इस सप्ताह हम पढ़वा रहे हैं मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी 'खाल'। इस मंच पर हम मनोज कुमार पाण्डेय की और कहानी 'बेहया' पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि ये दोनों कहानियाँ ज्ञानपीठ द्वारा इसी वर्ष प्रकाशित नये लेखकों की पहली पुस्तक शृंखला के 'शहतूत' कहानी-संग्रह से ली गई हैं।
रोज की तरह ही पिछली रात को भी सुबह चार बजे सोया था और रोज की तरह ही करीब ग्यारह बजे सोकर उठा था। अभी नाश्ता ही कर रहा था कि मनोहर दा का फोन आ गया।
प्रथम, क्या कर रहे हो आज?
क्यों?
शाम को खाली हो क्या? यही कोई तीन बजे से।
हां, पर बात तो बताइये, मैने कहा।
कुछ खास नहीं। शाम को मैं लोकनाथ जा रहा हूं। अगली प्रदर्शनी के लिए कुछ पेंटिंग्स तैयार करनी हैं। सोचा कि तुम्हें भी साथ लेता चलूं और तुमने भी तो कहा था कि......
बस....बस दादा, मैं आ रहा हूं। बताइये कहां हाजिर हो जाऊं?
गैलरी आ जाओ, यहीं से निकल चलेंगे।
ठीक है दादा।
दरअसल पेंटिंग्स में मेरी रूचि अभी नई नई ही पैदा हुई थी। और मनोहर दा में भी। मैं देखना चाहता था कि एक चित्रकार अपनी पेंटिंग्स के लिए दृश्य भला कैसे चुनता है और उसकी पेंटिंग्स तक पहुंचते-पहुंचते वे दृश्य भला किस तरह कुछ सार्वभौमिक दृश्यों में रूपांतरित हो जाते हैं। फिलहाल तो यह सब जानने समझने के लिए मेरे निकट मनोहर दा से बेहतर कोई दूसरा नाम नहीं था। मनोहर दा अपनी पेंटिंग्स में परस्पर विरोधी रंगों से मूर्त और अमूर्त का ऐसा द्वन्द्व उकेरते कि उनकी कूची चूम लेने का मन करता।
कुछ इस तरह कि रंगों के कुछ छींटे चेहरे पर भी आ जायें।
आप सोच रहे होंगे कि भला मैं कौन? और रंगों में अचानक इतनी दिलचस्पी क्यों लेने लगा..... तो जनाब आपका ये खादिम रंगकर्मी है और रंगों से खेलना मेरे पेशे का एक जरूरी हिस्सा है। जी हां, पेशे का। रंगकर्म मेरे लिए एक पेशा है। तो मैं देखना चाहता था कि क्या मैं मंच पर कुछ गतिशील रंगारंग पेंटिंग्स तैयार कर सकता हूं। मान लीजिये कि मंच एक फ्रेम है तो इस फ्रेम के भीतर लगातार बदलते हुये जादुई दृश्यों की एक शृंखला।... पर अभी तो मैं आपसे कुछ दूसरी ही बात करने जा रहा था। दरअसल मेरी दिक्कत यह है कि मैं अक्सर बहक जाता हूं। मेरा मानना है कि सोचने का तो कोई टैक्स लगता नहीं तो सोचने में क्या जाता है। मैं अपनी कल्पनाओं को अनंत तक फैलने देता हूँ, हालांकि इसी वजह से कई बार चीजों को समेटने में दिक्कत आन पड़ती है और दृश्य बिखर कर रह जाते हैं। पर अभी तो मैं आपसे मनोहर दा की बात करने जा रहा हूं।
कौन मनोहर दा! आप नहीं जानते उन्हें? अरे, अखबार नहीं देखते क्या आप? अभी कल ही तो मुख्यमंत्री से कलाभूषण पुरस्कार लेते हुए उनकी तस्वीर सारे अखबारों में छपी थी और मेरा दावा है कि आप उन्हें एक बार देख भर लें, फिर कभी नहीं भूल पायेंगे। लंबा-चैड़ा कद, आकर्षक गोरा रंग, उन्नत ललाट, करीने से बिखेरे गये बड़े बड़े बाल और खिचड़ी दाढ़ी। जींस और कुर्ता उनका बारहमासी पहनावा है फिर भी, इसलिये कि वे नित-नवीनता के पुजारी हैं सो कल को आप उन्हें धोती-कुर्ते में भी देख सकते हैं। गले में एक साफ-शफ्फाक अंगोछा और आवाज.....आवाज का तो क्या कहना! गहरे कुएं से छनकर आती धीर गंभीर, पर टनकदार आवाज। इस टनकदार आवाज में आप उन्हें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बोलते-बहसियाते एक बार सुन लें बस, आप उन पर फिदा हो जोयेंगे।
मनोहर दा के चाहने वाले दुनिया भर में फैले हुए हैं। न जाने कहां-कहां से चिट्ठियां आती रहती हैं। इन चिट्ठियों को उन्होंने अपनी आर्ट गैलरी में एक कलात्मक तमीज के साथ लगा रखा है। न जाने कितने पुरस्कार, तमगे, स्मृतिचिन्ह, अनेक सरकारी कमेटियों के सदस्य, कई संस्थाओं के अध्यक्ष और कितनों के संरक्षक। आजकल मैं मनोहर दा को जम कर मस्का लगा रहा था और तुरंत ही मुझे इसका इनाम भी मिला था। मेरे जैसा जुम्मा-जुम्मा आठ दिन का निर्देशक अभी दिल्ली में संपन्न हुये ‘अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना नाट्य समारोह’ में अपनी धूम मचा आया था।
तो मैं तीन बजे मनाहेर दा की आर्ट गैलरी पहुंच गया। मनोहर दा मेरा इंतजार कर रहे थे और बैठे-बैठे इंतजार के स्केचेज बना रहे थे।
अभी चलते हैं, मनोहर दा ने कहा। तब तक तुम चाहो तो एक सिगरेट पी सकते हो।
