Monday, May 25, 2009

खाल- मनोज कुमार पाण्डेय की दूसरी कहानी

कहानी-प्रेमियो,

इस सप्ताह हम पढ़वा रहे हैं मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी 'खाल'। इस मंच पर हम मनोज कुमार पाण्डेय की और कहानी 'बेहया' पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि ये दोनों कहानियाँ ज्ञानपीठ द्वारा इसी वर्ष प्रकाशित नये लेखकों की पहली पुस्तक शृंखला के 'शहतूत' कहानी-संग्रह से ली गई हैं।


खाल


रोज की तरह ही पिछली रात को भी सुबह चार बजे सोया था और रोज की तरह ही करीब ग्यारह बजे सोकर उठा था। अभी नाश्ता ही कर रहा था कि मनोहर दा का फोन आ गया।
प्रथम, क्या कर रहे हो आज?
क्यों?
शाम को खाली हो क्या? यही कोई तीन बजे से।
हां, पर बात तो बताइये, मैने कहा।
कुछ खास नहीं। शाम को मैं लोकनाथ जा रहा हूं। अगली प्रदर्शनी के लिए कुछ पेंटिंग्स तैयार करनी हैं। सोचा कि तुम्हें भी साथ लेता चलूं और तुमने भी तो कहा था कि......
बस....बस दादा, मैं आ रहा हूं। बताइये कहां हाजिर हो जाऊं?
गैलरी आ जाओ, यहीं से निकल चलेंगे।
ठीक है दादा।
दरअसल पेंटिंग्स में मेरी रूचि अभी नई नई ही पैदा हुई थी। और मनोहर दा में भी। मैं देखना चाहता था कि एक चित्रकार अपनी पेंटिंग्स के लिए दृश्य भला कैसे चुनता है और उसकी पेंटिंग्स तक पहुंचते-पहुंचते वे दृश्य भला किस तरह कुछ सार्वभौमिक दृश्यों में रूपांतरित हो जाते हैं। फिलहाल तो यह सब जानने समझने के लिए मेरे निकट मनोहर दा से बेहतर कोई दूसरा नाम नहीं था। मनोहर दा अपनी पेंटिंग्स में परस्पर विरोधी रंगों से मूर्त और अमूर्त का ऐसा द्वन्द्व उकेरते कि उनकी कूची चूम लेने का मन करता।
कुछ इस तरह कि रंगों के कुछ छींटे चेहरे पर भी आ जायें।
आप सोच रहे होंगे कि भला मैं कौन? और रंगों में अचानक इतनी दिलचस्पी क्यों लेने लगा..... तो जनाब आपका ये खादिम रंगकर्मी है और रंगों से खेलना मेरे पेशे का एक जरूरी हिस्सा है। जी हां, पेशे का। रंगकर्म मेरे लिए एक पेशा है। तो मैं देखना चाहता था कि क्या मैं मंच पर कुछ गतिशील रंगारंग पेंटिंग्स तैयार कर सकता हूं। मान लीजिये कि मंच एक फ्रेम है तो इस फ्रेम के भीतर लगातार बदलते हुये जादुई दृश्यों की एक शृंखला।... पर अभी तो मैं आपसे कुछ दूसरी ही बात करने जा रहा था। दरअसल मेरी दिक्कत यह है कि मैं अक्सर बहक जाता हूं। मेरा मानना है कि सोचने का तो कोई टैक्स लगता नहीं तो सोचने में क्या जाता है। मैं अपनी कल्पनाओं को अनंत तक फैलने देता हूँ, हालांकि इसी वजह से कई बार चीजों को समेटने में दिक्कत आन पड़ती है और दृश्य बिखर कर रह जाते हैं। पर अभी तो मैं आपसे मनोहर दा की बात करने जा रहा हूं।
कौन मनोहर दा! आप नहीं जानते उन्हें? अरे, अखबार नहीं देखते क्या आप? अभी कल ही तो मुख्यमंत्री से कलाभूषण पुरस्कार लेते हुए उनकी तस्वीर सारे अखबारों में छपी थी और मेरा दावा है कि आप उन्हें एक बार देख भर लें, फिर कभी नहीं भूल पायेंगे। लंबा-चैड़ा कद, आकर्षक गोरा रंग, उन्नत ललाट, करीने से बिखेरे गये बड़े बड़े बाल और खिचड़ी दाढ़ी। जींस और कुर्ता उनका बारहमासी पहनावा है फिर भी, इसलिये कि वे नित-नवीनता के पुजारी हैं सो कल को आप उन्हें धोती-कुर्ते में भी देख सकते हैं। गले में एक साफ-शफ्फाक अंगोछा और आवाज.....आवाज का तो क्या कहना! गहरे कुएं से छनकर आती धीर गंभीर, पर टनकदार आवाज। इस टनकदार आवाज में आप उन्हें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बोलते-बहसियाते एक बार सुन लें बस, आप उन पर फिदा हो जोयेंगे।
मनोहर दा के चाहने वाले दुनिया भर में फैले हुए हैं। न जाने कहां-कहां से चिट्ठियां आती रहती हैं। इन चिट्ठियों को उन्होंने अपनी आर्ट गैलरी में एक कलात्मक तमीज के साथ लगा रखा है। न जाने कितने पुरस्कार, तमगे, स्मृतिचिन्ह, अनेक सरकारी कमेटियों के सदस्य, कई संस्थाओं के अध्यक्ष और कितनों के संरक्षक। आजकल मैं मनोहर दा को जम कर मस्का लगा रहा था और तुरंत ही मुझे इसका इनाम भी मिला था। मेरे जैसा जुम्मा-जुम्मा आठ दिन का निर्देशक अभी दिल्ली में संपन्न हुये ‘अन्तर्राष्ट्रीय सद्‍भावना नाट्य समारोह’ में अपनी धूम मचा आया था।
तो मैं तीन बजे मनाहेर दा की आर्ट गैलरी पहुंच गया। मनोहर दा मेरा इंतजार कर रहे थे और बैठे-बैठे इंतजार के स्केचेज बना रहे थे।
अभी चलते हैं, मनोहर दा ने कहा। तब तक तुम चाहो तो एक सिगरेट पी सकते हो।
हाँ, हाँ क्यों नहीं। मैं सिगरेट पीता रहा और मनोहर दा अपने काम में लगे रहे। सिगरेट अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि मनोहर दा अचानक उठे और बोले, चलो, चलते हैं।
मैं चैंक गया। मनोहर दा की मेज पर सब कुछ बिखरा पड़ा था। रंग, पेन्सिल, कागज, रबर, स्केचेज, वगैरह-वगैरह।
हंसे मनोहर दा, तो क्या हुआ? मेरी अनुपस्थिति में कोई मेरी चीजों को छूने की हिम्मत नहीं कर सकता।
तय हुआ कि हम एक ही बाइक से चलते हैं। मैंने अपनी स्कूटर वहीं खड़ी रहने दी और हम लोकनाथ के लिए निकल पड़े। रास्ते में मनोहर दा ने कहा, प्रथम पहले बिरंचीलाल के यहां बिरयानी खाते हैं फिर चलते हैं। हम बिरयानी खाकर बाहर निकले ही थे कि मैंने पाया मनोहर दा अस्त-व्यस्त से कुछ खोज रहे हैं, कभी इस जेब में तो कभी उस जेब में। क्या हुआ दादा, मैंने पूछा।
यार मेरा मोबाइल नहीं मिल रहा है। कहते हुए मनोहर दा फिर बिरयानी वाले के यहां घुस गये। बाहर निकले तो मैंने पाया, कि उनके माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आईं थीं और उनकी आवाज कांप रही थी। दादा थोड़ा ध्यान से देखिये। कहने को तो मैं कह गया। पर अब तक मनोहर दा जो जेबें कहीं नहीं थी उनकी भी कई-कई बार तलाशी ले चुके थे।
क्या पता आर्ट गैलरी में ही छूट गया हो, मैंने कहा और अपना मोबाइल निकाल लिया। मैं रिंग करके देखता हूं। कॉल लगने के पहले ही खत्म हो जा रही थी। मतलब कि मोबाइल का स्विच ऑफ था या मोबाइल नेटवर्क में ही नहीं था।
अब क्या होगा.......मनोहर दा ने निराश कांपती हुई आवाज में कहा। पच्चीस हजार का सेट और अभी पांच महीने भी नहीं हुये। मैंने तो फोन डायरी रखना भी कब का बंद कर दिया है।
हो सकता है खुद आपने ही मोबाइल ऑफ कर रखा हो।
मैंने उम्मीद की एक किरण फेंकी और मनोहर दा ने लपक ली।
हां मैं स्केचेज बना रहा था। हो सकता है मैंने इस वजह से ऑफ कर रखा हो। जरूर मैंने ऐसा ही किया होगा।
हम थोड़ी देर बाद फिर से मनोहर दा की आर्ट गैलरी में थे। पल भर में मनोहर दा की मेज पर बिखरे हुये सामान और बिखर गये थे और मनोहर दा यहां-वहां ऊपर नीचे झांक रहे थे। मैं भी ऐसा ही कुछ करते हुए उनका साथ दे रहा था पर थोड़ी ही देर में हम जान गये थे कि हमारी कोशिश शायद कोई अर्थ नहीं रखती थी। मोबाइल सचमुच कहीं गिर चुका था।
चलो थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा।
इस बीच मैं लगातार मनोहर दा के गुम मोबाइल पर रिंग कर रहा था। वैसे तो तय था कि अब वह ऑफ ही रहने वाला था पर उम्मीद का दामन कहीं इतनी जल्दी छोड़ा जाता है। तो हम थाने पहुंचे।
हां बोलो जी, एक सिपाही ने कान पर चढ़ा जनेऊ उतारते हुये शुष्क स्वर में पूछा।

