड़-सुड़...!'
'अब यह बूहू-हू क्या है?'
'बैकग्राउंड म्यूजिक रानी। बिना इसके डायलॉग में मजा नहीं आता न। रोना न आए तो म्यूजिक से ही काम चलाना पड़ता है।'
'साली, थियेटर में मैं काम करती हूं और हाथ नचा-नचा कर एकटिंग तू करती है।'
'अब तेरी नौटंकी कंपनी तुझे नहीं पूछती तो मैं क्या करूं। आई एम बॉर्न एक्ट्रेस।'
'रुक अभी बताती हूं। तेरी चुटिया कहां है?'
'स्नेहा, आभा प्लीज यार। तुम दोनों कभी सीरियस क्यों नहीं होती हो यार?'
'सीरियस होने जैसा अभी भी हमारी जिंदगी में कुछ बचा है क्या मेघा? तुम्हें लगता है कि हमें जहां सीरियस होना चाहिए वहां भी हम ऐसे ही हैं, अगंभीर? क्या बताएं यार हर हफ्ते आ कर? वही की पूरा दिन उसके फ्लैट पर रहे, हर पल यह सोचते हुए कि कोई आ न जाए। यह सोचते हुए कि वो इस बार तो कहे कि वो तलाक ले लेगा। और क्या बताएं एक-दूसरे को की जब कभी उसे बाहों में भर कर प्यार करने का मन किया, उसी वक्त उसकी पत्नी का फोन आ गया। या मैं तुम्हें यह बताऊं कि उसके होंठ अब मखमली नहीं लगते, जलते अंगारे लगते हैं।'
'हां, शायद हम सब का वही हाल है। तुम दोनों के प्रेमी की बीवीयां तो दूसरे शहर में रहती हैं। इसलिए तुम दोनों उसके घर जाती हो। लेकिन मेरे वाले की तो इसी शहर में रहती है। वह मेरे घर आता है, तो जान सांसत में रहती है। मकान मालकिन जिस दिन उसे देखेगी, उसके कुछ घंटों में निकाल बाहर करेगी। तुम दोनों से ही छुपा नहीं है कि वह क्या चाहता है। और तुम दोनों ही जानती हो कि शादी से पहले मैं वह सब नहीं करूंगी। इस बात पर एक बार फिर बहस हुई।'
'मेरा वाला भी इसी बात पर अड़ा है। कहता है, 'मुझमें 'पवित्रता बोध ज्यादा है।'
'वह मुझे कहता है, मुझमें, 'सांस्कृतिक जड़ता' है।'
'आभा, हम तीनों में से तुम ही सबसे ज्यादा बोल्ड हो। तुम कैसे इस चक्कर में फंस गईं? तुम्हें तो कोई भी लड़का आसानी से...'
'मिल सकता था, यही न? आसानी से मर्द मिलते हैं रानी, लड़के नहीं। मर्द भी शादीशुदा, दो बच्चों के बाप। कुंआरे नहीं।'
'तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?'
'मुझे क्या लगता है, हमारी उम्र की किसी भी कुंआरी लड़की से पूछ लो। सभी को ऐसा ही लगता है।'
'पर ऐसा होता क्यों है? जब लड़के शादी की उम्र में होते हैं, शादी नहीं करते। जब वही लड़के मर्द बन जाते हैं, तो कहते हैं, पहले क्यों नहीं मिलीं?'
'क्योंकि शादी के बाद वे जानते हैं कि हम उनसे किसी कमिटमेंट की आशा नहीं रख सकते।'
'लेकिन मेरा वाला कहता है कि वह तलाक ले लेगा और मुझ से शादी करेगा?'
'कब? कब उठाएगा वह ऐसा वीरोचित कदम? सुनूं तो जरा'
'पांच साल बाद।'
'इतनी धीमी आवाज में क्यों बोल रही हो। यदि तुम्हें यकीन है तो इस बात को तुम्हें बुलंद आवाज में कहना चाहिए था। लेकिन मुझे पता है तुम्हारी आवाज ही तुम्हारा यकीन दिखा रहा है।'
'उसके बच्चे छोटे हैं अभी इसलिए...'
'हम दोनों वाले के तो बच्चे भी बड़े हैं, फिर भी ऐसा कुछ नहीं होगा हम दोनों ही जानती हैं। क्यों स्नेहा?'
'हूं।'
'समझने की कोशिश करो बच्ची, हम जिंदगी मांग रही हैं। उनकी जिंदगी। सामाजिक जिंदगी, आर्थिक जिंदगी, इज्जत की जिंदगी। वह जिंदगी हमें कोई नहीं देगा। इसलिए नहीं कि हम काबिल नहीं हैं, इसलिए कि हमें आसानी से भावनात्मक रूप से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वो तीनों जो हमसे चाहते हैं वह शायद हम कभी नहीं कर पाएंगी। हम उनका न हिस्सा बन सकती हैं न ही हिस्सेदार। अगर ऐसा हो जाए तो हम तीनों ही किसी मैटरनिटी होम में बैठ कर बाप के नाम की जगह या तो मुंह ताक रही होतीं या अरमानों के लाल कतरे नाली में बह जाने का इंतजार कर रही होतीं।'
'तुम बोलते वक्त इतनी कड़वी क्यों हो जाती हो?'
'मिठास का स्रोत सूख गया है न।'
'तो इस नमकीन दरिया को क्यों वक्त-बेवक्त बहाया करती हो?'
'मैं थक गईं हूं। सच में। मैं उसके साथ रहना चाहती हूं, किसी भी कीमत पर।'
'वो हम तीनों में से कौन नहीं चाहता? पर वो बिकाऊ नहीं हैं न तो हम कीमत क्या लगाएं?'
'लेकिन हम उनकी तानाशाही के बाद भी क्यों हर बार उनकी बाहों में समाने को दौड़ पड़ते हैं?'
'क्योंकि हमारी प्रॉब्लम अकेलापन है।'
'मुझे लगता है हम तीनों की प्रॉब्लम ज्यादा इनवॉल्वमेंट है।'
'ऊंह हूं, हम तीनों की प्रॉब्लम प्यार है...।'
'हम लोग उम्र के उस दौर में हैं, जहां हमारे पास थोड़ी प्रतिष्ठा भी है, थोड़ा पैसा भी है। बस नहीं है तो प्यार। जब हम कोरी स्लेट थे तो हमारे सपने बड़े थे। उस वक्त जो इबारत हम पर लिखी जाती हम उसे वैसा ही स्वीकार लेते। लेकिन अब... अब स्थिति बदल गई है। हमने दुनिया देख ली है। हमें पता चल गया है कि हम सिर्फ भोग्या नहीं हैं। हम भी भोग सकती हैं।'
'कुंआरे लड़के हमें तेज समझते हैं। लेकिन शादीशुदा मर्दों को इतने दिन में पता चल जाता है कि पत्नी की प्रतिष्ठा और पैसे की भी कीमत होती है। काम के बोझ में फंसे मर्दों को पता चल जाता है कि कामकाजी लड़कियां नाक बहते बच्चों को भी सभाल सकती हैं और बाहर जा कर पैसा भी कमा सकती हैं। लेकिन जब तक वह सोचते हैं तब तक देर हो चुकी होती है।'
'पर देर क्यों हो जाती है?'
'जब दिन होते हैं, तो वे बाइक पर किसी कमसिन को बिठा कर घूमना पसंद करते हैं। तब करियर की बात करने वाली लड़कियां अच्छी लगती हैं। साधारण नैन-नक्श पर भी प्यार आता है, लेकिन जैसे ही बात शादी की आती है, लड़के अपनी मां की शरण में पहुंच जाते हैं। तब बीवी तो खूबसूरत और घरेलू ही चाहिए होती है। तब अपनी क्षमता पर घमंड होता है। हम काम करेंगे और बीवी को रानी की तरह रखेंगे। बच्चे रहे-सहे प्रेम को भी कपूर बना देते हैं। महंगाई बढ़ती है और दफ्तर की आत्मविश्वासी लड़की देख कर एक बार फिर दिल डोल जाता है। और हमारी तरह बेवकूफ लड़कियों की भी कमी नहीं जो उनकी तारीफ के झांसों में आ जाती हैं और फिर वही बीवी बनने के सपने देखने लगती हैं, जिससे भाग कर वे मर्द हमारी झोली में गिरे थे!'
'फिर हम क्या करें?'
'अपनी शर्तों पर जिओ, अपनी शर्तों पर प्रेम करो। जो करने का मन नहीं उसके लिए इनकार करना सीखो, जो पाना चाहती हो, उसके लिए अधिकार से लड़ो।'
'पर वो हमारी शर्तों पर प्रेम क्यों करने लगे भला?'
'क्योंकि हम उनकी शर्तों पर ऐसा कर रही हैं। कोई भी अधिकार लिए बिना, हमारे कारण उन्हें वह सुकून का रविवार मिलता है।'
'फिर?'
'फिर कुछ नहीं मेरी शेरनियों, जाओ फतह हासिल करो। अगला रविवार तुम्हारा है...।'

Friday, October 30, 2009

शहतूत- मनोज कुमार पाण्डेय

तुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियां हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियां तुमने खोज-खोजकर इकट्ठा की हैं सो तुम नहीं जानते कि इनमें से कितनी चीजें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थीं और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं! या वे कौन-सी घटनाएँ हैं जो वास्तव में कभी घटी ही नहीं, किसी के भी जीवन में पर तुरन्त ही तुम्हें खयाल आता है कि तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?

तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें मैं पढ़ता हूं स्कूल की इमारत में सिर्फ तीन कमरे और एक बरामदा है। बरामदा सामने है। बरामदे के पीछे एक कमरा है। बरामदे के आजू-बाजू दो कमरे हैं जो सामने की तरफ एक अंडाकार उभार लिये हुए हैं। इन तीन कमरों में से सिर्फ एक में दरवाजा है और एक खिड़की भी, जिसकी चैखट कोई उखाड़ ले गया है। इस कमरे की दूसरी खिड़कियों में ईंटें चुनवा दी गयी हैं। बाकी दोनों कमरों की खिड़कियां इतनी बड़ी हो गयी हैं कि सोचना पड़ता है कि उन कमरों में दरवाजे से जाया जाए या खिड़कियों से। जिस एक कमरे में दरवाजा है और जिसकी एक खिड़की की चैखट कोई उखाड़ ले गया है, उसमें सिर्फ लोहे की चैखानेदार पत्तियाँ भर बची हैं। इन पत्तियों के बाहर से मैं इस कमरे में बहुत देर तक झाँकता रहता हूं। इस कमरे में दो साबुत कुर्सियाँ हैं, एक मेज, तीन लकड़ी की आलमारियां, एक झूला कुर्सी, एक काठ का घोड़ा, एक सरकसीढ़ी, कुछ नयी पुरानी किताबें, दो जंग खाये बक्से और उनके ऊपर बेतरतीब ढंग से रखी हुई परीक्षा वाली कॉपियां। इस कमरे में हमेशा ताला बंद रहता है। यह सुबह के दस साढ़े दस बजे खुलता है और इसके भीतर की दोनों कुर्सियां निकाली जाती हैं। एक मिसिर मास्टर के लिए और एक बालगोविन्न मास्टर के लिए। शाम को फिर ताला खुलता है- दोनों कुर्सियां फिर से इसी कमरे में रख दी जाती हैं और फिर से ताला बन्द कर दिया जाता है। एक बार कई दिनों तक इस कमरे की चाबी मेरे पास भी रही थी पर मुझे खिड़की से झाँकना ज्यादा अच्छा लगता है।
स्कूल, स्कूल में नहीं स्कूल के पश्चिम के बाग में चलता है। आम के पेड़ों की हरी छाया में। पेड़ खूब बड़े-बड़े हैं इसलिए पेड़ हमारी पहुंच में नहीं हैं। बस उनकी छाया ही हमारी पहुंच में है। स्कूल चलते-चलते बाग की सतह चिकनी और समतल हो गयी है। इसी बाग में कोई पाँच पेड़ छाँट लिये जाते हैं और उन पाँच पेड़ों के नीचे पाँच कक्षाएं चलती हैं। कक्षाओं का मुंह पेड़ की तरफ होता है जहां पेड़ की बगल में एक कुर्सी आ जाती है। मिसिर मास्टर और बालगोविन्न मास्टर जब एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हैं तो उनके साथ उनकी कुर्सियां भी जाती हैं। मास्टर पहले पहुंच जाते हैं और खड़े रहते हैं फिर पीछे-पीछे कुर्सी पहुंचती है। मास्टर कुर्सी पर बैठ जाते हैं। हम सब बच्चे भी बैठ जाते हैं। हम जमीन पर बैठते हैं। हम अपने बैठने के लिए घर से बोरियां लेकर आते हैं और लौटते समय बोरी अपने झोले में भर लेते हैं। झोला भी बोरी से बना होता है और कई बार कई लड़कों के कपड़े भी। ये बोरियाँ जाड़े में हमारे दोहरे काम आती हैं स्कूल से लौटते हुए हम इसमें आग तापने के लिए सूखी पत्तियां बटोरकर घर ले जाते हैं।
स्कूल के पूरब की तरफ एक पुराना-सा कुआं है। जब स्कूल खुला रहता है तो उसकी जगत पर एक रस्सी-बाल्टी रखी रहती है। हमें खूब प्यास लगती है। हम जितना पानी पीते हैं उससे ज्यादा गिराते हैं। कुएं का पानी खूब ऊपर तक है। हम इसे जादुई कुआं कहते हैं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है इसका पानी ठंडा होता चला जाता है और जैसे-जैसे जाड़ा आता है इसका पानी गर्म होता चला आता है। कुएं के पूरब में मेहंदी के कई झाड़ थे जिन पर हम झूला झूलते थे। एक बार मैं इस पर झूल रहा था कि मिसिर मास्टर आते दिखाई पड़े। मैं जल्दी से उतरने लगा और नीचे आ गिरा। मिसिर मास्टर ने मुझे कई डंडे मारे पर मैं उठ नहीं पाया। थोड़ी देर में मेरा पैर ऐसे सूज आया जैसे मुझे हाथीपांव हो गया हो। मिसिर मास्टर ने चारपाई मंगवाई और मुझे घर भिजवा दिया। हफ्ते भर बाद जब मैं फिर से स्कूल आया तो वहां मेहंदी का एक भी पेड़ नहीं बचा था। उनकी जगह पर कुछ चीखती हुई खूंटियां भर थीं। तब भी जब मैं उधर से गुजरता हूं तो कभी स्याही गिर जाती है तो कभी कलम। कितना भी ढूंढ़ो, वहां गुम हुई चीजें दोबारा कभी नहीं मिलती। खूंटियों के आगे जाने की हमें मनाही है। आगे जंगल शुरू हो जाता है।
स्कूल में दो ही मास्टर हैं। एक मिसिर मास्टर, एक बालगोविन्न मास्टर। दोनों कुर्ता पहनते हैं। बालगोविन्न मास्टर की तोंद बहुत बड़ी है। जब वह चलतें हैं तो उनकी तोंद आगे-पीछे होती हुई बहुत मजेदार लगती है। बालगोविन्न मास्टर छड़ी लेकर चलते हैं पर हमें मारने के लिए उन्हें बांस की पतली-पतली टहनियां पसन्द हैं जो चमड़े को चूमती हैं तो एक शाइस्ता-सी सटाक की आवाज होती है और जिस्म में पतली-पतली लाल रेखाएं बन जाती हैं जो थोड़ी देर बाद जिस्म के नक्शे पर उभरी लाल पगडंडियों-सी दिखाई देने लगती हैं बालगोविन्न मास्टर इन पगडंडियों पर बिना छड़ी लिये ही चलते हैं।
मिसिर मास्टर खूब काले हैं और काली-काली मूंछे रखते हैं। उनका घर स्कूल के पश्चिम के बाग के पश्चिम में है। वह अपनी मिसिराइन को खूब पीटते हैंं। कई बार जब वह मिसिराइन को पीट रहे होते हैं तो उनकी चीखें हम तक पहुंच जाती हैं। पीटने के दृश्य हम तक पहुंच जाते हैं। जिस दिन भी ऐसा होता है हम दिन भर डरे रहते हैं। क्या हमारा पिटना मिसिराइन को दिखता होगा तो वे भी ऐसे ही डर जाती होंगी? मिसिर मास्टर की मेरे पिता से खूब जमती है। मेरे पिता भी मास्टर हैं सुबह मेरे पिता मिसिर मास्टर के यहां जाते हैं तो शाम को मिसिर मास्टर मेरे यहां आ जाते हैं। मैं पिता से भी डरता हूं और मिसिर मास्टर से भी। मिसिर मास्टर कक्षा में जब कभी इम्तहान लेते हैं सारे बच्चों की कॉपियां मुझसे जंचवाते हैं और मेरी कॉपी खुद जांचते हैं। इससे क्लास में मेरा रूतबा थोड़ा बढ़ जाता है और मैं चाहता हूं कि ये स्थिति हमेशा कायम रहे।
मेरी कक्षा में एक लड़का है ‘अशोक कुमार निर्मल’। उसका घर का नाम बितानू है। हम भी उसे बितानू कहते हैं और अपनी स्याहियां उसके कपड़े या झोले पर पोंछ देते हैं। वह शिकायत करता है तो मिसिर मास्टर हंसने लगते हैं। कहते हैं कि ‘‘तू क्यों रोता है बे ! तेरी माई जैसे इतने लोगों का धोती है वैसे ही तेरा भी धो देगी।’’ पूरी कक्षा फिसिर-फिसिर करने लगती है और बितानू का चेहरा तमतमा उठता है। अब धीरे-धीरे उसने शिकायत करनी बन्द कर दी है। हम उसके साथ बदमाशी करते हैं तो वह जलती आंखों से हमें देखता है और न जाने क्या-क्या बुदबुदानेे लगता है! इधर उसका बुदबुदाना बढ़ता जा रहा है पर हम उसकी बुदबुदाहट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि मिसिर मास्टर और कक्षा की बहुसंख्या हमारे साथ होती है। मैं अपनी कक्षा में पढ़ने में सबसे अच्छा हूं। मुझे अधिकतर सवालों के जवाब आते हैं। पर एक दिन ऐसा हुआ कि मिसिर मास्टर ने जो सवाल दिये उनमें से पाँच में से तीन मुझे नहीं आते थे। पूरा दम लगाकर भी मैं गणित के उन सवालों को हल नहीं कर पाया। मुझे मिसिर मास्टर से डर लगा। ऐसे किसी भी मौके पर मिसिर मास्टर दूसरों की अपेक्षा मुझे ज्यादा पीटते थे। कहते, ससुर बाभन का लड़का होकर तुम्हारा ये हाल है।’’ या “पढ़ोगे नहीं ससुर तौ का निर्मलवा की तरह गदहा चराओगे?” लड़कियों के लिए कहते, “इन ससुरिन को, क्या करना है! घर में रहेंगी, चूल्हा-चैका करेंगी और लड़िका जनेंगी।” ऐसा कोई भी प्रसंग पूरी कक्षा पर भारी गुजरता है। मैं या जो भी उनके कोप का भाजन बनता है पिट-पिटकर चकनाचूर हो जाता है और दूसरों के चेहरे बिना पिटे ही सहम जाते हैं लड़कियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। पर बितानू कुछ दूसरी तरह का है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और वहां आग दहकने लगती है। इसीलिए वह सबसे ज्यादा मार खाता है।
तोे उस दिन इसी बितानू ने पाँच के पाँचों सवालों के जवाब सही-सही दिये थे और मैं पाँच में से तीन का जवाब नहीं दे पाया था, पर मेरी कॉपी तो मिसिर मास्टर सबके बाद में जाँचते हैं पहले तो मैं ही बाकी कॉपियां जाँचता हूं तो उस दिन मैंने जान-बूझकर बितानू के तीन सवालों को गलत काट दिया। मेरी कॉपी मिसिर मास्टर ने देखी। तीन सवाल तो मैंने किये ही नही थे। सबके साथ-साथ मेरी भी पिटाई अच्छे से हुई बल्कि मेरी कुछ ज्यादा ही अच्छे से, क्योंकि बाभन होने की वजह से और पिता के साथ दोस्ताना सम्बन्धों की वजह से मिसिर मास्टर मेरे प्रति कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी महसूस करते हैं। तो मिसिर मास्टर ने मेरे बदन का भूगोल बदल दिया। कहीं नदियां निकल आयीं तो कहीं छोटे-छोटे पहाड़। पर इतना जैसे कम था।
बितानू उठा और अपनी कॉपी लेकर मिसिर मास्टर के पास पहुंच गया। बोला, “मास्साब मेरे ये सवाल सही हैं, फिर भी राजकरन ने गलत काट दिया।”
मिसिर मास्टर ने उसे उपहास के भाव से देखा और बोले, “तौ अब धोबी-धुर्रा बाभन में गलती निकालेंगे?” फिर पता नहीं क्या सोचकर बोले, ‘‘ला कापी इधर ला।
मैं तो सच पहले से ही जानता था। मिसिर मास्टर ने मेरी तरफ देखा और मैं मशीन की तरह उठकर उनके पास जा पहूंचा। बस चार डंडे की सजा मिली पर दूसरे दिन बितानू ज्यादा पिटा क्योंकि ‘निर्मल’ होने के बावजूद वह गन्दे कपड़े पहनकर आया था। उस दिन के बाद से बितानू ने स्कूल आना छोड़ दिया। कक्षा में एक जगह खाली हो गयी और मेरे भीतर भी। मुझे लगा कि अगर उस दिन मैंने उसके सवाल गलत नहीं काटे होते तो बितानू स्कूल नहीं छोड़ता, पर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया।
हुआ यह कि मिसिर मास्टर के बेटे की तिलक थी। पिता गये हुए थे। मैं भी उनके साथ गया था। खूब चहल-पहल थी। अचानक पता नहीं क्या सूझा कि मैंने बायें हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर एक गोल घेरा बनाया और उसमें दायें हाथ की तर्जनी बार-बार डालने निकालने लगा। मैं यह काम पूरी तल्लीनता से कर रहा था। दो लड़के मुझे देखकर हँस रहे थे और कुछ इशारे कर रहे थे। पिता की निगाह मुझ पर गयी तो उनका चेहरा कस उठा। उन्होंने मुझे बुलाया, कसकर कान उमेठा और घर जाने के लिए कहा। मैं मुंह बनाता और कान सहलाता घर चला आया।
पिता रात में घर आये तब तक मैं सो गया था। उन्होंने मुझे बुलाने के लिए कहा तो दीदी गयी और मुझे जगा लायी। पिता ने मुझे इतनी जोर का थप्पड़ मारा कि मैं जमीन पर लोट गया। इसके बाद पिता ने कहा कि कल से स्कूल जाना बन्द। मैं बहुत देर तक जमीन पर वैसे ही मुर्दे की तरह पड़ा रहा। फिर दीदी मुझे उठाने आयी। मैंने उसका हाथ झटक दिया। खुद उठा और बिस्तर पर पहुंच गया। पूरी रात मुझे नींद नहीं आयी। मैं पूरी रात इस बारे में सोचता रहा कि पिता ने मुझे क्यों मारा! पर मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। अगले कई दिनों तक स्कूल जाना बन्द ही रहा। पर मैं दिन में दो बार मैदान जाने का डिब्बा उठाता और स्कूल के पूरब तरफ जंगल में पहुंच जाता। वहां बैठे-बैठे मैं स्कूल की तरफ ताका करता।
एक दिन मैं ऐसे ही वहां छुपा बैठा था और स्कूल की तरफ ताक रहा था कि बालगोविन्न मास्टर लोटा लेकर अन्दर आते दिखाई पड़े। बालगोविन्न मास्टर थोड़ा-सा अन्दर आये, एक जगह आड़ तलाशी और धोती खोलकर बैठ गये। बालगोविन्न मास्टर मुझे देख न लें इस डर से में पीछे खिसकता चला गया। जब तक वह धोती खोल बैठे रहे, डर के मारे मेरी घिग्घी बंधी रही। वह उठने ही वाले थे कि एक बड़ा-सा ढेला आकर उनकी पीठ पर पड़ा। बालगोविन्न मास्टर हकबकाकर आगे रखे लोटे पर गिर गये। लोटे का सारा पानी गिर गया। बालगोविन्न मास्टर कांखते हुए चिल्लाये, ‘‘कौन है ससुर?’’ किसी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। मैं डर के मारे जमीन पर लेट-सा गया। बालगोविन्न मास्टर बहुत देर तक इधर-उधर देखते रहे, फिर उन्होंने बगल से लसोढ़े की पत्तियां तोड़ी और उससे अपना पिछवाड़ा साफ किया, इधर-उधर देखते हुए धोती पहनी और बाहर निकल गये।
बालगोविन्न मास्टर बाहर निकल गये तो मुझे डर लगा। मैं उठकर खड़ा हो गया और अनायास ही चारों तरफ देखा। चारों तरफ पेड़, झाड़ियां, फूल ही फूल। आम, महुआ, लसोढ़ा, बेर, करौंदा, कैथा, सेमल, नीम, बबूल, जंगलजलेबी, मकोय, ढिठोरी, चिलबिल और भी न जाने क्या-क्या जिनके मैं नाम तक नहीं जानता। पेड़ों के ऊपर घनी लताएं फैली हुई थीं। इतनी कि कई पेड़ दिख ही नहीं रहे थे, सिर्फ लताएं दिख रही थीं। कुछ जगहों पर लताएं भी नहीं दिख रही थीं, सिर्फ नीले-पीले फूल दिख रहे थे।
मुझे सब कुछ जादू-जादू-सा लगा। मेरा डर उड़नछू हो गया। जैसे किसी सम्मोहन की कैद में मैं जंगल के भीतर की तरफ बढ़ने लगा। अन्दर एक तालाब था जिसके किनारे-किनारे काई फैैली हुई थी। उसमें बैगनी रंग के गुच्छेदार फूल खिले हुए थे और अन्दर की तरफ कमल के बड़े-बड़े पत्ते पानी की सतह पर हरे धब्बों की तरह तैर रहे थे और चारों तरफ खूब कमल ओर कुमुदिनी के फूल खिले हुए थे। मैंने इसके पहले सचमुच का कमल नहीं देखा था। मेरे घर के ओसारे में दरवाजे के ऊपर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें टंगी हुई हैं, उन सबमें कमल के फूल हैं। एक ब्रह्माजी की तस्वीर है जिसमें वह कमल के फूल पर बैठे हुए हैं, दूसरी सरस्वती की तस्वीर है जिसमें उनके एक हाथ में कमल का फूल लटका हुआ है। ऐसे ही एक कुबेर-लक्ष्मी की तस्वीर है जिसमें दोनों एक हाथी पर बैठे हुए हैं और हाथी अपनी सूंड़ से एक कमल का फूल तोड़ रहा है। तो मेरे ध्यान में कमल के फूल से जुड़े जितने भी प्रसंग थे सब देवताओं से जुडे़ हुए थे, इसीलिए जब मैंने तालाब में कमल खिले देखे तो तालाब मुझे पवित्र किस्म का लगा। मुझे लगा कि रात में जरूर यहां परियाँ उतरती होंगी। मेरा मन हुआ कि मैं एक कमल का फूल तोड़ूं पर कमल तालाब में काफी अन्दर खिले हुए थे। तालाब गहरा हो सकता था और मुझे तैरना नहीं आता।
तभी मैंने देखा कि एक तरफ से धुआं उठ रहा है। मैं धीरे-धीरे वहां पहुंचा तो देखा कि ओमप्रकाश और बितानू आग में से कुछ निकाल रहे हैं ओमप्रकाश मुझसे एक कक्षा आगे पाँचवी में पढ़ता है। मैं उन दोनों तक पहुंचता उसके पहले ही बितानू ने मुझे देख लिया और उठकर खड़ा हो गया।
मुझे लगा कि दोनों मुझे देखकर सकपका से गये। पर बितानू ने कहा, ’’वहां क्यों खड़े हो पंडित? यहां आओ।‘‘
मैं असमंजस में रहा! फिर धीरे-धीरे चलकर उनके पास जाकर खड़ा हो गया। सामने गणित की रफ कॉपी का पन्ना पड़ा हुआ था। उस पर तीन भुनी मछलियां रखी हुईं थीं। कागज पर एक कोने में थोड़ा सा पिसा नमक रखा था। बितानू ने पूछा, ‘‘खाओगे पंडित?’’
मैंने कहा, ‘‘छिः तुम लोग पापी हो।’’
ओमप्रकाश हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘अच्छा पंडित जी हम लोग तो पापी हैं ही पर मछली तो आज आपको भी खानी पड़ेगी। नहीं तो मैं बालगोविन्न मास्टर को बता दूंगा कि उनको ढेला तुमने मारा था।’’
मैं चैंक गया। “इसका मतलब उनको ढेला तुम लोगो ने मारा था।” मैंने कहा।
‘‘तो क्या हुआ! हम दो हैं और तुम अकेले। दो की बात में ज्यादा दम होता है।’’ ये बितानू था।
उसके दो वाले तर्क से मैं गड़बड़ा गया। फिर भी मैंने कहा, ‘‘मैं यह भी बताऊंगा कि तुम दोनों यहां यह सब करते हो।’’
बितानू बोला, ‘‘देख बे पंडित, जा बता दे। मैं तो पहले से ही स्कूल नहीं आता, तेरा मास्टर मेरा क्या उखाड़ेगा!’’
दोनों तनकर खड़े हो गये। मुझमें वह हिम्मत नहीं बची कि मैं उन दोनों की शिकायत करने के बारे में सोचता। दोनों मुझसे ज्यादा ताकतवर। और शिकायत करके भी क्या होगा, सही बात है कि बितानू तो पहले से ही स्कूल छोड़ चुका है और फिर पिता ने मुझे भी तो स्कूल आने से मना किया है। पिता पूछेंगे कि तुम वहां क्या कर रहे थे तो मैं क्या जवाब दूंगा! अब बचा ओमप्रकाश, वह तो स्कूल भी जाता है, ऊपर से मुझसे ऊपर की कक्षा में पढ़ता है। अगर उसने मेरी शिकायत कर दी तो.........
तो मैंने कहा, ‘‘देखो तुम लोग मेरे बारे में कुछ मत बताना। मैं भी तुम दोनों के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’’
बितानू बोला, ‘‘हम तो बताएंगे।’’ शायद वह मेरे डर को भांप गया था।
मैं बहुत देर तक न-नुकुर करता रहा। वे दोनों मुझे धमकाते रहे।
आखिरकार मैंने मिनमिनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा थोड़ी-सी दो। अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं खाऊंगा।’’
ओमप्रकाश ने मछली का एक टुकड़ा निकाला, उसमें नमक छुवाया और मेरे मुंह में डाल दिया। मुझे उबकाई-सी आयी। आंखों में आंसू आने को हुए, पर मैं उबकाई और आंसू दोनों पी गया। देर तक वह टुकड़ा मेरे मुंह में वैसे का वैसे ही पड़ा रहा। फिर उसका नमक मेरे मुंह में घुला। उसमें एक अजीब-सी महक थी। मेरे रोयें सन्न भाव से खड़े हो गये जैसे किसी अनपेक्षित का इन्तजार कर रहे हों। फिर मछली का टुकड़ा मेरे मुंह में बिखर गया। मैं दम साधे उसे महसूस करने की कोशिश कर रहा था। टुकड़ा और घुला। थोड़ा और। और। फिर मैंने उससे एक टुकड़ा और मांगा।
बितानू बोला, ‘‘शाबास पंडित, मजा आया न !’’
मैं हंसने लगा। इसके बाद मैं भी उनका साझीदार हो गया।
अगले कई दिनों तक मैं रोज मैदान जाने का डिब्बा लेकर वहां पहुंचता रहा। ओमप्रकाश अपने साथ मछली फांसने वाली कटिया लेकर आता। कटिया चार-पाँच मीटर लम्बे ताँत के तार की बनी होती, जिसके एक छोर पर वह वहीं छुपायी गयी बांस की टहनी लगा देता। दूसरे छोर पर एक पतला-सा लोहे का तार नुमा बंसी लगी होती जिसका अगला हिस्सा हुक की तरह मुड़ा होता। वह वहीं तालाब के किनारे की नमी से केंचुए इकट्ठा करता और हुक में केंचुए फंसा देता। वह कई-कई कटिया लगाकर स्कूल चला जाता। जब इंटरवल होता तो वह तालाब की तरफ लपकता। मैं पहले से ही वहां पहुंचा होता।
वहीं पर मैंने पहली बार अंडे खाये। बीड़ी का सुट्टा मारा। फिर एक दिन अम्मा ने कहा कि मैं पिता के स्कूल के लिए निकल जाने के बाद स्कूल चला जाया करूं। इसमें कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि पिता का स्कूल दूर था और वह पहले ही निकल जाते थे। मेरा स्कूल घर के सामने ही था सो मैं आराम से बाद में जा सकता था। अम्मा ने जरूर पिता की सहमति से ही ऐसा किया होगा। अम्मा न बताती तब भी उन्हें तो मिसिर मास्टर से पता चल ही जाना था।
कितना अच्छा होता कि स्कूल घर से दूर होता। कितना अच्छा होता कि स्कूल के मिसिर मास्टर, बालगोविन्न मास्टर और पिता एक दूसरे को जानते न होते। हम घर में भी पिटते और स्कूल में भी। दोनों जगहों पर हम संदिग्ध थे और हमें ठोंक-पीटकर अच्छा बनाने का पवित्र अभियान चलाया जा रहा था।
मैं स्कूल जाने लगा तो धीरे-धीरे मेरी दोस्ती ओमप्रकाश और बितानू से बढ़ती गयी। स्कूल में मेरा वक्त ओमप्रकाश के साथ बीतता और इंटरवल में बितानू हम दोनों का तालाब पर इन्तजार करता कभी मछली, कभी चिड़िया के अंडे, कभी आलू कभी कुमुदिनी की जड़ तो कभी अरहर और मटर की फलियों के साथ।
ओमप्रकाश के साथ उसकी बहन भी स्कूल आती थी। वह मुझे बहुत सुन्दर लगती थी। उसके बायें गाल पर चवन्नी बराबर एक बड़ा-सा तिल था। तिल मुझे बहुत अच्छा लगता था और मुझे उसकी तरफ खींचता था। मेरा मन उसे छूने का करता। मैं उसे देर-देर तक चुपके-चुपके निहारता था। मैंने एक दिन ओमप्रकाश से कह ही दिया,
‘‘ओम भाई, तुम्हारी बहन मुझे बहुुत अच्छी लगती है।’’
उसने कहा, ‘‘मुझे भी तुम्हारी दीदी बहुत अच्छी लगती है। चलो बदल लेते हैं। तुम अपनी दीदी मुझे दे दो और मेरी बहन ले लो।’’
दीदी वहीं बगल के मिडिल स्कूल में आठवीं में पढ़ती थी। वह न जाने कहां पीछे दुबकी थी और हमारी बातें सुन रही थी। दीदी अचानक प्रकट हुई और इसके पहले कि हम कुछ समझ पाते उसने मेरे और ओमप्रकाश के सिरों को पकड़कर आपस में लड़ा दिया। हम दोनों की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। दीदी ने हम दोनों की खूब ताबड़तोड़ ढंग से पिटाई की। हम दोनों पस्त होकर वहीं पड़े रहे और दीदी ने घर जाकर सब कुछ बता दिया।
घर पहुंचा तो दादी डंडा लिए मेरा इन्तजार कर रही थी। खूब पिटाई हुई। दूसरे दिन स्कूल में भी मेरी और ओमप्रकाश की जमकर पिटाई हुई। कई दिनों बाद दादी ने प्यार से समझाया कि उसका क्या जाता! मान लो ऐसा हो जाय तो बाभन की लड़की पाकर उसकी तो इज्जत बढ़ जाएगी पर तुम्हारे तो पूरे खानदान की नाक कट जाएगी कि तुम्हारी बहन किसी सूद-बहरी के साथ चली गयी। अरे ऐसी बातों पर तो गर्दन तक कट जाती हैं अैार तू है कि....... कुल का कलंक बनकर पैदा हुआ है।
इसके बाद हम पर स्कूल में नजर रखी जाने लगी। घर पर लगातार सुनने को मिलता कि अच्छे लड़के सूद-बहरी की संगत नहीं किया करते। ऐसा करने से उनका मन गन्दा हो जाता है और उनके भीतर तमाम गन्दी आदतें आ जाती हैं। स्कूल में भी मिसिर मास्टर की निगाहों में आने से बचना होता था। सो हमारे मिलने की एकमात्र जगह जंगल था।
ओमप्रकाश इस बीच बेवजह पिटने लगा था। कई बार मिसिर मास्टर उसके नाम को लेकर उसकी फजीहत करते। ‘‘ससुर अंधेरे की औलाद नाम ओम प्रकाश!’’ फिर एक दिन उसे मिसिर मास्टर ने कुएं पर जाने और रस्सी-बाल्टी छूने से मना कर दिया। ओमप्रकाश नहीं माना तो मिसिर मास्टर ने उसे जमीन पर गिराकर लातों और डंडों से खूब पीटा। ओमप्रकाश की समझ में जब कुछ नही आया तो उसने मिसिर मास्टर की कलाई में दांत गड़ा दिया। मिसिर मास्टर ने चिल्लाकर उसे छोड़ दिया। ओमप्रकाश थोड़ा दूर गया और वहां से ईंट का एक टुकड़ा उठाकर मिसिर मास्टर के सिर पर दे मारा। मिसिर मास्टर सिर थाम कर बैठ गये तो ओमप्रकाश ने उन्हें मां की गाली दी और घर भाग गया। दूसरे दिन ओमप्रकाश के घर वाले आकर सरेआम मिसिर मास्टर की मां बहन कर गये। इसके बाद ओमप्रकाश और उसकी बहन दोनों का स्कूल आना बन्द हो गया।
पन्द्रह-बीस दिन बाद एक दिन कुएं में मरा हुआ कुत्ता तैरता दिखा। दो दिन तक लगातार कुएं का पानी निकलवाया गया। मिसिर मास्टर ने घर से लाकर गंगाजल डाला पर दस दिन बाद ही कुएं में मरा हुआ बछड़ा पाया गया। इसके बाद कुएं में एक बदबू फैल गयी जो बढ़ती ही गयी। इसके बावजूद छोटे-छोटे बच्चेे जाते और उसमें ईंट के टुकड़े उछालते तो एक छपाक की आवाज होती और पानी के कुछ छींटे बाहर आ जाते। पानी में कीड़े पड़ गये थे। कई बार पानी के साथ कीड़े भी बाहर आ जाते। बाद में इस कुएं में कूड़ा फेंका जाने लगा। धीरे-धीरे पानी गायब हो गया और बजबजाता हुआ कीचड़ भर बचा जिसमें घिनौने कीड़े रेंगते जोंकें कई बार ऊपर तक चली आतीं और कुएं की जगत पर फिसलती दिखाईं देतीं। कुएं के ऊपर से जो हवा गुजरती उसमें एक जहरीली बदबू फैल जाती। एक-एक कर कुएं में कई ऐसे बच्चे पाये गये जिनकी नाल तक नहीं काटी गयी थी। इनके बारे में पता ही तब चलता है जब कुएं के ऊपर कौव्वे या गिद्ध मंडराने लगते हैं।
ओमप्रकाश के जाने के बाद बितानू ने भी तालाब पर आना बन्द कर दिया। मैं अकेला पड़ गया हूं। मिसिर मास्टर लगभग रोज मुझे पीटते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ओमप्रकाश और उसके घरवालों से गाली उन्होंने मेरी वजह से खायी। मैं अकेला पड़ गया हूं पर इस बीच मुझे वर्जित का चस्का लग चुका है। मैं पेड़ पर नहीं चढ़ पाता। मैं मछली नहीं फंसा पाता। बीड़ी पिये भी बहुत दिन हो गये हैं पर मैं जंगल में अकेले ही भटका करता हूं। पूरे जंगल का स्वाद मुझे पता है। मछली न सही इमली, अमोला, करौंदा, कैथा, झरबेरी या बढ़हल की फुलौरियों का स्वाद मंुह में पानी ला देता है। जब इमली में फलियां नहीं लगी होती हैं तो कई बार मैं इमली की नरम-नवेली पत्तियां खाता हूं। उनमें भी इमली जैसा ताजा खट्टापन होता है। मैंने एक घास भी खोज निकाली है जो तालाब के किनारे की नम जगहों पर पनपती है। इसकी गुच्छेदार पत्तियां इमली से भी ज्यादा खट्टी होती हैं। उनको खाने से कई बार दांत इतने खट्टे हो जाते हैं कि रोटी चबाना तक मुश्किल होता है। पर सबसे ज्यादा फिदा मैं शहतूतों पर हुआ हूं। तालाब के किनारे-किनारे शहतूतों का एक जंगल जैसा है। यहां शहतूतों के बीसियों पेड़ उगे हैं जब उन पर फल आते हैं तो ये फल इतने हरे होते हैं कि उन्हें पत्तियों से अलग देख पाना भी मुश्किल होता है। फिर उन फलों पर एक लाली उतरने लगती है। उधर लाली दिखी नहीं कि मेरे मुंह में पानी आना शुरू हो जाता है और काले फलों के दिखाई देते ही मैं उस पर बेसब्री से टूट पड़ता हूं छोटे-छोटे फल जीभ के जरा-सा दबाव पर ही मुंह में घुल जाते हैं खाते-खाते जीभ लाल हो जाती है। कई बार कपड़ों पर भी दाग पड़ जाते हैं जिन्हें बितानू की माई छुड़ाती है।

ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारी दुनिया के समान्तर स्मृतियों की भी एक जीती-जागती दुनिया है जहां तुम बितानू, ओमप्रकाश और मछलियों की तलाश में भटकते हो। तुम मानते हो कि वहां एक सचमुच का स्कूल है जिसमें मिसिर मास्टर ओर बालगोविन्न मास्टर पढ़ाते हैं और जहां से तुम भागे हुए हो। तुम्हें पता नहीं कि कुएं की दुर्गन्ध शहतूतों में समा चुकी है इसीलिए तुम्हें अभी भी लगता है कि शहतूत दुनिया के सबसे स्वादिष्ट फल हैं।
तुम महानगर में रहते हो। महानगर में आजकल तपती हुई गर्मी पड़ रही है। तुम कई दिनों से एक बाबू से मिलने जा रहे हो जिसने तुम्हारा काम लटका रखा है। धूप और गर्मी बर्दाश्त नहीं होती तो जल्दी पहुंचने के लिए अपनी जेब सहलाते हुए तुम रिक्शा करते हो। तुम ओमप्रकाश की याद में इतने डूबे हुए हो कि तुम्हें पता भी नहीं चल पाता कि जिस रिक्शे पर तुम बैठे हुए हो उसे ओमप्रकाश चला रहा है। रिक्शे से उतरकर तुम आॅफिस जाते हो तो तुम्हें पता चलता है कि जिस बाबू ने तुम्हारा काम रोक रखा है उसका तबादला हो गाया है और उसकी जगह पर अशोक कुमार निर्मल बैठा हुआ है। तुम उसे देखकर खुश हो जाते हो पर वह तुम्हारी यादों में इतना डूबा हुआ है कि तुम्हें पहचान ही नहीं पाता। तुम्हे लगता है कि यह दुनिया एक जंगल है। तब तुम तालाब खोजने लगते हो। तुम्हें तालाब नहीं मिलता, तुम्हें एक नल मिलता है। नल का पानी इतना गर्म है कि तुम्हारे हाथों पर छाले पड़ जाते हैं और तुम्हारा चेहरा शहतूतों की तरह काला पड़ जाता है। तुम्हें शहतूतों की याद आती है। तभी तुम देखते हो कि नल का पानी जहां जाकर इकट्ठा होता है उसके बगल में शहतूत का एक पेड़ है जो फलों से लदा हुआ है। तुम उसके नजदीक जाते हो तो पेड़ तुम्हें अपने घेरे में ले लेता है और तुम्हें छाँट-छाँटकर अपने सबसे मीठे फल देने लगता है। अब तुम बड़े हो गये हो। तुम फलों को घर लाओगे, उन्हें धोओगे तब खाओगे पर तुम ऐसा नहीं करते। पता नहीं एक बचपना तुम्हारे भीतर बचा हुआ है या पेड़ ही बेसब्र हो उठता है कि वह तुम्हारी अंजुरी शहतूतों से भर देता है। तुम एक साथ सारे शहतूत अपने मुंह में भर लेते हो। अचानक तुम्हें जोर की उबकाई आती है। तुम्हें लगता है कि तुमने अपने मुह में रोंयेदार गुजगुजे कीड़े भर लिये हैं। पेड़ तुम्हारा माथा सहलाना चाहता है पर तुम बाहर भागते हो। तुम फिर से नल पर जाओगे और कुल्ला करोगे और आज के बाद शहतूतों की तरफ पलटकर भी नहीं देखोगे। आगे हो सकता है कि तुम किसी ऐसे जंगल में जाकर बस जाओ जहां शहतूत क्या मछली, मेहंदी, इमली, बढ़हल या कमल जैसी चीजें सपनों में भी तुम तक न पहुँच सकें।
मैं इसी बात से तो डरता हूँ।