हाँ, हाँ क्यों नहीं। मैं सिगरेट पीता रहा और मनोहर दा अपने काम में लगे रहे। सिगरेट अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि मनोहर दा अचानक उठे और बोले, चलो, चलते हैं।
मैं चैंक गया। मनोहर दा की मेज पर सब कुछ बिखरा पड़ा था। रंग, पेन्सिल, कागज, रबर, स्केचेज, वगैरह-वगैरह।
हंसे मनोहर दा, तो क्या हुआ? मेरी अनुपस्थिति में कोई मेरी चीजों को छूने की हिम्मत नहीं कर सकता।
तय हुआ कि हम एक ही बाइक से चलते हैं। मैंने अपनी स्कूटर वहीं खड़ी रहने दी और हम लोकनाथ के लिए निकल पड़े। रास्ते में मनोहर दा ने कहा, प्रथम पहले बिरंचीलाल के यहां बिरयानी खाते हैं फिर चलते हैं। हम बिरयानी खाकर बाहर निकले ही थे कि मैंने पाया मनोहर दा अस्त-व्यस्त से कुछ खोज रहे हैं, कभी इस जेब में तो कभी उस जेब में। क्या हुआ दादा, मैंने पूछा।
यार मेरा मोबाइल नहीं मिल रहा है। कहते हुए मनोहर दा फिर बिरयानी वाले के यहां घुस गये। बाहर निकले तो मैंने पाया, कि उनके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं थीं और उनकी आवाज कांप रही थी। दादा थोड़ा ध्यान से देखिये। कहने को तो मैं कह गया। पर अब तक मनोहर दा जो जेबें कहीं नहीं थी उनकी भी कई-कई बार तलाशी ले चुके थे।
क्या पता आर्ट गैलरी में ही छूट गया हो, मैंने कहा और अपना मोबाइल निकाल लिया। मैं रिंग करके देखता हूं। कॉल लगने के पहले ही खत्म हो जा रही थी। मतलब कि मोबाइल का स्विच ऑफ था या मोबाइल नेटवर्क में ही नहीं था।
अब क्या होगा.......मनोहर दा ने निराश कांपती हुई आवाज में कहा। पच्चीस हजार का सेट और अभी पांच महीने भी नहीं हुये। मैंने तो फोन डायरी रखना भी कब का बंद कर दिया है।
हो सकता है खुद आपने ही मोबाइल ऑफ कर रखा हो।
मैंने उम्मीद की एक किरण फेंकी और मनोहर दा ने लपक ली।
हां मैं स्केचेज बना रहा था। हो सकता है मैंने इस वजह से ऑफ कर रखा हो। जरूर मैंने ऐसा ही किया होगा।
हम थोड़ी देर बाद फिर से मनोहर दा की आर्ट गैलरी में थे। पल भर में मनोहर दा की मेज पर बिखरे हुये सामान और बिखर गये थे और मनोहर दा यहां-वहां ऊपर नीचे झांक रहे थे। मैं भी ऐसा ही कुछ करते हुए उनका साथ दे रहा था पर थोड़ी ही देर में हम जान गये थे कि हमारी कोशिश शायद कोई अर्थ नहीं रखती थी। मोबाइल सचमुच कहीं गिर चुका था।
चलो थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा।
इस बीच मैं लगातार मनोहर दा के गुम मोबाइल पर रिंग कर रहा था। वैसे तो तय था कि अब वह ऑफ ही रहने वाला था पर उम्मीद का दामन कहीं इतनी जल्दी छोड़ा जाता है। तो हम थाने पहुंचे।
हां बोलो जी, एक सिपाही ने कान पर चढ़ा जनेऊ उतारते हुये शुष्क स्वर में पूछा।
दीवानजी मेरा मोबाइल चोरी हो गया है, मनोहर दा ने कहा।
तो मैं क्या करूं?
हम एफ.आई.आर. के लिए आये हैं।
इससे क्या होगा....ऐं....आप अपनी चीज संभाल कर रख नहीं सकते और इधर-उधर हो गई तो आ गये डंडा करने। कोई जादू का डंडा है क्या पुलिस के पास जो अपराधी के पिछवाड़े में जाकर ही रूके।
अरे साहब आप हमारी बात भी सुनेंगे, मनोहर दा ने आजिजी से कहा।
हां बाबू साहेब क्यों नहीं? आपकी बात सुनने के अलावा और हमारे पास काम ही क्या है? आं?....चले आते हैं न लेना न देना। अरे मुंशीजी जरा देखिये तो बाबू साहेब क्या कह रहे हैं। बुद्धिजीवी लगते हैं जरा कायदे से देखिएगा।
सिपाही ने सामने के कमरे की तरफ इशारा किया।
हम मुंशीजी के कमरे में पहुंचे। मुंशीजी ने हमें बैठने के लिए भी नहीं कहा। वह नीचे देखता हुआ कुछ लिखता रहा या लिखने का अभिनय करता रहा। मुंशी के पीछे लहराते हुए पीत-परिधान में आक्रामक मुद्रा में धनुष ताने राम का चित्र लगा हुआ था। पृष्ठभूमि में एक प्रस्तावित मंदिर का मॉडल था जिस पर भगवा ध्वज लहरा रहा था। बगल का कमरा खुला था। दरवाजे के पास ही एक पच्चीस-छब्बीस साल का लड़का बैठा हुआ था। वह डरा हुआ था और उसकी आंखें फटकर बाहर निकली पड़ रही थीं। वह उन्हीं फटी-फटी आंखों से इधर-उधर देख रहा था। हम कुछ कहते इसके पहले ही लड़के की रिरियाती हुई आवाज आई।
दरोगाजी अब तो छोड़ दीजिये। अब तो उतर भी गई है न।
चोप्प हरामजादा, भेजा चाट के रख दिया है। उधर दूर बैठ।.....हां आप लोग कैसे? पूछते हुए उसकी आंखों में एक चमक उभरी जो तुरंत ही गायब हो गई।
हां बताइये।
भाई साहब, मेरा पच्चीस हजार का मोबाइल चोरी हो गया है। मनोहर दा ने विनम्र स्वर में कहा।
इतना महंगा सेट आप रखते ही क्यों हैं? बाई द वे कहां गिरा होगा मोबाइल?