दीवानजी मेरा मोबाइल चोरी हो गया है, मनोहर दा ने कहा।
तो मैं क्या करूं?
हम एफ.आई.आर. के लिए आये हैं।
इससे क्या होगा....ऐं....आप अपनी चीज संभाल कर रख नहीं सकते और इधर-उधर हो गई तो आ गये डंडा करने। कोई जादू का डंडा है क्या पुलिस के पास जो अपराधी के पिछवाड़े में जाकर ही रूके।
अरे साहब आप हमारी बात भी सुनेंगे, मनोहर दा ने आजिजी से कहा।
हां बाबू साहेब क्यों नहीं? आपकी बात सुनने के अलावा और हमारे पास काम ही क्या है? आं?....चले आते हैं न लेना न देना। अरे मुंशीजी जरा देखिये तो बाबू साहेब क्या कह रहे हैं। बुद्धिजीवी लगते हैं जरा कायदे से देखिएगा।
सिपाही ने सामने के कमरे की तरफ इशारा किया।
हम मुंशीजी के कमरे में पहुंचे। मुंशीजी ने हमें बैठने के लिए भी नहीं कहा। वह नीचे देखता हुआ कुछ लिखता रहा या लिखने का अभिनय करता रहा। मुंशी के पीछे लहराते हुए पीत-परिधान में आक्रामक मुद्रा में धनुष ताने राम का चित्र लगा हुआ था। पृष्ठभूमि में एक प्रस्तावित मंदिर का मॉडल था जिस पर भगवा ध्वज लहरा रहा था। बगल का कमरा खुला था। दरवाजे के पास ही एक पच्चीस-छब्बीस साल का लड़का बैठा हुआ था। वह डरा हुआ था और उसकी आंखें फटकर बाहर निकली पड़ रही थीं। वह उन्हीं फटी-फटी आंखों से इधर-उधर देख रहा था। हम कुछ कहते इसके पहले ही लड़के की रिरियाती हुई आवाज आई।
दरोगाजी अब तो छोड़ दीजिये। अब तो उतर भी गई है न।
चोप्प हरामजादा, भेजा चाट के रख दिया है। उधर दूर बैठ।.....हां आप लोग कैसे? पूछते हुए उसकी आंखों में एक चमक उभरी जो तुरंत ही गायब हो गई।
हां बताइये।
भाई साहब, मेरा पच्चीस हजार का मोबाइल चोरी हो गया है। मनोहर दा ने विनम्र स्वर में कहा।
इतना महंगा सेट आप रखते ही क्यों हैं? बाई द वे कहां गिरा होगा मोबाइल?
हम सिविल लाइन से लोकनाथ जा रहे थे। रास्ते में एक पान की दुकान पर रूककर पान खाया। जरूर वहीं पर किसी ने..
आप दोनों तब भी साथ में थे?
हां।
मोबाइल कहां रखा था?
बगल कुर्ते की जेब में।
जेब दिखाइये।
मनोहर दा ने तिरछे होकर जेब मुंशी के सामने की।
कटी तो नहीं है?
अब मैं इसके बारे में क्या कहूं?
तो कौन कहेगा? कहीं गिर गया होगा। गुम हुई चीज को चोरी हुई क्यों बता रहे हैं? मोबाइल का भी बीमा-वीमा होने लगा क्या?
मैं हमेशा से अपना मोबाइल कुर्ते की जेब में ही रखता आया हूं आज तक तो नहीं गिरा। किसी ने हाथ डालकर ही निकाला होगा।
और आपको पता नहीं चला?
नहीं। पता चला होता तो......
इस बीच मैं एकटक मनोहर दा को देख रहा था। मनोहर दा ने सरासर झूठ बोला था। हम रास्ते में पान खाने कहीं नहीं रूके थे। मनोहर दा नीचे की जेब में मोबाइल कभी नहीं रखते थे। मनोहर दा तो मोबाइल जनेऊ की तरह पहने रहते थे। हां कभी कभार मन किया तो उठाकर ऊपर कुर्ते की जेब में रख लिया। एकदम दिल की धड़कनों के पास। मैं तो कई बार उनसे कह भी चुका था कि दादा यहां मोबाइल रखना दिल के लिए खतरनाक होता है। मनोहर दा ने हर बार हंसकर एक ही जवाब दिया था, ‘दिल भला है किस कम्बख्त के पास !’ खैर, यहां से निकलकर मनोहर दा से उनके झूठ के बारे में जरूर पुछूंगा, मैंने सोचा।
सिविल लाइन क्या करने गये थे? मुंशी ने पूछा
वहां मेरी आर्ट गैलरी है।
आर्ट गैलरी? यह क्या होती है?
मनोहर दा ने असहायता से मेरी तरफ देखा। मुझे खुद भी ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। पर मुंशी तो आखिरकार मुंशी ही होता है चाहे वह किसी की दुकान पर हो या थाने में।
मेरी पेंटिंग्स और मूर्तियों, मेरा मतलब कि लकड़ी की मूर्तियों की दुकान है। मनोहर दा ने रूक-रूककर जैसे समझाते हुये कहा।
लकड़ी की भी मूर्तियां होती हैं? कौन खरीदता होगा उन्हें, जल चढ़ाते-चढ़ाते सड़ नहीं जाती होंगी? ये मुंशी था।
मुझे हंसी आ गई पर मैंने किसी तरह अपनी हंसी रोकी। मनोहर दा के चेहरे पर एक झुंझलाहट दिखाई पड़ी जो जल्दी ही गुम हो गई और उसकी जगह नम्रता के भाव आ गये।
भाई साहब, लकड़ी के शिल्प और मूर्तियां लोग अपनी कलात्मक अभिरूचियों या घर सजाने के लिए ले जाते हैं, उन पर जल नहीं चढ़ाते।
भगवान की मूर्तियां घर सजाने के लिए। भई वाह-वाह! अब आया असल कलियुग। मुंशी अजीब सा मुंह बनाकर हंसा।
अरे भाई साहब वो भगवान-वगवान की मूर्तियां नहीं होतीं। वो तो कलाकृतियां...... फिर मनोहर दा शायद यह सोचकर चुप लगा गये कि मुंशी को समझाना उनके बूते की बात नहीं थी।
देखिये, आप पढ़े-लिखे आदमी मालूम दे रहे हो। बुद्धिजीवी होने का ये मतलब नहीं है कि आदमी भगवान का सम्मान करना भी भूल जाय।
जी ! मनोहर दा ने कसमसाते हुये कहा।
ठीक है, मुंशी ने कहा। पारसनाथ को जानते हैं?
कौन पारसनाथ? अब ये पारसनाथ कहां से आ गया। मनोहर दा ने कुछ-कुछ झल्लाहट के भाव से मेरी ओर देखा पर अब मुझे इस प्रसंग में मजा आने लगा था। जितना मैं मनोहर दा को जानता था, मैं चकित था कि मनोहर दा अब तक फट क्यों नहीं पड़े थे। उनके संपर्क ऊपर तक थे। मुंशी चाहकर भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था। पर यहां तो ज्यादा से ज्यादा उनकी झल्लाहट भर दिखायी दे रही थी, वह भी दिखने से पहले गायब हो जा रही थी और तुरंत उनके चेहरे से नम्रता टपकने लग रही थी तो सीन कुछ इस तरह बनता है........ मनोहर दा के चेहरे की झल्लाहट, उनकी दाढ़ी से टपकती नम्रता......बगल के कमरे का लड़का.... उसकी फटी आँखें.... तिलक लगाये, पान चबाये, टांग फैलाये मुंषी...... मुंशी के पीछे राम का पोस्टर....... जल चढ़ाने से सड़ती हुई लकड़ी की मूर्तियां और अब पारसनाथ। वाह! पूरा-पूरा एक एब्सट्रैक्ट नाटक। तो चलिये देखते हैं कि ये पारसनाथजी कौन हैं?
पारसनाथ को जानते हैं, मुंशी ने पूछा।
कौन पारसनाथ? अरे हां कहीं आप उस पारसनाथ की बात तो नहीं कर रहे हैं जो मेरी आर्ट गैलरी में काम करता था?
वही पारसनाथ। मेरे ही गांव का था। मैं उससे मिलने एक-दो बार...... आपकी दुकान....।
ओ-हो-हो.....तो आप पारसनाथ के गांव के हैं! बहुत भला और ईमानदार आदमी था पारसनाथ। कहां है आजकल?
हां-हां मैं जानता हूं। मुंशी ने कसैलेपन से कहा। आप ऐसा कीजिये कि एक कागज पर पूरी घटना का विवरण लिखकर दे दीजिये।
मनोहर दा ने अपने झोले से कागज निकाला और उस पर लिखने लगे। मुंशी अप्रिय नजरों से हमें देख रहा था। मनोहर दा झूठ पर झूठ बोल रहे थे। उनका ये रूप मेरे लिए अप्रत्याशित रूप से चैंकाने वाला था। अब याद आ रहा है
मनोहर दा ने एक बार खुद ही बताया था कि उस ‘भले’ और ‘ईमानदार’ पारसनाथ को उन्होंने चोरी के आरोप में निकाला था। शायद मुंशी भी इस बात को जानता हो। शायद क्या, पक्का वह जानता रहा होगा तभी वह हमसे इस तरह से पेश आ रहा था।
मनोहर दा पूरा विवरण लिख पाते, इसके पहले एक अदृश्य गंध पूरे वातावरण में फैल गई।
किसने किया होगा यह, मैंने सोचा फिर यह सोचा कि नाक दबा लूं पर तुरंत ही ख्याल आया कि कहीं मुंशी ने ना किया हो कि मैं नाक दबाऊं और मुंशी इसे अपना अपमान समझ ले। मैंने देखा कि मनोहर दा पर किसी चीज का कोई असर नहीं था। वह लिखने में डूबे हुए थे। रहा मुंशी तो वह कभी मनोहर दा की तरफ देख रहा था तो कभी लड़के की तरफ। पर अंत में मुंशी की नजरें लड़के पर जाकर टिक गईं।
मैंने नहीं पादा साहब, लडका रोनी आवाज में बोला।
उधर चल बदजात। पूरा थाना गंधवा रहा है।
मैंने कुछ नहीं किया साहब, लड़का फिर रिरियाया। और अब तो उतर भी गई है। आप लोग मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।
मुंशी उठा और उसने लड़के को कसकर एक लात मारी। लड़का दर्द के मारे दोहरा हो गया।
चुप बैठ मादर......। साला तेरे बाप का घर है क्या? जब मर्जी आया जब मर्जी चलता बना।
लड़का और सिकुड़कर बैठ गया और न सुनाई देने वाली आवाज में कराहने लगा। उसकी फटी हुईं आंखें थोड़ी और फट गईं थीं।
मनोहर दा ने पूरा विवरण लिखकर मुंषी को दे दिया। मुंशी ने पढ़ा और हम दोनों से एक दो जगहों पर दस्तखत करवाया। इसके बाद हमने मुंशी से हाथ जोड़े, ‘अच्छा साहब’ कहा और बाहर आ गये। मुंशी की नजरें अभी तक हमारी पीठों पर चुभ रही थीं। जरूर उसने अब हमें जमकर गालियां दी होगीं।
अब? मनोहर दा ने पूछा।
अब? मैंने सवालिया सांस ली।
अब एक्सचेंज चलते हैं और सिम ब्लाक करवा देते हैं। अचानक मुझे कुछ याद आ गया।
मनोहर दा एक बात पूछूं मैंने कहा।
बोलो।
आप अभी झूठ पर झूठ क्यों बोले चले जा रहे थे?
मैं झूठ बोल रहा था? मैंने क्या झूठ बोला?
यही कि आपका मोबाइल पान की दुकान पर चोरी हुआ।
एकदम बकलोल हो क्या? मनोहर दो ने त्यौरियां चढ़ाई। क्या बताते उससे कि हम बिरयानी खाने गये थे। उस साले मुंशी का तिलक नहीं देखा तुमने?
तो आप उसकी तिलक से डर गये थे? मैंने मजाक किया।
शटअप।
हो जाऊंगा शटअप पर अभी मेरी बात कहां पूरी हुई। आपने पारसनाथ के मामले में शई झूठ बोला। खुद आपने ही बताया था कि उसने अपनी जाति छुपाई थी पर जाति-फांति आप मानते नहीं सो समझाकर छोड़ दिया था पर वह तो चोर भी निकला था। खुद आपने ही उसके थैले से काली की एक खास मूर्ति पकड़ी थी। इसीलिये आपने उसे निकाला शी था।
तो?
तो आज वही पारसनाथ ईमानदार और भला आदमी कैसे हो गया?
तो? मनोहर दा अब निश्चित तौर पर चिढ़ रहे थे।
तो क्या, आप बताइये।
अब यह भी तुमको बताना पड़ेगा। देखा नहीं वो साला किस तरह से जिरह कर रहा था। ऊपर से वो उस कमीन पारसनाथ का भी सगा निकल आया तो और क्या करता मैं? मुझे तो अब लग रहा है कि वो चोट्टा तुम्हारा भी कोई सगेवाला ही लगता है।
मनोहर दा अब मुझ पर गुससा कर रहे थे। मैं उनकी बातों का जवाब दे सकता था पर दिया नहीं और ऐसे ही मनोहर दा का नंबर मिलाने लगा।
घनघोर आश्चर्य! तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा मैंने तुरंत काट दिया और मनोहर दा की तरफ देखा।
दादा बेल जा रही है। अब क्या करें?
क्या करें। गजब आदमी हो! अरे फौरन मिलाओ और बात करो। मैंने फिर मिलाया और सामने से कुछ इस तरह से मोबाइल उठा जैसे कोई पहले से ही तैयार बैठा रहा हो।
हल्लो, नशे में डूबी आवाज आई।
कृपानिधान कहां हैं आप? मैंने पूछा।
मैं कृपानिधान नहीं हूँ। उधर से लड़खड़ाती हुई आवाज आई।
तो कौन हैं आप यही बता दीजिए।
हसन मोहम्मद।
हसन भाई आप हैं कहां?
इसी दुनिया में हूं भाईजान, अपनी बताइये।
अरे जगह तो बताइये, आप हैं कहां?
जगह का क्या है.......हौली में बैठा हूं दारू पी रहा हूं।
लगा कि जैसे उसके पास और भी बहुत सारे लोग बैठे हों और उसकी बात पर सबका कहकहा गूंज उठा हो। मतलब कि वह सचमुच हौली में हो सकता था। ‘साले पियक्कड़’ मैंने मन ही मन गाली बकी। मनोहर दा ने अपना कान मोबाइल से सटा रखा था। एक खीझ उनके चेहरे पर साफ साफ दिख रही थी। थाने वाली विनम्रता पता नहीं कहां गायब हो गई थी। मैं कुछ और कहता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल मेरे हाथ से लगभग छीन लिया और भरसक मुलायम स्वर में बोले, शई साहब आप जो भी हैं मेरा मोबाइल वापस कर दीजिए। हम यहां परेशान हो रहे हैं और आप बैठकर दारू पी रहे हैं?
मोबाइल? किसका मोबाइल? लड़खड़ाती आवाज ने पूछा।
मेरा मोबाइल जिससे तुम बात कर रहे हो। मनोहर दा आपसे तुम पर आ गये।
काहे मजाक कर रहे हो भाईजान? आपका मोबाइल तो आपके पास होना चाहिए न ! यह तो मेरा है।
अच्छा यह तुम्हारा कैसे हो गया? मनोहर दा ने घुड़का।
हमको सड़क पर गिरा हुआ मिला तो हमारा ही हुआ ना।
सड़क पर गिरी हुई कोई चीज तुम्हारी कैसे हो गई? आंय?
मनोहर दा अब पटरी पर से पूरी तरह उतर चुके थे।
ऐसे हो गई भाईजान कि वह और किसी को नहीं मिली। अल्लाताला ने इसे मेरी ही झोली में क्यों गिराया?
अब मनोहर दा दांत पीस रहे थे।
क्यों परेशान कर रहे हो तुम हमें? तुम करते क्या हो आखिर?
हड्डी गलाता हूं। रिक्शा चलाता हूं। अपनी कमाई की खाता हूं और....पीता हूं।
मेहनत की कमाई खाते हो तो मेरा मोबाइल वापस क्यों नहीं कर देते? तुम्हारे पास इसका बिल भरने का पैसा कहां से आयेगा?
नहीं दूँगा बिल-विल।
तो फिर यह तुम्हारे किस काम का?
काम का कैसे नहीं है? हमारा सुलतान खेलेगा न इससे।
देख बे सीधी तरह मोबाइल वापस कर दे नहीं तो मैं पुलिस में षिकायत कर दूंगा। तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं।
कर दीजिये रपट-वपट। अब तौ दरोगा बाबू अइहैं तबै मोबाइल मिली।
इसके पहले कि मनोहर दा एकदम से फट पड़ते या गाली बकने लगते मैंने मोबाइल उनके हाथ से ले लिया और काट दिया। मनोहर दा उत्तेजना के मारे कांप रहे थे। उनके मुंह से फेन आ रहा था। उन्होंने वीभत्स भाव से कुछ इस तरह थूका जैसे किसी के ऊपर थूक रहे हों। थोड़ा-सा थूक उनके कुर्ते पर भी चू आया जिसे उन्होंने अपने अंगौछे से पोंछा, फिर अचानक गाली बकने लगे। साला....हरामी साला, हमसे खेल रहा है, मनोहर दा ने हुँकार लेती आवाज में कहा। चलो थाने चलते हैं।
थाने चलकर क्या करेंगे? जो बात उस रिक्शेवाले को भी पता है वह आपको नहीं पता। पुलिस भला कैसे जानेगी कि वह कहां है और जानना भी क्यों चाहेगी?
मोबाइल लाओ। मैं अभी एस.पी. को फोन करता हूं। देखता हूं साला कहां बच के जाता है?
वह सब अभी छोड़िये दादा, आप अंदाजा लगाइये कि आपका मोबाइल कहां गिरा होगा?
गिरा होगा? तुमको अभी भी लगता है कि गिरा होगा? अरे उस कमीने ने कहीं मौका पाकर हाथ साफ कर दिया होगा।
यही सही दादा। तो आपका मोबाइल उसने कहां निकाला होगा?
मनोहर दा का जो रूप मेरे सामने आ रहा था मैं उसके बारे में सोचना भी नहीं चाह रहा था पर मेरे भीतर वही वही टूटती-दरकती छवियां उमड़ घुमड़ रही थीं। इसी आदमी की मैं इतनी इज्ज्त करता हूँ? मैं तुरंत उनका साथ छोड़ देना चाहता था पर मैं ऐसा कर पाता इसके पहले मेरे पेशेवर दिमाग ने मुझे धिक्कारा।
कैसे रंगकर्मी हो प्रथम? तुम्हें एक चरित्र के बारे में उसकी तहों के बारे में इतना कुछ जानने का मौका मिल रहा है और तुम हो कि.... और अभी तो तुम्हें हसन मोहम्मद से भी मिलना है जो....।.....तो.....।
दादा आपका मोबाइल कहां गिरा होगा?
सिविल लाइल से घंटाघर के बीच कहीं भी।
इसके बीच में कितनी हौलियां हैं?
मेरे ख्याल से सिर्फ दो। एक बिजलीघर के पास, दूसरी जानसेनगंज में।
आइये हौली चलते हैं, मैंने कहा।
वहां चलकर क्या करेंगे?
शायद अभी वह वहीं हो।
मरता क्या न करता। थोड़ी देर बाद हम बिजलीघर वाली हौली में थे। बगल में बजबजाती, गंधाती नाली थी। वहीं पर तले हुये चने और पकौड़ियां मिल रही थीं जिन पर धूल की एक परत जमी हुई थी और मक्खियां भिनभिना रही थीं अंदर घुसते ही कच्ची शराब की तीखी गंध हमारे नथुनों से टकराई। अंदर बीमार पीले उजाले या धुंधलके जैसा माहौल था। दीवारों पर ममता कुलकर्णी से लेकर मल्लिका सहरावत तक शराबियों का नशा दोगुना करने में जुटी हुई थीं। तो ऐसा माहौल और इसमें हम दो संभ्रांत कहे जाने वाले शहरी, सम्मानित बुद्धिजीवी। हमारे भीतर पहुंचते ही हौली का सारा माहौल ऐसे अस्त-व्यस्त हो गया जैसे शहद की मक्खियों के बीच तेज डंक वाली ततैयां घुस गईं हों। हौलीवाला लपककर हमारी तरफ आया।
क्या चाहिए साहब?
कुछ नहीं तुम अपनी जगह बैठो। मनोहर दा की आवाज में कुछ ऐसा था कि हौलीवाला तुरंत परे हट गया।
हम हर किसी को संदिग्ध नजरों से देख रहे थे। कुछ नहीं समझ में आया तो मैंने मोबाइल पर फिर मनोहर दा का नंबर मिलाया। तुरंत ‘जाने कहां गये वो दिन’ सुनाई पड़ा पर हौली में घंटी कहीं नहीं बजी। जाहिर था कि मोबाइल यहां नहीं था, फिर भी हमने पूछताछ किये बिना लौटना मुनासिब न समझा। पूछताछ में हमारे उन ‘भाईजान’ के बारे में कुछ भी नहीं पता चला। अब मुझे हम लोगों की बेवकूफी समझ में आई। हम बिना इस बात पर विचार किये कि वह किस हौली में हो सकता है जो पहले आई उसी में घुस गये थे जबकि हमें मोबाइल गुम होने का पता घंटाघर के पास चला था तो इस हिसाब से उस हसन रिक्शेवाले के जानसेनगंज वाली हौली में होने की ज्यादा उम्मीद थी। खैर......।
हम जानसेनगंज वाली हौली पहुंचे पर अफसोस पता चला कि वह यहां से थोड़ी देर पहले ही जा चुका था। इतना ही नहीं यहां मोबाइल को लेकर काफी हल्ला-गुल्ला भी हुआ था क्योंकि पियक्कड़ों में से एक दो ऐसे भी थे जो मोबाइल हड़पना चाहते थे पर अंततः हसन रिक्शेवाला मोबाइल को अपने पास बचाये रखने में सफल हो गया था। हसन का पता न हौलीवाले को मालूम था न दूसरे पियक्कड़ों को। हम चूक गये थे।
अगर तुम उस हौली में न रूके होते तो उसे हम यहीं दबोच सकते थे, मनोहर दा ने बिगड़ते हुये कहा।
मेरे ऊपर मत गुस्सा उतारिये। आपने भी तो उस समय कुछ नहीं कहा। अब आप ही बताइये क्या करूं?
उससे बात करो? सीधे से दे देता है तो ठीक? नहीं तो मैं एस.पी. से बात करता हूं।
मैंने फिर से नम्बर मिलाया।
हल्लो...... कौन......? उधर से आवाज आई।
अरे हम हैं हसन भाई जिसका मोबाइल आपके हाथ में है।
आप लोग तो पुलिस में जाने वाले थे। बंदा वही था पर मैंने महसूस किया कि इस बीच उसकी आवाज की लड़खड़ाहट थोड़ी कम हुई है और उसकी जगह मस्ती ने ले ली है।
अरे गलती हो गई हसन भाई। हमारे आपके बीच में भला पुलिस क्यों आये? आप तो हमें मोबाइल वापस कर दीजिये बस।
क्यों भला? हमको तो गिरा मिला है अल्ला की मेहरबानी से।
चाट क्यों रहे हो भाई ? आप आखिर रहते कहां हैं?
बता दूं? क्यों बताऊं भला?
हम आपसे मिले आयेंगे इसलिए।
तो बता दूं?
रहम कर यार। इस बात को समझ कि पिछले दो-तीन घंटों से हम कितने परेशान हैं।
दरोगा बाबू तो साथ में नहीं आयेंगे ना?
अरे नहीं हसन भाई, आप बेकार में ही शक कर रहे हैं। हमको हमारा सामान मिल जाये बस। हम पुलिस-दरोगा के झंझट में भला क्यों पडेंगे?
मनमोहन पार्क देखा है ना?
हाँ।
वहां से इनवरसिटी की तरफ जाओ तो आगे पाकड़ का बड़ा सा पेड़ है। बगल से दाहिने हाथ की गली में मुड़ जाइयेगा और अंदर आकर हसन मोहम्मद का घर पूछ लेना। सामने एक भूसे की दुकान है। चाहे दुकान वाले से ही पूछ लेना।
ठीक है हसन भाई, हम लोग आते हैं।
अभी नहीं, एक-ढेड़ घंटे बाद आइयेगा। अभी तो हम सवारी ले जा रहे हैं।
मैंने मनोहर दा की तरफ देखा। अब वह शांत लग रहे थे पर उनकी आंखें लाल हो रही थीं। अगर हसन ने पता-ठिकाना सही बताया था तो कहानी खत्म होने में अभी घंटे भर की कसर थी। तब कहां पता था कि असली कहानी की शुरूआत ही घंटे भर बाद होनी है।
मैंने हसन रिक्शेवाले के बारे में सोचा। कैसा होगा वह? उसके बाल बिखरे होंगे, शायद खिचड़ी, थोड़े काले, थोड़े सफेद। चेहरे पर मंगोलियन दाढ़ी होगी। आंखे छोटी और निचुड़ी सी। आंखों में कीचड़ और नीचे काली झुर्रियां। पूरे बदन पर समय की मार के अनगिनत निशान। बदन पर कोई मैली-कुचैली टीशर्ट या बनियान। नीचे लुंगी या पाजामा। पैरों में पुराना हवाई या टायर का चप्पल। तो शायद कुछ ऐसा होगा हमारे हसन भाई का हुलिया।
पर अभी हसन भाई ने शराब पी रखी है, उसके सुरूर में है सो आप एक दृश्य की कल्पना कीजिये कि हसन भाई अपने रिक्शे पर सवारी बैठाये चले जा रहे हैं। मोबाइल की घंटी बजती है। सवारी हड़बड़ाकर अपना मोबाइल खोजती है जो मिल ही नहीं रहा है। हमारे हसन भाई सुकून से रिक्षा रोकते हैं। मोबाइल निकालते हैं और कहते हैं, बोलो मियां।
अगल-बगल से आते-जाते लोग उन्हें अजूबे की तरह देख रहे हैं। मान लीजिये कि इस समय आप ही उनके रिक्शे पर बैठे होते तो हसन भाई के बारे में क्या सोचते? शायद आपको अपनी आंखों पर भरोसा ही न होता या शायद आप उन्हें कोई चोर उचक्का समझ लेते और रिक्षा बदल देते या अगर आप मेरी तरह खूब फिल्में देखते होेते या जासूसी उपन्यास पढ़ते होते तो उन्हें कोई जासूस या किसी बड़े घराने का कोई सिरफिरा सिद्धांतवादी नायक समझ लेते।
चक्कर छोड़िये। मान लीजिए कि हम लोगों के पास बाइक ना होती और हम हसन भाई के रिक्शे पर बैठकर उन्हीं को फोन मिलाते तब? वह शायद हमें मुड़कर देखते और जब उन्हें पता चलता कि यह हमीं लोग हैं जिनको वह घंटों से नाच नचा रहे हैं तो हसन भाई क्या करते? क्या उन्हें हम पर हंसी आती या फिर...... और फिर हमारे एंग्री मैन आर्टिस्ट मनोहर दा क्या करते?
मैंने पूछ ही लिया।
गर्दन मरोड़ देता उसकी, मनोहर दा ने फुफकारते हुये जवाब दिया।
आगे मैंने चुप रहना ही मुनासिब समझा।
घंटे भर बाद ही हम पाकड़ वाली गली में थे और एक मौलवी से दिखने वाले व्यक्ति से हसन रिक्शावाले के घर का पता पूछ रहे थे। मौलवी ने हमें हिकारत से देखा और गली के आखिर में बने एक खपड़ैल की तरफ इशारा किया। मौलवी की हिकारत जायज थी। रमजान का महीना चल रहा था और हम एक ऐसे मुसलमान के घर का पता पूछ रहे थे जिसने शराब पी रखी थी।
अगले पल मनोहर दा बेसब्री से कुंडी खटखटा रहे थे। काफी देर बाद एक असमय बूढे़ दिखते हिलते-डुलते से व्यक्ति ने दरवाजा खोला और अधखुले किवाड़ के बीच से ही सिर निकाल कर पूछा, बौलैं साहेब।
हसन तुम्हीं हो? मनोहर दा ने पूरा किवाड़ खोलते हुये तुर्शी से पूछा।
हाँ बौलैं साहेब।
मैंने उस काया का मिलान फोन पर उससे हुई बातचीत से करना चाहा और गड़बड़ा गया। उसका नशा पूरी तरह उतरा हुआ दिख रहा था और वह अप्रत्याशित रूप से दयनीय लग रहा था। घर के नाम पर एक कोठरी भर थी जिसका आधा हिस्सा पीछे की तरफ खुलता हुआ दिख रहा था जिसमें एक धुआं-धुआं सा बल्ब जल रहा था। कोठरी में एक कोने एक चारपाई रखी थी दो-तीन मैली कुचैली कथरियां दिख रही थीं। एक तरफ फर्श पर काले चींटों की लंबी कतार दिखाई दे रही थी और बांस के ठाट में जगह-जगह मकड़ियों ने अपना जाल फैला रखा था। कीड़े-मकोड़ों को शई गरीब के यहां ही ठिकाना मिलता है, मैंने सोचा। ऊपर खपड़ैल पर तमाम बेकार टायर फेंके हुए थे। मैंने फिर से हसन की तरफ देखा। कपड़े के नाम पर उसके बदन पर एक लुंगी ही थी जो पता नहीं कब की धुली थी। सींकिया बदन, पूरे बदन पर हड्डियां उभरी हुई। सिकुड़ी हुई खुरदुरी त्वचा। गले में एक काला मटमैला धागा। हसन के सामने खड़े मनोहर दा एकदम दीन के सामने दीनानाथ लग रहे थे।
आवैं साहेब, कहते हुए वह बगल हटा।
मोबाइल कहां है? मनोहर दा दांत पीसते हुये फुफकारे।
साहब हमको तो पड़ा मिला था। हम तो बुलाये भी आपको पर आप सुने ही नहीं।
है कहां मोबाइल?
अभी दे रहे हैं साहेब। आप अंदर तौ आवैं। शायद वह हमें बैठाकर हमारा गुस्सा कम करना चाह रहा था या शायद अपना पक्ष रखना चाह रहा था।
अबे हरामी हम तेरे यहां दावत खाने नहीं आये। सीधे से मोबाइल ला नहीं तो.... मनोहर दा चीखे।
दे रहे हैं साहेब। गाली काहे दे रहे हैं। हम तौ खुदै.....
तभी अंदर की तरफ से एक बच्चा कूदता हुआ बाहर आया। मोबाइल उसके हाथ में था जिसे दिखाते हुये उसने हसन से पूछा-ई का है अब्बू?
हसन बच्चे को कोई जवाब देता इसके पहले मनोहर दा ने मोबाइल पर झपट्टा मारा। बच्चा अचकचा कर पलटा और चारपाई से टकराकर पलट गया। मोबाइल दूर दीवार से जा टकराया। मनोहर दा ने फुर्ती से मोबाइल उठाया और बाइक की तरफ झपटे। आसपास के लोग हमें संदेह की दृष्टि से देख रहे थे और जाने क्या-क्या बातें कर रहे थे। बच्चा चिल्ला-चिल्लाकर रो रहा था। बाइक स्टार्ट हो पाती इससे पहले हसन रिक्शेवाले की आवाज आई।
अरे जायें साहेब, देख लिया आपको। इत्ता भी नहीं कि मेरे बच्चे के लिए एक खिलौना ही लेते आते। अब तौ मोबइल मिल गया ना....... अब तौ कर लो दुनिया मुट्ठी में। हम इस दुनिया में थोड़े ही हैं साहेब। क्रम टूटा........ हाय मोर सुल्तान, हाय मोर सुल्तान की आवाज आई। शायद हसन के बच्चे को कहीं चोट लग गई थी जिसकी तरफ उसका ध्यान अब गया था। अरे शैतान हो आप लोग... राच्छस की तरह..... हसन फिर चिल्लाया पर अब तक बाइक स्टार्ट हो चुकी थी। बाइक आगे बढ़ती इसके पहले एक पत्थर मेरे पैर के पास मेडगार्ड से टकराया। मैंने पीछे पलटकर देखा तो एक उत्तेजित झुंड दिखाई पड़ा। हसन अभी भी चीख रहा था पर पल भर में उसकी आवाज सुनाई देनी बंद हो गई।
मनमोहन पार्क पहुंचकर मनोहर दा ने बाइक रोकी और मोबाइल जांचने लगे। मोबाइल की बाडी चटकी हुई थी और वह काम नहीं कर रहा था। मनोहर दा की आंखों में एक ठंडी हिंसक चमक उभर आई। उन्होंने बस्ते से सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट जलाई और तीन-चार कश लेने के बाद सिगरेट जूते से कुचल दिया।
आओ थाने चलते हैं, मनोहर दा ने कहा।
अब थाने चलकर क्या करेंगे? मुंशी का रवैया भूल गये क्या आप?
नहीं याद है इसीलिए कह रहा हूं। इस हरामजादे हसन को तो मैं.....मैं अब नामजद रिपोर्ट करूंगा।
आप किस गुमान में हैं दादा? थाने में आपकी दाल नहीं गलने वाली। आपका मोबाइल गुम हुआ तो उसने ईमानदारी से वापस भी कर दिया। ये खराब हो गया तो यह उसकी नादानी भर थी और फिर थाने में आपने सिपाही और मुंशी का रवैया देखा नहीं क्या? बाकी लोग भी वैसे ही होंगे।
दोनों की ऐसी की तैसी। मैंने देखा सालों को पर तुमने कुछ नहीं देखा।
क्या नहीं देखा?
थाने में घुसते ही हनुमान मंदिर, सिपाही का जनेऊ, मुंशी का तिलक और उस मुंशी के पीछे लगा श्रीराम का पोस्टर।
मैं पसीने-पसीने हो गया। फिर भी कुछ नहीं हुआ तो? मैंने भरे स्वर में सवाल पूछा।
शहर का एस.पी. मेरे साथ बैठ कर शराब पीता है। मैं सबकी ऐसी की तैसी करवा दूंगा पर उस मुसल्ले हसन को तो मैं.....।
आगे की कहानी में मेरी क्या भूमिका हो, इसको लेकर मैं पसोपेश में हूं। आप मेरी मदद करेंगे?