मनोज कुमार पाण्डेय

Monday, July 27, 2009

नींद के बाहर- धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानी

इन दिनों हर माह हम वरिष्ठ कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानियाँ प्रकाशित कर चुके हैं। अब तक आप 'उस धूसर सन्नाटे में' और 'उस रात की गंध' कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानी जो एक समय में काफी चर्चित भी हुई थी।


नींद के बाहर


छह दिसंबर के आठ साल बाद, छह दिसंबर को ही, धनराज चौधरी की बाबरी मस्जिद भी ढह गई, लेकिन इस बार न कहीं दंगा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर धनराज चैधरी, जो लकदक दोस्तों की चकमक दुनिया में धनराज के नाम से मशहूर था, ने जेब से रूमाल निकालकर अपना चश्मा साफ किया, वापस आंखों पर चढ़ाया और खड़ा हो गया। ऑफिस से मिली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पर्सनल डायरेक्टर को पकड़ाए और जाने के लिए मुड़ा।

‘जस्ट ए मिनट।‘ पर्सनल डायरेक्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मुस्कान के साथ बोला, ‘ऑल द बेस्ट। यू नो वी ऑल आर इन द सेम बोट। जाना सभी को है। किसी को पहले, किसी को बाद में। मार्केट में सम्राट समूह का खाता बन्द हो रहा है।‘

‘जी!‘ धनराज ने अस्फुट स्वरों में कहा और पर्सनल डायरेक्टर के केबिन से बाहर आ गया।

यह तो बहुत भीषण चूतियापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो रिटायर होने में पूरे पंद्रह बरस बाकी हैं। वह सुस्त कदमों के साथ अपने केबिन में घुसा तो वहां सहायक कैशियर उसके इंतजार में था।

‘सर, यह रहा आपके वी. आर. एस. का चेक।‘ सहायक कैशियर ने धनराज को उसका हिसाब समझाया, ‘दस वर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सेलरी चार लाख रुपये। पांच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपये। इनकम टैक्स एक लाख रुपये। यह रहा आपका चेक चार लाख रुपये। ओ.के. सर?‘

‘कितने लोग इस स्कीम के तहत निकाले गए हैं मिस्टर सिन्हा?‘ धनराज ने पूछा।

‘फिलहाल चालीस।‘ सहायक कैशियर ने बताया, ‘लेकिन मार्च तक साठ और जाएंगे।‘

‘ओ. के. ऑल द बेस्ट।‘ धनराज हंसा। लेकिन सिन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर कहीं जोरदार दंगा हो गया है।

चेक को लिफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में डाला, दराजों से अपना छोटा-मोटा निजी सामान उठाया। ब्रीफकेस बंद कर बड़ी हसरत से अपने केबिन का मुआयना किया और बुझे मन से बाहर आ गया।

ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुंच रहे दिन थे। कंप्यूटर क्रांति घर कर चुकी थी। पूरी दुनिया एक गांव में बदल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खुल गए थे। जवान लड़के-लड़कियां नेट सर्फिंग के जरिये अपने जीवन साथी तलाश रहे थे। सौंदर्य प्रतियोगिता बाजार तय कर रहा था। विश्व सुंदरी का ताज हर वर्ष भारतीय लड़की के माथे पर दमकने पर मजबूर था, क्योंकि पूरी दुनिया की निगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में वी आर एस लागू कर कर्मचारियों को घर बिठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपक्रम निजी हाथों में जा रहे थे या जानेवाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सुपरस्टार ने पूरे देश को विशाल जुआघर में बदल डाला था और तमाम टीवी चैनलों के दर्शक छीन लिए थे। वह देश के आम लोगों को करोड़पति बनाने पर तुला था और उस गेम शो से प्राप्त पारिश्रमिक से अपने सिर पर चढ़ा करोड़ों का कर्जा उतार रहा था। रितिक रोशन का खुशनुमा जमाना था।

इन्हीं खुशनुमा दिनों में धनराज चैधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया था और टैक्सी के इंतजार में था।
बाहर सब कुछ पूर्ववत था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। डोसा-इडली, बड़ा-पाव खा रहे थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पॉइंट के समुद्र में रात चमक रही थी। ओबेराय होटल के टैरेस पर मखमली अंधेरा उतर रहा था। नरीमन पॉइंट की बिल्डिंगें सिर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पॉइंट की अटलांटा बिल्डिंग के भीतर कुछ ही देर पहले धनराज की दुनिया ढहा दी गई थी और सब चुप थे-निर्वाक।

चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अंधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्डी में एक तेज सिहरन-सी उठी। उसने टैक्सी की खिड़की का शीशा आधा गिरा दिया। समुद्री हवा का एक ठंडा टुकड़ा टैक्सी के भीतर आकर सिर उठाने लगा। धनराज को मलेरिया जैसी कंपकंपी अपने बदन पर रेंगती अनुभव हुई। यह कैसी कंपकंपी है, धनराज ने सोचा और ठंडी हवाओं को भीतर आने दिया। बाहर कई लड़कियां कम वस्त्रों में जॉगिंग कर रही थीं।

माना कि वह दिसंबर की रात थी लेकिन वह मुंबई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह कटखना नहीं होता। टैक्सी के बाहर मायावी और दिलकश मरीन ड्राइव पर वैभव की एक चमकदार धूल धारासार बरस रही थी। धनराज ने टैक्सी को ‘लोटस‘ की तरफ मुड़वा दिया।

‘लोटस‘ में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंदर, सबसे जवान और सबसे उत्तेजक लड़कियां नाच रही थीं, अंडरवल्र्ड के सबसे बड़े डॉन के सबसे खतरनाक गुंडे उन लड़कियों की हिफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंदीदा मेज पर बैठते ही धनराज को याद आया कि अब वह सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर नहीं है और किसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार को कंपनी के हित में पटाने यहां नहीं आया है। अपनी पसंदीदा मेज और पसंदीदा लड़की को छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए वह ‘लोटस‘ से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने की बीस रातें धनराज ‘लोटस‘ में ही बिताता था-नींद के बावजूद।

लेकिन आज धनराज अकेला था और नींद के बाहर था। पूरे दस वर्ष से धनराज नींद के एक तिलिस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींद के भीतर इस तिलिस्मी दुनिया में बड़े लोग, बड़े व्यापार, बड़ी पार्टियां, बड़ी सुंदरता और बड़ी मारकाट थी। इस दुनिया में बड़ी सफलता के साथ धनराज ने अपना होना सिद्ध किया हुआ था। इसीलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि नींद के बाहर की जिस लगभग अजनबी हो चुकी दुनिया में उसे अचानक उठाकर फेंक दिया गया है, वहां वह खुद को कैसे साबित करेगा?

‘लोटस‘ के बाहर बारिश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और सिहर गया। उसने उस बारिश में विपत्तियों को बरसते देख लिया था।

पैडर रोड की वाईन शॉप के किनारे टैक्सी रुकवाकर धनराज ने ड्राइवर को सौ का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ड मौंक का क्वार्टर और बिसलरी की बॉटल पकड़ लो तो।‘ ड्राइवर ने बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुंह से ‘सॉरी‘ निकल गया। असल में वह फिर भूल गया था कि वह कंपनी की गाड़ी में, कंपनी के ड्राइवर के साथ नहीं, टैक्सी में बैठा है। खुद बाहर जाकर उसने अपना सामान लिया और वापस टैक्सी में आ बैठा। बिसलरी का थोड़ा पानी पीकर उसने रम का क्र्वाटर बचे हुए पानी में मिला दिया और एक चुस्की लेकर सिगरेट जला ली।

सिद्धि विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गर्दन झुका दी। उसने तो गर्दन झुकाए-झुकाए ही काम किया था, तो फिर वी आर एस की गाज उसके सिर पर क्यों गिरी? बहुत मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में। सुबह आठ बजे तैयार होकर वह अपनी कार में बैठ जाता था और पौने दस तक दफ्तर ‘टच‘ कर लेता था। शाम सात बजे तक दफ्तर में रहने के बाद वह जन संपर्क अभियान पर निकलता था। रात दस-साढ़े दस पर घर के लिए रवाना होकर बारह-सवा बारह तक घर पहुंचता था। घर पर जाते ही वह खाना खाता था और सो जाता था। सुबह छह बजे उठकर फिर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, कॉलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी पत्नी सरिता ने संभाला हुआ था।

तो फिर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूंट भरा, अब इसका वह क्या कर सकता था कि सम्राट समूह का एक महत्वाकांक्षी प्रोडक्ट ‘सम्राट नमक‘ बाजार में पिट गया। बाजार देखना तो मार्केटिंग का काम है। वह जो कर सकता था, उसने किया। पत्रकारों के एक दल को लेकर वह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में काॅलगर्ल भी मुहैया करवाई थी।
‘रीजेंसी‘ जा रहा था। इस होटल से वह सरिता के लिए पहाड़ी कबाब और बेटे के लिए ड्राईचिली पनीर पार्सल कराता था। जाने दो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी‘ को टैक्सी के भीतर से ही हाथ हिला दिया।

मीरा-भायंदर रोड की एक सुनसान जगह पर टैक्सी रुकवाकर उसने पेशाब किया और खाली बोतलें झाड़ियों में फेंक दीं। दस मिनट के बाद टैक्सी उसके घर के नीचे थी। टैक्सीवाले को चार सौ रुपये देकर उसने सिगरेट सुलगा ली और घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। उसका फ्लैट पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेमप्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा दी, अपने विशेष अंदाज में। रात के दस बज रहे थे।

‘इतनी जल्दी‘, सरिता ने दरवाजा खोलते ही पूछा।

धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठकर सिगरेट एश ट्रे में मसल दी। फिर उसने चश्मा उतारा और तिपाई पर रख दिया। फिर वह घड़ी उतारने लगा।

‘अरे? आज ड्राइवर ऊपर तक नहीं आया?‘ सरिता चैंक गई, ‘और मोबाइल किधर है, खो दिया क्या?‘

धनराज दो-तीन मोबाइल खो चुका था और उसका ड्राइवर ब्रीफकेस उठाकर कमरे के भीतर तक आता था। एक गिलास पानी पीकर वह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।

‘गाड़ी खराब है और मोबाइल दफ्तर में छूट गया।‘ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोहित कहां है?‘ उसने बेटे की जानकारी ली।
‘रोहित इस समय तक कहां आता है? अभी तो ट्रेन में होगा। तुम आज जल्दी आ गए हो। सब ठीक तो है न?‘ सरिता आशंकित-सी हो गई।

‘हां।‘ धनराज संक्षिप्त हो गया, ‘कुछ सलाद वगैरह मिलेगा?‘

सरिता किचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी वाॅल यूनिट में बने छोटे-से बार को खोल अपने लिए रम का एक पैग बनाया और फ्रिज में से पानी निकालकर गिलास में मिला दिया। गिलास को तिपाई पर रखकर वह मुंह-हाथ धोने चला गया। तब तक सरिता एक प्लेट में चिकन के दो टुकड़े रख गई।

धनराज ने गिलास हाथ में लिया और घूमकर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा।

घर में टीवी था, वीसीआर था, फ्रिज था, म्यूजिक सिस्टम था, वाशिंग मंशीन थी, एसी था, सोफा था, वॉल यूनिट थी, डबल बेड था, डाइनिंग टेबल थी, ड्रेसिंग टेबल थी, सेंटर टेबल थी, वार्डरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, प्रिंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन थी, बर्तन थे, बिस्तर थे, कपड़े थे, बीवी थी, बेटा था और बीते दिनों की यादें थीं।

और? और तुम्हें क्या चाहिए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूंट लिया।

सरिता सलाद लेकर आई तो धनराज की आंखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोहित था। धनराज ने ध्यान से देखा, रोहित मूंछवाला होने के पायदान पर था। सुबह वह जा रहा होता था तो रोहित सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोहित सो चुका होता था। उसका वीकली ऑफ संडे होता था और रोहित शनिवार रात अपने दोस्तों के साथ वीकएंड की पार्टियों में चला जाता था। रोहित इतवार की रात दस-ग्यारह बजे खाना खाकर लौटता था, तब तक धनराज सो चुका होता था। इतवार को धनराज पूरे हफ्ते की नींद चुरा लेता था।

‘पापा ऽऽ‘, रोहित धनराज से चिपट गया।

‘बेटा ऽऽ‘, धनराज ने प्रश्न किया, ‘हमारा नमक क्यों पिट गया?‘

‘पिट गया?‘ रोहित ने लापरवाही से कहा, फिर लापरवाही में थोड़ा-सा व्यंग्य मिलाकर बोला, ‘पिटना ही था। अपना सब कुछ पिटने ही वाला है।‘

अरे बाप रे! धनराज चकित रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझदार हो गया है।

‘तेरे वेब मीडिया के क्या हाल हैं?‘ धनराज ने पिताओं जैसी उत्सुकता जताने की कोशिश की।

अपने कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करने के बाद रोहित वेब मीडिया नाम की कंपनी में ट्रेनी ग्राफिक डिजाइनर हो गया था।

‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है।‘ रोहित ने तनिक गर्व से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेरिकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूं।‘

‘अरे वाह!‘ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?‘

‘मिलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाद आठ हजार लेकिन मैं चक्कर में हूं कि कहीं और निकल जाऊं।‘ रोहित मुस्कराया।

‘लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना क्यो?‘ धनराज चिंतित-सा हुआ।

‘नौकरी नहीं पापा, जॉब...जॉब।‘ रोहित खिलखिलाने लगा, ‘हमारी जेनरेशन एक जगह बंधकर नहीं रहती आप लोगों की तरह...जहां ज्यादा पगार वहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है, साल में ढाई तीन सौ रुपये का एक इनक्रीमेंट...हमें एक साल में तीन हजार का इनक्रीमेंट चाहिए वरना तो अपने को परवड़ेगा नहीं।‘ रोहित तेजी से हिंदी, मराठी, अंग्रेजी में बोलकर बेडरूम में चला गया।

बहुत दिनों या शायद महीनों या फिर सालों बाद तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोहित अपनी कंपनी, अपने जाॅब, अपने नाम आनेवाली ई-मेल और अपनी गर्ल फ्रेंड्स की दुनिया में मगन था। जब वह चुप होता तो सरिता काॅलोनी में गुजरती अपनी दिनचर्या की गठरी खोल देती थी। धनराज को लगा, अपनी जा चुकी नौकरी की सूचना इस समय देना परिवार की खुशियों के ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। वह चुपचाप मां-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा।
फिर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलार्म लगाकर वह सोने चला गया।

×××

धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में, अपनी नींद में ही बेआवाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया डायरेक्टर वाली उसकी नौकरी बनी रहती।

बहुत-बहुत बुरे दिनों की बहुत बदहाल और कमजोर सीढ़ियों पर कदम जमा-जमाकर ऊपर चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस वर्ष उसने हालात से पिटते और सपना देखते हुए काटे थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, देहरादून और फिर एकदम जोधपुर में उसका जीवन कटा था। और फिर एकाएक वह मुंबई आ गया था-सम्राट समूह में मीडिया मैनेजर होकर। दो साल के भीतर वह समूह का मीडिया डायरेक्टर हो गया था। एक सुखी जीवन उसका अंतिम सपना था। इस सुखी जीवन की गोद में पहुंचते ही वह प्राणपण से उसे संवारने और बटोरने में लग गया।

सम्राट समूह ने उसे निचोड़ा भी बहुत, लेकिन इसका उसे कोई गिला नहीं रहा। वह अपनी नींद में यह सोचते हुए जीता रहा कि उसके सुख शाश्वत हैं। नींद से बाहर की एक बड़ी दुनिया से असंपृक्त वह घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की यात्रा में मुसलसल मुब्तिला रहा। वह यह याद ही नहीं रख पाया कि उसका एक अतीत भी है, जिसमें बहुत बुरे दिन रहते हैं।
इसीलिए नौकरी चले जाने के बाद जब नींद से बाहर की दुनिया से उसकी मुठभेड़ हुई तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह सोचता था कि जिस कठिन जीवन को वह बहुत पीछे छोड़ आया है, उस जीवन से अब कम से कम उसका कोई लेन-देन बाकी नहीं रहा है। लेकिन यह लेन-देन न सिर्फ बाकी था, बल्कि चक्रवृद्धि ब्याज सहित उसके सिर पर सवार हो गया था।
इस ज्ञान ने धनराज की नींद उड़ा दी।

सिलसिला यूं शुरू हुआ।
नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह दफ्तर जाने के लिए तैयार हुआ और मीरा रोड स्टेशन पहुंचा। सुबह के साढ़े आठ बजे थे। टिकट खिड़की पर खड़ी लंबी कतारों को देख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाद उसने चर्चगेट का द्वितीय श्रेणी का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि प्लेटफार्म पर जो भीड़ है, वह उसे मधुमक्खियों के छत्ते सरीखी क्यों लग रही है? इस छत्ते में धनराज ने सिर्फ दो काम किए। चर्चगेट ले जानेवाली ट्रेन के करीब पहुंचा और धक्के मार-मारकर दूर धकेल दिया गया। लोग दरवाजों पर ही नहीं, खिड़कियों पर भी लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात ट्रेनें निकल गईं और धनराज किसी भी ट्रेन में नहीं चढ़ पाया। असल में धनराज को लोकल ट्रेन का अभ्यास ही नहीं था। आखिरकार जब ट्रेन पकड़ने के चक्कर में वह पिट-पिटकर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जिस्म और गिर चुके महंगे चश्मे का गम संभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया।

घर पर रोहित अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। सरिता रोहित का टिफिन तैयार कर रही थी।

धनराज को वापस घर आया देख दोनों ने एक साथ पूछा, ‘क्या हुआ?‘

धनराज खिसिया गया। फिर उसने लगभग रुआंसे स्वर में बताया कि लोकल में तो वह चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्डन फ्रेम का चश्मा भी गंवा दिया है।

रोहित हा...हा...कर हंसने लगा, ‘मीरा रोड से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोड से विरार जाने का, फिर वहां से बननेवाली ट्रेन में चढ़कर आने का। क्या समझे?‘

धनराज कुछ नहीं समझा।

फिर सरिता ने चकित होकर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टैक्सी से जाते हो...आज लोकल की सनक किसलिए?‘ इसके बाद उसने धनराज को याद दिलाया कि उसके चश्मे का फ्रेम दो हजार का था।

इस बीच रोहित ‘बाय‘ बोलकर निकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा, ‘अरे, तू कैसे जाएगा?‘

‘पापा, मैं रोज ट्रेन में ही जाता हूं।‘ रोहित फर्राटे से निकल गया।

अरे? धनराज विस्मित रह गया।

‘अब बताओ, चक्कर क्या है?‘ सरिता उसके लिए एक कप चाय ले आई और उसके सामने हेडमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई।

‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया।

‘तो इसमें शहीद होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है? सम्राट समूह से पहले भी तुम्हारी नौकरियां आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।‘ सरिता ने उसे ढांढस बंधाया तो धनराज विस्मित रह गया।
फिर कई दिनों तक धनराज विस्मित ही होता रहा।

उसने पाया कि हर समय व्यस्त रहनेवाला उसका फोन मृतकों की तरह दुनिया से बाहर चला गया है। वह रिसीवर उठाकर देखता तो डायल टोन मौजूद मिलती। एक बार उसने अपने एक खास दोस्त अश्विनी पाराशर को फोन किया। अश्विनी की सेक्रेटरी ने पूछा कि वह कौन बोल रहा है, कहां से बोल रहा है और उसे किस बारे में बात करनी है? धनराज ने चिढ़कर कहा कि वह अश्विनी का दोस्त है तो सेक्रेटरी ने विनम्रता के साथ बताया कि साहब मीटिंग में हैं, वह अपना फोन नंबर बता दे, धनराज ने नंबर बताकर फोन रख दिया और अश्विनी के फोन का इंतजार करने लगा। मगर अश्विनी का फोन नहीं आया।

उसने एक और दोस्त को फोन किया। वह भी मीटिंग में था। तीसरे दोस्त की आन्सरिंग मशीन पर उसने मैसेज रिकॉर्ड कराया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया।

‘बिल और ब्लडप्रेशर मत बढ़ाओ।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘सम्राट समूह के दिनों में तुम भी या तो मीटिंग में होते थे या टाॅयलेट में।‘