हम सिविल लाइन से लोकनाथ जा रहे थे। रास्ते में एक पान की दुकान पर रूककर पान खाया। जरूर वहीं पर किसी ने..
आप दोनों तब भी साथ में थे?
हां।
मोबाइल कहां रखा था?
बगल कुर्ते की जेब में।
जेब दिखाइये।
मनोहर दा ने तिरछे होकर जेब मुंशी के सामने की।
कटी तो नहीं है?
अब मैं इसके बारे में क्या कहूं?
तो कौन कहेगा? कहीं गिर गया होगा। गुम हुई चीज को चोरी हुई क्यों बता रहे हैं? मोबाइल का भी बीमा-वीमा होने लगा क्या?
मैं हमेशा से अपना मोबाइल कुर्ते की जेब में ही रखता आया हूं आज तक तो नहीं गिरा। किसी ने हाथ डालकर ही निकाला होगा।
और आपको पता नहीं चला?
नहीं। पता चला होता तो......
इस बीच मैं एकटक मनोहर दा को देख रहा था। मनोहर दा ने सरासर झूठ बोला था। हम रास्ते में पान खाने कहीं नहीं रूके थे। मनोहर दा नीचे की जेब में मोबाइल कभी नहीं रखते थे। मनोहर दा तो मोबाइल जनेऊ की तरह पहने रहते थे। हां कभी कभार मन किया तो उठाकर ऊपर कुर्ते की जेब में रख लिया। एकदम दिल की धड़कनों के पास। मैं तो कई बार उनसे कह भी चुका था कि दादा यहां मोबाइल रखना दिल के लिए खतरनाक होता है। मनोहर दा ने हर बार हंसकर एक ही जवाब दिया था, ‘दिल भला है किस कम्बख्त के पास !’ खैर, यहां से निकलकर मनोहर दा से उनके झूठ के बारे में जरूर पुछूंगा, मैंने सोचा।
सिविल लाइन क्या करने गये थे? मुंशी ने पूछा
वहां मेरी आर्ट गैलरी है।
आर्ट गैलरी? यह क्या होती है?
मनोहर दा ने असहायता से मेरी तरफ देखा। मुझे खुद भी ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। पर मुंशी तो आखिरकार मुंशी ही होता है चाहे वह किसी की दुकान पर हो या थाने में।
मेरी पेंटिंग्स और मूर्तियों, मेरा मतलब कि लकड़ी की मूर्तियों की दुकान है। मनोहर दा ने रूक-रूककर जैसे समझाते हुये कहा।
लकड़ी की भी मूर्तियां होती हैं? कौन खरीदता होगा उन्हें, जल चढ़ाते-चढ़ाते सड़ नहीं जाती होंगी? ये मुंशी था।
मुझे हंसी आ गई पर मैंने किसी तरह अपनी हंसी रोकी। मनोहर दा के चेहरे पर एक झुंझलाहट दिखाई पड़ी जो जल्दी ही गुम हो गई और उसकी जगह नम्रता के भाव आ गये।
भाई साहब, लकड़ी के शिल्प और मूर्तियां लोग अपनी कलात्मक अभिरूचियों या घर सजाने के लिए ले जाते हैं, उन पर जल नहीं चढ़ाते।
भगवान की मूर्तियां घर सजाने के लिए। भई वाह-वाह! अब आया असल कलियुग। मुंशी अजीब सा मुंह बनाकर हंसा।
अरे भाई साहब वो भगवान-वगवान की मूर्तियां नहीं होतीं। वो तो कलाकृतियां...... फिर मनोहर दा शायद यह सोचकर चुप लगा गये कि मुंशी को समझाना उनके बूते की बात नहीं थी।
देखिये, आप पढ़े-लिखे आदमी मालूम दे रहे हो। बुद्धिजीवी होने का ये मतलब नहीं है कि आदमी भगवान का सम्मान करना भी भूल जाय।
जी ! मनोहर दा ने कसमसाते हुये कहा।
ठीक है, मुंशी ने कहा। पारसनाथ को जानते हैं?