Monday, May 18, 2009

शिखर-पुरुष : ज्ञानप्रकाश विवेक की चर्चित कहानी

इस बार हम चर्चित कहानीकार ज्ञानप्रकाश विवेक की सबसे चर्चित कहानी 'शिखर-पुरुष' प्रकाशित कर रहे हैं। यह कहानी जब इंडिया-टुडे में प्रकाशित हुई थी तो पाठकों ने सर-आँखों पर बिठा लिया था। हमें खुशी है कि ज्ञानप्रकाश हमें इंटरनेट के हिन्दी-पाठकों तक इस कहानी को पहुँचाने का अवसर और अनुमति दे रहे हैं।


शिखर-पुरुष

अपना नाम तुमने झिझकते हुए बताया था- बी ...बी ... बी .. अटक से गए थे तुम। मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी। सोचने लगी थी, तुम अपना नाम फिर से बताओगे। तुम चुप थे। ऐसा लगता था, तुम अपना नाम भूल गए हो। याद कर रहे हो अपना नाम।

मैंने फिर कहा था- " आप अपना नाम बता रहे थे..." इस बार तुम पहले से ज्यादा नर्वस नजर आए थे। तुमने अपना नाम फिर से दोहराया था- बड़े सरपट तरीके से। जैसे रेस के घोड़े एक साथ दौड़ पड़े हों या कि जैसे नाम बताना बहुत गैर जरूरी और उबाऊ काम हो और जिसे अनमने भाव से बहुत जल्दी निबटा देना हो। मैं फिर भी नहीं समझी थी। इतना दौड़ता हांफता लहजा

मैंने एक बार फिर कहा "हम किसी जल्दी में नहीं है- न आप, न मैं। आप चेयर लीजिए, बैठिए और अपना नाम एक बार फिर ..."

तुमने किसी स्कूली बच्चे की तरह अपना नाम बताया था- बी एल विश्वास। झिझक और कंपन तुम्हारी आवाज में था। तुम्हें डर था कि मैं तम्हारे नाम का फुल फॉर्म न पूछ लूं। बाद में मुझे मालुम हुआ कि तुम्हारा नाम बनवारी लाल है। यह भी मुझे बाद में मालुम हुआ कि तुम अपने नाम से चिढ़ते थे। चिढ़ते तुम अपने पिता से भी थे जिसने तुम्हारा नाम बनवारी लाल रखा था। चिढ़ते तुम कई चीजों से थे- अपनी दरिद्रता से, लोगों की संपन्नता से, अपनी दयनीयता से दूसरों के स्मार्टनेस से, दूसरों के अच्छे कपड़े से, अंग्रेजी से, शायद पूरी कायनात से चिढ़ते थे तुम।
मुझसे भी तुम चिढ़ गए थे कि मैंने तुम्हारा नाम बार बार पूछा था। तुम्हें लगा कि मैंने तुम्हारी रैगिंग की है। यह तुम्हारी गलतफहमी थी। गलतफहमियां पाले रखना तुम्हारा शौक था।

यह तुम्हारा पहला दिन था- दफ्तर में पहला दिन। मुझे यहां डेढ़ साल हो चुका था। मैं पर्सनल विभाग में थी। मुझे कहा गया था कि तुम्हारा ज्वाइनिंग लेटर ले लूँ। तुम मेरे सामने बैठे थे- घबराए हुए, इधर उधर देखते। तुमने जेब से जंग खाई चाबी निकाल ली थी। कुर्सी की हत्थी पर घिसने लगे थे। यह बुरी बात थी। लेकिन ऐसा लगता था कि तुम व्यस्त रहने के लिए कोई काम ढूंढ रहे हो ताकि तुम अपनी घबराहट छिपा सको... तुम्हारे लिए मैंने चाय मँगाई थी। तुमने चाय का कप दोनों हाथों से उठाया। कप इतना भारी तो नहीं था कि दोनों हाथों से उठाया जाता। मैं तो कहने वाली थी- चाय का कप है कोई परशुराम का धनुष नहीं। कहा नहीं था मैने, क्योंकि तुम्हें यह फब्ती बुरी लग सकती थी.... तुम चाय पीने लगे थे। सुड़-सुड़ की बेतरतीब आवाजें तुम्हारे मुंह से निकलने लगी थीं। मैं मन ही मन हँसी थी। मैं ही क्यों, पूरा दफ्तर तुम पर हँसता था। कलीग्ज को क्या चाहिए था? तुम्हारे जैसा एक अदद कॉर्टून! तुम्हें पहले चाय पिलाई जाती, फिर तुम्हारा मजाक उड़ाया जाता। मैं समझ जाती, तुम बलि के बकरे बनाए जा रहे हो। तुम किसी मेमने जैसे नजर आते। पता नहीं किस मिट्टी के बने थे तुम ... किसी भी दिन चीते की तरह फुर्तीले तो क्या, कुत्ते की तरह चौकन्ने भी नहीं नजर आए।

उस हॉल में, जहां सब बैठते थे, पूरा दिन किसी नाटक जैसा गुजरता। टेलीफोन की घंटियाँ, टाइपराइटर की आवाजें, चाय के कप, मित्रता निभाते युवक-युवतियाँ, कलीग्ज की बहसें, हँसी-ठट्ठा, ताजा सनसनीखेज खबरों पर विमर्श, साहब लोगों की कॉलबेल, क्लाएंट्स की आमदरफ्त, कलीग्ज का एक दूसरे पर जेमक्लिप फेंकना, सॉफ्ट पॉर्न पत्रिकाएं दराज के अंदर रखकर पढ़ना, लेडीज टॉयलेट में स्त्रियों की गोष्ठी, डैंड्रफ से लेकर ल्यूकोरिया तक के देसी टोटके, लेडीज टॉयलेट में शीशे के सामने सँवरती-निखरती फेयर एंड लवली क्रीमों से ज्यादा फेयर बनने की कोशिश करती स्त्रियाँ ठनठनाती, इतराती लेकिन अपने बढ़ते वजन पर फिक्रजदा होती, हॉल में गुजरती तो महसूस होता खुशबुओं का आबशार गुजर गया है और युवक..... किसी देसी जिम में जाकर अपने शरीर को बनाते और दफ्तर में हाइ-फाइ नजर आने के सारे नुमाइशी प्रोग्राम दस से पाँच के बीच अदा कर डालते.. पूरा दिन बहुत कुछ घटित होता।

लेकिन तुम... मैं देखती, तुम अपनी सीट पर किसी वीरान टापू जैसे, होने-न-होने के बीच, हँसने और रोने के बीच किसी फाइल, किसी कवरनोट में कभी किसी कॉकरोच तो कभी किसी तिलचट्टे की तरह छिपे नजर आते। तुममें ऐसा कुछ भी नहीं था कि कोई लड़की तुम पर रीझती। न तुम आकर्षक थे, न स्मार्ट। सभी कलीग्ज नौजवान थे, तेजतर्रार, चुस्त खूबसूरत और नई काट की पोशाकें। बात करने का समझदार तरीका। वे हर एँगल से अच्छे, सम्मोहक लगते।
लेकिन मुझे तुम्हारी बेचारगी ने आकर्षित किया था बनवारी लाल... ऐसी बेचारगी जिसमें निर्धनता, मासूमियत, बेचैनी, दुख हैरानी और अवसाद का मिश्रण था... तुम खिड़की से आसमान को ऐसे देख रहे होते जैसे कोई बच्चा आसमान में कटी पतंग को देखता है... ऐसा लगता था, तुम खुद एक कटी पतंग हो। और मुझे हमेशा कटी पतंगो से हमदर्दी रही है बनवारी लाल!