‘पापा, जो सामने है, उसे एक्सेप्ट करो।‘ रोहित ने सलाह दी, ‘आप ही तो बताते थे कि आपने बहुत बुरे दिन देखे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्वॉय करो।‘

एनज्वॉय? अच्छे दिन? लेकिन कितने दिन? पांच-सात लाख रुपयों के सहारे कितने दिन टिकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चिंतित हो गया।

सरिता ने धनराज की दिनचर्या बता दी। सुबह छह बजे जागकर चाय पीना, फ्रेश होना और एक घंटे तक पार्क में टहलना। पार्क से लौटकर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के बाद नहाना-धोना और भायंदर की लायब्रेरी जाकर किताबें पढ़ने की कोशिश करना, लौटकर खाना खाना और सो जाना। शाम को उठकर चाय पीना और मार्केटिंग करना। लौटकर टीवी देखना, रात का खाना खाना और सो जाना। किताबों की सूची भी सरिता ने ही तैयार कर दी।

धनराज के माथे पर त्यौरियां चढ़ गईं। वह चिढ़कर बोला, ‘मैं क्या रिटायर हो गया हूं?‘

‘रिटायर हुए नहीं हो, रिटायर कर दिए गए हो।‘ रोहित ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस वर्ष के हो। इस काॅलोनी में पैंतीस-छत्तीस के आदमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपनियां बंद हो गई हैं।‘

चिंतित और बदहवास धनराज ने इसके बावजूद दोस्तों की दुनिया पर निगाह डालनी बंद नहीं की। लगातार निराश होने के बाद अंततः उसने स्वीकार कर लिया कि वह नींद के बाहर का आदमी है और उसकी आवाज नींद के भीतर की दुनिया से टकराकर लौटने को अभिशप्त है।

नींद के भीतर की दुनिया बहुत विराट थी। उस नींद के भीतर एक महानींद थी। उस महानींद की दुनिया महाविराट थी। उस दुनिया में नींद के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रवेश वर्जित था। उस दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं था। वहां संबंध नहीं कारोबार टिकता था। वहां एक महाबाजार लगा हुआ था, जिसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या विक्रेता। इस दुनिया के सारे रास्ते बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी।
धनराज चिंतित नहीं, विचलित हुआ।

कॉलोनी के लोगों से उसका दुआ सलाम होने लगा था।
तभी एक हादसा हुआ।
सकीना नाम की एक जवान लड़की ने चूहों को मारने वाला जहर ‘रैटोल‘ खाकर आत्महत्या कर ली।
सकीना उस कॉलोनी में रहनेवाले एक टेलर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहवीं में पढ़ती थी। सरिता से बहुत हिली-मिली थी सकीना इसलिए इस मौत से सरिता अंदर तक हिल गई। अस्पताल से लौटकर बताया उसने, वह कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बता नहीं पाई। शायद उस लड़की को उसके कॉलेज के कुछ गुंडे लड़कों का गैंग परेशान कर रहा था।

‘तुमको याद नहीं है।‘ बताया सरिता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके पापा की वहां भी मार्केट में दर्जी की दुकान थी। दिसंबर के दंगों में उनका घर और दुकान जला दिए गए थे।‘

‘अरे?‘ धनराज चैंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाद हुआ और इस कॉलोनी में भी।‘

धनराज को याद आया।
दिसंबर के दंगोंवाले दिनों में वह भी कांदिवली की एक निम्न मध्यवर्गीय बस्ती चारकोप में किराए पर रहता था। वह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संक्रमण काल था।

‘इसमें कॉलोनी का क्या दोष है?‘ सरिता तुनक गई, ‘पूरी कॉलोनी के लोग अस्पताल में हैं। लाश को लेकर आ रहे हैं।‘

धनराज ने छह दिसंबर में जाकर देखा-रात के दस बजे थे। बंबई ने अभी जागने के लिए अंगड़ाई ली थी। धनराज का डाॅक्टर दोस्त जयेश और उसकी खूबसूरत युवा पत्नी सोनाली रात भर रुकने का कार्यक्रम बनाकर धनराज के घर आए थे। सरिता ने दहीवाला चिकन बनाया था और मछलियां फ्राई की थीं। उसका बेटा रोहित अपने एक मुस्लिम दोस्त के घर मालवणी गया हुआ था और रात को वहीं रुकनेवाला था।

शराब पीते हुए और मछलियां खाते हुए धनराज ने टीवी के पर्दे पर देखा-बंबई से हजारों किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर में एक मस्जिद गिराई जा रही थी। धनराज डर गया। गिलास समेटकर वह अस्फुट स्वरों में बोला, ‘गुरु निकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंदर औरत है...बेहतर होगा कि तुरंत निकल जाओ।‘

छह दिसंबर की उस रात डॉक्टर दंपत्ति चारकोप से चार बंगला अपने घर सुरक्षित पहुंच गए और मालवणी की मुस्लिम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोहित भी घर लौट आया। इसके बाद सड़कों पर एक वहशी प्रेत अपनी बांहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने निकला।

अगली सुबह या शायद उससे अगली सुबह धनराज नींद में था कि सरिता ने उसे झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तुम? देखो, अपने जले हुए घर की दुर्दशा देखने आई नजमा को बस्ती के कुछ आवारा लड़कों ने पकड़ लिया है। कुछ भी हो, ऑफ्टर आल नजमा हमारे रोहित की टीचर है। उसे बचाओ।‘

‘पुलिस? पुलिस कहां है?‘ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोहित पर हाथ फिराकर फिर नींद में चला गया था।

पुलिस कस्टडी में जब तक नजमा पहुंची तब तक उसकी छातियों से गालों तक के हिस्से में पचपन घाव दर्ज हो चुके थे, और उसकी जांघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।

धनराज उस दिन दफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं मिली थी। कांदिवली रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए भी ऑटो उपलब्ध नहीं था। हालांकि ऑटो की तलाश में वह लगभग एक किलोमीटर दूर मछली मार्केट तक पैदल चला गया था।

मछली मार्केट श्मशान की तरह भुतैला और डरावना था। मछली, मुर्गे और मटन बेचनेवाले के बाकड़े और दड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राईक्लीनर, जहां धनराज के कपड़े धुलते और प्रेस होते थे, नष्ट हो चुका था। उसके जले हुए कपड़ों की ढेर सारी राख के बीच से एक जख्मी हाहाकार झांक रहा था। लकी ड्राईक्लीनर का मालिक अनवर अपनी पत्नी और दो बच्चों सहित खुली सड़क पर तंदूरी चिकन की तरह भून दिया गया था।

सहमा-थका सा धनराज घर वापस लौटा तो सरिता सिर ढांप कर लेटी थी और फोन घनघना रहा था, दूसरी तरफ जोगेश्वरी में रहने वाला उसका एक कांट्रेक्टर दोस्त साजिद था। वह पूछ रहा था, ‘क्यों मियां? हमारी ही मस्जिद गिरा दी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है। यह लोकतंत्र है या दादागिरी?‘

‘मुझे इस पचड़े में मत फंसाओ यार।‘ धनराज ने हताश होकर कहा था और फोन रख दिया था। तभी दरवाजे की घंटी बजी थी।

दरवाजे पर कॉलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट किस्म के कुछ छोकरों का समूह था। धनराज उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। वह आधी रात वाली दुनिया का नागरिक था, उस दुनिया का, जिसमें पड़ोसियों से परिचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुनकर सरिता भी दरवाजे तक चली आई थी। सरिता को देखते ही भीड़ का चेहरा खिल उठा था। उनमें से तीन-चार लोग ‘भाभी जी नमस्ते‘ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी दरवाजे पर खड़े-खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को पिछली ही रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेवाले डॉ. हबीबुल्लाह का सामान उठाकर भागते देखा था।

‘आज रात बहुत चौकस रहना है भाभीजी।‘ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंदाज में बोला था, ‘हमें पक्की खबर मिली है कि नागपाड़ा से एक ट्रक भरकर लोग इस तरफ आएंगे... हम भी तैयार हैं लेकिन...‘

‘हमें क्या करना होगा?‘ सरिता घबराई-सी आवाज में बोली थी।

‘आपको क्या करना है, बस जागते रहना है। रात को कोई लड़का पुलिस से बचकर भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है...हमारा कोड वर्ड है भालू आया। वैसे हमारे लड़के तो रात भर जागेंगे हीं...‘ दूसरे ने विस्तार से समझाया था फिर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का जागरण चन्दा तो मिलेगा न?‘

‘हां, हां।‘ सरिता तुरंत भीतर गई और सौ-सौ के दो नोट लाकर बोली, ‘हम लड़ नहीं सकते...यही हमारा योगदान है।‘
वे शोर मचाते हुए लौट गए।

रात की शराब का चंदा बटोरा जा रहा था। शायद शराब पीने के बाद जिस्मों पर घाव बनाने में ज्यादा मजा आता हो या लूट-मार करने की अतिरिक्त ताकत मिलती हो।

उनके जाते ही धनराज बिफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है? कैसे कैसे लुच्चों से संबंध रखती हो तुम?‘

‘लुच्चे नहीं हैं ये।‘ सरिता ने उल्टा उसे ही डांट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात तुम्हारे बेटे को मालवणी से सुरक्षित निकाल लाए थे...कुछ मालूम भी है तुम्हें, मालवणी में हमारे कितने लोग काट दिए गए...उन्होंने लोगों की पैंटें उतरवाईं, चेक किया और जितने भी हमारे लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट डाला।‘ सरिता के चेहरे पर दहशत और क्रोध एक साथ बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को वहां से?‘

धनराज को आश्चर्य हुआ। क्या यह वही सरिता है, जो नजमा को बचा लेने की पवित्र करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोहित का खयाल आया।

‘रोहित को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है।‘ सरिता ने जानकारी दी।

सरिता की मां कांदिवली में ही रहती थी, लेकिन फ्लैट में। दंगों में फ्लैट अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जिद की तरह उठी थी कि कैसे भी करके अपना एक फ्लैट खरीदना है।

नागपाड़ा से तो कोई ट्रक नहीं आया, लेकिन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंद घरों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। उन जलने वाले घरों में एक घर सकीना का भी था।

सकीना के जनाजे में धनराज भी शामिल हुआ।
जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलावा सब के सब हिंदू थे। यह गणित धनराज को समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, वो और जो लोग सकीना के जनाजे में शामिल हैं वो, दोनों की जात में क्या फर्क है?

‘क्या धनराज साब।‘ रास्ते में कॉलोनी के टीएल प्रसाद ने पूछा, ‘सुना है, आपकी नौकरी चली गई?‘

‘हां, चली गई है।‘ धनराज ने रुखे लहजे में जवाब दिया।

‘अब क्या करेंगे?‘

‘बड़ा-पाव का ठेला लगाऊंगा।‘ धनराज इतने ठंडे स्वर में बोला कि प्रसाद दूसरे व्यक्ति के साथ लग गया, प्रसाद एक मल्टी नेशनल कंपनी में टीवी इंजीनियर था।

लौटते समय बूंदा-बांदी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया।

‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने सहानुभूति से पूछा।

‘हैदराबाद चला जाऊंगा।‘ याकूब ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘वैसे भी यहां अकेला रहकर क्या करूंगा। हैदराबाद में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बर्बाद होने की मुझमें ताकत भी नहीं।‘ याकूब बाकायदा सिसकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बर्बाद किया है।‘

‘मतलब?‘ धनराज चैंक गया।

‘कॉलेज के जिन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लूटी है, वे हमारी ही जात के हैं।‘ याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा किया तो धनराज थर्रा गया।

‘तो तुम पुलिस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?‘ धनराज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

‘बिन मां की बच्ची और किसे बताती?‘ याकूब ने हिचकी ली, ‘मैं एक गरीब दर्जी...कौन सुनेगा मेरी? वे चारों लड़के नेताओं के शहजादे हैं...सकीना बताती रहती थी उनकी बदमाशियों के बारे में... पर मैं सोचता था कि किसी तरह वह यहां अपनी बारहवीं पास कर ले तो उसे लेकर हैदराबाद चला जाऊं...क्या पता था कि इतनी जल्दी ऐसा हो जाएगा।‘

‘हे भगवान!‘ धनराज का दिमाग कलाबाजियां खाने लगा, ‘ये किस दुनिया में आ गया हूं मैं?‘ फिर वह बहुत उदास हो गया।

×××

उदासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बिना पूर्व सूचना के अचानक उसके घर आया-पहली बार।
धनराज बहुत खुश हुआ, लेकिन वापस उदास हो गया।
छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था, लेकिन उसके सिर के ज्यादातर बाल उड़ गए थे। बचे हुए बालों को सफेदी खा गई थी। उसके गाल पिचके हुए थे और वह थोड़ा झुककर चलता था।

‘दस साल बाद मिल रहे हैं हम।‘ धनराज ने भाई को गले से लगा लिया। ‘लेकिन ये क्या हालत बना ली है तूने?‘

‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!‘ धनराज का छोटा भाई राकेश चौधरी हंसा, एक विषादग्रस्त हंसी, ‘आपने भी कहां सुध ली हमारी...केवल अड़तीस सौ रुपये की नौकरी में अपने बीवी-बच्चों के साथ मां, भाई और बहन को पालता रहा हूं मैं। ऐसा तो होना ही था।‘ भाई धनराज के गले से अलग होकर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्वर्य को ताकने लगा।

‘मैं तो अभी भी नहीं आता...‘ भाई ने गर्दन झुका ली, ‘लेकिन मां ने जबरन भेज दिया। बोली अगर धनराज अपने फर्ज भुला बैठा है तो क्या? बंबई जा और बहन का हक छीनकर ला।‘

‘मतलब?‘ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहां लड़ाई-झगड़ा करने आया है?‘

‘नहीं भाई साहब। बिल्कुल नहीं। मां की भाषा है वो। एक थक चुकी मां की भाषा। आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी, जो इन दस वर्षों में चैबीस बरस की हो गई है। उसकी शादी करनी है। मैंने एक लड़का देखा है।‘

‘चैबीस बरस की?‘ धनराज सोफे पर ढह गया।

'आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी।‘ एक हथौड़ा उठा और धनराज की खोपड़ी पर बजा। उसे याद आया-हर साल राखी पर एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा आता था जोधपुर से, बिला नागा, जिसका जवाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बजकर पांच मिनट पर एक फोन आता था जोधपुर से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके दूसरे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाद वह फोन आना भी बंद हो गया।

‘मैं रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हूं, लेकिन मेरे अपने घर में फ्रिज नहीं है।‘ भाई ने भाभी को बताया और हंसने लगा।
अपराध-बोध के बीच टहलती सरिता ने देवर के लिए दहीवाला चिकन बनाया और धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?‘

‘मुफ्त की मिल जाए तो।‘ भाई फिर हंसने लगा।
आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ क्रोध और कुछ-कुछ गर्व के साथ रोकश चैधरी बीते हुए दस वर्षों में खड़े अपने संघर्षों के बारे में बताता रहा। धनराज और सरिता किसी अपराधी की तरह सब सुनते रहे।

‘बबलू क्या करता है?‘ बीच बहस में धनराज को बबलू याद आ गया।

‘वो गुंडा बन गया है।‘ राकेश चैधरी ने सूचना दी।

‘क्या बात कर रहा है?‘ धनराज उत्तेजित हो गया, ‘गुंडा मतलब?‘

‘क्या मालूम? उसके कुछ दोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपुर से बाहर कहां-कहां जाता रहता है। दो-एक बार मैंने उसकी अटैची में रिवॉल्वर देखी तो डर गया। सीधे मुंह बात भी कहां करता है?‘ राकेश के चेहरे पर पुनः बीता हुआ दुःख उतर आया।

‘अरे?‘ धनराज के दुःख बढ़ते ही जा रहे थे।

‘पूरे चार साल इंतजार किया उसने आपका, फिर अंधेरी गलियों में उतर गया। तीन साल से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है। कभी-कभी ही आता है। अपना एक कांटेक्ट नंबर दिया है उसने मां को। वहां मैसेज देने पर उसे मिल जाता है।‘ राकेश चैधरी ने अपना गिलास उलटा कर दिया।

‘क्या नंबर है उसका?‘ धनराज ने पूछा।

‘वो भी बस मां को ही पता है। कभी फोन करना हो तो मां ही करती है।‘
धनराज को याद आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से वादा किया था कि बंबई में सैटिल होते ही वह उसे बंबई बुला लेगा और फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने का मौका देगा। बबलू को नाटक वगैरह करने का शौक था और दस साल पहले वह बीस वर्ष का था।

‘मैं तो बहुत बुरा आदमी निकला।‘ बिस्तर पर लेटते ही धनराज के दुखों में नये आयाम जुड़ने लगे।

×××

उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाद धनराज अपने कठिन दिनों में लौटा।
वहां एक घर था। छोटा-सा दो कमरों का घर, जो पिता के आखिरी अरमान और आखिरी सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाद बीच नौकरी में ही पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु से एक-दो महीने पहले ही धनराज देहरादून में अपनी नौकरी गंवाकर सरिता और छोटे रोहित के साथ जोधपुर बसने पहुंचा था, पिता के ही घर में। राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक के रूप में लगा हुआ था। उसी दौलत इलेक्ट्रॉनिक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैशियर नियुक्त हुआ। पिता की मृत्यु हुई तो धनराज ने भाग-दौड़ करके राकेश को पिता के बदले उन्हीं के दफ्तर में लगवा दिया। पूरा परिवार प्रसन्न था कि घर का एक सदस्य सरकारी मुलाजिम हुआ। सरिता को एक छोटे-से स्कूल में पढ़ाने का काम मिला हुआ था। छोटी-सी ही सही लेकिन एक बंधी हुई राशि मां को पेंशन के रूप में मिलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज पिता को कृतज्ञता की तरह याद करता था कि उन्होंने एक घर बनवा दिया था, वरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।

उन्हीं दिनों बंबई जाते रहने वाले धनराज के एक दोस्त किशोर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह पच्चीस हजार खर्च करे तो किशोर उसे बंबई के सम्राट समूह में घुसवा सकता है। सम्राट समूह बंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताव खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताव धनराज के स्वप्नों को पंख देता था, लेकिन पच्चीस हजार बड़ी राशि थी। धनराज को लगा कि वह जोधपुर में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे मां के पास जाते थे- धनराज के, राकेश के, सरिता के, पेंशन के। उस सामूहिक आय से कुनबा चलता था। साझे दुखों और साझे सुखों का आत्मीय जमाना था। मां को भनक मिली तो उसने अपना मंगल सूत्र बेच दिया। सरिता ने भी अपने कड़े उतार दिए। पांच हजार रुपये राकेश ने भी मिलाए।
और इस तरह धनराज बंबई आ पहुंचा। तब तक राकेश की शादी नहीं हुई थी।

किशोर ने उस पैसे का क्या किया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याद है कि किशोर ने उसे सम्राट समूह के पर्सनल डायरेक्टर से मिलवाया। डायरेक्टर ने उससे एक एप्लीकेशन ली, बायोडाटा के साथ और सातवें दिन वह चकित-मुदित आंखों से अपने एपाइंटमेंट लेटर को देख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीरियड के साथ धनराज चैधरी सम्राट समूह का मीडिया मैनेजर हो गया था।

बाद की सफलताएं धनराज ने खुद अर्जित की थीं।
इसके बाद धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खर्राटे गूंजने लगे थे।
सुबह राकेश चैधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे दोपहर की ट्रेन से लौट जाऊंगा।‘
‘इतनी जल्दी?‘ सरिता ने टोका, ‘दो चार दिन मुंबई तो घूम लेते।‘
‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है भाभी।‘ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में जरूर हूं, लेकिन मेरा काम ऐसा है कि ज्यादा छुट्टियां नहीं मिलतीं। मुझे सैनिक अधिकारियों के घर फ्रिज ठीक करने जाना होता है न!‘
‘आपको मां का मंगलसूत्र लौटाना है।‘ अचानक राकेश ने याद दिलाया तो धनराज हड़बड़ा गया।
‘शादी डेढ़ लाख में हो रही है।‘ राकेश ने ब्यौरे देने शुरू किए, ‘ममता की शादी में पचास हजार मैं लगा रहा हूं। पच्चीस हजार बबलू भी देगा। बाकी पिचहत्तर हजार रुपये आपको देने हैं।‘
‘और ममता के गहने?‘ सरिता ने पूछा।
‘दस साल पहले मां का मंगल सूत्र दस हजार का था, ऐसा मां ने बताया है।‘ राकेश ने सूचना दी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कर्जे पर उठा रहा हूं। मैंने दस वर्ष तक सबको पाला है। इसके बाद मेरा दम निकल जाएगा।‘ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी दो बेटियां हैं।‘
हड़बड़ाए हुए धनराज चैधरी ने बड़ी कातर दृष्टि से सरिता को देखा। सरिता ने आंख के इशारे से कहा, हां कह दो।
‘ठीक है।‘ धनराज ने एक लंबी सांस छोड़ी, ‘मां के मंगलसूत्र को जाने दो। ममता के लिए हाथ, कान और गले के गहने हम देंगे। पिचहत्तर हजार का चैक चलेगा?‘
‘हां।‘ राकेश ने राहत की सांस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश को उम्मीद नहीं थी कि भाई इतनी आसानी से हां कर देगा।
‘अब मैं भी तुझे एक खबर दे ही दूं।‘ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है।‘
‘यह तो अच्छी खबर नहीं है। पर क्या कर सकते हैं?‘ राकेश को सचमुच दुःख हुआ।
थोड़ी ही देर में दोस्तों के साथ वीकएंड मनाकर रोहित भी घर आ गया और इतने वर्षों के बाद अपने चच्चू को देख उछल पड़ा।
‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।‘ राकेश ने रोहित को गले लगा लिया, ‘इतना बड़ा भतीजा भी चच्चू को चिट्ठी नहीं लिखता।‘ राकेश ने उलाहना दिया।
‘चिट्ठी का जमाना चला गया चच्चू। तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फिर देख मैं तुझे रोज एक ई-मेल करूंगा।‘ रोहित ने राकेश के उलाहने को मजाक में बदल दिया। फिर वह अपने चच्चू को लेकर बिल्डिंग के टैरेस पर चला गया।
राकेश को विदा करने स्टेशन तक रोहित ही गया। रोहित बहुत खुश था कि ममता बुआ की शादी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शादी में भी वह जोधपुर नहीं गया था, क्योंकि उन दिनों धनराज की सम्राट समूह में नयी-नयी नौकरी लगी थी और वह खुद इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक किए हुए था। उसे समूह में खुद को प्रमाणित करना था।
‘खुद को प्रमाणित करते-करते तुम चूतिया बन गए गुरु।‘ धनराज ने सोचा और नम आंखों के साथ भाई को विदा किया।
उस रात देर रात तक नींद नहीं आई।