कौन पारसनाथ? अब ये पारसनाथ कहां से आ गया। मनोहर दा ने कुछ-कुछ झल्लाहट के भाव से मेरी ओर देखा पर अब मुझे इस प्रसंग में मजा आने लगा था। जितना मैं मनोहर दा को जानता था, मैं चकित था कि मनोहर दा अब तक फट क्यों नहीं पड़े थे। उनके संपर्क ऊपर तक थे। मुंशी चाहकर भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था। पर यहां तो ज्यादा से ज्यादा उनकी झल्लाहट भर दिखायी दे रही थी, वह भी दिखने से पहले गायब हो जा रही थी और तुरंत उनके चेहरे से नम्रता टपकने लग रही थी तो सीन कुछ इस तरह बनता है........ मनोहर दा के चेहरे की झल्लाहट, उनकी दाढ़ी से टपकती नम्रता......बगल के कमरे का लड़का.... उसकी फटी आँखें.... तिलक लगाये, पान चबाये, टांग फैलाये मुंषी...... मुंशी के पीछे राम का पोस्टर....... जल चढ़ाने से सड़ती हुई लकड़ी की मूर्तियां और अब पारसनाथ। वाह! पूरा-पूरा एक एब्सट्रैक्ट नाटक। तो चलिये देखते हैं कि ये पारसनाथजी कौन हैं?
पारसनाथ को जानते हैं, मुंशी ने पूछा।
कौन पारसनाथ? अरे हां कहीं आप उस पारसनाथ की बात तो नहीं कर रहे हैं जो मेरी आर्ट गैलरी में काम करता था?
वही पारसनाथ। मेरे ही गांव का था। मैं उससे मिलने एक-दो बार...... आपकी दुकान....।
ओ-हो-हो.....तो आप पारसनाथ के गांव के हैं! बहुत भला और ईमानदार आदमी था पारसनाथ। कहां है आजकल?
हां-हां मैं जानता हूं। मुंशी ने कसैलेपन से कहा। आप ऐसा कीजिये कि एक कागज पर पूरी घटना का विवरण लिखकर दे दीजिये।
मनोहर दा ने अपने झोले से कागज निकाला और उस पर लिखने लगे। मुंशी अप्रिय नजरों से हमें देख रहा था। मनोहर दा झूठ पर झूठ बोल रहे थे। उनका ये रूप मेरे लिए अप्रत्याशित रूप से चैंकाने वाला था। अब याद आ रहा है
मनोहर दा ने एक बार खुद ही बताया था कि उस ‘भले’ और ‘ईमानदार’ पारसनाथ को उन्होंने चोरी के आरोप में निकाला था। शायद मुंशी भी इस बात को जानता हो। शायद क्या, पक्का वह जानता रहा होगा तभी वह हमसे इस तरह से पेश आ रहा था।
मनोहर दा पूरा विवरण लिख पाते, इसके पहले एक अदृश्य गंध पूरे वातावरण में फैल गई।
किसने किया होगा यह, मैंने सोचा फिर यह सोचा कि नाक दबा लूं पर तुरंत ही ख्याल आया कि कहीं मुंशी ने ना किया हो कि मैं नाक दबाऊं और मुंशी इसे अपना अपमान समझ ले। मैंने देखा कि मनोहर दा पर किसी चीज का कोई असर नहीं था। वह लिखने में डूबे हुए थे। रहा मुंशी तो वह कभी मनोहर दा की तरफ देख रहा था तो कभी लड़के की तरफ। पर अंत में मुंशी की नजरें लड़के पर जाकर टिक गईं।
मैंने नहीं पादा साहब, लडका रोनी आवाज में बोला।
उधर चल बदजात। पूरा थाना गंधवा रहा है।
मैंने कुछ नहीं किया साहब, लड़का फिर रिरियाया। और अब तो उतर भी गई है। आप लोग मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।
मुंशी उठा और उसने लड़के को कसकर एक लात मारी। लड़का दर्द के मारे दोहरा हो गया।
चुप बैठ मादर......। साला तेरे बाप का घर है क्या? जब मर्जी आया जब मर्जी चलता बना।
लड़का और सिकुड़कर बैठ गया और न सुनाई देने वाली आवाज में कराहने लगा। उसकी फटी हुईं आंखें थोड़ी और फट गईं थीं।
मनोहर दा ने पूरा विवरण लिखकर मुंषी को दे दिया। मुंशी ने पढ़ा और हम दोनों से एक दो जगहों पर दस्तखत करवाया। इसके बाद हमने मुंशी से हाथ जोड़े, ‘अच्छा साहब’ कहा और बाहर आ गये। मुंशी की नजरें अभी तक हमारी पीठों पर चुभ रही थीं। जरूर उसने अब हमें जमकर गालियां दी होगीं।
अब? मनोहर दा ने पूछा।
अब? मैंने सवालिया सांस ली।
अब एक्सचेंज चलते हैं और सिम ब्लाक करवा देते हैं। अचानक मुझे कुछ याद आ गया।
मनोहर दा एक बात पूछूं मैंने कहा।
बोलो।
आप अभी झूठ पर झूठ क्यों बोले चले जा रहे थे?
मैं झूठ बोल रहा था? मैंने क्या झूठ बोला?
यही कि आपका मोबाइल पान की दुकान पर चोरी हुआ।
एकदम बकलोल हो क्या? मनोहर दो ने त्यौरियां चढ़ाई। क्या बताते उससे कि हम बिरयानी खाने गये थे। उस साले मुंशी का तिलक नहीं देखा तुमने?
तो आप उसकी तिलक से डर गये थे? मैंने मजाक किया।
शटअप।
हो जाऊंगा शटअप पर अभी मेरी बात कहां पूरी हुई। आपने पारसनाथ के मामले में शई झूठ बोला। खुद आपने ही बताया था कि उसने अपनी जाति छुपाई थी पर जाति-फांति आप मानते नहीं सो समझाकर छोड़ दिया था पर वह तो चोर भी निकला था। खुद आपने ही उसके थैले से काली की एक खास मूर्ति पकड़ी थी। इसीलिये आपने उसे निकाला शी था।
तो?
तो आज वही पारसनाथ ईमानदार और भला आदमी कैसे हो गया?