हॉल में बैठे तेजतर्रार और खूबसूरत नौजवानों की अनदेखी करके, मैं तुम्हें देखती रहती। पता नहीं तुम किस दुनिया में गुम होते। हॉल के एक सिरे पर मैं होती, दूसरे सिरे पर तुम। मैं तुम्हें देखती। देखती रहती। यह मेरी बेवकूफी थी या क्या था, पता नहीं। मैं तुम्हें चाय के लिए बुलाती। तुम्हारे हात काँपने लगते। चाय छलकती, गिरती। तुम घबरा जाते। डस्टर ढूँढ़ते। मेज साफ करते। तुम विचित्र लगते।

दोपहर का खाना तुम अकेले खाते थे। बनवारी लाल... आजकल बेशक तुम तीन-तारा या पाँच-तारा होटल-रेस्तराँ में क्लाएंट्स के साथ लंच-डिनर लेते हो... बेशक एक दिन तुमने अपने केबिन में कहा था, "दिस रबिश क्लास थ्री..." कहा तुमने और भी बहुत कुछ था... दरअसल, हर बड़ा आदमी अपने अंदर एक 'ईश्वर' पैदा कर लेता है। गलत तो नहीं कर रही मैं। तुम्हें लगता है कि तुम दुनिया के नहीं तो कम से कम इस दफ्तर के 'ईश्वर' हो। आदमी जितना बड़ा 'कमीना' होता है, वह उतना बड़ा उपदेशक समझने लगता है अपने आपको। शायद यह कोई 'सिद्ध' अवस्था हो।

हां तो मैं तुम्हारे खाने की बात कर रही थी। कलीग्ज ने साफ-साफ कह दिया था- "बनवारी हमारे साथ मत खाया कर ..." तब तुम अकेले खाते। एक बार तुम्हारे पास सब्जी नहीं थी- याद है तुम्हें! तुम घर से रोटियों में लपेट कर चीनी और हरी मिर्च लाए थे। अजीब किस्म का कॉकटेल था। चीनी और हरी मिर्च। मैंने देखा। मुझे तरस आया तुम पर। तुम्हें थोड़ी -सी सब्ज निकाल कर दी। तुमने मुझे देखा और तुम्हारी आंखो के कोर भीग गए।

***
अचानक पता चलता, हॉल के आखिरी सिरे पर कुछ शोर सा हुआ है। मालूम होता कि तुम किसी से लड़ पड़े हो। मालूम होता, किसी बंदे ने गाना गाया था- बनवारी रे, जीने का सहारा तेरा नाम रे... बस इसी बात पर तुम बौखला उठे थे। मैं तुम्हारे पास आती। कोई फाइल लिए या कोई दूसरा बहाना बनाकर। तुम शांत हो जाते। मेरा आना तुम्हें अच्छा लगता। तुम्हें लगता कि दफ्तर में कोई है जो तुम्हारा है। जो तुम्हारे मन की बात समझता है। तुम्हारे दुःख को पहचानता है। तुम चाहते कि मैं तुम्हारे साथ बैठी रहूँ। तब तुम कमजोर थे। तुम्हें सहारों की दरकार थी। तुम्हें मेरा होना आश्वस्त करता। जिस दिन मैं दफ्तर नहीं आती थी, तुम घबराये रहते।

नहीं बनवारी लाल, तुम्हारी कमजोरियाँ नहीं ढूँढ़ रही मैं। अतीत से साक्षात्कार करा रही हूँ। उस अतीत से, जो तुम्हारा था और जिसे अब तुम देखना भी नहीं चाहोगे। संस्मरण सुनाने की तुम्हें बुरी आदत है। अपने अतीत पर झूठ की नक्काशी भी खूब कर लेते हो तुम। तुम्हारा झूठ मेर सच्चाई के कद से बहुत बड़ा हो गया है बनवारी लाल। यादें! यादों के खँडहर में भटकना भी कौन चाहता है! यादें होती भी क्या हैं! पुराने जमाने की एलबम में औंधे मुँह पड़ा वक़्त।

वक़्त!... वक्त किसी की लिए जख्मी परिंदे जैसा होता है। जहाँ बैठता है, जख्मों के निशान छोड़ जाता है। और कुछ लोग वक्त को गोल्फ की तरह खेलते हैं- जैसे कि तुम! ठीक कह रही हूँ न बन्नी!

बन्नी! याद है मैने तुम्हारा यही नाम रखा था। बहुत अच्छा लगा था तुम्हें। बनवारी नाम से तुम चिढ़ जाते लेकिन बन्नी सुनना तुम्हें अच्छा लगता। लेकिन इस सकल विश्व में अकेल मैं थी, जो तुम्हें बन्नी कहती थी।

बनवार लाल... अब तुम इस नाम को भूल चुके होगे शायद। तब तुम कहते थे कि मैं सब कुछ भूल सकता हूँ, लेकिन यह खूबसूरत, छोटा-सा नाम नहीं। इस नाम में जिंदगी है।

तुम्हारे वो दिन डिप्रेशन-भरे थे। जैसे कि अब मेरे। मेरी छोड़ो। मैंने तो रास्ता ही ऐसा चुना। गरम रेत पर नंगे पांव खड़ी होकर कालीन का सपना देखना बेवकूफी नहीं तो क्या है!

***
पलटकर देखूँ तो अतीत के पन्ने फड़फड़ाते चले जाते हैं। तुम्हारे रोने की आवाज आई थी मुझे। तुम्हारे हँसने और रोने की आवाज को भला कैसे नहीं पहचानती! तुम जेंट्स टॉयलेट में वाशबेसिन के पास खड़े रो रहे थे। दरवाजा खुला था। मैं उधर से गुजरी। तब तुमने एक हिचकी ली थी। मैंने चौककर देखा। तुम थे। मैं सिहर उठी। तुम मुझे देखकर सकपका गए। वाशबेसिन में मुँह धोने का नाटक। इस बीच किसी ने हमें देखा था। हम हॉल में आए तो बहुत सारी आंखों ने हमें घूरते हुए देखा।

लेकिन शाम को मैने तुम्हें खूब लताड़ा था, 'मर्द होकर रोते हो.... गलत बातों को सहन करना सीखो। दबंग और लापरवाह बनो... चालाक लोगों की दुनिया है..बेवकूफी के रास्ते खाइयों मे गिरते हैं...'

शायद तुमने मेरी कुछ बातें गाँठ बाँध ली थीं। शायद यहीं से तुमने खुद को बदलना शुरू किया था, जिसका इल्म मुझे बहुत बाद में हुआ।

बन्नी, यह भी मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ कि ऊपर से लद्धड़, डरपोक और शंकालु दीखनेवाले तुम, भीतर से बहुत घुन्ने हो। शायद डरपोक और कायर आदमी अपने भीतर घुन्ना और चालाक होता है, या कि धीरे-धीरे हो जाता है। उसका हथियार ताकत नहीं, मक्कारी होता है...

... तुम्हें याद है बन्नी, क्लेम डिपार्टमेंट में जाने से मना किया था मैंने। शायद तुम्हें अब भी याद हो.. मैंने कहा था, "पर्सनल, एकाउंट्स, अंडरराइटिंग- कोई भी किसी भी डिपार्टमेंट में चले जाओ लेकिन क्लेम ..."

लेकन तुमने अपनी उँगलियों पर गणित लिख रखा था। मुझे बाद में पता चला था कि तुम्हारे अंदर कोई कैलकुलेटर फिट है, जिसका रिमोट तुम्हारे चुप्पेपन के पास है। मैंने तुम्हें समझाने की कोशिश की थी कि 'टुकड़ों' का लालच, मनुष्य की थिकिंग बदल देता है। लेकिन तुमने मेरी बात सिर्फ सुनी थी। किया वही, जो तुम्हारे मन में था। तुम्हें क्लेम सीट मिल गई थी। तुम खुश थे। मुझे अच्छा नहीं लगा था। अफसरों को तुम्हारे जैसे किसी 'चंपू' की जरूरत थी और तुम्हें संपन्न बनने की जरूरत! महत्वाकांक्षाएं कहां छिपती हैं बन्नी? तुमने कहा भी था, "पैसा आदमी को ताकतवर बनाता है। मैं ताकतवर बनना चाहता हूँ।"

लेखक परिचय- ज्ञानप्रकाश विवेक

जन्मः 30 जनवरी 1949 (बहादुरगढ़)
ओरिएंटल इंशोरेंस कम्पनी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन

नौ कहानी-संग्रह प्रकाशित जिसमें से 'पिताजी चुप रहते हैं', 'शिकारगाह', 'मुसाफ़िरख़ाना' और 'सेवानगर कहाँ है' विशेष रूप से चर्चित।
चार उपन्यास- गली नम्बर तेरह, अस्तित्व, दिल्ली दरवाज़ा तथा आखेट (भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य)
चार ग़ज़ल संग्रह- धूप के हस्ताक्षर, आँखों में आसमान, इस मुश्किल वक़्त में तथा गुफ़्तगु अवाम से है।
कविता-संग्रह- दरार से झाँकती रोशनी
आलोचना-पुस्तकः- हिन्दी ग़ज़ल की विकास यात्रा
पता- 1875, सेक्टर-6, बहादुरगढ़-124507
हरियाणा
लेकिन बन्नी, मेरी हसरत यह थी कि तुम अच्छे मनुष्य बनो। लेकिन परेशान करने वाली बात ये थी कि तुम उस तरह के ताकतवर इंसान बनना चाहते थे, जो प्रतिदिन क्रूर होता जा रहा है... यह अजीब बात थी कि एक कायर, दब्बू और बेचारा सा लड़का ताकतवर बनना चाहता था- बा-रास्ता पैसा! वह कोई और नहीं, बन्नी था, जिसे मैं प्यार करने लगी थी।

बन्नी, मैं चाहती थी कि तुम अनुभूतियों के खेल खेलो। पानी की लहरों पर तैरती उजली धूप को अपने भीतर उतारो, किसी दरख्त को देखते-देखते दरख्त जैसे हो जाओ। तुम परिंदों की तरह ऊंची उड़ान भरो। आकाश जैसा असीम तुम्हारी आंखों में हो। बन्नी, मैं चाहती थी तुम बंद कमरा न बनो। ऐसा रास्ता बनो जो दूर तक जाता हो, जिस पर भावनाओं की पदचाप हो। मैं चाहती थी, तुम किसी समंदर की तरह हो जाओ, मैं किसी नदी जैसी तुम्हारी जानिब बढ़ती चली आऊँ....

लेकिन क्लेम सीट का अपना रोमांच था। ये तमाम बातें तुम्हे फालतू और मूर्खतापूर्ण लगी थीं। तुमने अपनी आँखों में रुमाल नहीं बल्कि कपड़े की पट्टियां बाँध ली थीं। मुझे अच्छा नहीं लगा था। समझा जाना चाहिए था मुझे कि तुम्हारा रास्ता मेरे संसार के रास्ते से होकर नहीं जाता...

याद है बन्नी, जिस दिन तुमने क्लेम सीट ली थी, शायद उसी शाम को हम अतुल ग्रोव रोड पर चुपचाप चलते रहे थे। हम अकसर शाम को इसी खामोश सड़क पर चलते-चलते मंडी हाउस की तरफ मुड़ जाया करते थे। यह सड़क शांत रहती, कुछ बंगले, कोठियाँ... बाउंडरी वॉल के साथ झालर तरह लटकती गोल्डनशॉलर की लताएं, अमलतास, गुलमोहर और अशोक के पेड़। एक सुकून भरी खामोशी। जैसे कोई कवि बहुत देर से चुप बैठा हो। चलते-चलते तुमने मेरा हाथ थाम लिया था। मैंने झटक दिया था तुम्हारा हाथ। तुम चौंक गए थे। डर गए थे। डरना तुम्हारी फितरत में था। तुम्हें हैरानी हुई थी... यही तुम होते थे जो इस वीरान, अकेली और नीम अंधेरी सड़क पर, चलते-चलते मुझे चूम लिया करते थे। तब तुम मुझे प्रेम की भावना से भरे युवक नजर आते थे। पर आज तुम्हारा हाथ तक पकड़ना अच्छा नहीं लगा था। मैं चुप थी। तुम चुप थे। ताज्जुब था आज हमारे पास कोई भी शब्द नहीं था।

***
उसके बाद वही तो हुआ था जैसे कि मैने सोचा था। तुम बेहद व्यस्त हो गए थे। बहुत सारी नई बातें। चालाकियाँ, लटके-झटके, तुम्हारा मुँह बनाकर, आँखे बिचकाकर बातें करना, च्युंइगम चबाते रहना.... क्लाएँट्स ....सर्वेयर.... सर्वे रिपोर्ट, साल्वेज.. यह एक नई दुनिया थी और तुम्हारे दोस्ताने वर्कशॉप वालों से थे, सर्वेयरों से थे। तुम सचमुच प्रभावशाली समझे जाने लगे थे। प्रभावित करने का एक अच्छा तरीका यह भी होता है कि व्यवस्था के सामने कोई कर्मचारी केंचुआ, कॉकरोच या रीढ़विहीन कीड़ा बनता चला जाए। मैं तुम्हें देखती। बेचैन होती। तुम क्या से क्या बनते जा रहे थे? लोगों को तुमसे ईर्ष्या होती। मुझे दुख होता। मैं इसे पतन समझती। तुम्हारे लिए ये सफलता थी।

बनवारी लाल! याद है तुम्हें, एक बार दबोच लिए गए थे तुम! बहुत ही मामूली-सी बात पर। मामूली आदमी का मामूलीपन। तुमने सॉल्वेज में पड़े रेडिएटर को चुपचाप बेच दिया था। तुमने कमाए थे 400 रु और गँवाई थी अपनी मनुष्यता।

तुम्हें तब पता नहीं था कि सिस्टम के हाथ में खुरपी जैसी कोई चीज होती है, जो आदमी की चमड़ी को इत्मीनान से खुरचती है... उन्होंने यही किया था तुम्हारे साथ। केबिन में बिठाकर हँसते रहे थे वे। उन्होंने तुम्हें जख्मी किया था और तुमसे पूछ रहे थे कि नमक कौन से ब्रांड का 'सूट' करेगा तुम्हारे जख्मों पर। तुम डर गए थे। उन्होंने फैसला मुल्तवी कर दिया था ताकि तुम दुविधा में रहो। तनाव में रहो। उनके रहमो-करम पर रहो।

याद है न बन्नी, तुम मेरे पास आए थे। तमुने मुझे संसार का एक कोना समझ लिया था, जहाँ तुम्हें राहत मिलती थी। अजीब विडंबना है न बन्नी! मैं तुम्हारा संसार नहीं थी, संसार का एक कोना थी- छोटा-सा कोना।

तब हॉल खाली हो चुका था। वक्त शायद साढ़े पांच या फिर छः का था। कुछ कलीग्ज कैरम खेल रहे थे, कुछ ताश में व्यस्त थे। तुम मेरे सामने बैठे थे किसी डरे-डरे बच्चे जैसे उदास-उदास। चुप-चुप, निराश, शिथिल, अवासाद से घिरे... पता नहीं क्या सोचकर, तुमने मेरे हाथ पर अपना माथा टिका दिया था। मैंने अपने हाथ मेज पर रखा हुआ था।
उस वक्त मैं घबरा गई थी। लेकिन तुम बहुत प्यारे भी लगे थे मुझको। मैंने थोड़ा डरते, सकुचाते हुए तुम्हारे सिर पर हाथ रखा था। तुम भावुक हो उठे थे। सिर उठाकर कहा था तुमने, "बहुत अकेला पड़ गया हूं जानकी!"