दो

पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींद नहीं आती। देर रात तक वह अपनी विशाल कॉलोनी में जहां-तहां घूमता रहता। पहले जीवन नाक की सीध में चलता था, इसलिए वह काॅलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपरिचित था, मगर अब तो वह पूरी कॉलोनी के ही रहस्यों से दो-चार होने लगा था।
पता नहीं क्या सोचकर बिल्डर ने कॉलोनी का नाम गोल्डन नेस्ट रखा था। डाल-डाल और पात-पात तो क्या, वहां कहीं भी कोई सोने की चिड़िया बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले को बिल्डर ने इस तरह बनाया था कि उसमें सभी आय वर्ग के लोग रह सकें। ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरी उस कॉलोनी का विशाल मेन गेट बंद होते ही वह पूरी तरह से बंद, सुरक्षित किले जैसी हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खुलते ही बीचों-बीच दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर बाजार था। सड़क के पहले दाएं मोड़ पर वन रूम किचन के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-एक था। दूसरे दाएं मोड़ पर वन बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-दो था। सड़क के पहले बाएं मोड़ पर टू बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-तीन था और दूसरे बाएं मोड़ पर सेक्टर-चार था। सड़क जहां समाप्त होती थी वहां बंगलेनुमा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर-पांच कहलाता था। इस कॉलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पार्क, स्वीमिंग पुल, अस्पताल, ब्यूटी पार्लर, पोस्ट ऑफिस, सिनेमा हॉल, स्कूल, हेल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पांच यानी रो हाउसेज आधे से ज्यादा खाली थे, बाकी किराए पर उठे हुए थे। इनमें अधिकतर निजी नर्सिंग होम, कोचिंग क्लासेज, ब्यूटी पार्लर, अंग्रेजी के प्राइमरी स्कूल, कंप्यूटर सेंटर, फेमिली रेस्त्रां, साइबर कैफे और कम्युनिकेशन सेंटर खुल हुए थे। सड़क के दोनों ओर बने बाजार सभी तरह की दुकानों से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान वहां मौजूद था। कॉलोनी में दो मंदिर भी थे-एक गणपति का, दूसरा शिरडी के साईंबाबा का। हां, मस्जिद वहां एक भी नहीं थी। वह कॉलोनी के बाहर, हाईवे के उस तरफ, स्टेशन जाने वाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी।
यह छह दिसंबर के बाद हुए दंगों का ध्रुवीकरण था कि ज्यादातर मुसलमान हाईवे के उस तरफ और हिंदू हाईवे के इस तरफ सिमट गए थे। नया नगर का पूरा इलाका लगभग मुस्लिम परिवारों का था। मीरा रोड के हिंदू नया नगर को मिनी पाकिस्तान कहते थे। हाईवे के उस पार भी काफी परिवार हिंदुओं के थे लेकिन ज्यादा आबादी मुस्लिमों की ही थी। वहां भी जब जिसको मौका मिलता, अपना घर बेचकर गोल्डन नेस्ट आ जाता था। गोल्डन नेस्ट में मुसलमानों के सात-आठ परिवार ही थे, लेकिन वे सभी वहां किराएदार थे, मकान मालिक नहीं। उन्हीं में से एक टेलर मास्टर याकूब भी था, जिसकी लड़की सकीना ने चूहे मारनेवाला जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह सेक्टर-एक में किराएदार ही था और अब हैदराबाद चला गया था।
धनराज का घर सेक्टर-दो में था।
सेक्टर-दो में ज्यादातर लोग सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में काम करनेवाले कर्मचारी थे, जिन्होंने इधर-उधर से कर्ज लेकर चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने फ्लैट बना लिए थे। सेक्टर-एक में निम्न-मध्यवर्गीय लोग रहते थे। इनमें छोटे-मोटे अध्यापक, लोअर डिवीजनल क्लर्क, ऑटो टैक्सी चलानेवाले, फिल्मों और सीरियलों में काम पाने के लिए स्ट्रगल कर रहे भविष्य के अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार निवास करते थे। सेक्टर तीन और चार साहबों की दुनिया थी। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, छोटे-बड़े प्रोड्यूसर, शेयर मार्केट के ब्रोकर, बैंकों के अधिकारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्मचारी, टीवी चैनलों के कार्यक्रम अधिकारी, कालबा देवी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के मालिक, अखबारों के संवाददाता, वकील और प्रोफेसर रहा करते थे।
सेक्टर तीन और चार के नागरिक सेक्टर एक और दो की तरफ जाना तो दूर झांकना भी पसंद नहीं करते थे। यह अलग बात है कि बाजार ने उनकी निजी पहचान मिटा दी थी। सेक्टर एक और दो के लोग भी अपनी-अपनी विशिष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेकिन उनकी संपन्नता में दस बाई पंद्रह के सिर्फ एक कमरे का फर्क था, इसलिए उन दो सेक्टरों में आवाजाही चलती रहती थी।
सेक्टर एक और दो के ही नहीं, मुख्य बाजार के भी काफी लोग, सेक्टर-दो के ताजा-ताजा बेरोजगार हुए धनराज चैधरी को नाम और शक्ल से पहचानने लगे थे। वाइन शॉपवाला बिना मांगे ओल्ड मौंक रम देता था, सिगरेटरवाला विल्स का पैकेट। मटन शॉपवाला चांप और गर्दन का गोश्त देता था, साथ में मछली हड्डी। सब्जीवालों को पता था कि उसे करेला, कटहल, पालक, टिंडा, मटर और शलगम-गाजर पसंद हैं। चिकन की उसकी अपनी पसंदीदा दुकान थी और मछली की अपनी। घर का राशन पानी अस्मिता सुपर मार्केट से आता था और बाल लकी हेयर कटिंग सैलून में कटते थे। मेडिकल स्टोरवाला धनराज को देखते ही नारमेस फाइव एम जी का पत्ता पकड़ा देता था। शीतल नॉनवेज का मालिक उसे नाम से बुलाता था और उसे देखते ही वेटर को पहाड़ी या रेशमी कबाब पार्सल करने का हुक्म सुना देता था।
वह मोलभाव करने और सब्जियां खरीदने में पारंगत हो गया था। कॉलोनी और उसके बीच जो अपरिचय का विंध्याचल था, वह क्रमशः गलने लगा।
धनराज ने देखा कि दैनंदिन जीवन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन, कहां, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है। वे सिर्फ इस बात पर नजर रखते थे कि किसके किचन में क्या पका, किसके घर कौन-सा नया सामान आया, किसने किसके जन्मदिन पर क्या दिया या किस घर की लड़की या लड़का किससे फंसा हुआ है। रोजगार उनके लिए सिर्फ माध्यम था, ताकत या घमंड का प्रतीक नहीं। उनके दुःख इस विषय में लिपटे थे कि सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बिना नहाए काम पर जाना पड़ा। समय पर ट्रेन पकड़ लेना उनके लिए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर वे घंटों बहस कर सकते थे और बिजली चले जाने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर सकते थे।
धनराज ने पाया कि कॉलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते अंकल कहने लगे हैं। वाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और दुकानदार लगातार गिरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि धनराज की नौकरी चली गई है। उन्हें लगता था कि ऐसे लोगों की नौकरियां लगती-छूटती रहती हैं।
‘भाई साहब, हमारा एक काम करेंगे क्या?‘ एक दिन रास्ते में उसे देविका ने टोक दिया।
‘क्या?‘ धनराज ने देविका को जांचा।
वह ऊंची, भरी-पूरी, शानदार महिला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप और कामचलाऊ जेवर होते, तो वह सेक्टर एक और दो की हेमा मालिनी बन सकती थी। वह सेक्टर-एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-दो के कई घरों में उसका आना-जाना था।
‘इनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।‘ उसने अपने पति का पक्ष सामने रखा, ‘ये लेडीज के अंडर गार्मेंट्स बेचने वाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौटकर इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी पड़ती है। लेकिन ये अंग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी हिंदी रिपोर्ट को अंग्रेजी में बना देंगे?‘
‘ठीक है।‘ उसने गर्दन हिला दी।
‘धन्यवाद भाई साहब।‘ देविका गदगद हो गई। रात के भोजन पर सरिता ने बताया, ‘देविका के घर से तुम्हारे लिए मिर्ची का अचार और गट्टे की भाजी आई है।‘
लेकिन देविका के पति रतन केड़िया की मार्केट रिपोर्ट्स ने धनराज को विचलित कर दिया।
रतन केड़िया की रिपोर्टें देसी रोजगार का मर्सिया थीं। जयपुर हो या जोधपुर, गोवा हो या नागपुर, सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापुर, पुणे हो या नासिक, रत्नागिरी हो या इंदौर-हर जगह स्त्रियों के अंतःवस्त्रों पर नामी ब्रेंड हावी थे। बड़े शहरों में स्त्रियों के तन विदेशी ब्रेंड ढक रहे थे। ऐसे में रतन केड़िया की लोकल कंपनी कहां ठहर सकती थी?
कुछ ही समय बाद रतन केड़िया की रिपोर्टें आनी बंद हो गईं।
रतन केड़िया ने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और हंसने लगा।
नौकरी चले जाने पर ये लोग हंसते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेकिन उसे जवाब नहीं मिला।
उन्हीं दिनों एक रात वह थैले में सब्जियां, अंडे और शराब लेकर लौट रहा था कि उसने सेक्टर दो के सेक्रेटरी हिमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े सिगरेट पीते देखा।
‘नीचे क्यों खड़े हो?‘ धनराज ने यूं ही सवाल उछाल दिया।
शाह ने नयी सिगरेट सुलगा ली, ‘आज मुझे नौकरी से हटा दिया गया है।‘ शाह खिसिया कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है कि यह बात ऊपर जाकर हर्षिता को कैसे बताऊं?‘
हर्षिता हिमांशु की पत्नी का नाम था।
हिमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर-दो को चिकन बिरयानी की दावत दी थी। धनराज के लिए उसने विशेष इंतजाम किया था। लोगों की नजरें बचाकर वह धनराज को अपने बेडरूम में छोड़ आया था, जहां रॉयल चैलेंज की एक बाॅटल तीन-चार सोडों के साथ पड़ी थी।
धनराज तीन पैग पीकर वापस टैरेस पर चलती पार्टी में शरीक हो गया था।
‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने पूछा।
‘देखते हैं।‘ हिमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेचकर गांव चले जाएंगे।‘ हिमांशु अपने फ्लैट की सीढ़ियां चढ़ने लगा।
गांव? धनराज की हलक में कांटे-से गड़ने लगे। गांव के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई एक खबर याद आ गई। वह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बरानांद गांव की खबर थी।
शताब्दी के सबसे भीषण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में स्थितियां विकट हो गई थीं। गांव के लोग पेड़ों की छाल पीसकर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जिन लोगों के पास किराए लायक पैसे थे, वे काम की तलाश में निकट के शहरों को निकल गए थे। जिनके पास नहीं थे, वे गांव में भूखे-प्यासे मर रहे थे।
और यह केवल बरानांद गांव की कहानी नहीं थी।
गांव-दर-गांव भूख-प्यास का प्रेत मंडराता फिर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे। रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहां दस, बीस या तीस प्रतिशत कर्मचारी छंटनी के शिकार नहीं हो रहे थे।
ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।
सुबह-सुबह जगाकर सरिता और रोहित ने धनराज को विश किया, फिर सरिता ने ताना जैसा मारा, ‘आज कोई पार्टी-वार्टी नहीं हो रही?‘
धनराज ने नींद की दुनिया में जाकर देखा -
वह एक तीन सितारा होटल का पार्टी रूम था, जहां उसके जन्मदिन की पार्टी प्रायोजित की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पार्टी में शरीक थे। उनमें एक टीवी चैनल का कार्यक्रम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेकेदार थे, कुछ होलसेल विक्रेता थे। दो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बिजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर थे। कुछ पी आर ओ और कुछ सरकारी अधिकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटेंट एडीटर था और थीं कुछ उदीयमान मॉडल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा लेकर आए थे और अपने-अपने ड्रिंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खुशगवार मौके को कैमरे में कैद कर रहा था। वेटर पनीर टिक्का, चिकन टिक्का और सीख कबाब सर्व करने में तल्लीन थे। दुखों की सूचनाओं तक से दूर जगर मगर करता एक बाजार वहां बिछा पड़ा था।
जन्मदिन वाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार होकर फोन के पास बैठ जाता था। उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी लेता था। कई वर्षों से यही नियम था। हर बरस वह गिनती करता था कि जन्म दिन की बधाई देने वालों में कितने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका प्रिय शगल था। बधाई देनेवालों में से कुछ को वह शाम को होनेवाली पार्टी में निमंत्रित करता था। सम्राट समूह से कोई कांट्रेक्ट हासिल करने का इच्छुक व्यापारी यह पार्टी आयोजित करता था। इस पार्टी में सौदों का लेन-देन भी होता था। ऐसी अनेक पार्टियों के फोटो एलबम धनराज की वॉल यूनिट की शोभा बढ़ा रहे थे।
लेकिन इस बार धनराज देर तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर वह मुस्करा भर दिया। दिन भर में कुल मिलाकर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चैधरी का, एक उसकी सास का और तीसरा उसके फैमिली डॉक्टर राणावत का।
शाम सात बजे चौथा फोन आया उसके पड़ोसी हिमांशु शाह और उसकी पत्नी हर्षिता का। उसे याद आया-एक जन्मदिन के भव्य आयोजन में उसने शाह दंपत्ति को भी निमंत्रित किया था।
‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा हिमांशु।‘ धनराज द्रवित हो गया।
‘क्या बात करते हैं धनराज जी।‘ हिमांशु ने गर्मजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्मदिन की पार्टी हमारी तरफ से हमारे घर में है। आप भाभी और रोहित के साथ आठ बजे तक पहुंच जाइए।‘
धनराज बेआवाज बिखर गया।
निष्कपट जीवन नींद के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन यों सुखा डाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने रिश्ते कमाए होते, तो जीवन का रंग आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और वह भी अपनी नींदें बेचकर? मां जैसे दुनिया के सबसे कीमती रिश्ते की अकारण नाराजगी मोल लेकर।
धनराज को अपनी मां याद आ गई।
बचपन वाली मां।
मां धनराज का जन्मदिन मना रही थी।
वह मुजफ्फरनगर का सड़क किनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जिसके बाहर बने बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों पिता का ट्रांसफर जोशीमठ में हो गया था और पिता ने परिवार को यहां रखा हुआ था क्योंकि जोशीमठ में परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी।
मुजफ्फरनगर के उस किराए के कमरे में माथे पर टीका लगाकर मिठाई के नाम पर गुड़ खाया था धनराज ने और गुल्ली-डंडा खेलने मैदान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उनके पैदा होने के बाद भी घर में सिर्फ धनराज का ही जन्म दिन मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?

×××

पता नहीं धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूदा-बेहूदा खयाल आते रहते और वह चिंता से भर जाता। पढ़-लिखकर या पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जवान छोकरों को धनराज पार्क की बेंचों, चायघरों या पान की दुकानों के बाहर खाली बैठे देखता और उसे लगता इनमें से कुछ लड़के जल्दी ही अरुण गवली या दाउद इब्राहिम के गैंग में शामिल हो जाएंगे। वह उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोेगों को शूट करते देखता और पसीने-पसीने हो जाता। वह देखता कि रोहित की कंपनी भी बंद हो गई है और वह गोल्डन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंडे बेचने लगा है। कभी वह देखता कि उसने अपना मकान बेचकर सेक्टर-एक में वन रूम किचन ले लिया है और आॅटो चलाने लगा है। कभी उसे दिखाई देता कि उसने बबलू को फोन किया है और बबलू ने मुंबई आकर सम्राट समूह के चेयरमैन का भेजा भून दिया है।
जब कभी वह मार्केट में खरीदारी के लिए निकलता, तो एक-एक दुकान को गौर से देखता और सोचता कि वह किस चीज की दुकान खोल ले, ताकि व्यस्त भी रहे और चार पैसे भी कमाए। लेकिन हर दुकान का मालिक उसे बताता कि उसका धंधा मंदा चल रहा है। दुकानें उठ रही हैं। व्यवसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, डकैती और हत्याएं बढ़ रही हैं।
धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे निकालने जाता, अपना बैलेंस देख कर चिंताग्रस्त हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, सिर्फ निकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की शादी थी। हाथ, गले और कान के जेवरों का उसने जो वादा किया था, उनका एस्टीमेंट पैंतीस हजार बैठ रहा था। कम से कम दस हजार आने-जाने-रहने में खर्च होनेवाले थे।
अभी तक धनराज ने रोहित की तनख्वाह पर नजर नहीं डाली थी, लेकिन अब उसे रोहित के खर्च खटकने लगे। उसने पाया कि रोहित ने अब तक जो भी कमाया था, वह सब का सब महंगी कमीज-पैंटों, वीकएंड पार्टियों, सिनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जीन्स और टॉप पहनकर कभी-कभी घर चली आनेवाली रोहित की गर्ल फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।
‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा यार?‘ लड़कियां धनराज के सामने ही रोहित को नये खर्चों के लिए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।
इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और वीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में जमा कर दिए। उसका तर्क था कि मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और वीसीआर गए जमाने की चीज हो गई है। इतने सारे चैनल हैं, चैबीस घंटे चलती फिल्में हैं, ऐसे में वीसीआर की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ दिनों के बाद उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टेबल के बेच दिया। उसका कहना था कि अब रोहित पूरे दिन दफ्तर में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नये कोर्स की कक्षाओं में। इसलिए घर में फालतू सामानों की भीड़ बढ़ाने की कोई तुक नहीं है। कुछ दिनों के बाद धनराज अपनी फैक्स मशीन भी बेच आया। उसका कहना था कि जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स किसके आएंगे?
सरिता और रोहित आदर्श पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसलिए उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब वे दोनों भी चिंतित हो गए। दोनों को एक साथ लगा कि धनराज कहीं उन्हें मुंबई के पहलेवाले दिनों में तो नहीं ले जाना चाहता है! दोनों को लगा कि समय रहते जाग जाना चाहिए।
एक रात दो पैग पी लेने के बाद धनराज का सामना रोहित से हो गया। उसने टीवी बंद किया और रोहित को अपने सामने बिठा लिया। रोहित चैकन्ना हो गया।
‘देखो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है। तुम्हारी खुशियों का दुश्मन नहीं हूं मैं। लेकिन तुम खुद बताओ...‘ धनराज ने तीसरा पैग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है, ऐसे में क्या तुम्हें शोभा देता है कि तुम अपनी पगार वेनह्यूजन की पैंटों, चिरागदीन की शर्टों और दो-दो हजार के जूते खरीदने में खर्च करो...वीकएंड की पार्टियों में हजार-पांच सौ का कंट्रीब्यूशन करो...मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए रोहित, तुम्हें छह हजार रुपये मिलते हैं। एक हजार रुपये अपने खर्चे के लिए रखो और पांच हजार रुपये बैंक में जमा करा दो। एक साल में साठ हजार रुपये...यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत देगा।‘ धनराज ने तीसरा पैग समाप्त कर दिया।
‘मैं ऐसा नहीं सोचता पापा...मैं कमाने और खर्च करने में यकीन रखता हूं। रोहित ने पहली बार अपने पिता के साथ बहस की, ‘आप देखते ही हैं कि डी गैंग के शूटर बिल्डरों, प्रोड्यूसरों, डाॅक्टरों को गोलियों से भून देते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है। पिछले दिनों सेक्टर चार में रहने वाला मेरा एक दोस्त मकरंद जोगेश्वरी में एक खंभे से टकराकर ट्रेन से गिरा था। वह अब तक कोमा में है। मकरंद एक मल्टीनेशनल कंपनी में वेब डिजाइनर था।‘
‘अरे वाह!‘ धनराज तालियां बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझदार हो गए हो।‘ धनराज हसंने लगा, ‘वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तुम्हारी दोस्ती बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं।‘
‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूं?‘ रोहित ने तिलमिला कर जवाब दिया।
धनराज चुप हो गया। वह खुद भी यह कहां चाहता था कि उसका बेटा सेक्टर-एक के लड़कों जैसा हो जाए। तो फिर?
क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चैथा पैग बनाने लगा।
‘अब बस करो।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘लड़के की तनख्वाह पर आंख गड़ाने से बेहतर है कि तुम शराब पीना छोड़ दो।‘
‘क्या?‘ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के. छोड़ देता हूं।‘ धनराज ने कहा और रम की बची हुई बॉटल को खिड़की से बाहर फेंक दिया।
रात के अंधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के पिछवाड़े गिरने के बावजूद बॉटल के टूटने ने खासा शोर किया। वाचमैन की सीटियां गूंजने लगीं। दो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खिड़िकियों से झांककर भी देखा। धनराज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी आंखें एक अजीब-से अचंभे में पहुंचकर स्थिर हो गई थीं, फिर वह सोफे पर ही पसर गया।
बहुत दिनों के बाद धनराज बिना खाना खाए सो गया।
‘साॅरी पापा।‘ सोते हुए धनराज के माथे पर किस किया रोहित ने, ‘मैं आपकी तकलीफ को समझता हूं।‘
सरिता की आंख में बड़े दिनों के बाद कुछ आंसू आए। वह धनराज के जूते उतारने लगी। देर तक बेडरूम की खिड़की से बाहर के अंधेरे को ताकती हुई वह सोचती रही कि उनकी गृहस्थी को किसका शाप लगा है।
उस रात दिल्ली के एक महंगे इलाके में एक धन पशु कॉलेज की एक लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे काट-काटकर तंदूर में भून रहा था और मुंबई के कुछ होटलों में बीवियां बदलने का खेल चल रहा था।