तो? मनोहर दा अब निश्चित तौर पर चिढ़ रहे थे।
तो क्या, आप बताइये।
अब यह भी तुमको बताना पड़ेगा। देखा नहीं वो साला किस तरह से जिरह कर रहा था। ऊपर से वो उस कमीन पारसनाथ का भी सगा निकल आया तो और क्या करता मैं? मुझे तो अब लग रहा है कि वो चोट्टा तुम्हारा भी कोई सगेवाला ही लगता है।
मनोहर दा अब मुझ पर गुससा कर रहे थे। मैं उनकी बातों का जवाब दे सकता था पर दिया नहीं और ऐसे ही मनोहर दा का नंबर मिलाने लगा।
घनघोर आश्चर्य! तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा मैंने तुरंत काट दिया और मनोहर दा की तरफ देखा।
दादा बेल जा रही है। अब क्या करें?
क्या करें। गजब आदमी हो! अरे फौरन मिलाओ और बात करो। मैंने फिर मिलाया और सामने से कुछ इस तरह से मोबाइल उठा जैसे कोई पहले से ही तैयार बैठा रहा हो।
हल्लो, नशे में डूबी आवाज आई।
कृपानिधान कहां हैं आप? मैंने पूछा।
मैं कृपानिधान नहीं हूँ। उधर से लड़खड़ाती हुई आवाज आई।
तो कौन हैं आप यही बता दीजिए।
हसन मोहम्मद।
हसन भाई आप हैं कहां?
इसी दुनिया में हूं भाईजान, अपनी बताइये।
अरे जगह तो बताइये, आप हैं कहां?
जगह का क्या है.......हौली में बैठा हूं दारू पी रहा हूं।
लगा कि जैसे उसके पास और भी बहुत सारे लोग बैठे हों और उसकी बात पर सबका कहकहा गूंज उठा हो। मतलब कि वह सचमुच हौली में हो सकता था। ‘साले पियक्कड़’ मैंने मन ही मन गाली बकी। मनोहर दा ने अपना कान मोबाइल से सटा रखा था। एक खीझ उनके चेहरे पर साफ साफ दिख रही थी। थाने वाली विनम्रता पता नहीं कहां गायब हो गई थी। मैं कुछ और कहता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल मेरे हाथ से लगभग छीन लिया और भरसक मुलायम स्वर में बोले, शई साहब आप जो भी हैं मेरा मोबाइल वापस कर दीजिए। हम यहां परेशान हो रहे हैं और आप बैठकर दारू पी रहे हैं?
मोबाइल? किसका मोबाइल? लड़खड़ाती आवाज ने पूछा।
मेरा मोबाइल जिससे तुम बात कर रहे हो। मनोहर दा आपसे तुम पर आ गये।
काहे मजाक कर रहे हो भाईजान? आपका मोबाइल तो आपके पास होना चाहिए न ! यह तो मेरा है।
अच्छा यह तुम्हारा कैसे हो गया? मनोहर दा ने घुड़का।
हमको सड़क पर गिरा हुआ मिला तो हमारा ही हुआ ना।
सड़क पर गिरी हुई कोई चीज तुम्हारी कैसे हो गई? आंय?
मनोहर दा अब पटरी पर से पूरी तरह उतर चुके थे।
ऐसे हो गई भाईजान कि वह और किसी को नहीं मिली। अल्लाताला ने इसे मेरी ही झोली में क्यों गिराया?
अब मनोहर दा दांत पीस रहे थे।
क्यों परेशान कर रहे हो तुम हमें? तुम करते क्या हो आखिर?
हड्डी गलाता हूं। रिक्शा चलाता हूं। अपनी कमाई की खाता हूं और....पीता हूं।
मेहनत की कमाई खाते हो तो मेरा मोबाइल वापस क्यों नहीं कर देते? तुम्हारे पास इसका बिल भरने का पैसा कहां से आयेगा?
नहीं दूँगा बिल-विल।
तो फिर यह तुम्हारे किस काम का?
काम का कैसे नहीं है? हमारा सुलतान खेलेगा न इससे।
देख बे सीधी तरह मोबाइल वापस कर दे नहीं तो मैं पुलिस में षिकायत कर दूंगा। तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं।
कर दीजिये रपट-वपट। अब तौ दरोगा बाबू अइहैं तबै मोबाइल मिली।
इसके पहले कि मनोहर दा एकदम से फट पड़ते या गाली बकने लगते मैंने मोबाइल उनके हाथ से ले लिया और काट दिया। मनोहर दा उत्तेजना के मारे कांप रहे थे। उनके मुंह से फेन आ रहा था। उन्होंने वीभत्स भाव से कुछ इस तरह थूका जैसे किसी के ऊपर थूक रहे हों। थोड़ा-सा थूक उनके कुर्ते पर भी चू आया जिसे उन्होंने अपने अंगौछे से पोंछा, फिर अचानक गाली बकने लगे। साला....हरामी साला, हमसे खेल रहा है, मनोहर दा ने हुँकार लेती आवाज में कहा। चलो थाने चलते हैं।
थाने चलकर क्या करेंगे? जो बात उस रिक्शेवाले को भी पता है वह आपको नहीं पता। पुलिस भला कैसे जानेगी कि वह कहां है और जानना भी क्यों चाहेगी?
मोबाइल लाओ। मैं अभी एस.पी. को फोन करता हूं। देखता हूं साला कहां बच के जाता है?
वह सब अभी छोड़िये दादा, आप अंदाजा लगाइये कि आपका मोबाइल कहां गिरा होगा?