मैंने तुम्हारे होठों को अपनी उंगली से छूकर कहा था कि बुरा वक्त सबके सामने आता है।

तुमने रुँधे गले से कहा था, "मुझे अपने आपसे चिढ़ होने लगी है।" मेरा मन हुआ था, तुमसे पूछूँ कि चिढ़ किसलिए होने लगी है- गलत काम किया इसलिए या कि गलत काम पकड़ में आ गया इसलिए? लेकिन मैंने कहा कुछ भी नहीं था। क्योंकि यह वक्त तुम्हें कुरेदने का नहीं था। यह वक्त तुम्हे तसल्ली देने का था।

शायद तुम्हें याद हो- अगले दिन हम जामा मस्जिद के पिछवाड़े से एक पुरान रेडिएटर खरीद कर लाए थे। सॉल्वेज में रख दिया था। हिसाब-किताब पूरा चैप्टर क्लोज। मामला रफा-दफा। तुम बच गए थे। तुम खुश थे। तुम्हारी खुशी मेरा सुख था बन्नी। तुम खुश थे। मैं सुखी थी।

मुद्दतों बाद, शाम को हम फिर उसी अतुल ग्रोव रोड पर निकले थे। वह जाड़े की सर्द शाम थी। अंधेरा जल्दी ही इमारतों और दरख्तों पर गिर गया था। सड़क पर दूधिया रोशनी का सैलाब था। लेकिन सड़क सुनसान थी। तुमने मुझे अपने साथ सटा रखा था। उस दिन तुमने बहुत बार मुझे देखा था। तुम्हारी आंखें नम हो जातीं। तुम मुझे प्यार करने लगते। मैं मुस्कुरा देती... ऐसा लग रहा था जैसे हम मुहब्बत की सालगिरह मना रहे हैं।

पता नहीं क्यों, उस दिन मुझे ऐसा लगने लगा कि तुम लौट आए हो मेरे पास। अपने बनवारी लाल को तुम पीछे छोड़कर मेरे बन्नी हो गए हो- मुकम्मल मेरे बन्नी!

हम त्रिवेणी में बैठे रहे थे देर तक। बाहर बैठना हमें अच्छा लगता। यहां फूल-पत्तों-लताओं की छत थी। कुछ पत्ते हमारे पास अठखेलियां कर रहे थे। मैं पत्ता तोड़ती, उस पर लिखती- बन्नी। फिर वही पत्ता तुम्हें देती। तुम देखकर हँस पड़ते। तुमने संजीदा होकर पूछा था, "घर नहीं जाओगी जानकी?"
मैने हंसते हुए कहा था, "घर तो मेरे सामने बैठा है।"
तुम पता नहीं किस बात पर बहुत गंभीर हो गए थे। शायद किस गणित में उलझ गए थे तुम। तुमने इतना कहा था, "पगली हो!"
मैने गहरी सांस ली थी। कहा था, "मेरी तरह जीवन-शैली जीनेवाले या तो पिछड़ जाते हैं या फिर पागल समझ लिए जाते हैं"

बन्नी, मैं पागल तो नहीं हुई, पिछड़ जरूर गई हूँ। लेकिन खुद को नहीं खोया मैंने। अपनी निजता को बचाए रखा है, और तुम? तुमने अपनी मनुष्यता को किसी डस्टबिन में डाला और आगे बढ़ गए...

कंपीटीटिव टेस्ट के लिए भी तुमने चालाकी बरती। मुझ रोक दिया। मैं पेपर देती तो वह कुंठा तुम्हें घेर लेती। तुम नर्वस हो जाते। नतीजा- फेल हो जाते.... तुम सेलेक्ट हो गए, अफसर बन गए। और फिर उसके बाद की यात्रा किसी पैराशूट जैसी रही। तुमने पलटकर नहीं देखा था। टारगेट था तुम्हारा- सर्वश्रेष्ठ होना। और मैं कहीं बहुत पीछे खड़ी, ठगी-सी तुम्हें देखती रही। तम अपने पैरों की गर्द उड़ाते आगे निकल गए, बहुत आगे...।

***
चर्चित कथाकार ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में सामाजिक विडम्बनाओं के विभिन्न मंजर उपस्थित रहते हैं। उनकी कहानियाँ बाज़ारवादी तन्त्र से संचालित होते नये समाज का अक़्श और नक़्श हैं। कहानियों के पात्र बेचैन और चिन्तातुर हैं तो इसलिए कि समाज इतना निस्संग और क्रूर क्यों होता जा रहा है। यही तनाव इन कहानियों में है।... संभवतः इन कहानियों के लेखन के पीछे कहानीकार का यही मक़सद रहा है।

ज्ञानपीठ से प्रकाशित कहानी-संग्रह 'शिकारगाह' के पृष्ठ कवर पर छपी एक टिप्पणी।
क्या यह तुम्हारी क्रूरता नहीं थी कि तुमने अपनी शादी का निमंत्रण-पत्र मुझे दिया था? नहीं, मेरे पैरों की जमीन नहीं खिसकाई थी तुमने। तुमने मुझे साइयनायड भी नहीं दिया था कि मैं मर जाती .. । तुमने ठगा जरूर था मुझे। शादी से पहले क तमाम औपचारिकताएं छुपाएं रखी थी तुमने..। तुम मुझसे मिलते रहे थे। बेशक तुम्हार मिलना भावनाओं से भरे युवक का मिलना नहीं होता था। फिर भी तुम मिलते। तपाक से बातें करते।

तुम प्रशासनिक अधिकारी बन चुके थे। मै वही की वही। एक सामान्य-सी असिस्टेंट! क्लास थ्री। तुममें आत्मविश्वास भरा था। सिगरेट भी तुम कीमती पीने लगे थे। अपने छोटे-से केबिन में जब तुमने अपनी शादी का कार्ड दिया तो मैं हतप्रभ रह गई, जैसे अचानक किसी ने मुझे अंगारों के बीच फेंक दिया हो! जैसे अचानक किसी ने मेरे अंदर की आत्मा निकाल ली हो! जैसे अचानक किसी ने मेरी सोचने की ताकत छीन ली हो।

तुमने कहा था, "प्रगति मैदान.. फुलकारी में डिनर है।" तुमने कहा था, "मैं बहुत खुश हूँ..." तुमने कहा था, "लड़की बहुत सुंदर है।"

बन्नी उस वक्त मैं बहुत कमजोर अकेली और असुरक्षित हो गई थी। तुम्हारे केबिन से कार्ड लेकर उठी थी। पता नहीं क्या हो गया था मुझे। कुल एक मिनट का रस्ता था तुम्हारे केबिन से मेरी सीट तक। लगता था, मैं एक सदी से चल रही हूँ। रिश्तों में सचमुच एक सदी जितनी दूरी आ गई थी। लगता था मैं एक सदी बूढ़ी हो गई हूँ। मैं बैठ नहीं सकी थी। बहुत अस्थिर थी मैं। आधा दिन छुट्टी ली थी मैंने और न जाने क्या सोच कर अतुल ग्रोव रोड पर चली आई थी। मैं अकेली थी। व्यथित थी। बेक़ैफ थी। बेचैन थी। कितनी फालतू, कितनी व्यर्थ थी मैं। मैं सोचती। अवसाद से घिर जाती। काश, तुम मेरे साथ होते। तुम नहीं थे। मेरी आँखें भीगती। मैं आंखे पोंछती। आंसू फिर तैरने लगते।

बनवारी लाल, लोग बताते हैं कि बारातवाले दिन तुम घोड़ी से गिर पड़े थे। तुम्हार मुकुट दूर जा गिरा था .. क्या यह सच है? कुछ लोगों को खूब अच्छा लगा होगा तुम्हारा गिरना। मुझे नहीं लगा था। मैंने तुमसे प्रेम किया है न। मैं तुम्हें गिरता हुआ कैसे देख सकती हूँ?... लोग कहते हैं तुमने पी रखी थी। न भी पी रखी हो। पैसे का भी तो नशा होता है। कई बार बेवजह का भी नशा होता है। शायद उसी ने गिराया हो तुम्हें.....

जब तुम्हें बनवारी लाल कहती हूं तो ऐसा लगता है, जैसे किसी बहुत पुराने, बहुत बूढ़े या लगभग अधेड़ आदमी के बारे में सोच रही हूँ। वक़्त भी तो कितना बह चुका है। वक़्त मेरी-तुम्हारी कितनी-कितनी उम्र चुराकर ले गया। पता नहीं चला। बेशक तुम बूढ़े नहीं हुए, मैं भी नहीं हुई लेकिन तुम्हारे शरीर का भूगोल बेडौल हो गया है... बहुत अरसे बाद देखा है तुम्हें। इस बीच तुम यहाँ से ट्रांसफर हो कर गए। फिर कई सारे दफ्तर, कई सारी जगहें, नए शहर, नयी चालकियां, नई दोस्तियां नए समीकरण..... नए प्रमोशंस......

इतने सालों बाद आज फिर तुम इस दफ्तर में डिवीजनल मैनेजर के रूप में और मैं। वही सीनियर असिस्टेंट। मैं तम्हें देखती हूँ। अतीत का कोई जर्द पत्ता सरसराता हुआ मेरे सामने आ गिरता है। तुमने एक बार हॉल में नजर दौड़ाई है। शायद मुझे भी देखा हो तुमने.... शायद उस सीट को भी देखा हो जहां तुम पहलेपहल बैठे थे।.... मैने तुम्हें देखा था। तुम्हारे चेहरे पर दर्प था, अंहकार था।

बनवारीलाल, यह वही दफ्तर हैं, जहाँ तुमने अपना नाम बताया था मुझे अटकते-अटकते। झिझकते हुए बी ...बी ...बी एल विश्वास! यह वही दफ्तर है जहां एक सिरे पर तुम बैठे होते, दूसरे सिरे पर मैं। मिस्टर बनवारी लाल, बिल्कुल यह वही दफ्तर है जहां तुमने पुराने रेडिएटर की चोरी की थी। जहाँ तुमने मेरी हथेली पर अपना माथा टिकाकर कहा था, "तुम न मिली तो मैं खो जाउंगा जानकी!.... तम्हारा होना मेरी जिंदगी का विश्वास है।"

खैरमकदम बनवारी लाल .. स्वागतम् ... सुस्वागतम्... हार्दिक अभिनंदन! आप फिर इस दफ्तर में आए हैं। मुद्दतों के बाद डिवीजनल मैनेजर बनकर। रुतबा, शोहरत, ओहदा, गुरूर. महत्वाकांक्षाएं, लाइफ स्टाइल बहुत कुछ साथ लाए हैं आप! आदमी के पहुंचने से पहले उसके कारनामे पहुँच जाते हैं। पता है ना आपको... हर मनुष्य अपनी पर्सनालिटी और उसका एटमॉस्फेयर भी साथ लेकर आता है। ठीक कह रही हूँ न!... यहां कुछ भी नहीं बदला, न दीवारें, न फर्नीचर, न माहौल, बदले हैं सिर्फ आप। कितन लैमिनेटेड चेहरा लग रहा है आपका भद्रजन! श्रेष्ठ पुरुष!

***
आपने अपने चैंबर में बुलाया है हम सबको, जिनमें मैं भी शामिल हूँ। कितने सार संस्मरण सुनाए हैं तुमने! तम्हारी याद्दाश्त यानी मेमोरी खूब है बनवारी लाल!

मैं पूछना चाहती हूँ तुमसे- क्या याद है तुम्हें अतुल ग्रोव रोड का एकांत, सुनसान सड़क, हमारा साथ-साथ हाथ पकड़कर चलना। एक विचित्र संसार का निर्माण करना? त्रिवेणी... नत्थू स्वीट्स और स्कूल लेन जहां से हम घूमते हुए फ्लाइओवर पर चढ़ जाते थे। मैं पूछना चाहती हूँ, क्या याद है वो दिन, जिस दिन मैंने दिवाकर को थप्पड़ मार दिया था? वो तुम पर लगातार जेमक्लिप फेंक रहा था। तुमने सहन कर लिया था? पर मुझे सहन नहीं हुआ था।

तुम्हारा अपमान मुझसे कभी सहन नहीं हुआ मिस्टर बनवारी लाल!

तुम्हारे चैंबर से सभी लोग बाहर चले गए थे। उनके साथ मैं भी उठ खड़ी हुई थी। तुमने मुझे बैठने का संकेत किया था। मैं बैठ गई थी। सोचने लगी थी कि शायद तुम अतीत की कोई बात करो। लेकिन तुमने परेशान करने वाला सवाल पूछा था, "मिस या मिसेज?"

यह प्रश्न मुझे अच्छा नहीं लगा था। इस प्रश्न में जो संकेत निहित थे उन्हें मैं पहचान रही थी। मैं चुप बैठी रही। तुम बेहद चालाक और शातिर दिमाग रखते थे। तुमने मेरी चुप के अर्थ जान लिए थे। तुम मन ही मन खुश हुए थे। शायद तुम यही चाहते थे। जानकी नाम का खिलौना अब भी तुम्हारा लिए रखा हुआ था- महफूज, सुरक्षित।

तुम मुस्कराए थे। तुम्हारा मुस्कुराना मुझे अच्छा नहीं लगा था। कुटिलता थी उसमें। तुमने अपनी नजर मेरे वक्ष पर टिका दी थी। इस बीच तुमने एक बार फोन अटेंड किया था। फोन रखा। नजर फिर वहीं। मुझे संकोच हुआ था, तुम्हें नहीं। तुम मुझे देखते रहे। तुम्हारे अंदर कोई जंगली पशु था, जो जाग गया था। तुम इस तरह तो नहीं देखा करते थे मुझे। अक्सर नजरें झुका लेते। मुझे अच्छा लगता। लेकिन आज... तुम ऐसे देख रहे थे जैसे कि मैं सिर्फ एक 'देह' हूँ।

मैं कहना चाहती थी, "शिखर-पुरुष, ऐसे मत देखो" कहा नहीं था मैने कुछ भी।

लेकिन तुम अपनी गलाजात छिपा नहीं पाए थे। कहा था तुमने, "पहले की तरह स्मार्ट हो ..." और कहकर चुप हो गए थे तुम। मुस्कुराए थे। मैं तुम्हारे वाक्य पर अटकी थी। तुमने मुस्कुराते हुए कहा था- "स्मार्ट हो और सेक्सी भी।"

मैं कांप गई थी। लगा कि मेरे शरीर में कोई विस्फोट हुआ है। फट पड़ी हूँ मैं। तुम ... तुम ऐसी बात कह रहे थे। तुम्हारे शब्दकोश में ऐसे शब्द नहीं हुआ करते थे। क्या मेरा और कोई रूप नहीं था शिखर-पुरुष? तुमने एक बार सिर्फ एक बार, मेरे भीतर की स्त्री से साक्षात्कार किया होता... शिखर -पुरुष! कैसी विडंबना है, तुमने अपनी जेहनियत का एक्स-रे निकालकर मुझे दे दिया था। मुझे ऐसे लगा था कि बड़ी-सी मेज के उस पर बहुत छोटा आदमी बैठा है।

मैंने अपना ट्रांसफर करवा लिया है शिखर पुरुष! मैं तुम्हारे विकास से नहीं, पतन से घबरा गई हूँ। इस दफ्तर का साम्राज्य मुबारक हो बनवारी लाल।

और मैं . मैं अब भी त्रिवेणी में अकेली बैठी, किसी लटकती बेल के हरे पत्ते को तोड़ूँगी। कुछ याद करूँगी। फिर अपने नाखून से एक नाम लिखूंगी- बन्नी।

Monday, May 11, 2009

उस धूसर सन्नाटे में- धीरेन्द्र अस्थाना

हिन्द-युग्म की लगातार यही कोशिश है कि इंटरनेटीय पाठकों को मुख्यधारा के ख्यातिलब्ध कहानीकारों की कहानियों से भी रूबरू कराया जाय। धीरेन्द्र अस्थाना हिन्दी कहानी का एक स्थापित नाम है। आज हम उन्हीं की एक कहानी 'उस धूसर सन्नाटे में' आपकी नज़र कर रहे हैं।