×××


गोल्डन नेस्ट के बाहर हाईवे पर शेयर ऑटो मिलते थे। हैरान परेशान धनराज ने शेयर ऑटो किया और पांच रुपये में भायंदर स्टेशन पहुंच गया। पुल पार करके वह भायंदर पश्चिम पहुंचा और उसने भगत सिंह पुस्तकालय की सदस्यता ले ली।
इस पुस्तकालय में होनेवाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार वह मुख्य अतिथि बनकर आया था।
‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी‘ नाम की किताब इशु कराकर वह पुस्तकालय की मेज के एक कोने पर चला गया। उसे किताब के नाम ने आकर्षित किया था। लेकिन जल्दी ही वह ऊब गया। उसने किताब वापस कर दी और बाहर आ गया।
रेल की पटरियों के पास एक बड़ी-सी खुली जमीन, जिस पर लकड़ी के मोटे-मोटे स्लीपर पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बूढ़ों को देखा। उसे लगा, बूढे़ लोगों की कोई सभा है। उन बूढ़ों के पास से गुजरता हुआ धनराज वापस पुल पर आ गया और पुल पर चढ़ती-उतरती भीड़ को देखने लगा।
बहुत भीड़ हो गई है। उसने सोचा और खुद भी भीड़ का हिस्सा बन कर सीढ़ियां उतरने लगा। पूर्व में आकर वह शालीमार फर्नीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर का ज्यादातर फर्नीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के लिए कॉफी मंगवा ली।
‘बड़े दिनों के बाद आना हुआ?‘ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चाहिए?‘
‘अब घर में जगह ही कहां बची है।‘ धनराज ने जवाब दिया, ‘सब कुछ तो है।‘
‘सो तो है।‘ उपाध्याय जी खिसियाकर बोले, ‘इस धन्धे में भी बहुत मंदी आ गई है। कई-कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीदने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीद चुके हैं। अब तो दुकान का किराया निकालना भी भारी पड़ रहा है।‘ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल दुकान को निहारते हुए ठंडी सांस ली।
धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘वे कौन लोग हैं?‘
उन्हें उनके बेटे-बहुओं या दामाद-बेटियों ने घर से निकाल दिया है। इसलिए दिन भर पटरियों पर टाइम पास करते हैं।
‘क्यों?‘ धनराज थोड़ा-सा चकित हुआ और थोड़ा-सा उदास, ‘घर से क्यों निकाल दिया है?‘
‘क्या है कि लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या दामाद काम पर चले जाते हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहेंगे? इन्हें सुबह निकाल दिया जाता है और रात को वापस ले लिया जाता है।‘ उपाध्याय जी ने समझाया।
इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बूढ़ों का जीवन यही होगा। धनराज ने सोचा और पूछा, ‘और इनका खाना?‘ वह बूढ़ों को लेकर चिंतित हो गया।
‘खाना, रात को मिलता है न! दिन में बड़ा पाव वगैरह खा लेते होंगे।‘ उपाध्याय जी ने लापरवाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है। मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूं, जिन्हें उनके बेटों ने विरार से चर्चगेट का पास बनवा दिया है। बूढ़े सुबह विरार ट्रेन में जाकर बैठ जाते हैं और रात को उसी ट्रेन से उतरकर अपने घर चले जाते हैं।‘
‘और लैटरीन-बाथरूम?‘ धनराज पूछ बैठा।
‘उसके लिए स्टेशन हैं न!‘ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चिढ़-सी मची, ‘और बताइए क्या चल रहा है?‘
‘चलना क्या है?‘ धनराज मुस्कराया और वापस शेयर ऑटो में बैठकर घर लौट आया।
धनराज का घर!
रात को जब धनराज ने बिना शराब पिए खाना खा लिया तो सरिता खुश होने के बजाय दुखी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चाताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चाहिए थी इस आदमी से, जिसने परिवार को सारे सुख दिए। क्यों औरतें पति और बेटे में से किसी एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?‘ सरिता ने सोचा और डबडबाई आंख लिए किचन में चली गई।
ग्यारह बजे के करीब रोहित घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े देखा तो इशारों से सरिता से पूछा। सरिता ने उस चुप रहने का इशारा किया और रोहित चुपचाप बेडरूम में आ कपड़े बदलने लगा।
खाना खाकर रोहित हॉल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंद कर दूं?‘
‘नहीं।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। फिर पूरी रात धनराज ने दो ही काम किए-दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं।
उसकी करवटों को देर रात तक महसूस किया रोहित और सरिता ने।
अगली सुबह फ्रेश होकर धनराज वापस भगतसिंह पुस्तकालय चला गया। उसने अल्मारियों में लगी बहुत-सी किताबों को देखा-क्राइम एंड पनिशमेंट, अन्ना कैरेनिना, राम की शक्ति पूजा, मुक्ति बोध रचनावली, उखड़े हुए लोग, मां, सारा आकाश, आदि विद्रोही, कुरू कुरू स्वाहा, एक चिथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, मित्रो मरजानी, भागो नहीं दुनिया को बदलो, पूंजी, रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूशन, हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड, आधी रात की संतानें, तमस, काला जल, कव्वे और काला पानी, दर्शन दिग्दर्शन, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अंधेरे बंद कमरे, ठुमरी, गोदान, कनुप्रिया, अंधा युग, मुर्दाघर, बेदी समग्र, मंटोनामा, दादर पुल के बच्चे।
फिर वह थक गया। किताबों से उसका वास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे लगा यह दुनिया उसकी नहीं है। बहुत-बहुत हताश होकर वह वापस मेज पर बैठ गया। देर तक बैठा रहा फिर थके कदमों से बाहर निकल आया।
बाहर जीवन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस लिए, कंधे पर झोला लटकाए, सिर पर बोझ उठाए ट्रेन पकड़ने के लिए भागे जा रहे थे। टिकट विंडों की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, रेलवे स्टॉल पर खड़े-खड़े बड़ा पाव, पाव समोसा, कचैरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से मोबाइल चिपकाए संदेश सुन रहे थे, भागकर ट्रेन के पायदान पर लटक रहे थे। किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी। भीड़ को देख अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन काम पर जा रहा है और कौन काम से निकाला जाकर लौट रहा है। किसके पास पैसा है और किसके पास पैसा नहीं है। सबके चेहरों में सिर्फ एक ही समानता थी कि सबके चेहरे खामोश, चिंताग्रस्त और खोए-खोए से नजर आते थे-फिर चाहे वे चेहरे स्त्रियों के हों या पुरुषों के।
धनराज पुल पार करके भायंदर पूर्व की तरफ आ रहा था कि एक ठीक-ठाक से दिखते लड़के ने उसे सीढ़ियों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘ धनराज अचकचा गया और तेजी से बोला ‘हां हैं, क्यों?‘
‘मुझे दीजिए न!‘ लड़के ने आग्रह किया।
‘क्यों भई!‘ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी भिखारी जैसा नहीं लगता था।
‘बड़ा पाव खाना है।‘ लड़के ने गर्दन झुका दी।
‘घर से भागकर आए हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘हां।‘ लड़के ने स्पष्ट जवाब दिया।
‘कहां से?‘ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।
‘बिहार से।‘ लड़का मासूमियत से बोला।
‘क्यों?‘ धनराज के तेवर आक्रामक हुए।
‘काम की तलाश में।‘ लड़का सहमा-सा बोला।
‘तो काम करो। भीख क्यों मांगते हो?‘ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपये एक साथ दिए।
‘लाइए काम।‘ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूं। सब बोलते हैं, काम करो, पर काम देता कोई नहीं है।‘
‘कहां-कहां काम ढूंढा? पढ़े-लिखे हो?‘ धनराज के भीतर लड़के को लेकर दिलचस्पी पैदा होनी शुरू हुई। यूं भी वह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।
‘कालबा देवी के बाजारों से लेकर भायंदर के बाजारों तक घूमा हूं। दसवीं पास हूं पर सब बोलते हैं कि किसी जान-पहचान वाले को लाओ।‘ लड़का व्यथित था।
‘मुबई आने की सलाह किसने दी?‘ धनराज ने पूछा।
‘किसी ने नहीं।‘ लड़का सहजता से बोला, ‘बिहार के लड़के भाग कर या तो मुंबई आते हैं या कलकत्ता जाते हैं।‘
‘तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता मैं।‘ धनराज गहरी उदासी में डूबकर बोला और उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपये का नोट निकालकर दे दिया।
धनराज रेलवे स्टाॅल पर खड़ा इडली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक दूसरे आदमी से पूछते देखा, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘
‘तो भीख मांगने का यह आधुनिक तरीका है?‘ धनराज ने सोचा और खुद को छला गया महसूस किया। पैसे चुकाकर वह स्टेशन के बाहर निकल रहा था कि एकदम अचानक उसे अपने पिता की याद आई। उसने देखा स्टेशन के बाहर, टिकट विंडो के सामने एक 40-45 साल का थका-थका-सा आदमी बांसुरी पर गा रहा था-
‘चुपके-चुपके रोनेवाले
रखना छुपा के दिल के छाले...
ये पत्थर का देस है पगले
कोई न तेरा होय।‘
धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। वह आदमी भीख नहीं मांग रहा था, सिर्फ गाना गा रहा था। लेकिन उसकी आवाज में इतनी करुणा, इतना विलाप और दर्द था कि लोग खुद-ब-खुद उसे एक रुपया, आठ आना, दो रुपया दिए जा रहे थे। धनराज ने भी एक दो रुपये का सिक्का उसे दिया और सोचा, बिहार से आए उस लड़के को इस आदमी के सामने केवल खड़ा कर देना चाहिए।
रखना छुपा के दिल के छाले...धनराज ने दोहराया और पिता की याद गहरी हो गई।
मृत्यु से कुछ समय पहले तक पिता बिस्तर में लेटे-लेटे यही गाना गाया करते थे-
पिंजरे के पंछी रे
तेरा दर्द न जाने कोय...
मृत्यु की तरफ जाते पिता देख रहे थे कि जीवन भर के जी तोड़ संघर्ष के बावजूद घर उनसे संभल नहीं पाया था। अपने अंतिम दिनों में वह बहुत हताश थे और आंखें बंद कर के गाते रहते थे -
रखना छुपा के दिल के छाले रे...
यह तब की बात है, जब धनराज बी.ए. करने के बाद जोधपुर में नौकरी के लिए मारा-मारा घूम रहा था और राकेश एक बिजली की दुकान में पढ़ाई छोड़कर रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हो गया था। बाद में उसी दुकान पर धनराज भी लगा, लेकिन तब तक पिता के छाले फूट गए थे और उन छालों को उन्होंने हमेशा के लिए छुपा लिया था।
घर पहुंचकर धनराज लेटने के लिए चला गया। सरिता ने खाने के लिए पूछा, तो उसने मना कर दिया। सरिता ने बताया कि वह सेक्टर चार जा रही है।
‘सेक्टर चार। क्यों?‘ धनराज हैरान रह गया।
‘सेक्टर चार के पब्लिक स्कूल में मैथ की टीचर चाहिए। सोचती हूं एप्लाई कर आऊं।‘ सरिता ने बताया।
‘ओह।‘ धनराज के होंठ गोल हो गए। सरिता गणित की अच्छी जानकार थी।
‘ठीक है।‘ धनराज ने एक ठंडी सांस भरी और गुनगुनाने लगा-रखना छुपा के दिल के छाले रे...
शाम चार बजे धनराज बैठा अपने ब्रीफकेस की सफाई कर रहा था कि उसे एक कार्ड मिला-अयूबी सिक्योरिटीज। धनराज को याद आया कि जिन दिनों सम्राट समूह का पालघर वाला प्लांट लग रहा था, उन दिनों अयूबी सिक्योरिटीज के मालिक महमूद अयूबी ने उससे प्रार्थना की थी कि वह उसे काम दिलाए। फिल्मों में विलेन बनने आए महमूद अयूबी ने लंबे संघर्ष से ऊबकर छोटे स्तर पर सिक्योरिटी गाड्र्स का धंधा अपना लिया था। अयूबी चारकोप में उसका पड़ोसी था। बाप का तंबाकू का व्यवसाय था, जो उसे रास नहीं आया। वह मुंबई में प्राण या प्रेम चोपड़ा या फिर अमजद खान बनने आया था, लेकिन निर्माताओं ने उसे मौका ही नहीं दिया। वापस घर लौटने में हेठी होती थी, इसलिए उसने इस धंधे में उतरने की सोची। उसने चारकोप में अपने बाजू में एक और घर किराए पर लिया और अपने शहर अलीगढ़ से जांबाज किस्म के एक दर्जन बेकार युवकों को बुलाकर उस घर में रख दिया। घर के बाहर उसने बोर्ड टांगा ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ और धंधे की तलाश में निकल पड़ा।
उन्हीं दिनों धनराज ने उसके बारह में से छह गबरू जवानों को अपने पालघर के प्लांट में रखवाया था। अयूबी ने कहा था, ‘यह मुसलमान की जुबान है धनराज सेठ। आपने हमारी मदद की। कभी हमको भी आजमा कर देखना।‘ बाद के दिनों में धनराज को पता चलता रहा कि महमूद अयूबी चारकोप की पतरेवाली बैठी चाल से निकलकर एक दो कमरोंवाले फ्लैट में शिफ्ट हो गया है। उसका धंधा चल निकला है और उसकी सिक्योरिटी सर्विस में अब पचास से ज्यादा लोग हैं। सबके सब अलीगढ़, सहारनपुर, नजीबाबाद और मेरठ के मुसलमान नौजवान, जो बिना रोजगार के अपने-अपने शहरों में बेकार भटक रहे थे। मुंबई जैसे शहर में अयूबी पचास से ज्यादा लड़ाकू नौजवानों का माई-बाप था। यह छोटी बात नहीं थी। लोग उन लड़कों को अयूबी के फंटर बोलते थे।
घटाटोप अंधेरे में जैसे एकाएक टॉर्च जलकर बुझ जाए। धनराज उछल पड़ा। उसे लगा, मुसलमान की जुबान को जांचने का मौका आ पहुंचा है।
समस्या यह थी कि उसके पास अयूबी का नया पता-ठिकाना नहीं था। उसने तय किया कि अयूबी के पुराने घर चारकोप चलता है। फटाफट तैयार होकर धनराज घर से निकल पड़ा। मीरा रोड पहुंच कर उसने बोरीवली का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर आ गया। शाम के छह बज रहे थे। चर्चगेट से आनेवाली गाड़ियां थके-टूटे-झल्लाए, भुनभुनाते और भन्नाए लोगों को प्लेटफार्म पर फेंक रही थीं। व्यस्त घंटे शुरू हो गए थे। उस तरफ के प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ टिड्डी दल की तरह बिछी पड़ी थी। सिर ही सिर। न उभरी हुई छातियों का आकर्षण, न उत्तेजक नितंबों को लेकर कोई सिसकारी। जैसे वीतरागियों का हड़बड़ाया हुआ समूह मायालोक से निकलकर मुक्ति के रास्तों पर भागा जा रहा हो।
हालांकि चर्चगेट जानेवाली गाड़ियां खाली थीं, फिर भी एहतियातन धनराज ने प्रथम श्रेणी का ही टिकट लिया था। बोरीवली तक ही तो जाना था। ट्रेन आई तो वह आराम से चढ़ गया और गेट पर खड़ा होकर हवा खाने लगा। वह दहिसर और बोरीवली के बीच बसी झोंपड़पट्टी और उनमें रहते हुए लोगों का मुआयना-सा करने लगा।
दो-तीन लोग पास में डिब्बा या बोतल रखकर पूरे जमाने से निरपेक्ष होकर पटरियों पर बेफिक्री के साथ निपट रहे थे। कुछ औरतें अपनी झोपड़ियों के बाहर बैठी परात में आटा गूंथ रही थीं। झोंपड़पट्टी से थोड़ा हटकर एक मैदान जैसी जगह में कुछ छोटे लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। चार जवान छोकरे और दो अधेड़ ताश खेल रहे थे और किसी बात पर ठहाके लगाकर हंसते जा रहे थे। एक बच्चा घुटनों-घुटनों सरकता हुआ पास बहते गंदे नाले में जा गिरा था, जिसे बचाने के लिए एक औरत झोपड़ी से निकल नाले की तरफ चिल्लाती हुई भागी जा रही थी। इस बीच ट्रेन आगे बढ़ गई।
यह जीवन पहले भी था धनराज। धनराज के भीतर कोई बुदबुदाया, बल्कि इससे भी ज्यादा बदतर और बेमानी। जरा सोचो क्या तुम इस जीवन के भीतर दो-पांच दिन के लिए भी सांस ले सकते हो। उसमें रहकर ठहाके लगा सकते हो। झिलमिल करती, मदमस्त मुंबई का चकाचैंध करने वाला स्वर्ग इस जीवन के नरक पर ही टिका हुआ है। इस जीवन से ताकत लो धनराज।
धनराज बौखला गया। ऐसा उसके जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। यह कौन उसके भीतर छुपा उसे पुकार रहा है?
बोरीवली उतर धनराज वेस्ट में आ गया। चारकोप के ऑटो में बैठकर उसने सिगरेट जला ली।
चरकोप का चेहरा बदल गया था। चारकोप बस डिपो से गोराई जानेवाली खाड़ी के जिस मोड़ तक धनराज कभी रात में गुजरने की सोच भी नहीं सकता था, वह पूरा इलाका लकदक बाजारों, छोटे बंगलों और हाउसिंग सोसायटी के फ्लैटों से जगर-मगर हो गया था। इस नये चारकोप के भीतर से पुराने चारकोप को तलाशना खासा कठिन था। धनराज अपने घर ले जानेवाली गली को भूल गया। धनराज आठ बरस के बाद चारकोप लौट रहा था। उसने आॅटो मेन रोड पर छोड़ दिया और बस डिपो के बगल में बनी पहली गली और उस गली के नुक्कड़ पर बने साईंबाबा के मंदिर को खोज निकाला। मंदिर पहले से ज्यादा बड़ा और भव्य हो गया था। उसने मंदिर के सामने खड़े होकर हाथ जोड़े और गर्दन झुका दी। इसी गली के अंतिम सिरे पर वो मैदान था, जिसमें दिसंबर के दंगों में मुसलमानों का सामान जलाया गया था। वहां एक सात मंजिला इमारत खड़ी थी। उस इमारत को पार कर धनराज आगे बढ़ गया। आखिर वह रुका और उसने एक पानवाले से पूछा, ‘क्यों बॉस, सेक्टर चार में डॉ. लवंगारे वाली गली कौन-सी है?‘
डॉ. लवंगारे का क्लीनिक उस गली के मोड़ पर एकदम शुरू में था, जिस गली में कभी धनराज रहा करता था। डॉ. लवंगारे अपने मरीजों को इतनी गोलियां देता था कि उनसे पेट भर जाए। इसीलिए सरिता उसे घोड़ों का डॉक्टर कहती थी।
लवंगारे वाली गली वही थी, जिसके सामने कभी मैदान और अब सात मंजिला इमारत खड़ी थी। धनराज उस गली में आगे बढ़ गया, आखिर, रोड पर ही बनी 440/41 नंबर वाली पतरे की चाल के सामने वह रुक गया। यह था उसका अपना घर।
उसने बंद घर के बाहर लगी बेल बजा दी।
दवाजा खुला और धनराज एलिस के आश्चर्यलोक में जा गिरा।
वही थी, एकदम वही। सपना सारस्वत। मालाड के चांदनी बार की उसकी पसंदीदा डांसर, बीते दिनों में एंटरटेनमेंट के वाउचर बना-बनाकर बहुत पैसे लुटाए थे उसने सपना सारस्वत पर।
‘तुम? दोनों के मुंह से एक साथ निकल पड़ा।
‘आओ। भीतर आओ।‘ सपना ने मुस्करा कर कहा, कितने बरसों बाद आए हो...लेकिन ध्यान रखना मेरे निकलने का टाइम हो गया है। सपना ने अपनी घड़ी दिखाई।
धनराज भीतर आ गया। वह सपना को भूल उस घर को घूम-घूमकर देखने लगा।
‘पुलिस में भर्ती हो गए हो क्या?‘ सपना खिलखिलाई।
‘पागल। इस घर में कभी मैं रहता था।‘ धनराज ने सपना के गालों को थपथपा दिया। कितने जमाने के बाद उसके जीवन में एक मचलता हुआ उल्लास लौट रहा था।
‘क्या बात करते हो?‘ सपना दंग रह गई, ‘तो क्या मैं तुम्हारे घर में रहती हूं?‘
‘नहीं रे।‘ धनराज उसी उल्लास के बीच खड़ा-खड़ा बोला, ‘बंबई में घर इतनी आसानी से नहीं बनते। तुम तो वैसी की वैसी हो...एकदम चकाचक।‘ अब वह सपना को निहारने लगा।
‘हमको चकाचक रहना पड़ता है धनराज। हमारा पेशा है यह।‘ सपना की आवाज उखड़ने लगी।
‘उखड़ो मत, उखड़ो मत।‘ धनराज ने अचानक गार्जियन की भूमिका संभाल ली, ‘धंधे का टाइम हो रहा है तुम्हारे। अभी भी चांदनी बार में ही नाचती हो?‘
‘नहीं। अभी मैं लोटस में हूं।‘ सपना ने इतराकर कहा।
‘अरे बाप रे? लोटस तक पहुंच गईं तुम?‘ धनराज चकित हो गया, ‘अगली छलांग कहां की है, दुबई की?‘
लड़कियां श्रीदेवी और रेखा बनने बंबई आती थीं और बारों में नाचने लगती थीं। बारों में नाचते-नाचते उनका सपना अभिनेत्री बनने के बजाय ‘लोटस‘ पहुंच जाने का हो जाता था। लोटस में नाचते-नाचते वे दुबई पहुंच जाती थीं-शेखों के दरबार में। पांच-सात साल दुबई में गुजारकर वे वापस मुंबई लौटती थीं-ढेर सारे हीरे-जवाहरात, मोटे बैंक बैलेंस, निचुड़े हुए सीनों और गंभीर बीमारियों के साथ। मुंबई की किसी अच्छी जगह पर अपना फ्लैट खरीदतीं और उसी फ्लैट में खाते-पीते और मुटाते हुए एक दिन मर जाती थीं।
‘मुझे नहीं जाना दुबई।‘ सपना सिहर गई।
‘दुबई तो तुमको जाना ही पड़ेगा रानी।‘ धनराज हंसने लगा। ‘लोटस‘ के शब्दकोश में ‘न‘ अक्षर छपा ही नहीं है। तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हें दुबई जाना ही पड़ेगा।‘
सपना लजा गईं फिर बाहर निकल ताला बंद करने लगी। खाली जाते आॅटो को रोक वह उसमें बैठती हुई बोली, ‘दुनिया बहुत छोटी है, शायद हम फिर मिल जाएं। वैसे तुमने मेरा घर, साॅरी अपना घर तो देखा ही हुआ है।‘
‘बाय।‘ धनराज ने हाथ हिला दिया, फिर वह घर के बाहर बनी दीवार की रेलिंग पर बैठ गया।
दो लड़कियां सामने से गुजरीं। उन्होंने धनराज को उड़ती नजर से देखा, फिर उनमें से एक एकाएक ठिठक गई?
‘आप धनराज अंकल हैं?‘ वह बोली, ‘रोहित के पप्पा?‘
‘हां!‘ धनराज ने कुछ याद करने की कोशिश की, ‘तुम?‘
‘अंकल मैं डॉली हूं। डॉली काकड़े।‘ लड़की पास चली आई।
‘अरे? आप इत्ते बड़े हो गए?‘ धनराज को याद आ गया। यह विनोद काकड़े की बेटी थी, जो कभी-कभी अपने घर से उसके लिए फिश फ्राई लाती थी। विनोद काकड़े इसी सोसायटी में अंदर रहता था और बेस्ट में ड्राइवर था।
‘घर चलिए न अंकल।‘ लड़की मचलने लगी।
‘अभी नहीं बेटे।‘ धनराज ने मना कर दिया, ‘मुझे तुम यह बताओ कि सामने वाली सोसायटी में जो अयूबी अंकल रहते थे, उनका पता कहां से मिलेगा?‘
‘पानबुड़े भाभी से पूछिए न।‘ लड़की ने सलाह दी और बोली, ‘आंटी को बोलिए न, कभी इधर भी आएं।‘
‘जरूर।‘ धनराज ने जवाब दिया और पानबुड़े भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगा।
पानबुड़े भाभी अपने घर के बाहर दुकान लगाती थीं और अयूबी का वहां सिगरेट-सोडे-नमकीन का खाता चलता था। पानबुड़े भाभी का पति अच्छा गायक था, लेकिन फिल्मों में मौका न मिल पाने के कारण शराब पी-पीकर मर गया था, वह इस गली की जगत भाभी थीं।
चारकोप के दिनोंवाली दूसरी होली में धनराज ने भाभी के स्तनों पर रंग मल दिया था। भाभी गुर्राने लगी थीं, फिर कमरे में जाकर चापर निकाल लाई थीं। धनराज ने माफी मांग ली थी। वह थोड़ा मुटा गई थीं, लेकिन हंसती अभी भी उसी अंदाज में थीं, जिसे देख आदमी फिसलने-फिसलने को हो जाए।
‘अयूबी अब्भी बहुत बड़ा सेठ है।‘ भाभी ने बताया, ‘अब्भी इदर एक सेक्टर छह बन गएला है गोराई के बाजू में, कोई भी आॅटो में बैठ जाओ, अयूबी तक पहुंचा देगा। कोई खास बात?‘
‘नहीं भाभी। बस यूं ही। सोचा मिल लेता हूं। फिर आता हूं।‘ धनराज भाभी से विदा लेकर खाली जाते आॅटो में बैठ गया और बोला, ‘सेक्टर छह। अयूबी के दफ्तर।‘
आॅटो वाले ने धनराज का सिर से पांव तक मुआयना किया और बोला, ‘आॅफिस नजीक ही है, पन पचास रुपया लगेंगा। और अपुन ऑफिस के सामने नई छोड़ेंगा। दूर से दिखा के चला आएंगा, चलेगा?‘
‘चलेगा।‘ धनराज ने जवाब दिया।
सेक्टर-छह की पुलिस चैकी के पास ऑटोवाले ने धनराज को उतार दिया और बताया, ‘वो सामने काले कांच के दरवाजों वाली बिल्डिंग अयूबी सेठ की है।‘
धनराज ने चुपचाप पचास रुपये दे दिए। ऑटो मुश्किल से दस मिनट चला होगा।
धनराज को याद आ गया। यह वही रास्ता है जो गोराई बीच ले जाने वाले तट पर जाता है। तट से बोट लेकर उस पार उतरते हैं, फिर तांगे में बैठकर गोराई बीच जाते हैं। चारकोप वाले दिनों में वह सरिता और रोहित के साथ कई बार इस रास्ते से गोराई बीच जा चुका है। लेकिन तब यह रास्ता सुनसान रहता था। बिल्डिंग और रो हाउस तो क्या चाय की एक गुमटी भी यहां नजर नहीं आती थी। लगातार मुंबई आ रहे लोग एक दिन इसकी एक-एक इंच जगह पर खड़े हो जाएंगे। धनराज ने कल्पना की।
काले कांच के दरवाजों के बाहर धनराज को दो सशस्त्र वाचमैनों ने रोक लिया, ‘किससे मिलने का है?‘
‘अयूबी से।‘ धनराज ने उत्तर दिया।
‘कार्ड?‘ एक वाचमैन ने हाथ आगे बढ़ाया।
धनराज ने पर्स निकाला। संयोग से सम्राट समूह के मीडिया डायरेक्टरवाले दो-तीन विजिटिंग कार्ड उसमें मौजूद थे। उसने एक कार्ड पकड़ा दिया और देखा-बिल्डिंग के गेट पर सुनहरे अक्षरों में अयूबी सिक्योरिटीज ही लिखा था। वह थोड़ा-सा आश्वस्त हुआ। उनमें से एक वाचमैन भीतर गया और करीब तीन मिनट बाद वापस आया, ‘जाइए।‘
धनराज ने काले कांच का दरवाजा भीतर की तरफ धकेल दिया और एसी की ठंडी फुहार से प्रफुल्ल हो गया।
‘सॉरी सर।‘ एक महिला ऑपरेटर बोली और उसने अपने सामने की बेंच पर बैठे कुछ सादी वर्दीवालों को इशारा किया। तत्काल दो लोग उठे और उन्होंने धनराज को सिर से पांव तक मय ब्रीफकेस के जांच लिया। इसके बाद उनमें से एक ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। धनराज चल पड़ा, एक गलियारा पार करने के बाद साथ आए आदमी ने एक कमरे का दरवाजा खोला और बोला, ‘जाइए।‘
भीतर अयूबी था।
वह अयूबी नहीं, जिसकी धनराज ने कभी मदद की थी।
यह चमकते लेकिन खिंचे हुए कटावदार चेहरे वाला वह अयूबी था, जैसा वह फिल्मों में बनने आया था, सुनहरे पर्दे पर उसे यह मौका नहीं मिला तो वास्तविक जीवन को उसने इस दिशा में मोड़ लिया। वह कीमती शेरवानी में था। उसके बाएं हाथ में राडो घड़ी और दाएं हाथ में सोने का ब्रेसलेट था। गले में काफी मोटी सोने की चेन डाले एक बड़ी-सी मेज के पीछे वह रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा था।
धनराज के प्रवेश करते ही वहां मौजूद तीन-चार लोग कमरे से बाहर निकल गए।
‘वेलकम धनराज सेठ।‘ अयूबी ने खड़े होकर अपनी बांहें फैला दीं, ‘बहुत दिनों के बाद अपनु को याद किया।‘
अयूबी से गले मिलकर धनराज उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गया। वह समझ नहीं पाया कि बात का सिरा किधर से थामे। चुप रहकर वह इस बात का अंदाजा लगाने में भी व्यस्त था कि ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ में उसे उसके लायक क्या काम मिल सकता है।
‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज तत्काल मुद्दे पर आ गया।
‘अपुन को क्या करने का है?‘ अयूबी ने पूछा, ‘अपुन ने तुमको जुबान दिया था सेठ। बोलो, अपुन तुम्हारे वास्ते क्या कर सकता है?‘
‘मुझे तुम्हारे यहां नौकरी मिल सकती है?‘ धनराज ने सीधे ही पूछ लिया।
उसके सवाल पर अयूबी की हंसी छूट गई। हंसते-हंसते उसकी आंखों में पानी आ गया। थोड़ा संभलकर वह बोला, ‘मजा आ गया धनराज सेठ। तुम बिल्कुल नहीं बदले...अभी भी एकदम वैसे ही हो...सिर झुका कर कोल्हू के बैल का माफिक डगर-डगर करते हुए। अच्छा टाइम पास हुआ आज।‘ फिर उसने इंटरकाॅम उठाकर ऑपरेटर से कहा, ‘सलीम लंगड़े को भेजो तो।‘
भरे-पूरे बदन और शातिर-सी आंखोंवाले, दोनों पैरों पर चलकर आनेवाले जिस आदमी ने भीतर आकर अयूबी से ‘यस बाॅस‘ कहा उसे देख धनराज अचरज में पड़ गया, ‘इसका नाम लंगड़ा क्यों है?‘
‘लंगड़े!‘ अयूबी फिर हंसने लगा, ‘यह धनराज सेठ है...अपने शरीफ दिनों का शरीफ दोस्त। अपन को उठाने में इसने बहुत मदद किया था। अभी इसको मदद का जरूरत है। अपुन लोग इसके वास्ते क्या कर सकता है?‘
‘किस टाइप का मदद बॉस?‘ सलीम लंगड़े ने अदब के साथ पूछा।
‘इसका सेठ इसको नौकरी से निकाल दिया है।‘ अयूबी ने बुदबुदा कर कहा।
‘सेठ को खल्लास करने का है?‘ लंगड़े ने तत्परता से पूछा।
‘नहीं।‘ धनराज डर गया और सहम कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
‘बैठ जाओ धनराज सेठ। दस साल के बच्चे का माफिक डरो मत। अपुन तुम्हारी समस्या पर डिस्कस कर रेला ऐ।‘ अयूबी ने धनराज को कंधे पकड़कर वापस बैठा दिया। फिर उसने अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में मिला लिया। फिर वह कुछ-कुछ संजीदगी और कुछ-कुछ हताशा की-सी स्थिति में बोला, ‘अयूबी की जुबान झूठा पड़ गया धनराज। तुम शरीफ आदमी हो, अपुन तुमको अपने यहां काम नहीं दे सकता। अपुन का धंधा अभी बदल गएला है।‘
‘तो मैं चलूं?‘ धनराज उठने लगा।
‘पचास हजार या लाख जो बोलो, ब्रीफकेस में रखवा दूं?‘
अयूबी की सदाशयता को देख धनराज विस्मित रह गया। लाख-पचास हजार की बात अयूबी इस तरह कर रहा था, जैसे सौ पचास रुपये देने हों।
‘नहीं, धन्यवाद। मैं चलता हूं।‘ धनराज पूरी तरह खड़ा हो गया।
‘ठीक है।‘ अयूबी भी खड़ा हो गया, ‘मेरे को गलत मत समझना। क्या है कि ये काम तुमको परवड़ेगा नईं।‘
धनराज चुपचाप बाहर आ गया।
बाहर दूर-दूर तक कोई ऑटो नहीं था। धनराज पैदल-पैदल चलता मेन रोड पर आ गया। ऑटो में बैठकर वह थका-थका-सा बोला, ‘मुझे घर ले चलो।‘
‘घर?‘ ऑटोवाला चकरा गया।
‘बोरीवली स्टेशन छोड़ दो।‘ धनराज ने लगभग बुदबुदाते हुए कहा और सिगरेट जलाने लगा।
घर खोजने, घर बनाने, घर संवारने, घर संभालने और घर बचाने में ही जीवन बीत गया है धनराज। अब घर से थोड़ा ऊपर उठो। वरना पता चलेगा कि घर भी नहीं बचा और जीवन भी गया। धनराज का मस्तिष्क सहसा दार्शनिक किस्म की बातें सोचने लगा।
बोरीवली स्टेशन के बाहर पटरियों के किनारे बसे गरीबों के घर टूट रहे थे। मनपा का तोड़ू दस्ता पुलिस के संरक्षण में लोगों के घर उजाड़ रहा था और लोग अपना छोटा-मोटा सामान बचाने में जुटे थे। धनराज उन टूटे हुए घरों को देखता हुआ पुल पर चढ़ा और बोरीवली पूर्व की तरफ उतरने लगा। गजब है इनका जीवन। धनराज सोच रहा था। दो दिन बाद ये लोग फिर यहां घर खड़ा कर लेंगे, आखिर, बंबई आने के बाद कोई यहां से जाता थोड़े ही है। घर रहे या न रहे! प्लेटफॉर्मों पर खड़ी भीड़ उन्मत्त और आक्रामक थी। धनराज ने मान लिया कि उससे ट्रेन नहीं पकड़ी जाएगी। रात के नौ बज रहे थे। इस वक्त बोरीवली से विरार की ट्रेन पकड़ना असाधारण वीरों का ही काम है। सीढ़ियां उतरकर खोमचों, ठेलों और दुकानों को निरुद्देश्य ताकता हुआ वह भायंदर जानेवाली बस के स्टॉप पर आ गया।
बस समय जरूर ज्यादा लेती थी, लेकिन ठीक गोल्डन नेस्ट के दरवाजे के बाहर उतारती थी।
दरवाजे के बाहर खासी भीड़ थी। पांचों सेक्टरों की मिली-जुली भीड़। कुछ पुलिसवाले भी इधर-उधर टहल रहे थे। उस भीड़ को चीरते हुए धनराज राजकुमार पान बीड़ी शॉप पर चला गया, उसकी सिगरेट खरीदने की नियमित दुकान। दुकान के मालिक राजकुमार ने रहस्यमय अंदाज में रस ले-लेकर बताया, सेक्टर-पांच के सोना ब्यूटी पार्लर पर पुलिस की धाड़ पड़ी है। कॉलेज की पांच लड़कियां पांच अधेड़ पुरुषों के साथ अश्लील हरकतें करती पकड़ी गई हैं। पकड़े गए पुरुषों में एक वर्मा साहब भी हैं, सेक्टर-चार के वर्मा साहब, जिनकी गोरेगांव पश्चिम में बहुत बड़ी रेडीमेड कपड़ों की दुकान है और जिनका बेटा फोर्ट की एक कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर है।
‘वर्मा साहब ने सेक्टर-चार की इज्जत का कचरा कर दिया है।‘ राजकुमार हंसने लगा, ‘इस उमर में तो आदमी पालक हो जाता है, मेरे को लगता है कि चुसवा रहे होंगे।‘ राजकुमार फिर हंसा...‘हा...हा...हा...अब उनकी बेटी इस रोड पर से कैसे गुजरेगी? हा...हा...हा...!‘