गिरा होगा? तुमको अभी भी लगता है कि गिरा होगा? अरे उस कमीने ने कहीं मौका पाकर हाथ साफ कर दिया होगा।
यही सही दादा। तो आपका मोबाइल उसने कहां निकाला होगा?
मनोहर दा का जो रूप मेरे सामने आ रहा था मैं उसके बारे में सोचना भी नहीं चाह रहा था पर मेरे भीतर वही वही टूटती-दरकती छवियां उमड़ घुमड़ रही थीं। इसी आदमी की मैं इतनी इज्ज्त करता हूँ? मैं तुरंत उनका साथ छोड़ देना चाहता था पर मैं ऐसा कर पाता इसके पहले मेरे पेशेवर दिमाग ने मुझे धिक्कारा।
कैसे रंगकर्मी हो प्रथम? तुम्हें एक चरित्र के बारे में उसकी तहों के बारे में इतना कुछ जानने का मौका मिल रहा है और तुम हो कि.... और अभी तो तुम्हें हसन मोहम्मद से भी मिलना है जो....।.....तो.....।
दादा आपका मोबाइल कहां गिरा होगा?
सिविल लाइल से घंटाघर के बीच कहीं भी।
इसके बीच में कितनी हौलियां हैं?
मेरे ख्याल से सिर्फ दो। एक बिजलीघर के पास, दूसरी जानसेनगंज में।
आइये हौली चलते हैं, मैंने कहा।
वहां चलकर क्या करेंगे?
शायद अभी वह वहीं हो।
मरता क्या न करता। थोड़ी देर बाद हम बिजलीघर वाली हौली में थे। बगल में बजबजाती, गंधाती नाली थी। वहीं पर तले हुये चने और पकौड़ियां मिल रही थीं जिन पर धूल की एक परत जमी हुई थी और मक्खियां भिनभिना रही थीं अंदर घुसते ही कच्ची शराब की तीखी गंध हमारे नथुनों से टकराई। अंदर बीमार पीले उजाले या धुंधलके जैसा माहौल था। दीवारों पर ममता कुलकर्णी से लेकर मल्लिका सहरावत तक शराबियों का नशा दोगुना करने में जुटी हुई थीं। तो ऐसा माहौल और इसमें हम दो संभ्रांत कहे जाने वाले शहरी, सम्मानित बुद्धिजीवी। हमारे भीतर पहुंचते ही हौली का सारा माहौल ऐसे अस्त-व्यस्त हो गया जैसे शहद की मक्खियों के बीच तेज डंक वाली ततैयां घुस गईं हों। हौलीवाला लपककर हमारी तरफ आया।
क्या चाहिए साहब?
कुछ नहीं तुम अपनी जगह बैठो। मनोहर दा की आवाज में कुछ ऐसा था कि हौलीवाला तुरंत परे हट गया।
हम हर किसी को संदिग्ध नजरों से देख रहे थे। कुछ नहीं समझ में आया तो मैंने मोबाइल पर फिर मनोहर दा का नंबर मिलाया। तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा पर हौली में घंटी कहीं नहीं बजी। जाहिर था कि मोबाइल यहां नहीं था, फिर भी हमने पूछताछ किये बिना लौटना मुनासिब न समझा। पूछताछ में हमारे उन ‘भाईजान’ के बारे में कुछ भी नहीं पता चला। अब मुझे हम लोगों की बेवकूफी समझ में आई। हम बिना इस बात पर विचार किये कि वह किस हौली में हो सकता है जो पहले आई उसी में घुस गये थे जबकि हमें मोबाइल गुम होने का पता घंटाघर के पास चला था तो इस हिसाब से उस हसन रिक्शेवाले के जानसेनगंज वाली हौली में होने की ज्यादा उम्मीद थी। खैर......।
हम जानसेनगंज वाली हौली पहुंचे पर अफसोस पता चला कि वह यहां से थोड़ी देर पहले ही जा चुका था। इतना ही नहीं यहां मोबाइल को लेकर काफी हल्ला-गुल्ला भी हुआ था क्योंकि पियक्कड़ों में से एक दो ऐसे भी थे जो मोबाइल हड़पना चाहते थे पर अंततः हसन रिक्शेवाला मोबाइल को अपने पास बचाये रखने में सफल हो गया था। हसन का पता न हौलीवाले को मालूम था न दूसरे पियक्कड़ों को। हम चूक गये थे।
अगर तुम उस हौली में न रूके होते तो उसे हम यहीं दबोच सकते थे, मनोहर दा ने बिगड़ते हुये कहा।
मेरे ऊपर मत गुस्सा उतारिये। आपने भी तो उस समय कुछ नहीं कहा। अब आप ही बताइये क्या करूं?
उससे बात करो? सीधे से दे देता है तो ठीक? नहीं तो मैं एस.पी. से बात करता हूं।
मैंने फिर से नम्बर मिलाया।
हल्लो...... कौन......? उधर से आवाज आई।
अरे हम हैं हसन भाई जिसका मोबाइल आपके हाथ में है।
आप लोग तो पुलिस में जाने वाले थे। बंदा वही था पर मैंने महसूस किया कि इस बीच उसकी आवाज की लड़खड़ाहट थोड़ी कम हुई है और उसकी जगह मस्ती ने ले ली है।
अरे गलती हो गई हसन भाई। हमारे आपके बीच में भला पुलिस क्यों आये? आप तो हमें मोबाइल वापस कर दीजिये बस।
क्यों भला? हमको तो गिरा मिला है अल्ला की मेहरबानी से।
चाट क्यों रहे हो भाई ? आप आखिर रहते कहां हैं?
बता दूं? क्यों बताऊं भला?