उस धूसर सन्नाटे में


फोन करने वाले ने जब आर्द्र स्वर में सूचना दी कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह थोड़ी देर पहले गुजर गए तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ।

उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था, जब आसमान पर मटमैले बादल छाए हुए थे और सड़कों पर धूल भरी आंधी मचल रही थी। अखबारों में मौसम की भविष्यवाणी सुबह ही की जा चुकी थी। अफवाह थी कि लोकल ट्रेनें बन्द होने वाली हैं। गोराई की खाड़ी के आसपास मूसलाधार बारिश के भी समाचार थे। कोलाबा हालांकि अभी शांत था लेकिन आजाद मैदान धूल के बवंडरों के बीच सूखे पत्ते सा खड़खड़ा रहा था।

यह रात के ग्यारह बजे का समय था। क्लब में उदासीनता और थकान एक साथ तारी हो चुकी थीं। लास्ट ड्रिंक की घंटी साढ़े दस बजे बज गई थी-नियमानुसार, हालांकि आज उसकी जरूरत नहीं थी। क्लब की चहल-पहल के सामने, ऐन उसकी छाती पर, मौसम उस रात शायद पहली बार प्रेत-बाधा सा बन कर अड़ गया था। इसलिए क्लब शुरू से ही वीरान और बेरौनक नजर आ रहा था।

उस दिन बंबई के दफ्तर शाम से पहले ही सूने हो गए थे। हर कोई लोकल के बंद हो जाने से पहले ही अपने घर के भीतर पहुंच कर सुरक्षित हो जाने की हड़बड़ी में था। भारी बारिश और लोकल जाम-यह बंबईवासियों की आदिम दहशत का सर्वाधिक असुरक्षित और भयाक्रांत कोना था, जिसमें एक पल भी ठहरना चाकुओं के बीच उतर जाने जैसा था।

और ऐसे मौसम में भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह शाम सात बजे ही क्लब चले गए थे। क्लब उनके जीवन में धमनियों की तरह था-सतत जाग्रत, सतत सक्रिय। क्लब के वेटर बताते थे कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह पश्चिम रेलवे के ट्रेक पर बने बंबई के सबसे अंतिम स्टेशन दहिसर में बने अपने दो कमरों वाले फ्लैट से निकल कर इतवार की शाम को भी आजाद मैदान के पास बने इस क्लब में चले आते थे। सो, उस शाम विपरीत मौसम के बावजूद, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब में जिद की तरह मौजूद थे।

करीब ग्यारह बजे उन्होंने खिड़की का पर्दा सरकाकर आजाद मैदान के आसमान की तरफ ताका था। नहीं, उस ताकने में कोई दुश्चिंता नहीं छिपी थी। वह ताकना लगभग उसी तरह का था जैसे कोई काम न होने पर हम अपनी उंगलियां चटकाने लगते हैं लेकिन सुखी इस तरह हो जाते हैं जैसे बहुत देर से छूटा हुआ कोई काम निपटा लिया गया हो।
आसमान पर एक धूसर किस्म का सन्नाटा पसरा हुआ था और आजाद मैदान निपट खाली था-वर्षों से उजाड़ पड़ी किसी हवेली के अराजक और रहस्यमय कंपाउंड सा। विषाद जैसा कुछ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की आंखों में उतरा और उन्होंने हाथ में पकड़े गिलास से रम का एक छोटा घूंट भरा फिर वह उसी गिलास में एक लार्ज पैग और डलवा कर टीवी के सामने आ बैठ गए-रात ग्यारह के अंतिम समाचार सुनने।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्लब के नियमों से ऊपर थे। उन्हें साढ़े दस बजे के बाद भी शराब मिल जाती थी, चुपके चुपके, फिर आज तो क्लब वैसे भी सिर्फ उन्हीं से गुलजार था। छह वेटर और ग्राहक दो, एक ब्रजेंद्र बहादुर सिंह और दूसरा मैं।

मैं दफ्तर में उनका सहयोगी था और उनके फ्लैट से एक स्टेशन पहले बोरीवली में किराए के एक कमरे में रहता था। उतरते वह भी बोरीवली में ही थे और वहां से ऑटो पकड़कर अपने फ्लैट तक चले जाते थे। मैं उनका दोस्त तो था ही, एक सुविधा भी था। सुबह ग्यारह बजे से रात ग्यारह, बारह और कभी कभी एक बजे तक उनके संग-साथ और निर्भरता की सुविधा। हां, निर्भरता भी क्योंकि कभी-कभी जब वह बांद्रा आने तक ही सो जाते थे तो मैं ही उन्हें बोरीवली में जगा कर दहिसर के ऑटो में बिठाया करता था। मेरे परिचितों में जहां बाकी लोग नशा चढ़ने पर गाली-गलौज करने लगते थे या वेटरों से उलझ पड़ते थे वहीं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चुपचाप सो जाते थे। कई बार वह क्लब में ही सो जाते थे और जगाने पर ‘लास्ट फॉर द रोड‘ बोल कर एक पैग और मंगा कर पी लेते थे। कई बार तो मैंने यह भी पाया था कि अगर वह लास्ट पैग मांगना भूल कर लड़खड़ाते से चल पड़ते थे, तो क्लब के बाहरी गेट की सीढ़ियों पर कोई वेटर भूली हुई मोहब्बत सा प्रकट हो जाता था-हाथ में उनका लास्ट पैग लिए।

ऐसे क्षणों में ब्रजेंद्र सिंह भावुक हो जाते थे, बोलते वह बहुत कम थे, धन्यवाद भी नहीं देते थे। सिर्फ कृतज्ञ हो उठते थे। उनके प्रति वेटरों के इस लगाव को देख बहुत से लोग खफा रहते थे। लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता था कि क्लब के हर वेटर के घर में उनके द्वारा दिया गया कोई न कोई उपहार अवश्य मौजूद था-बॉलपेन से लेकर कर कमीज तक और पेंट से लेकर घड़ी तक।

नहीं, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह रईस नहीं थे। जिस कंपनी में वह परचेज ऑफीसर थे, वहां उपहारों का आना मामूली बात थी। यही उपहार वह अपने शुभचिंतकों को बांट देते थे। फिर वह शुभचिंतक चाहे क्लब का वेटर हो या उस बिल्डिंग का दरबान, जिसमें उनका छोटा सा, दो कमरों वाला फ्लैट था। फिलीपींस में असेंबल हुई एक कीमती रिस्टवाच उस वक्त मेरी कलाई में भी दमक रही थी जब ब्रजेंद्र बहादुर सिंह आजाद मैदान के आसमान में रंगे उस सन्नाटे से टकरा कर टीवी के सामने आ बैठ गए थे-अंतिम समाचार सुनने।

कुछ अरसा पहले एक गिफ्ट मेकर उन्हें यह घड़ी दे गया था। जिस क्षण वह खूबसूरत रैपर को उतारकर उस घड़ी को उलट-पुलट रहे थे, ठीक उसी क्षण मेरी नजर उनकी तरफ चली गई थी। मुझसे आंख मिलते ही वह तपाक से बोले थे-‘तुम ले लो। मेरे पास तो है।‘

यह दया नहीं थी। यह उनकी आदत थी। उनका कहना था कि ऐसा करके वह अपने बचपन के बुरे दिनों से बदला लेते हैं। सिर्फ उपहार में प्राप्त वस्तुओं के माध्यम से ही नहीं, अपनी गाढ़ी कमाई से अर्जित धन को भी वह इसी तरह नष्ट करते थे। एक सीमित, बंधी तन्ख्वाह के बावजूद टैक्सी और आॅटो में चलने के पीछे भी उनका यही तर्क काम कर रहा होता था।

सुनते हैं कि अपने बचपन में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपने घर से अपने स्कूल की सात किलोमीटर की दूरी पैदल नापा करते थे क्योंकि तब उनके पास बस का किराया दो आना नहीं होता था।

टीवी के सामने बैठे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह अपना लास्ट पैग ले रहे थे और मैं टॉयलेट गया हुआ था। लौटा तो क्लब का मरघटी सन्नाटा एक अविश्वसनीय शोरगुल और अचरज के बीच खड़ा कांप रहा था, पता चला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने अपने सबसे चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।

जिंदगी के निचले पायदानों पर लटके-अटके हुए लोग, क्रांति की भाषा में उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। अगर प्रतिक्रिया स्वरूप सारे वेटर एक हो जाएं और उस सुनसान रात में एक चांटा भी ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को जड़ दें तो उसकी आवाज पूरे शहर में कोलाहल की तरह गूंज सकती थी और मीमो बन कर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के बेदाग कैरियर में पैबंद की तरह चिपक सकती थी।

ऐसा कैसे संभव है? मैं पूरी तरह बौराया हुआ था और अविश्वसनीय नजरों से उन्हें घूर रहा था। अब तक अपना चेहरा उन्होंने अपने दोनों हाथो में छुपा लिया था।

क्या हुआ? मैंने उन्हें छुआ। यह मेरा एक सहमा हुआ सा प्रयत्न था। लेकिन वह उलझी हुई गांठ की तरह खुल गए।
उस निर्जन और तूफानी रात के नशीले एकांत में मैंने देखा अपने जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार। वह चमत्कार था या रहस्य। रहस्य था या दर्द। वह जो भी था इतना निष्पाप और सघन था कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के अधेड़ और अनुभवी चेहरे पर दो गोल, पारदर्शी आंसू ठहरे हुए थे और उनकी गहरी, भूरी आंखें इस तरह निस्संग थीं, मानों आंसू लुढ़का कर निर्वाण पा चुकी हों। दोनों घुटनों पर अपने दोनों हाथों का बोझ डाल कर वह उठे। जेब से क्लब का सदस्यता कार्ड निकाला। उसके चार टुकड़े कर हवा में उछाले और कहीं दूर किसी चट्टान से टकरा कर क्षत-विक्षत हो चुकी भर्राई आवाज में बोले -‘चलो, अब हम यहां कभी नहीं आएंगे।‘
‘लेकिन हुआ क्या? मैं उनके पीछे-पीछे हैरान-परेशान स्थिति में लगभग घिसटता सा क्लब की सीढ़ियों पर पहुंचा।

बाहर बारिश होने लगी थी। वह उसी बारिश में भीगते हुए स्थिर कदमों से क्लब का कंपाउड पार कर मुख्य दरवाजे पर आ खड़े हुए थे। अब बाहर धूल के बवंडर नहीं, लगातार बरसती बारिश थी और ब्रजेंद्र सिंह उस बारिश में किसी प्रतिमा की तरह निर्विकार खड़े थे। निर्विकार और अविचलित। यह रात का ग्यारह बीस का समय था और सड़क पर एक भी टैक्सी उपलब्ध नहीं थी। मुख्य द्वार के कोने पर स्थित पान वाले की गुमटी भी बन्द थी और बारिश धारासार हो चली थी।
‘मुझे भी नहीं बताएंगे?‘ मैंने उत्सुक लेकिन भर्राई आवाज में पूछा। बारिश की सीधी मार से बचने के लिए मैंने अपने हाथ में पकड़ी प्लास्टिक की फाइल को सिर पर तान लिया था और उनकी बगल में आ गया था, जहां दुख का अंधेरा बहुत गाढ़ा और चिपचिपा हो चला था।
‘वो साला हनीफ बोलता है कि सुदर्शन सक्सेना मर गया तो क्या हुआ? रोज कोई न कोई मरता है। सुदर्शन ‘कोई‘ था?‘
ब्रजेद्र बहादुर सिंह अभी तक थरथरा रहे थे। उनकी आंखें भी बह रही थीं-पता नहीं वे आंसू थे या बारिश?
‘क्या?‘ मैं लगभग चिल्लाया था शायद, क्योंकि ठीक उसी क्षण सड़क से गुजरती एक टैक्सी ने च्चीं च्चीं कर ब्रेक लगाए थे और पल भर को हमें देख आगे रपट गई थी।
‘सुदर्शन मर गया? कब?‘ मैंने उन्हें लगभग झिंझोड़ दिया।
‘अभी, अभी समाचारों में एक क्षण की खबर आई थी-प्रख्यात कहानीकार सुदर्शन सक्सेना का नई दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद देहांत।‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह समाचार पढ़ने की तरह बुदबुदा रहे थे, ‘तुम देखना, कल के किसी अखबार में यह खबर नहीं छपेगी। उनमें बलात्कार छप सकता है, मंत्री का जुकाम छप सकता है, किसी जोकर कवि के अभिनंदन समारोह का चित्र छप सकता है लेकिन सुदर्शन सक्सेना का निधन नहीं छप सकता। छपेगा भी तो तीन लाइन में... मानों सड़क पर पड़ा कोई भिखारी मर गया हो,‘ ब्रजेंद्र बहादुर सिंह क्रमशः उत्तेजित होते जा रहे थे। आज शराब का अंतिम पैग उनकी आंखों में नींद के बजाय गुस्सा उपस्थित किए दे रहा था। लेकिन यह गुस्सा बहुत ही कातर और नख-दंत विहीन था, जिसे बंबई के उस उजाड़ मौसम ने और भी अधिक अकेला और बेचारा कर दिया था।
‘और वो हनीफ...‘ सहसा उनकी आवाज बहुत आहत हो गई, ‘तुम टॉयलेट में थे, जब समाचार आया। हनीफ सोडा रखने आया था... तुम जानते ही हो कि मैंने कितना कुछ किया है हनीफ के लिए... पहली तारीख को सेलरी लेकर यहां आया था जब हनीफ ने बताया था कि उसकी बीवी अस्पताल में मौत से जूझ रही है...पूरे पांच सौ रुपए दे दिए थे मैंने जो आज तक वापस नहीं मांगे... और उसी हनीफ से जब मैंने अपना सदमा शेयर करना चाहा तो बोलता है आप शराब पियो, रोज कोई न कोई मरता है... गिरीश के केस में भी यही हुआ था। दिल्ली से खत आया था विकास का कि गिरीश की अंत्येष्टि में उस समेत हिंदी के कुल तीन लेखक थे। केवल ‘वर्तमान‘ ने उसकी मौत पर आधे पन्ने का लेख कंपोज करवाया था लेकिन साला वह भी नहीं छप पाया था क्योंकि ऐन वक्त पर ठीक उसी जगह के लिए लक्स साबुन का विज्ञापन आ गया था... यू नो, हम कहां जा रहे हैं?‘

सहसा मैं घबरा गया, क्योंकि अधेड़ उम्र का वह अनुभवी, परचेज ऑफीसर, क्लब का नियमित ग्राहक, बुलंद ठहाकों से माहौल को जीवंत रखने वाला ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बाकायदा सिसकने लगा था।

हमें सिर से पांव तक पूरी तरह तरबतर कर देने के बाद बारिश थम गई थी, और ब्रजेंद्र बहादुर सिंह को शायद एक लंबी, गरम नींद की जरूरत थी। ऐसी नींद, जिसमें वह मनहूस हाहाकार न हो जिसके बीच इस समय ब्रजेंद्र बहादुर सिंह घायल हिरनी की तरह तड़प रहे थे।

तभी एक अजाने वरदान की तरह सामने एक टैक्सी आकर रुकी और टैक्सी चालक ने किसी देवदूत की तरह चर्चगेट ले चलना भी मंजूर कर लिया। हम टैक्सी में लद गए।

बारिश फिर होने लगी थी। ब्रजेंद्र बहादुर सिंह टैक्सी की सीट से सिर टिका कर सो गए थे। उनके थके-थके आहत चेहरे पर एक साबुत वेदना अपने पंख फैला रही थी।
×××

फिर करीब छह महीने तक उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। वह दफ्तर से लंबी छुट्टी पर थे। तीन चार बार मैं अलग-अलग समय पर उनके फ्लैट में गया लेकिन हर बार वहां ताला लटकता पाया।

इस बीच देश और दुनिया, समाज और राजनीति, अपराध और संस्कृति के बीच काफी कुछ हुआ। छोटी बच्चियों से बलात्कार हुए, निरपराधों की हत्याएं हुईं, कुछ नामी गंुडे गिरफ्तार हुए, कुछ छूट गए, टैक्सी और आॅटो के किराए बढ़ गए। घर-घर में स्टार, जी और एमटीवी आ गए। पूजा बेदी कंडोम बेचने लगी और पूजा भट्ट बीयर। फिल्मों में लव स्टोरी की जगह गैंगवार ने ले ली। कुछ पत्रिकाएं बंद हो गईं और कुछ नए शराबघर खुल गए। और हां, इसी बीच कलकत्ता में एक, दिल्ली में दो, बंबई में तीन और पटना में एक लेखक का कैंसर, हार्टफेल, किडनी फेल्योर या ब्रेन ट्यूमर से देहांत हो गया! गाजियाबाद में एक लेखक को गोली मार दी गई और मुरादाबाद में एक कवि ने आत्महत्या कर ली।

ऐसी हर सूचना पर मुझे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह बेतरह याद आए। लेकिन वह पता नहीं कहां गायब हो गए थे। क्लब उनके बिना सूली पर चढ़े ईसा सा नजर आता था!