×××

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कोख से पैदा हुआ उत्तर आधुनिक समय हंस रहा था। शहर के अखबार और बाजार डॉट कॉम कंपनियों के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। जुहू की गलियों में चोरी-छिपे चलनेवाला देह व्यापार का धंधा पिछड़ रहा था। महंगे और बड़े कॉलेजों की बिंदास किशोरियां चिपकी हुई जींस और टॉप के साथ कॉलेजों से बाहर निकलकर केवल एक रात के डिस्को जीवन और डिनर विद बीयर के सौदे पर लेन-देन कर रही थीं। इंटरनेट पर पोर्नो साईट सबसे ज्यादा पैसा पीट रही थीं। पूरी दुनिया की हजारों नंगी लड़कियों को करोड़ों बाप-बेटे कंप्यूटर के मॉनीटर्स पर देखने में मशगूल थे। सरकारें अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही थीं। मल्टीनेशनल कंपनियों का अजगर बाजार को लीलता हुआ घुसा चला आ रहा था। कारें बढ़ती जा रही थीं। हवा और पानी समाप्त हो रहे थे। मुंह में चीज बर्गर या चिकन सैंडविच या मटन रोल दबाए और हाथ में कोक की बोतल थामे युवा लड़के डॉट कॉम कंपनियों में चैदह-चैदह घंटे खप रहे थे। जवान होती लड़कियां अपने उत्तेजक सीनों और कामातुर नितंबों के साथ फिल्म फाइनेंसरों की हथेलियों पर नाच रही थीं। अकेले छूट गए बूढ़े लोगों को उनके फ्लैटों में घुसकर कत्ल किया जा रहा था। बच्चों को क्रेच में फेंक दिया गया था और मांएं लोकल में लटक कर काम पर जा रही थीं।
दुनिया की सबसे छोटी कविता लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर खड़ी अट्ठहास कर रही थी-आई। व्हाई?
आई। व्हाई? गोल्डन नेस्ट के सेक्टर-चार की उदीयमान अभिनेत्री गीता अलूलकर ने सोचा और सातवें माले के अपने कीमती फ्लैट की खिड़की से छलांग लगा दी। गीता अलूलकर के साथ-साथ उसके गर्भ में जन्म ले चुका उसका बच्चा भी मारा गया ।
आई। व्हाई? सेक्टर-एक के शराबी ऑटो ड्राइवर की बीवी शोभा नार्वेकर ने सोचा और बदन पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। फिर घर से निकलकर पूरे सेक्टर में वह पछाड़ खाती फिरती रही।
नागपाड़ा पुलिस चैकी में बिना सोए छत्तीस घंटे से ड्यूटी दे रहा कांस्टेबल सालुंके बड़बड़ाया-आई। व्हाई? फिर उसने खुद को गोली मार ली।
घर से निकाल दिए गए सत्तर साल के सतवीर राणा ने दोहराया-आई। व्हाई? फिर वह विरार फास्ट के आगे कूदकर कट गया।
बारहवीं में पढ़ रहे साइंस के स्टूडेंट नासिर हुसैन ने सोचा-आई। व्हाई? और बस स्टॉप पर खड़ी अपनी सहपाठी रमेश टिपणिस के चेहरे पर तेजाब फेंककर भाग खड़ा हुआ।
आई। व्हाई? एक समवेत और नसों को तड़का देनेवाला शोर उठा और मालाड, गोरेगांव, चेंबूर, डोंबीवली, कुर्ला, भायंदर, मुलुंड, कल्याण, विरार के नौजवान और हताश लड़के सीधे हाथ की उंगलियों को रिवॉल्वर की शक्ल में ताने दगड़ी चाल की गलियों में गुम हो गए, जहां सात-सात हजार में शूटरों की भर्ती चल रही थी।
आई। व्हाई? छोटे-मोटे बिल्डर और शराबघरों के मालिक सोचते थे और चुपके से सत्ता के गलियारों में दाखिल हो जाते थे।
पत्र-पत्रिकाएं बंद हो रही थीं। पुस्तकालय सूने पड़े थे। बड़े लेखक या तो मर गए थे या चुक गए थे। मीडियॉकर लेखकों को शौचालयों के मालिक, जूतों और टायरों के मालिक, शराब कंपनियों के हिस्सेदार लाखों रुपये में पुरस्कार बांट रहे थे। जन संघर्षों में सक्रिय रूप से जुड़े रचनाकारों को सलाखों के पीछे डाला जा रहा था। युवा लेखक टीवी सीरियलों के फूहड़ संसार में सेंध लगा रहे थे। अपहरण ने उद्योग का और हफ्ता वसूली ने धंधे का रूप धर लिया था। गुंडे नगरसेवक बन गए थे, डॉक्टर व्यापारी और क्रिकेटर घपलेबाज।
और इस पूरे ‘सीन पिचहत्तर‘ में धनराज के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी।