हम आपसे मिले आयेंगे इसलिए।
तो बता दूं?
रहम कर यार। इस बात को समझ कि पिछले दो-तीन घंटों से हम कितने परेशान हैं।
दरोगा बाबू तो साथ में नहीं आयेंगे ना?
अरे नहीं हसन भाई, आप बेकार में ही शक कर रहे हैं। हमको हमारा सामान मिल जाये बस। हम पुलिस-दरोगा के झंझट में भला क्यों पडेंगे?
मनमोहन पार्क देखा है ना?
हाँ।
वहां से इनवरसिटी की तरफ जाओ तो आगे पाकड़ का बड़ा सा पेड़ है। बगल से दाहिने हाथ की गली में मुड़ जाइयेगा और अंदर आकर हसन मोहम्मद का घर पूछ लेना। सामने एक भूसे की दुकान है। चाहे दुकान वाले से ही पूछ लेना।
ठीक है हसन भाई, हम लोग आते हैं।
अभी नहीं, एक-ढेड़ घंटे बाद आइयेगा। अभी तो हम सवारी ले जा रहे हैं।
मैंने मनोहर दा की तरफ देखा। अब वह शांत लग रहे थे पर उनकी आंखें लाल हो रही थीं। अगर हसन ने पता-ठिकाना सही बताया था तो कहानी खत्म होने में अभी घंटे भर की कसर थी। तब कहां पता था कि असली कहानी की शुरूआत ही घंटे भर बाद होनी है।
मैंने हसन रिक्शेवाले के बारे में सोचा। कैसा होगा वह? उसके बाल बिखरे होंगे, शायद खिचड़ी, थोड़े काले, थोड़े सफेद। चेहरे पर मंगोलियन दाढ़ी होगी। आंखे छोटी और निचुड़ी सी। आंखों में कीचड़ और नीचे काली झुर्रियां। पूरे बदन पर समय की मार के अनगिनत निशान। बदन पर कोई मैली-कुचैली टीशर्ट या बनियान। नीचे लुंगी या पाजामा। पैरों में पुराना हवाई या टायर का चप्पल। तो शायद कुछ ऐसा होगा हमारे हसन भाई का हुलिया।
पर अभी हसन भाई ने शराब पी रखी है, उसके सुरूर में है सो आप एक दृश्य की कल्पना कीजिये कि हसन भाई अपने रिक्शे पर सवारी बैठाये चले जा रहे हैं। मोबाइल की घंटी बजती है। सवारी हड़बड़ाकर अपना मोबाइल खोजती है जो मिल ही नहीं रहा है। हमारे हसन भाई सुकून से रिक्षा रोकते हैं। मोबाइल निकालते हैं और कहते हैं, बोलो मियां।
अगल-बगल से आते-जाते लोग उन्हें अजूबे की तरह देख रहे हैं। मान लीजिये कि इस समय आप ही उनके रिक्शे पर बैठे होते तो हसन भाई के बारे में क्या सोचते? शायद आपको अपनी आंखों पर भरोसा ही न होता या शायद आप उन्हें कोई चोर उचक्का समझ लेते और रिक्षा बदल देते या अगर आप मेरी तरह खूब फिल्में देखते होेते या जासूसी उपन्यास पढ़ते होते तो उन्हें कोई जासूस या किसी बड़े घराने का कोई सिरफिरा सिद्धांतवादी नायक समझ लेते।
चक्कर छोड़िये। मान लीजिए कि हम लोगों के पास बाइक ना होती और हम हसन भाई के रिक्शे पर बैठकर उन्हीं को फोन मिलाते तब? वह शायद हमें मुड़कर देखते और जब उन्हें पता चलता कि यह हमीं लोग हैं जिनको वह घंटों से नाच नचा रहे हैं तो हसन भाई क्या करते? क्या उन्हें हम पर हंसी आती या फिर...... और फिर हमारे एंग्री मैन आर्टिस्ट मनोहर दा क्या करते?
मैंने पूछ ही लिया।
गर्दन मरोड़ देता उसकी, मनोहर दा ने फुफकारते हुये जवाब दिया।
आगे मैंने चुप रहना ही मुनासिब समझा।
घंटे भर बाद ही हम पाकड़ वाली गली में थे और एक मौलवी से दिखने वाले व्यक्ति से हसन रिक्शावाले के घर का पता पूछ रहे थे। मौलवी ने हमें हिकारत से देखा और गली के आखिर में बने एक खपड़ैल की तरफ इशारा किया। मौलवी की हिकारत जायज थी। रमजान का महीना चल रहा था और हम एक ऐसे मुसलमान के घर का पता पूछ रहे थे जिसने शराब पी रखी थी।
अगले पल मनोहर दा बेसब्री से कुंडी खटखटा रहे थे। काफी देर बाद एक असमय बूढे़ दिखते हिलते-डुलते से व्यक्ति ने दरवाजा खोला और अधखुले किवाड़ के बीच से ही सिर निकाल कर पूछा, बौलैं साहेब।
हसन तुम्हीं हो? मनोहर दा ने पूरा किवाड़ खोलते हुये तुर्शी से पूछा।
हाँ बौलैं साहेब।
मैंने उस काया का मिलान फोन पर उससे हुई बातचीत से करना चाहा और गड़बड़ा गया। उसका नशा पूरी तरह उतरा हुआ दिख रहा था और वह अप्रत्याशित रूप से दयनीय लग रहा था। घर के नाम पर एक कोठरी भर थी जिसका आधा हिस्सा पीछे की तरफ खुलता हुआ दिख रहा था जिसमें एक धुआं-धुआं सा बल्ब जल रहा था। कोठरी में एक कोने एक चारपाई रखी थी दो-तीन मैली कुचैली कथरियां दिख रही थीं। एक तरफ फर्श पर काले चींटों की लंबी कतार दिखाई दे रही थी और बांस के ठाट में जगह-जगह मकड़ियों ने अपना जाल फैला रखा था। कीड़े-मकोड़ों को शई गरीब के यहां ही ठिकाना मिलता है, मैंने सोचा। ऊपर खपड़ैल पर तमाम बेकार टायर फेंके हुए थे। मैंने फिर से हसन की तरफ देखा। कपड़े के नाम पर उसके बदन पर एक लुंगी ही थी जो पता नहीं कब की धुली थी। सींकिया बदन, पूरे बदन पर हड्डियां उभरी हुई। सिकुड़ी हुई खुरदुरी त्वचा। गले में एक काला मटमैला धागा। हसन के सामने खड़े मनोहर दा एकदम दीन के सामने दीनानाथ लग रहे थे।
आवैं साहेब, कहते हुए वह बगल हटा।
मोबाइल कहां है? मनोहर दा दांत पीसते हुये फुफकारे।
साहब हमको तो पड़ा मिला था। हम तो बुलाये भी आपको पर आप सुने ही नहीं।
है कहां मोबाइल?