फिर तीन महीने बाद अप्रैल की एक सुबह ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दफ्तर में अपनी सीट पर बैठे नजर आए। दफ्तर के हाॅल में घुसने पर जैसे ही मेरी नजर उनकी सीट पर पड़ी और वे उस पर बैठे दिखाई दिए तो अचरज और खुशी के आधिक्य से मेरा तन मन लरज उठा। मैं तो इस बीच उनको लगभग खो देने की पीड़ा के हवाले हो चुका था। लेकिन वह थे, साक्षात।

‘बैठो!‘ मुझे अपने सामने पा कर उन्होंने अत्यंत संयत और सधे हुए लहजे में कहा। वे किसी फाइल में नत्थी ढेर सारे कागजों पर दस्तखत करने में तल्लीन थे और मेरी उत्सुकता थी कि पसीने की मानिंद गर्दन से फिसल कर रीढ़ के सबसे अंतिम बिंदु पर पहुंच रही थी। मैं चुपचाप, अपनी उत्सुकता में बर्फ सा गलता हुआ अपने उस चहेते, अधेड़ दोस्त को अनुभव कर रहा था जो नौ महीने पहले बंबई की एक मनहूस, बरसाती रात में मुझसे बिछुड़ गया था और आज, अचानक, बिना पूर्व सूचना के अपनी उस चिर परिचित सीट पर आ बैठा था जो इन नौ महीनों में निरंतर घटती अनेक घटनाओं के बावजूद एक जिद्दी प्रतीक्षा में थिर थी।

ब्रजेंद्र बहादुर सिंह दुबले हो गए थे। उनकी आंखों के नीचे स्याह थैलियां सी लटक आई थीं। कनपटियों पर के मेंहदी से भूरे बने बाल झक्क सफेद थे। आंखों पर नजर का चश्मा था जिसे वह रह-रह कर सीधे हाथ की पहली उंगली से ऊपर सरकाते थे। और हां, दस्तखत करने के दौरान या बीच बीच में पानी का गिलास उठाते समय उनके हाथ कांपते थे। उनकी आंखों में एक शाश्वत किस्म की ऐसी निस्संगता थी जो जीवन के कठिनतम यथार्थ के बीच आकार ग्रहण करती है। नौ महीने बाद लौटे अपने उस पुराने मित्र को इन नई स्थितियों और अजाने रहस्यों सहित झेलने का माद्दा मेरे भीतर बहुत देर तक टिका नहीं रह सका। फिर, मुझे भी अपनी सीट पर जाकर अपने कामकाज देखने थे।
‘मिलते हैं।‘ कह कर मैंने उनके सामने से उठने की कोशिश की तो वे एक अत्यंत तटस्थ सी ‘अच्छा‘ थमा कर फिर से फाइल के बीच गुम हो गए।

मैं अवाक रह गया। उत्सुकता को कब का पाला मार चुका था। फिर सारे दिन दर्द की ऐंठन से घबरा कर जब-जब मैंने उनकी सीट की तरफ ताका, वह किसी फंतासी की तरह यथार्थ के बीचोंबीच झूलते से मिले।
छत्तीस साल गुजारे थे मैंने इस दुनिया में। उन छत्तीस वर्षों के अपने बेहद मौलिक किस्म के दुख-दर्द, हर्ष-विषाद, अपमान और सुख थे मेरे खाते में। नाते-रिश्तेदारों और एकदम करीबी मित्रों के छल-कपट भी थे। प्यार की गर्मी और ताकत थी तथा बेवफाई के संगदिल और अनगढ़ टुकड़े भी थे। नशीली रातें, बीमार दिन, सूनी दुपहरियां, अश्लील नीली फिल्में और धूल चाटता उत्साह-क्या कुछ तो दर्ज नहीं हुआ था इन छत्तीस सालों में लेकिन इन छत्तीस कठिन और लंबे वर्षों में मैं एक पल के लिए भी उतना आंतकित और उदास नहीं हुआ था जितना इस एक छोटे से लम्हे में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की वीतरागी उपस्थिति ने मुझे बना डाला था। क्या वह दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से बाहर चले गए हैं? दुनिया देख लेना और दुनिया से बाहर चले जाना क्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं या इनका कोई अलग अलग मतलब है? नौ महीने बाद वापस लौटे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह के पास ऐसे कौन से रहस्य हैं जिन्होंने उन्हें इतना रूक्ष और ठंडा बना दिया है? मां के गर्भ में नौ महीने बिताने वाला शिशु भी क्या कुछ ऐसे रहस्यों के बीच विचरण करता है जो आज तक अनावृत नहीं हुए। आखिर किस गर्भ में नौ महीने बिता कर लौटे हैं ब्रजेंद्र बहादुर सिंह।

पूरा एक दिन मेरा सवालों के साथ लड़ते-झगड़ते बीत गया। दो सेरीडॉन सटकने के बावजूद दर्द माथे पर जोंक सा चिपटा हुआ था और उधर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह की सदा-बहार-खुशगवार सीट पर जैसे एक दर्जन मुर्दों का मातम कोहरे सा बरस रहा था।

आखिर वह उठे। शाम के सात बजे। दफ्तर साढ़े पांच बजे खाली हो चुका था। अब तीन लोग थे-मैं, वे और चपरासी दीनदयाल। मैं रूठा सा बैठा रहा, उनके उठने के बावजूद। वे धीरे-धीरे चलते हुए मेरी सीट तक आए। मैंने उन्हें देखा, उन्होंने मुझे। उनकी आंखों में रोशनी नहीं, राख थी। मैं पल भर के लिए सिहर गया।

‘उठो दोस्त!‘ वे बोले, उनकी आवाज कई सदियों को पार कर आती सी लग रही थी। मैंने देखा, वह ठीक से खड़े नहीं हो पा रहे थे। कभी दाएं झूल जाते थे, कभी बाएं, मानों किसी बांस पर कोई कुर्ता हवा में अकेला टंगा हो।
×××

बिना वार्तालाप का तीसरा पैग चल रहा था और मैं भावुकता के कगार पर आ पहुंचा था। हम उनके दहिसर वाले फ्लैट में थे- नौ महीने के स्पर्श और संवादहीन अंतराल के बाद। कमरे में रौशन तीन मोमबत्तियों की लौ एक नंबर पर चलते पंखे की हल्की हल्की हवा के बीच पीलिया के मरीज सी कांप रही थीं। फ्लैट में घुसते ही उन्होंने बता दिया था कि अब उन्हें अपनी रातें कम से कम रोशनी के बीच ही सुखकर लगती हैं और पूरा अंधेरा तो उन्हें बुखार में बर्फ की पट्टी सा अनुभव होता है। चीजों, रहस्यों और सत्यों को अंधेरे में टटोल टटोलकर पाने का सुख ही कुछ और है।
आखिर एक घंटे की मुसलसल खामोशी के सामने मेरा धैर्य तड़क गया। शब्दों में तरलता उंडेलते हुए मैंने धीमे धीमे कहन शुरू किया, ‘आपको मालूम है, आपके सबसे प्रिय नौजवान कवि ने कुछ समय पहले पंखे से लटक कर जान दे दी।‘
‘हां, यह समाचार मैंने दार्जिलिंग में पढ़ा था।‘ उन्होंने आहिस्ता से कहा और चुप हो गए।
मैं चकित रह गया। यह वे ब्रजेंद्र बहादुर सिंह नहीं थे जिन्होंने नौ महीने पहले क्लब में अपने चहेते वेटर हनीफ को चांटा मार दिया था।
‘और... और आपके बचपन के दोस्त, हम प्याला-हम निवाला शायर विलास देशमुख भी जाते रहे...‘ एक सच्चे दुख के ताप के बीच खड़ा मैं पिघल रहा था... ‘बहुत कारुणिक अंत हुआ उनका। घटिया से अस्पताल में बिना इलाज के मर गए... यहां की हिंदी और उर्दू अकादमियों ने कुछ नहीं किया। वे अंत समय तक यही तय नहीं कर पाईं कि एक महाराष्ट्रियन व्यक्ति को उर्दू का शायर माना जाए या हिन्दी का गजलगो।‘ मैंने क्षुब्ध स्वर में उन्हें जानकारी देनी चाही।
ब्रजेंद्र बहादुर सिंह ने गहरी खामोशी के साथ अपने गिलास से रम का एक बड़ा घूंट भरा और बिना किसी उतार चढ़ाव के पहले जैसी शांत-स्थिर आवाज में बोले -‘हां, उन दिनों मैं देहरादून में था अपनी एक दूर की भतीजी के पास, मुझे कोई अजीब सी स्किन प्रॉब्लम हो गई थी। चालीस दिन तक लगातार सहस्रधारा के गंधक वाले सोते में नहाता रहा। इस विवाद के बारे में मैंने अखबारों में पढ़ा था।‘
अखबार... समाचार... खबर... हर मृत्यु पर वे क्लब के वेटर हनीफ की तरह बोल रहे थे-क्रूरता की हद तक पहुंची निस्संगता के शिखर पर खड़े हो कर। नहीं, वे मेरे दोस्त ब्रजेंद्र सिंह तो कतई-कतई नहीं थे। मेरे उस दोस्त की काया में कोई संवेदनहीन, निर्लज्ज और पथरीला दैत्य प्रवेश पा चुका था।
चैथा पैग खत्म करते करते मेरा जी उचट गया। एक क्षण भी वहां बैठना भारी पड़ने लगा मुझे। मुंह का स्वाद कैसला हो गया था और शब्द मन के भीतर पारे की तरह थरथराने लगे थे।
और फिर मैं उठा। लड़खड़ाते कदमों से बिजली के स्विच बोर्ड के पास जाकर मैंने सारे बटन दबा दिए। कमरा कई तरह के बल्बों और ट्यूबलाइट की मिली-जुली रोशनी में नहाता हुआ विचित्र सी स्थित में तन गया। साथ ही तन गईं, अब तक किसी संत की तरह बैठे ब्रजेंद्र सिंह के माथे की नसें।
‘ऑफ... लाइट ऑफ!‘ वे दहाड़ पड़े। यह दहाड़ इतनी भयंकर थी कि डर के मारे मैंने फौरन ही कमरे को फिर अंधेरे के हवाले कर दिया।
‘सर, ब्रजेंद्र बहादुर सिंह, आप तो ऐसे नहीं थे?‘ मैंने आहत होकर कहा था और स्विच बोर्ड वाली दीवार से टिक कर जमीन पर पसर गया था, ‘जीवन की उस करुणा को कहाँ फेंक आए आप जो...‘
‘यंग मैन!‘ मोमबत्तियों के उस अपाहिज उजाले में ब्रजेंद्र बहादुर सिंह का भर्राया और गीला स्वर गूंजा-‘किस करुणा की बात कर रहे हो तुम, करुणा की जरूरत किसे है आज? नौ महीने इस शहर में नहीं था मैं... क्या मेरे बिना इस दुनिया का काम नहीं चला?‘
‘वो तो ठीक है सर...‘ अब तक मेरा स्वर भी आर्द्र हो चुका था।
‘कुछ ठीक नहीं है यंगमैन।‘ उनकी थकी-थकी आवाज उभरी, ‘तुम जानते हो कि मेरा अपना कोई परिवार नहीं है। क्लब में घटी उस घटना के बाद मैं अपनी सारी जमा पूंजी लेकर यात्रा पर निकल गया था। इस उम्मीद में कि शायद कहीं कोई उम्मीद नजर आए लेकिन गलत... एकदम गलत... मेरे प्यारे नौजवान दोस्त! संवेदनशील लोगों की जरूरत किसी को नहीं है और कहीं नहीं है। मुझे समझ में आ गया है कि उस रात हनीफ ने कितने बड़े सच को मेरे सामने खड़ा किया था। रोज कोई न कोई मरता है... क्या फर्क पड़ता है कि किसी कवि ने आत्महत्या की या कोई कारीगर रेल से कटा। कवि का मरना अब कोई घटना नहीं है। वह भी सिर्फ एक खबर है।‘
‘तो?‘ मैंने तनिक व्यंग्य के साथ प्रश्न किया।
‘तो कुछ नहीं। फिनिश। इसके बाद भी कुछ बचता है क्या?‘ वे मुझसे ही पूछने लगे थे। फिर से वही मुर्दा राख उनकी आंखों में उड़ने लगी थी, जिससे मैं डरा हुआ था।
यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। नशे में थरथराती उस दार्शनिक सी लगती रात के दो महीने बाद तक वह फिर दफ्तर नहीं आए थे। कुछ व्यस्तता के कारण और कुछ उनको बर्दाश्त न कर पाने की कमजोरी के कारण मैं स्वयं भी उनकी तरफ नहीं जा सका था।
और अब यह सूचना कि ब्रजेंद्र बहादुर सिंह चल बसे। मैंने बताया न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि उनका मरना तो उसी रात तय हो गया था जब आजाद मैदान के आसमान पर वह धूसर सन्नाटा पसरा हुआ था। जिस रात उन्होंने क्लब के वेटर हनीफ के गाल पर चांटा मारा था। उसी रात जब रात के अंतिम समाचारों की अंतिम पंक्ति में दूरदर्शन वालों ने सुदर्शन सक्सेना के देहांत की खबर दी थी और सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह निपट अकेले थे।
नहीं, सर ब्रजेंद्र बहादुर सिंह लेखक या कवि या कलाकार नहीं थे। वह तो एक व्यावसायिक कम्पनी में परचेज ऑफीसर थे।
लेकिन उनका दुर्भाग्य कि वह उन किताबों के साथ बड़े हुए थे जिनकी अब इस दुनिया में कोई जरूरत नहीं रही।

(रचनाकाल: दिसंबर 1992)



धीरेन्द्र अस्थाना
  • जन्म : 25 दिसंबर 1956, उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में।

  • शिक्षा : मेरठ, मुजफ्फरनगर, आगरा, और अंतत: देहरादून से ग्रेजुएट।

  • विवाह : 13 जून 1978 को देहरादून में ललिता बिष्ट से प्रेम विवाह के बाद दिल्ली आगमन। हिंदी के सबसे बड़े पुस्तक प्रकाशन संस्थान राजकमल प्रकाशन से रोजगार का आरंभ। तीन वर्ष यहां काम करने के बाद लगभग नौ महीने राधा प्रकाशन में भी काम।

  • पत्रकारिता : सन् 1981 के अंतिम दिनों में टाइम्स समूह की साप्ताहिक राजनैतिक पत्रिका 'दिनमान' में बतौर उप संपादक प्रवेश। पांच वर्ष बाद हिंदी के पहले साप्ताहिक अखबार 'चौथी दुनिया' में मुख्य उप संपादक यानी सन् 1986 में। सन् 1990 में दिल्ली में बना-बनाया घर छोड़कर सपरिवार मुंबई गमन। एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' में फीचर संपादक नियुक्त। मुंबई शहर की पहली नगर पत्रिका 'सबरंग' का पूरे दस वर्षों तक संपादन। सन् 2001 में फिर दिल्ली लौटे। इस बार 'जागरण' समूह की पत्रिकाओं 'उदय' और 'सखी' का संपादन करने। सन् 2003 में फिर मुंबई। सहारा इंडिया परिवार के हिंदी साप्ताहिक 'सहारा समय' के एसोसिएट एडीटर बन कर। फिलहाल 'राष्ट्रीय सहारा' हिंदी दैनिक के मुंबई ब्यूरो प्रमुख।

  • कृतियां : लोग हाशिए पर, आदमी खोर, मुहिम, विचित्र देश की प्रेमकथा, जो मारे जाएंगे, उस रात की गंध, खुल जा सिमसिम, नींद के बाहर (कहानी संग्रह)
    समय एक शब्द भर नहीं है, हलाहल, गुजर क्यों नहीं जाता, देश निकाला (उपन्यास)।
    'रूबरू', अंतर्यात्रा (साक्षात्कार)।