तीन

नहीं, यह वह बबलू नहीं था, जिसे धनराज अमिताभ बच्चन बनने का सपना देखते हुए जोधपुर में छोड़ गया था। यह सलोने, लंबोतरे चेहरे, स्वप्निल आंखों और बात-बेबात पर मुस्कराता किशोर नहीं था। यह नागेश चैधरी था।
नागेश चैधरी का चेहरा सख्त और खुरदुरा था। उसकी आंखों में एक बनैली हिंसा और क्रूर चमक कौंधती थी। हंसता वह अभी भी था, लेकिन अब उसकी हंसी में एक उपेक्षा जैसा कुछ रहता था। सबसे बड़ी बात, उसकी बातें अजनबी हत्यारों के रहस्यमय देश से आती अंतिम आदेशों जैसी थीं।
इस नागेश चैधरी को अपने सामने खड़ा पा धनराज तो एकाएक लड़खड़ा ही गया।
धनराज जोधपुर आया हुआ था, सपरिवार। बहुत जमाने के बाद वह अपने कुल कुनबे के बीच था। एक बहुत सादे विवाह समारोह में ममता को विदा कर देने के बाद वे सब लोग अजीब-सी फुर्सत में एकाएक खाली हो गए थे। शादी का सारा इंतजाम, भागदौड़ और सरंजाम राकेश ने एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह अंजाम दिया था और अब वह अपने प्रयत्नों को शहीदों की-सी मुद्रा में एकालाप की तरह गा रहा था। धनराज और सरिता उसकी शौैर्यगाथा को बड़ी तन्मयता से सुन रहे, जबकि नागेश के चेहरे पर एक अजीब-सा वीतराग था।
यह वीतराग धनराज ने अपनी मां के चेहरे पर भी देखा। पता नहीं, मां-बेटे में से किसने-किसके चेहरे से यह वीतराग चुरा लिया था। ठीक-ठीक यही वीतराग धनराज ने पिता के अंतिम समय में उनके चेहरे पर भी देखा था। कहां से आता है यह वीतराग और क्यों?
बुआ की शादी में, लड़केवालों के दल में शामिल होकर रोहित जमकर नाचा था और अब थककर, दादी की गोद में सिर छुपाकर एक बेफिक्र नींद में चला गया था। राकेश की पत्नी अपनी दोनों बेटियों के साथ दूसरे कमरे में जा चुकी थी। बैठकवाले कमरे में बाकी लोग थे-सरिता, धनराज, राकेश , नागेश , मां और सोता हुआ रोहित। बीच-बीच में ममता की यादें भी टहलने चली आती थीं। इस पूरे कुनबे को बैठक की दीवार में, फ्रेम में जड़े पिता मुस्कराते हुए देख रहे थे। राकेश की शौर्यगाथा से पूरी तरह निरपेक्ष नागेश टीवी पर समाचार सुन और देख रहा था। अचानक वह रुका। धनराज ने देखा-टीवी पर उद्घोषिका कह रही थी -
‘जनाधिकार अभियान के सिलसिले में मुंबई आए भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने पत्रकारों को बताया कि या तो एनरॉन द्वारा महाराष्ट्र को लूट लिया जाएगा या महाराष्ट्र की जनता एनरॉन को लूट लेगी। केंद्र सरकार की उदार अर्थव्यवस्था तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भारत के लिए खतरे की घंटी बताते हुए श्री चंद्रशेखर ने कहा कि उदारीकरण एवं विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिए जाने के कारण इतनी विषमता पैदा हो गई है कि गरीब इलाकों में भारी तनाव की स्थिति छाई हुई है। बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ कारखाने बंद हो गए हैं। सब्सिडी बंद हो जाने के कारण हमारे किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। श्री चंद्रशेखर ने कहा कि जो आत्महत्या करने पर मजबूर होता है, कल वह हत्या भी कर सकता है।‘
‘गुड!‘ बबलू उर्फ नागेश चैधरी चहका, ‘बुर्जुआ नेता भी चिंतित हैं।‘ फिर उसने टीवी बंद कर दिया।
धनराज ने राहत की सांस ली, फिर बात शुरू करने के लिहाज से बोला, ‘बुर्जुआ मतलब?‘
‘आप नहीं समझेंगे। छोड़िए।‘ नागेश हंसी में हिकारत-सी भरकर बोला, जिससे धनराज को चोट लगी।
‘राकेश बता रहा था कि तुम गुंडागर्दी करने लगे हो?‘ धनराज ने पलटकर वार किया।
बहुत जोर का ठहाका लगाया नागेश चैधरी ने फिर तिक्त लहजे में बोला, ‘बीवी बच्चे, मां, बहन, नौकरी, आर्थिक तंगी की सदाबहार रुलाई के बीच मेंढक की तरह टर्रा-टर्राकर जीवन गुजारते राकेश भाई की कोई गलती नहीं है। वे भी उसी सड़े गले समाज का हिस्सा हैं, जिसे हम बदलना चाहते हैं।‘
‘क्या बदलना चाहते हो तुम?‘ धनराज तनिक जोर से बोला, ‘मुझे तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रहीं?‘
‘आएंगी भी नहीं।‘ नागेश फिर टहलने लगा, ‘आप मुंबई के अपने सुखी जीवन में मस्त रहिए।‘
‘क्या सुखी जीवन?‘ धनराज तिलमिला गया, ‘मेरी नौकरी को गए छह महीने हो गए हैं।‘
‘तो क्या हुआ?‘ नागेश रुका, ‘रोहित कमाता है न?‘
‘केवल छह हजार रुपये?‘ धनराज ने याद दिलाया।
केवल छह हजार रुपये? नागेश फिर हंसा, ‘केवल? उन दिनों को भूल गए आप जब केवल छह सौ रुपये में हमारा बाप हम सबको पालता था। ममता को हम इंटर के बाद क्यों नहीं पढ़ा सके? इसलिए कि हम हर महीने उसकी फीस नहीं भर सकते थे। बिहार के जिन गांवों में मैं काम करता हूं, वहां के लड़के इंटरव्यू का बुलावा आने पर भी दिल्ली-मुंबई इसलिए नहीं जा पाते, क्योंकि उनके पास रेल का किराया नहीं होता।‘
‘बिहार के गांवों में क्या काम करते हो तुम?‘ धनराज की उत्सुकता जागी।
‘वो भी आपको समझ में नहीं आएगा।‘ नागेश उपेक्षा से बोला।
‘मगर यह कैसा काम है?‘ धनराज बुजुर्गों की तरह बड़बड़ाया।
‘यह ऐसा काम है, जो पूरा होने पर देश का नक्शा बदल देगा।‘ नागेश की आंखें चमकीं, ‘लेकिन उस बदले हुए नक्शे में आप लोगों के लिए भी जगह नहीं होगी। वर्ग शत्रुओं के कत्ले-आम के दौरान आप जैसे लोग भी मारे जाएंगे। पैटी बुर्जुआ रास्कल।‘
धनराज सहम गया। उसे लगा राकेश ने शायद ठीक कहा था कि बबलू गुंडा हो गया है। धनराज ने राकेश की तरफ देखा, वह ऊबा-ऊबा सा, सोने के लिए दूसरे कमरे में जा रहा था। फिर नागेश भी बाहर चला गया, शायद किसी दोस्त से मिलने। ऐसे कौन-से दोस्त हैं, जो इतनी रात को भी जागते हैं। धनराज सोच रहा था। अंततः धनराज और सरिता ने भी उसी कमरे में चटाई पर बिस्तर लगा लिया और रोहित को जगाकर उस बिस्तर के एक कोने पर सुला दिया। मां अपने कोने में पसर गई। मां का वर्षों पुराना कोना।
यह पिता का घर था।
रखना छिपा के दिल के छाले ऽऽऽ!
घर छालों की तरह फट गया था। घर की दुर्दशा को देखते-देखते धनराज ने सरिता की तरफ ताका, तो पाया कि सरिता धनराज को ताक रही थी।
‘क्या सोच रही हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘मुझे लगता है, हमें इस घर को इस तरह नहीं भुला देना था।‘ सरिता की आंखें नम थीं। वह एक सच्चे पश्चताप के बीच खड़ी पिघल रही थी।
‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली।
सुबह जब वह जागा, तो कमरे के एक कोने में रोहित, उसका बबलू चच्चू और राकेश की दोनों बेटियां बातों में व्यस्त थे। सरिता शायद मंजू के साथ किचन में थी और मां?
धनराज ने इधर-उधर देखा-मां कमरे की खिड़की के पार सीढ़ियां चढ़कर छत पर जाती दीख रही थी। शायद धूप में टहलने के लिए। धनराज ने देखा कि इस वक्त बबलू का चेहरा बबलू का ही था। शायद इसलिए कि वह मासूम बच्चों की निष्पाप दुनिया में बैठा था।
बबलू रोहित को समझा रहा था-इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी का लॉलीपॉप थोड़े-से लोगों के लिए है बेटे। ये सब, लोगों को चूतिया बनाने का गोरख-धंधा है। जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोगों को रोटी नहीं मिलती, उस देश में कंप्यूटर क्रांति को तरजीह देना अवाम के साथ एक भौंडा मजाक है। हकीकत यह है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के माध्यम से इस देश में उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है।‘
‘उपनिवेशवाद क्या होता है चच्चू?‘ रोहित ने पछा।
‘यह बताना तो बहुत कठिन है बेटे।‘ बबलू उलझ गया, ‘इसे इस तरह समझ कि अंग्रेजों के समय में हम उनकी एक कॉलोनी थे, जहां वे लूटमार करते थे। अभी भी हम लूटमार की मंडी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने गैट और उदारीकरण का नकाब पहना हुआ है।‘
‘पर चच्चू मुंबई में तो मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पाना खुशी की बात समझी जाती है।‘ रोहित अपनी नौकरी को जस्टीफाई करने के चक्कर में था।
‘मुंबई देश नहीं है बेटे। मुंबई देश के जिस्म पर उगा हुआ कैंसर है।‘ बबलू हंसने लगा। धनराज को लगा बबलू की आत्मा में फिर से नागेश चैधरी प्रवेश ले रहा है। एक समय था। धनराज को याद आया, यही बबलू मुंबई जाने के नाम से रोमांचित हो उठता था।
‘मैंने सुना है।‘ बबलू पूछा करता था। ‘वहां हेमा मालिनी सड़कों पर सब्जी खरीदती हुई दिख जाती है?‘
‘चच्चू मेरे को अपनी पिछतौल दिखाओ न?‘ यह सोना थी, राकेश की छोटी बेटी।
नागेश जेब से रिवॉल्वर निकालने लगा।
धनराज फिर सहम गया और करवट बदलकर वापस सो गया।
दुबारा जब वह जागा, तो धूप चढ़ आई थी। उस धूप में घर की दुर्दशा और भी चमकीली हो गई थी। यह ठीक है कि इन दिनों वह बेकार है, लेकिन सुखी दिनों में तो उसे कुछ पैसे हर महीने मां को भेजते रहने चाहिए थे। वह सोचता था कि नो न्यूज इस द गुड न्यूज। उसे क्या पता था कि उसके भाई, उसकी बहन और उसकी मां अपने दारिद्र्य के अभिमान की ऊंची अटारियों पर चढ़े बैठे थे। शुरू में कुछ समय तक मां की चिट्ठियां आती रही थीं। उनमें वही सब होता था जो ढहते हुए घरों से आनेवाली चिट्ठियों में होता है-ममता चुप रहने लगी है। राकेश चिड़चिड़ा हो गया है। बबलू के लच्छन ठीक नहीं हैं। वह रात-रात भर बाहर रहता है। कई-कई दिन तक घर नहीं आता। तू बबलू को अपने पास क्यों नहीं बुला लेता?
तब धनराज चारकोप की बैठी चाल वाले एक कमरे में रहता था। उसकी नयी-नयी नौकरी थी जिसके नये-नये जानलेवा तनाव थे। वह सोचता था कि थोड़ा संभल जाए, तो कुछ करे, लेकिन तब तक मां की चिट्ठियां ही आनी बंद हो गईं।
धनराज जानता है कि ये सब केवल खुद को दिलासा दिलाने वाले तर्क हैं। गुनहगार तो वह है।
तभी रोहित के साथ वह आता दिखा-बबलू। नहीं, नागेश चैधरी।
‘रिवाॅल्वर से क्या करते हो?‘ धनराज ने लेटे-लेटे पूछा।
‘रिवाॅल्वर से उस आदमी का भेजा उड़ा देते हैं, जो भूखी, बदहाल लड़कियों के साथ बलात्कार करता है, जो बच्चों से अपने खेत में बंधुआ मजदूरी करवाता है, जो किसानों के घर जला देता है।‘ नागेश चैधरी हंसा, ‘और कुछ जानना है?‘
‘चच्चू, तू लोगों को मार देता है?‘ यह रोहित था, पूरे आश्चर्य के बीचोबीच।
‘हां बेटा, कभी-कभी मार देना पड़ता है।‘ बबलू ने रोहित को इस तरह समझाया मानो कभी-कभी वह मच्छर को मसल देता हो।
‘तुझे पुलिस नहीं पकड़ती चच्चू?‘ रोहित ने प्रश्न किया।
‘पुलिस में भी अपने दोस्त होते हैं बेटा। वो बता देते हैं कि भाग जाओ। फिर हम भाग जाते हैं।‘ बबलू अभी तक बबलू था, मुस्कराता हुआ, सहज और सरल।
‘और कभी तू पकड़ा गया तो?‘ रोहित की जिज्ञासाएं उफान पर थीं।

‘तो तेरा चच्चू मार दिया जाएगा।‘ बबलू जोर-जोर से हंसने लगा, ‘मरना तो सभी को होता है बेटे। किस मकसद के लिए मरे, बड़ी बात यह है।‘
खाना खाकर बबलू रोहित को जोधपुर का किला दिखाने ले गया। धनराज के दिमाग में हथौड़े चलने लगे-मकसद। मकसद। मकसद।
बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना, परिवार को सुखी रखना क्या यह सब मकसद के दायरे में नहीं आता? धनराज सोच रहा था। लगातार। क्या जीवन में उससे कोई चूक हो गई है? लोग गरीब हैं, भूखे हैं, अशिक्षित हैं, गटर में हैं, सड़क पर हैं, मारे जा रहे हैं-इसमें उसका क्या दोष है?
मां आ रही थी। धीरे-धीरे। धीर गंभीर।
धनराज उठकर बैठ गया।
मां के पीछे-पीछे सरिता भी आई और सरिता के पीछे ‘ताई ताई‘ करती राकेश की दोनों बेटियां-सोना, मोना। राकेश अपनी नौकरी पर जा चुका था।
‘सुखी तो है न?‘ मां ने पूछा और सोना-मोना को अपनी गोद में बिठा लिया।
धनराज हंसा, एक फीकी हंसी। पछतावे और दुख में डूबी-डूबी सी। फिर उसने अचानक पूछा, ‘डैडी की याद आती है?‘
मां ने इनकार में गर्दन हिला दी। धनराज ने देहरादून वाले दिनों में जाकर देखा-पिता नशे में धुत्त हैं और मां को लात-घूसों से पीट रहे हैं। उसने एकाएक पिता का हाथ पकड़ लिया है और भौंचक्के पिता ने मां को छोड़ धनराज को पकड़ लिया है। धनराज के मुंह पर झापड़ रसीद कर उन्होंने उसे ठंडे बाथरूम में बंद कर दिया है।
मां का चेहरा एकदम शांत है। उसे कोई दुख-सुख नहीं व्यापता।
‘अपने दुख किसके साथ बांटती हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘मुझे कोई दुख नहीं है।‘ मां मुस्कराने लगी, ‘मेरे दुख भी उसके हैं और सुख भी उसी के।‘
‘उसके? उसके कौन?‘ धनराज चैंका।
‘राम के।‘ मां ने आंखें बंद कर लीं।
मां का राम कौन है? धनराज असमंजस में पड़ गया। उसने छह दिसंबर में जाकर देखा-राम का नाम लेकर ढेर सारे लोग मस्जिद गिरा रहे थे।
खाना खाकर धनराज सोना-मोना को गोद में लेकर छत पर चला गया। गर्मी के दिनों में इसी छत पर पिता की महफिल जमती थी। पिता के अंतिम दिनोंवाला घर, जो उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाने के बाद आखिरकार जोधपुर में बना ही डाला था। पिता सोचते थे कि अपने-अपने पैरों पर खड़े होने के बाद उनके तीन बेटे इस घर को तीन मंजिला भवन में बदल देंगे।
‘बड़े पापा हम मुंबई जाएंगे,‘ मोना ने धनराज को टोका।
‘औल हम भी।‘ छोटी सोना ने सुर में सुर मिलाया।
‘जरूर।‘ धनराज ने दोनों को आश्वासन दिया और छत से दिखती, दूर जाती उस सड़क को देखने लगा, जिससे गुजरकर धनराज मुंबई और बबलू बिहार चला गया था। एक ही सड़क लोगों को अलग-अलग जगहों पर क्यों ले जाती है। धनराज सोच रहा था। दोनों लड़कियां आपस में झगड़ने लगी थीं। धनराज उन्हें लेकर नीचे आ गया।
रात को जमीन पर बैठकर सब लोगों ने एक ही कमरे में एक साथ खाना खाया। गोश्त और चावल। गोश्त मां ने पकाया था। मंजू ने बताया, ‘मां जी ने कई साल बाद अपने हाथ से मटन पकाया है।‘
धनराज को फिर पिता याद आ गए। पिता कहते थे -‘तेरी मां बिना मसालों के भी ऐसा गोश्त पकाती है कि बख्शी दा ढाबा भी शरमा जाए।‘ बख्शी दा ढाबा देहरादून का एक मशहूर रेस्त्रां था, जिस पर हर समय भारी भीड़ रहती थी। खासकर रात में।
‘मैंने भी कई सालों के बाद गोश्त खाया है।‘ बबलू हंसने लगा।
‘चच्चू तेरे इलाके में मटन नहीं मिलता है?‘ यह रोहित था।
‘ज्वार की मोटी मोटी रोटी पर लहसुन और लाल मिर्च की चटनी मिल जाए, तो लोग खुश हो जाते हैं बेटे।‘ बबलू बता रहा था, ‘और अगर साथ में चोखा हो, तो बात ही क्या?‘
‘चोखा क्या होता है चच्चू?‘ रोहित पूछ रहा था।
‘आलू को उबालकर उसे सरसों के तेल में मसल देते हैं...‘
‘बस?‘ रोहित चकित था, ‘कौन लोग इतने गरीब होते हैं चच्चू?‘ पीजा, बर्गर, कोक की दुनिया में बड़ा हुआ रोहित उबले हुए आलू के साथ सुख का सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा था।
‘हर मेहनत करनेवाला गरीब होता है बेटे।‘ बबलू ने जवाब दिया।
‘घर के सब लोग बैठे हैं।‘ अचानक धनराज बोला, ‘बबलू तुम क्या सोचते हो? मुझे अब क्या करना चाहिए?‘
बबलू को सम्भवतः धनराज से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह अचानक हड़बड़ा-सा गया। फिर संजीदा होकर बोला, ‘बुरा मत मानना भाई साहब। पूरे विवेक के साथ बोल रहा हूं। असल में आपकी समस्या यह है कि आपके जीवन का कोई मकसद नहीं है। आप जैसे लोग दोनों तरफ से मारे जाते हैं। आपकी जरूरत न इधर है न उधर।‘ बबलू ने कहा, ‘एशिया की सबसे नारकीय झोपड़पट्टी धारावी आपकी मुंबई में ही है। कभी वहां गए हैं आप? आपने नासिक के देवलाली गांव के बारे में सुना है। उसे विधवाओं का गांव कहते हैं। वहां के सारे पुरुष फायरिंग रेंज में चोरी से घुसकर पीतल-तांबा बटोरते हैं, ताकि उसे बेचकर पेट भर सकें। पीतल-तांबा बटोरते-बटोरते वहां का एक-एक पुरुष तोप के गोलों का शिकार हो गया। निपाणी का नरक देखा है आपने? मुंबई की कितनी सारी कपड़ा मिलें बंद हो गई हैं। उनके मजदूर क्या कर रहे हैं, पता है आपको? मुझे मालूम है, इन सवालों से नहीं टकरा सकते आप। ये बहुत असुविधाजनक सवाल हैं। आपका पूरा जीवन मैं से मैं के बीच चक्कर काटते बीता है, इसीलिए बाकी लोग खुद ब खुद आपके जीवन से बाहर चले गए हैं। उन सबके जीवन में आपकी कोई जरूरत नहीं है।‘ बबलू रुका, फिर वह नागेश चैधरी वाली हंसी हंसने लगा, ‘ऐसा करो, आप मुरारी बापू की शरण में चले जाओ। सुना है, मुंबई में उसकी नौटंकी सुपर-डुपर हिट है।‘
धनराज का सिर झुक गया।
‘बबलू,‘ सरिता ने खाना रोक दिया, ‘तुम हद के बाहर जा रहे हो।‘
‘सॉरी भाभी,‘ बबलू ने विनम्रता से जवाब दिया, ‘मेरा मकसद किसी का भी दिल दुखाना नहीं था।‘ फिर वह हाथ धोने के लिए आंगन में बने नल पर चला गया।
रात दस बजे कोई लड़का बदहवास-सा बबलू से मिलने आया। कुछ देर आंगन में कुछ खुसुर-फुसुर की उन्होंने, फिर बबलू उसी के साथ घर के बाहर चला गया।
जब बबलू को गए दो घंटे बीत गए, तो धनराज ने प्रश्नाकुल हो राकेश की तरफ देखा। राकेश ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘वो गया। वो ऐसे ही जाता है।‘
धनराज जड़ हो गया।

×××

मुंबई पहुंचने के अगले रोज धनराज के सीने में तेज दर्द उठा। उसका बदन पसीने-पसीने हो गया। तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठने सा लगा और दोनों आंखें बाहर निकलने को आतुर हो उठीं।
रोहित उस समय अपने ऑफिस में था और सरिता ‘कौन बनेगा करोड़पति‘ देख रही थी। धनराज छटपटाकर बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल के पास गिरा। उसके गिरने की आवाज सुनकर सरिता भागकर बेडरूम में पहुंची, फिर वह सामनेवाले पड़ोसी के.के. महाजन की मदद से उसे सेक्टर-पांच के नर्सिंग होम में ले गई।
धनराज को दिल का दौरा पड़ा था।
स्वस्थ होने में धनराज को एक महीना लगा।
उसकी बीमारी में जोधपुर से कोई नहीं आ पाया। राकेश को छुट्टी नहीं मिली। ममता ससुराल में थी। उस तक खबर काफी देर से पहुंची। अकेली मां आ नहीं सकती थी और बबलू बिहार के गांवों में था।
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धनराज अपने एकान्त में गुनगुनाया करता -
रखना छुपा के दिल के छाले रे ऽऽऽ!
उन्हीं दिनों सरिता को सेक्टर-चार के पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई।
धनराज और अकेला हो गया।
यह अकेला धनराज एक रात गौतम बुद्ध की तरह सरिता और रोहित को सोता छोड़ कहीं अंधेरे में गुम हो गया।
कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने धनराज को हाथ में एक ईंट लिए अयोध्या के रास्ते पर पैदल-पैदल जाते देखा था।
(रचनाकाल: जनवरी 2001)