अभी दे रहे हैं साहेब। आप अंदर तौ आवैं। शायद वह हमें बैठाकर हमारा गुस्सा कम करना चाह रहा था या शायद अपना पक्ष रखना चाह रहा था।
अबे हरामी हम तेरे यहां दावत खाने नहीं आये। सीधे से मोबाइल ला नहीं तो.... मनोहर दा चीखे।
दे रहे हैं साहेब। गाली काहे दे रहे हैं। हम तौ खुदै.....
तभी अंदर की तरफ से एक बच्चा कूदता हुआ बाहर आया। मोबाइल उसके हाथ में था जिसे दिखाते हुये उसने हसन से पूछा-ई का है अब्बू?
हसन बच्चे को कोई जवाब देता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल पर झपट्टा मारा। बच्चा अचकचा कर पलटा और चारपाई से टकराकर पलट गया। मोबाइल दूर दीवार से जा टकराया। मनोहर दा ने फुर्ती से मोबाइल उठाया और बाइक की तरफ झपटे। आसपास के लोग हमें संदेह की दृष्टि से देख रहे थे और जाने क्या-क्या बातें कर रहे थे। बच्चा चिल्ला-चिल्लाकर रो रहा था। बाइक स्टार्ट हो पाती इससे पहले हसन रिक्शेवाले की आवाज आई।
अरे जायें साहेब, देख लिया आपको। इत्ता भी नहीं कि मेरे बच्चे के लिए एक खिलौना ही लेते आते। अब तौ मोबइल मिल गया ना....... अब तौ कर लो दुनिया मुट्ठी में। हम इस दुनिया में थोड़े ही हैं साहेब। क्रम टूटा........ हाय मोर सुल्तान, हाय मोर सुल्तान की आवाज आई। शायद हसन के बच्चे को कहीं चोट लग गई थी जिसकी तरफ उसका ध्यान अब गया था। अरे शैतान हो आप लोग... राच्छस की तरह..... हसन फिर चिल्लाया पर अब तक बाइक स्टार्ट हो चुकी थी। बाइक आगे बढ़ती इसके पहले एक पत्थर मेरे पैर के पास मेडगार्ड से टकराया। मैंने पीछे पलटकर देखा तो एक उत्तेजित झुंड दिखाई पड़ा। हसन अभी भी चीख रहा था पर पल भर में उसकी आवाज सुनाई देनी बंद हो गई।
मनमोहन पार्क पहुंचकर मनोहर दा ने बाइक रोकी और मोबाइल जांचने लगे। मोबाइल की बाडी चटकी हुई थी और वह काम नहीं कर रहा था। मनोहर दा की आंखों में एक ठंडी हिंसक चमक उभर आई। उन्होंने बस्ते से सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट जलाई और तीन-चार कश लेने के बाद सिगरेट जूते से कुचल दिया।
आओ थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा।
अब थाने चलकर क्या करेंगे? मुंशी का रवैया भूल गये क्या आप?
नहीं याद है इसीलिए कह रहा हूं। इस हरामजादे हसन को तो मैं.....मैं अब नामजद रिपोर्ट करूंगा।
आप किस गुमान में हैं दादा? थाने में आपकी दाल नहीं गलने वाली। आपका मोबाइल गुम हुआ तो उसने ईमानदारी से वापस भी कर दिया। ये खराब हो गया तो यह उसकी नादानी भर थी और फिर थाने में आपने सिपाही और मुंशी का रवैया देखा नहीं क्या? बाकी लोग भी वैसे ही होंगे।
दोनों की ऐसी की तैसी। मैंने देखा सालों को पर तुमने कुछ नहीं देखा।
क्या नहीं देखा?
थाने में घुसते ही हनुमान मंदिर, सिपाही का जनेऊ, मुंशी का तिलक और उस मुंशी के पीछे लगा श्रीराम का पोस्टर।
मैं पसीने-पसीने हो गया। फिर भी कुछ नहीं हुआ तो? मैंने भरे स्वर में सवाल पूछा।
शहर का एस.पी. मेरे साथ बैठ कर शराब पीता है। मैं सबकी ऐसी की तैसी करवा दूंगा पर उस मुसल्ले हसन को तो मैं.....।
आगे की कहानी में मेरी क्या भूमिका हो, इसको लेकर मैं पसोपेश में हूं। आप मेरी मदद करेंगे?