  • पहली कहानी 'लोग हाशिए पर' सन् 1974 में छपी जब उम्र केवल 18 वर्ष की थी। नवीनतम रचना 'देश निकाला' सन् 2008 में छपी जब उम्र 52 वर्ष की है। धीरे-धीरे लेकिन रचनात्मक स्तर पर निरंतर सक्रिय। पत्रकारिता के दैनिक तकाजों, तनावों और दबावों के बावजूद। प्रत्येक कहानी का छपना, छपे हुए शब्दों की दुनिया में, एक घटना बन जाता है। कोई भी रचना इसी लिए 'अन नोटिस्ड' नहीं जाती।

    फिलहाल फिल्मी दुनिया के बैकड्रॉप पर लिखे लघु उपन्यास 'देश निकाला' के लिए चर्चा में हैं जो सन् 2009 की पहली तिमाही में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से पुस्तक रूप में छपने के लिए घोषित हुआ है।

  • 5 जनवरी 2007 से प्रत्येक शुक्रवार हिंदी फिल्म देख कर फिल्म समीक्षा लिखने का काम संभाला है जो आज तक जारी है। इस नयी भूमिका का बीज सन् 2006 के गोवा फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग के दौरान विकसित हुआ था। सिनेमा पर भी एक किताब वाणी प्रकाशन से आने को है।

  • पुरस्कार : पहला महत्वपूर्ण पुरस्कार 1987 में दिल्ली में मिला : राष्ट्रीय संस्कृति पुरस्कार जो मशहूर पेंटर एम.एफ. हुसैन के हाथों स्वीकार किया। पत्रकारिता के लिए पहला महत्वपूर्ण पुरस्कार सन् 1994 में मिला : मौलाना अबुल कलाम आजाद पत्रकारिता पुरस्कार, मुंबई में। सन् 1996 में इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाजे गये।

  • अतिरिक्त : एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह जापान के ओसाका विश्वविद्यालय के एम.ए. (हिंदी) पाठयक्रम में शामिल। एक कहानी गोवा विश्वविद्यालय के बी. ए. के पाठयक्रम में शामिल। एक कहानी गढ़वाल विश्वविद्यालय के बी. ए. के पाठयक्रम में शामिल। मुंबई, हरियाणा और कर्नाटक के विश्वविद्यालयों में विभिन्न पुस्तकों पर लघु शोध (एम. फिल) जारी।

  • विशेषता : अपनी पीढ़ी के कथाकारों में धीरेन्द्र अस्थाना अपनी उस पारदर्शी व बहुआयामी भाषा के लिए विशेष रूप से याद किए जाते हैं जो उनकी रचनाओं को हृदयस्पर्शी बनाती है।

  • संपर्क : dhirendraasthana@yahoo.com dhirendra.asthana@rashtriyasahara.com



Monday, May 4, 2009

पापा की सज़ा- तेजेन्द्र शर्मा

तेजेन्द्र शर्मा हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं। हिन्दी के बहुत कम ऐसे प्रवासी लेखक हैं जिनके लेखन में साहित्यकता की झलक मिलती है। तेजेन्द्र की कहानियों में लंदन में रह रहे भारतीयों या यूँ कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का जीवन चलता-फिरता है। आज हम इसी कथाकार की एक कहानी 'पापा की सजा' लेकर उपस्थित हैं।


पापा की सज़ा


पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?

उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था - मेरे पापा ने मेरी मां की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा?


"रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता।"
पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहां के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी मां हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।

पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहां के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !'

ममी दहशत से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं मां पर हाथ ना उठा दें, लेकिन मां इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। मां का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी।

रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।

"मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी।"
मुझे और मां को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।

'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'

'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊंगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'

मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी मांगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।

मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

पापा के जीवन को कैसे मैनेज करूं, समझ नहीं आ रहा था। ध्यान हर वक्त फ़ोन की ओर ही लगा रहता था। डर, कि कहीं ममी का फ़ोन न आ जाए और वह रोती हुई कहें कि पापा ने आत्महत्या कर ली है।


फ़ोन आया लेकिन फ़ोन ममी का नहीं था। फ़ोन पड़ोसन का था - मिसेज़ जोन्स। हमारी बंद गली के आख़री मकान में रहती थी, ' जेनी, दि वर्स्ट हैज़ हैपण्ड।.. युअर पापा... ' और मैं आगे सुन नहीं पा रही थी। बहुत से चित्र बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़रने लगे। पापा ने ज़हर खाई होगी, रस्सी से लटक गये होंगे या फिर रेल्वे स्टेशन पर.. .
मिसेज़ जोन्स ने फिर से पूछा, 'जेनी तुम लाइन पर हो न?'

'जी।' मैं बुदबुदा दी।

'पुलिस को भी तुम्हारे पापा ने ख़ुद ही फ़ोन कर दिया था। ...आई एम सॉरी माई चाइल्ड। तुम्हारी मां मेरी बहुत अच्छी सहेली थी।'

'...थी? ममी को क्या हुआ?' मैं अचकचा सी गई थी। 'आत्महत्या तो पापा ने की है न?'

' नहीं मेरी बच्ची, तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है। 'और मैं सिर पकड़ कर बैठ गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समाचार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी। पापा ने ये क्या कर डाला। अपने हाथों से अपने जीवनसाथी को मौत की नींद सुला दिया !

पापा ने ऐसे क्यों किया होगा? मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ थी। केनेथ अपने काम पर गये हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया क्या हो। एकाएक पापा के प्रति मेरे दिल में नफ़रत और गुस्से का एक तूफ़ान सा उठा। फिर मुझे उबकाई का अहसास हुआ; पेट में मरोड़ सा उठा। मेरे साथ यह होता ही है। जब कभी कोई दहला देने वाला समाचार मिलता है, मेरे पेट में मरोड़ उठते ही हैं।

हिम्मत जुटाने की आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। मैं अपने पापा को एक कातिल के रूप में कैसे देख पाऊंगी। एक विचित्र सा ख्याल दिल में आया, काश! अगर मेरी ममी को मरना ही था, उनकी हत्या होनी ही थी तो कम से कम हत्यारा तो कोई बाहर का होता। मैं और पापा मिल कर इस स्थिति से निपट तो पाते। अब पापा नाम के हत्यारे से मुझे अकेले ही निपटना था। मैं कहीं कमज़ोर न पड़ जाऊं.. .

ममी को अंतिम समय कैसे महसूस हो रहा होगा..! जब उन्होंने पापा को एक कातिल के रूप में देखा होगा, तो ममी कितनी मौतें एक साथ मरी होंगी..! क्या ममी छटपटाई होगी..! क्या ममी ने पापा पर भी कोई वार किया होगा..! सारी उम्र पापा को गॉड मानने वाली ममी ने अंतिम समय में क्या सोचा होगा..! ममी.. प्रामिस मी, यू डिड नॉट डाई लाईक ए कावर्ड, मॉम आई एम श्योर यू मस्ट हैव रेज़िस्टिड..!


मैने हिम्मत की और घर को ताला लगाया। बाहर आकर कार स्टार्ट की और चल दी उस घर की ओर जिसे अपना कहते हुए आज बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। ममी दुनियां ही छोड़ गईं और पापा - जैसे अजनबी से लग रहे थे। रास्ते भर दिमाग़ में विचार खलबली मचाते रहे। मेरे बचपन के पापा जो मुझे गोदी में खिलाया करते थे..! मुझे स्कूल छोड़ कर आने वाले पापा .. ..! मेरी ममी को प्यार करने वाले पापा.. ..! घर में कोई बीमार पड़ जाए तो बेचैन होने वाले पापा ..! ट्रेन ड्राइवर पापा ..! ममी और मुझ पर जान छिड़कने वाले पापा ..! कितने रूप हैं पापा के, और आज एक नया रूप - ममी के हत्यारे पापा ..! कैसे सामना कर पाऊंगी उनका.. ..! उनकी आंखों में किस तरह के भाव होंगे..! सोच कहीं थम नहीं रही थी।

मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी। ममी का शव एक पीले रंग के प्लास्टिक में रैप किया हुआ था। ... मैनें ममी को देखना चाहा..मैं ममी के चेहरे के अंतिम भावों को पढ़ लेना चाहती थी।.. देखना चाहती थी कि क्या ममी ने अपने जीवन को बचाने के लिये संघर्ष किया या नहीं। अब पहले ममी की लाश - कितना कठिन है ममी को लाश कह पाना - का पोस्टमार्टम होगा। उसके बाद ही मैं उनका चेहरा देख पाऊंगी।

एक कोने में पापा बैठे थे। पथराई सी आंखें लिये, शून्य में ताकते पापा। मैं जानती थी कि पापा ने ही ममी का ख़ून किया है। फिर भी पापा ख़ूनी क्यों नहीं लग रहे थे ? .. पुलिस कांस्टेबल हार्डिंग ने बताया कि पापा ने स्वयं ही उन्हें फ़ोन करके बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है।

पापा ने मेरी तरफ़ देखा किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उनका चेहरा पूरी तरह से निर्विकार था। पुलिस जानना चाह्यती थी कि पापा ने ममी की हत्या क्यों की। मेरे लिये तो जैसे यह जीने और मरने का प्रश्न था। पापा ने केवल ममी की हत्या भर नहीं की थी – उन्होंने हम सब के विश्वास की भी हत्या की थी। भला कोई अपने ही पति, और वो भी सैंतीस वर्ष पुराने पति, से यह उम्मीद कैसे कर सकती है कि उसका पति उसी नींद में ही हमेशा के लिये सुला देगा।

पापा पर मुकद्दमा चला। अदालत ने पापा के केस में बहुत जल्दी ही निर्णय भी सुना दिया था। जज ने कहा, "मैं मिस्टर ग्रीयर की हालत समझ सकता हूं। उन्होंने किसी वैर या द्वेश के कारण अपनी पत्नी की हत्या नहीं की है। दरअसल उनके इस व्यवहार का कारण अपनी पत्नी के प्रति अतिरिक्त प्रेम की भावना है। किन्तु हत्या तो हत्या है। हत्या हुई है और हत्यारा हमारे सामने है जो कि अपना जुर्म कबूल भी कर रहा है। मिस्टर ग्रीयर की उम्र का ध्यान रखते हुए उनके लिये यही सज़ा काफ़ी है कि वे अपनी बाकी ज़िन्दगी किसी ओल्ड पीपल्स होम में बिताएं। उन्हें वहां से बाहर जाने कि इजाज़त नहीं दी जायेगी। लेकिन उनकी पुत्री या परिवार का कोई भी सदस्य जेल के नियमों के अनुसार उनसे मुलाक़ात कर सकता है। दो साल के बाद, हर तीन महीने में एक बार मिस्टर ग्रीयर अपने घर जा कर अपने परिवार के सदस्यों से मुलाक़ात कर सकते हैं।"


मैं चिढ़चिढ़ी होती जा रही थी। कैनेथ भी परेशान थे। बहुत समझाते, बहलाते। किन्तु मैं जिस यन्त्रणा से गुज़र रही थी वो किसी और को कैसे समझा पाती। किसी से बात करने को दिल भी नहीं करता था। कैनेथ ने बताया कि वोह दो बार पापा को जा कर मिल भी आया है। समझ नहीं आ रहा था कि उसका धन्यवाद करूं या उससे लड़ाई करूं।

कैनेथ ने मुझे समझाया कि मेरा एक ही इलाज है। मुझे जा कर अपने पापा से मिल आना चाहिये। यदि जी चाहे तो उनसे ख़ूब लड़ाई करूं। कोशिश करूं कि उन्हें माफ़ कर सकूं। क्या मेरे लिये पापा को माफ़ कर पाना इतना ही आसान है? तनाव है कि बढ़ता ही जा रहा है। सिर दर्द से फटता रहता है। पापा का चेहरा बार बार सामने आता है। फिर अचानक मां की लाश मुझे झिंझोड़ने लगती है।

मेरी बेटी का जन्मदिन आ पहुंचा है, "ममी मेरा प्रेज़ेन्ट कहां है?" मैं अचानक अपने बचपन में वापिस पहुंच गई हूं। पापा एकदम सामने आकर खड़े हो गये हैं। मेरी बेटी को उसका जन्मदिन का तोहफ़ा देने लगे हैं ।

अगले ही दिन मैं पहुंच गई अपने पापा को मिलने। इतनी हिम्मत कहां से जुटाऊं कि उनकी आंखों में देख सकूं। कैसे बात करूं उनसे। क्या मैं उनको कभी भी माफ़ कर पाऊंगी? दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा करता रहा, और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहां खड़ी हो गयीं। लगी पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी मां से बातें कर रहे थे।

मैं वापिस चल दी, बिना पापा से बात किये। हां, पापा के लिये यही सज़ा ठीक है कि वे सारी उम्र मां को ऐसे ही ख़्यालों में महसूस करें, उसके बिना अपना बाकी जीवन जियें, उनकी अनुपस्थिति पापा को ऐसे ही चुभती रहे।

जाओ पापा मैंने तुम्हें अपनी ममी का ख़ून माफ़ किया।



तेजेन्द्र शर्मा
  • 21 अक्टूबर, 1952 को पंजाब के शहर जगराँव में जन्म।

  • मूलतः पंजाबी भाषी

  • स्कूली पढ़ाई दिल्ली के अंधा मुग़ल क्षेत्र के सरकारी स्कूल से

  • दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अँग्रेज़ी एवं एम.ए. अँग्रेज़ी, कम्प्यूटर कार्य में डिप्लोमा

  • वर्तमान में लंदन के ओवरग्राउण्ड रेल्वे में कार्यरत।

  • काला सागर (1990), ढिबरी टाईट (1994 - पुरस्कृत), देह की कीमत (1999), ये क्या हो गया? (2003), बेघर आँखें (2007) [कहानी-संग्रह], ये घर तुम्हारा है... (2007) [कविता-ग़ज़ल संग्रह] प्रकाशित

  • भारत एवं इंग्लैंड की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख, समीक्षाएँ एवं ग़ज़लें प्रकाशित

  • लेखक के लेखन एवं व्यक्तित्व पर आधारित पुस्तक वक़्त के आइने में प्रकाशित – संपादक हरि भटनागर

  • अँग्रेज़ी में: 1. Black & White – the Biography of a Banker (2007), 2. John Keats - TheTwo Hyperions (1978) 3. Lord Byron - Don Juan (1977)

  • दूरदर्शन के लिए "शांति" सीरियल का लेखन।

  • अन्नु कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म "अभय" में नाना पाटेकर के साथ अभिनय

  • बी.बी.सी. लन्दन, ऑल इंडिया रेडियो व दूरदर्शन के कार्यक्रमों की प्रस्तुति, नाटकों में भाग एवं समाचार वाचन

  • ऑल इंडिया रेडियो व सनराईज़ रेडियो लन्दन से बहुत सी कहानियों का प्रसारण।

  • संपादन : पुरवाई - इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाली पत्रिका का दो वर्ष तक सम्पादन।

  • पुरस्कार : 1. ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1995 (प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों।)
    2. सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार - 1998
    3. सुपथगा सम्मान -1987
    4. कृति यू.के. द्वारा वर्ष 2002 के लिये "बेघर आँखें" को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार
    5. प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007)
    6. तितली बाल पत्रिका का साहित्य सम्मान – बरेली (2007)
    7. भारतीय उच्चायोग लन्दन द्वारा वर्ष 2007 का हरिवंश राय बच्चन सम्मान।

  • विशेष : वर्ष 1995 से "इंदु शर्मा कथा सम्मान" की स्थापना।

  • वर्ष 2000 से ही इंग्लैंड में रह कर हिन्दी साहित्य रचने वाले साहित्यकारों को सम्मानित करने हेतु "पद्मानंद साहित्य सम्मान" की शुरुआत की गई।
    कथा यू.के. के माध्यम से लन्दन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन।
    लन्दन में कहानी मंचन की शुरुआत "वापसी" से की।
    लन्दन एवं बेजिंगस्टोक में अहिंदी भाषी कलाकारों को लेकर हिन्दी नाटक "हनीमून" का सफल निर्देशन एवं मंचन।
  • अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन : 1999 में छठे हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी और अगामी पीढ़ी" विषय पर एक पर्चा पढ़ा, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। सम्मेलन के एक सत्र का संचालन किया और कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।
    2002 में त्रिनिडाड में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी एवं इंग्लैड का पाठ्यक्रम" विषय पर एक पर्चा पढ़ा। वहीं आयोजित एक कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।

  • लन्दन, मेनचेस्टर, ब्रेडफ़र्ड व बर्मिंघम में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य-पाठ

  • यॉर्क विश्विद्यालय में कहानी कार्यशाला करने वाले ब्रिटेन के पहले हिन्दी साहित्यकार।

  • सम्पर्क : kahanikar@hotmail.com